Book Title: Adhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Author(s): Ravindra
Publisher: Kanjiswami Smarak Trust Devlali

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Page 217
________________ 216 आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह षट्रस मिश्रित भोजन से, ये भूख न मेरी शान्त हुई । आतम रस अनुपम चखने से, इन्द्रिय मन इच्छा शमन हुई ।। सर्वथा भूख के मेटन को, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ । विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ। ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यः, श्री विदेहक्षेत्रे विद्यमान विंशति तीर्थङ्करेभ्यः श्री अनन्तानंत सिद्धपरमेष्ठिभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा । जड़दीप विनश्वर को, अबतक समझा था मैंने उजियारा । निजगुण दरशायक ज्ञानदीप से, मिटा मोह का अंधियारा॥ ये दीप समर्पित करके मैं श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ ।विद्यमान.।। ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यः, श्री विद्यमान विदेहक्षेत्रे विंशति तीर्थङ्करेभ्यः श्री अनन्तानंत सिद्धपरमेष्ठिभ्यः मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि. स्वाहा। ये धूप अनल में खेने से, कर्मों को नहीं जलायेगी। निज में निज की शक्ति ज्वाला, जो राग द्वेष नशायेगी। उस शक्ति दहन प्रगटाने को, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ।विद्यमान.।। ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यः, श्री विदेहक्षेत्रे विद्यमान विंशति तीर्थङ्करेभ्यः श्री अनन्तानंत सिद्धपरमेष्ठिभ्योऽष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। पिस्ता बदाम, श्रीफल,लवंग चरणन तुम ढिंगमैं ले आया। आतमरस भीने निजगुण फल, मम मन अब उनमेंललचाया॥ अब मोक्ष-महाफल पाने को, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ।विद्यमान.॥ ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यः, श्री विदेहक्षेत्रे विद्यमान विंशति तीर्थङ्करेभ्यः श्री अनन्तानंत सिद्धपरमेष्ठिभ्यः, मोक्षफल प्राप्तये फलं नि. स्वाहा । अष्टम बसुधा पाने को, कर में ये आठों द्रव्य लिये। सहजशुद्ध स्वाभाविकता से निज में निजगुण प्रकट किये। ये अर्घ्य समर्पण करके मैं श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ ।विद्यमान.।। ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यः, श्री विदेहक्षेत्रे विद्यमान विंशति तीर्थकरेभ्यः श्री अनन्तानंतसिद्धपरमेष्ठिभ्योऽनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि. स्वाहा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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