Book Title: Adhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Author(s): Ravindra
Publisher: Kanjiswami Smarak Trust Devlali

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Page 216
________________ 215 आध्यात्मिक पूजन- विधान संग्रह समुच्चय पूजन - ब्र. सरदारमलजी (श्री देव - शास्त्र - गुरु, विदेहक्षेत्र में विद्यमान बीस तीर्थंकर, सिद्धपूजन) (दोहा) देव - -शास्त्र-गुरु नमनकरि, बीस तीर्थंकर ध्याय । सिद्ध शुद्ध राजत सदा, नमूँ चित्त हुलसाय ॥ ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह ! श्री विद्यमान विंशति तीर्थंकर समूह अनन्तानंत सिद्ध परमेष्ठी समूह ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं । - अनादिकाल से जग में स्वामिन् जल से शुचिता को माना । शुद्ध निजातम सम्यक्, रत्नत्रयनिधि को नहिं पहचाना ॥ अब निर्मल रत्नत्रयजल ले, श्री देव शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ । विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥ ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यः, श्री विदेहक्षेत्रे विद्यमान विंशति तीर्थङ्करेभ्यः श्री अनन्तानंतसिद्धपरमेष्ठिभ्यः जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् नि. । भव आताप मिटावन की निज में ही क्षमता समता है । अनजाने ही अब तक मैंने पर में की झूठी ममता है | चन्दन सम शीतलता पाने श्री देव - शास्त्र - गुरु को ध्याऊँ ॥ विद्यमान ॥ ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यः, श्री विदेहक्षेत्रे विद्यमान विंशति तीर्थङ्करेभ्यः श्री अनन्तानंत सिद्धपरमेष्ठिभ्यः, संसार तापविनाशनाय चन्दनं नि. स्वाहा । अक्षयपद बिन फिरा जगत की, लख चौरासी योनि में । अष्टकर्म के नाश करन को, अक्षत तुम ढिंग लाया मैं | Jain Education International अक्षयनिधि निज की पाने अब, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ ॥ विद्यमान ॥ ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यः, श्री विदेहक्षेत्रे विद्यमान विंशति तीर्थङ्करेभ्यः श्री अनन्तानंत सिद्धपरमेष्ठिभ्योऽक्षयपदप्राप्तये अक्षतं नि. स्वाहा । पुष्प सुगन्धी से आतम ने, शील स्वभाव नशाया है । मन्मथ वाणों से बिंध करके, चहुँगति दुख उपजाया है ॥ स्थिरता निज में पाने को श्री देव -शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ ॥ विद्यमान ॥ ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यः, श्री विद्यमान विदेहक्षेत्रे विंशति तीर्थङ्करेभ्यः श्री अनन्तानंत सिद्धपरमेष्ठिभ्यः कामबाणविध्वंशनाय पुष्पं नि. स्वाहा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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