Book Title: Adhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Author(s): Ravindra
Publisher: Kanjiswami Smarak Trust Devlali

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Page 223
________________ 222 आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह अक्षत का अक्षत सम्बल ले, अक्षत साम्राज्य लिया तुमने। अक्षत विज्ञान दिया जग को, अक्षत ब्रह्माण्ड किया तुमने । मैं केवल अक्षत अभिलाषी, अक्षत अतएव चरण लाया। निर्वाणशिला के संगम-सा, धवलाक्षत मेरे मन भाया ।। ॐ ह्रीं श्री सीमंधर जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतम् नि. स्वाहा। तुम सुरभित ज्ञानसुमन हो प्रभु, नहिं राग-द्वेष दुर्गन्ध कहीं। सर्वांग सुकोमल चिन्मय तन, जग से कुछ भी सम्बन्ध नहीं । निज अन्तर्वास सुवासित हो, शून्यान्तर पर की माया से। चैतन्य विपिन के चितरंजन, हो दूर जगत की छाया से ॥ सुमनों से मन को राह मिली, प्रभु कल्पवेलि से यह लाया। इनको पा चहक उठा मन-खग, भर चोंच चरण में ले आया। ॐ ह्रीं श्री सीमंधरजिनेन्द्राय कामबाण विध्वंशनाय पुष्पम् नि. स्वाहा। आनन्द रसामृत के द्रह हो, नीरस जड़ता का दान नहीं। तुम मुक्त क्षुधा के वेदन से, षट्स का नाम निशान नहीं। विध-विध व्यंजन के विग्रह से, प्रभु भूख न शांत हुई मेरी। आनन्द सुधारस निर्झर तुम, अतएव शरण ली प्रभु तेरी।। चिर-तृप्ति-प्रदायी व्यंजन से, हों दूर क्षुधा के अंजन ये। क्षुत्पीड़ा कैसे रह लेगी ! जब पाये नाथ निरंजन से॥ ॐ ह्रीं श्री सीमंधरजिनेन्द्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यम् नि. स्वाहा। चिन्मय विज्ञानभवन अधिपति, तुम लोकालोक प्रकाशक हो। कैवल्यकिरण से ज्योतित प्रभु, तुम महामोहतम नाशक हो॥ तुम हो प्रकाश के पुँज नाथ, आवरणों की परछाँह नहीं। प्रतिबिंबित पूरी ज्ञेयावली, पर चिन्मयता को आँच नहीं। ले आया दीपक चरणों में, रे ! अन्तर आलोकित कर दो। प्रभु तेरे-मेरे अन्तर को, अविलम्ब निरन्तर से भर दो। ॐ ह्रीं श्री सीमंधरजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपम् नि. स्वाहा। धू धू जलती दुख की ज्वाला, प्रभु त्रस्त निखिल जगती तल है। बेचेत पड़े सब देही हैं, चलता फिर राग प्रभंजन है ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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