Book Title: Adhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Author(s): Ravindra
Publisher: Kanjiswami Smarak Trust Devlali

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Page 227
________________ आध्यात्मिक पूजन- विधान संग्रह निष्काम प्रवाहित हर हिलोर, क्या काम काम की ज्वाला से । प्रत्येक प्रदेश प्रमत्त हुआ, पाताल - मधु - मधुशाला से || ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने कामबाण - विध्वंसनाय पुष्पं नि. स्वाहा । यह क्षुधा देह का धर्म प्रभो ! इसकी पहिचान कभी न हर पल तन में ही तन्मयता, क्षुत् - तृष्णा अविरल पीन हुई || आक्रमण क्षुधा का सह्य नहीं, अतएव लिये हैं व्यंजन ये । सत्वर तृष्णा को तोड़ प्रभो ! लो, हम आनंद भवन पहुँचे ॥ ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा । विज्ञान नगर के वैज्ञानिक, तेरी प्रयोगशाला विस्मय । कैवल्य-कला में उमड़ पड़ा, सम्पूर्ण विश्व का ही वैभव ॥ पर तुम तो उससे अति विरक्त, नित निरखा करते निज निधियाँ । अतएव प्रतीक प्रदीप लिये, मैं मना रहा दीपावलियाँ | ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोहान्धकार- विनाशनाय दीपं नि. स्वाहा । तेरा प्रासाद महकता प्रभु ! अति दिव्य दशांगी धूपों से । अतएव निकट नहिं आ पाते, कर्मों के कीट-पतंग अरे ॥ यह धूप सुरभि - निर्झरणी, मेरा पर्यावरण विशुद्ध हुआ । छक गया योग-निद्रा में प्रभु ! सर्वांग अमी है बरस रहा || ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अष्टकर्म - दहनाय धूपं नि. स्वाहा । निजलीन परमस्वाधीन बसो, प्रभु! तुम सुरम्य शिवनगरी में । प्रतिपल बरसात गगन से हो, रसपान करो शिवगगरी में || ये सुरतरुओं के फल साक्षी, यह भवसंतति का अंतिम क्षण । प्रभु मेरे मंडप में आओ, है आज मुक्ति का उद्घाटन || ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोक्षफल प्राप्तये फलं नि. स्वाहा । तेरे विकीर्ण गुण सारे प्रभु ! मुक्ता मोदक से सघन हुए । अतएव रसास्वादन करते, रे ! घनीभूत अनुभूति लिये || हे नाथ ! मुझे भी अब प्रतिक्षण निज - अन्तरवैभव की मस्ती । है आज अर्घ्य की सार्थकता, तेरी अस्ति मेरी बस्ती || ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्यं नि. स्वाहा । Jain Education International - 226 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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