Book Title: Adhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Author(s): Ravindra
Publisher: Kanjiswami Smarak Trust Devlali

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Page 228
________________ 227 आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह जयमाला चिन्मय हो, चिद्रूप प्रभु ! ज्ञाता मात्र चिदेश। शोध-प्रबन्ध चिदात्म के, सृष्टा तुम ही एक ।। जगाया तुमने कितनी बार, हुआ नहिं चिर-निद्रा का अन्त । मदिर सम्मोहन ममता का, अरे ! बेचेत पड़ा मैं सन्त ।। घोर तम छाया चारों ओर, नहीं निज सत्ता की पहिचान। निखिल जड़ता दिखती सप्राण, चेतना अपने से अनजान ॥ ज्ञान की प्रतिपल उठे तरंग, झाँकता उसमें आतमराम । अरे! आबाल सभीगोपाल,सुलभसबको चिन्मय अभिराम ।। किंतु पर सत्ता में प्रतिबद्ध, कीर-मर्कट-सी गहल अनन्त । अरे ! पाकर खोया भगवान, न देखा मैंने कभी बसन्त ॥ नहीं देखा निज शाश्वत देव, रही क्षणिका पर्यय की प्रीति। क्षम्य कैसे हों ये अपराध ? प्रकृति की यही सनातन रीति॥ अतः जड़ कर्मों की जंजीर, पड़ी मेरे सर्वात्म प्रदेश । और फिर नरक निगोदों बीच, हुए सब निर्णय हे सर्वेश॥ घटाघन विपदा की बरसी, कि टूटी शंपा मेरे शीश। नरक में पारद-सा तन टूक, निगोदों मध्य अनन्ती मीच ॥ करें क्या स्वर्ग सुखों की बात, वहाँ की कैसी अद्भुत टेव। अन्त में बिलखे छह-छह मास, कहें हम कैसे उसको देव ।। दशा चारों गति की दयनीय, दया का किन्तु न यहाँ विधान । शरण जो अपराधी को दे, अरे ! अपराधी वह भगवान ।। अरे ! मिट्टी की काया बीच, महकता चिन्मय भिन्न अतीव। शुभाशुभ की जड़ता तो दूर, पराया ज्ञान वहाँ परकीय ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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