Book Title: Adhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Author(s): Ravindra
Publisher: Kanjiswami Smarak Trust Devlali

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Page 226
________________ 225 आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह श्री सिद्ध पूजन - बाबू युगलजी (हरिगीतका एवं दोहा) निज वज्रपौरुष से प्रभो ! अन्तरकलुष सब हर लिये। प्रांजल प्रदेश-प्रदेश में, पीयूष निर्झर झर गये । सर्वोच्च हो अतएव बसते लोक के उस शिखर रे। तुम को हृदय में स्थाप, मणि-मुक्ता चरण को चूमते॥ ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपते सिद्धपरमेष्ठिन् ! अत्र अवतर अवतर ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपते सिद्धपरमेष्ठिन् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपते सिद्धपरमेष्ठिन् !अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् शुद्धातम-सा परिशुद्ध प्रभो ! यह निर्मल नीर चरण लाया। मैं पीड़ित निर्मम ममता से, अब इसका अन्तिम दिन आया। तुम तो प्रभु अंतर्लीन हुए, तोड़े कृत्रिम सम्बन्ध सभी। मेरे जीवन-धन तुमको पा, मेरी पहली अनुभूति जगी॥ ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने जन्म-मरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं नि. मेरे चैतन्य-सदन में प्रभु ! धू धू क्रोधानल जलता है। अज्ञानअमा के अंचल में, जो छिपकर पल-पल पलता है। प्रभु ! जहाँ क्रोध का स्पर्श नहीं, तुम बसो मलय की महकों में। मैं इसीलिए मलयज लाया क्रोधासुर भागे पलकों में। ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने संसारताप-विनाशनाय चंदनं नि. स्वाहा । अधिपति प्रभु! धवल भवन के हो, और धवल तुम्हारा अन्तस्तल। अन्तर के क्षत सब विक्षत कर, उभरा स्वर्णिम सौंदर्य विमल ॥ मैं महा मान से क्षत-विक्षत, हूँ खंड खंड लोकांत-विभो। मेरे मिट्टी के जीवन में, प्रभु अक्षत की गरिमा भर दो॥ ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं नि. स्वाहा । चैतन्य-सुरभि की पुष्प वाटिका, में विहार नित करते हो। माया की छाया रंच नहीं, हर बिन्दु सुधा की पीते हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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