Book Title: Adhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Author(s): Ravindra
Publisher: Kanjiswami Smarak Trust Devlali

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Page 220
________________ 219 आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह मैं क्षुधा रोग से व्याकुल हूँ, चारों गति में भरमाया हूँ। जग के सारे पदार्थ पाकर भी तृप्त नहीं हो पाया हूँ। नैवेद्य समर्पित करता हूँ, यह क्षुधा रोग मेटो स्वामी । हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव दुःख मेटो अन्तर्यामी।। ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा। मोहान्ध महा अज्ञानी मैं, निज को पर का कर्ता माना। मिथ्यातम के कारण मैंने, निज आत्म स्वरूप न पहिचाना॥ मैं दीप समर्पण करता हूँ, मोहांधकार क्षय हो स्वामी ।।हे पंच..॥ ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्यः मोहांधकारविनाशनाय दीपम् नि. स्वाहा। कर्मों की ज्वाला धधक रही, संसार बढ़ रहा है प्रतिपल। संवर से आस्रव को रोकूँ, निर्जरा सुरभि महके पल-पल ।। मैं धूप चढ़ाकर अब आठों, कर्मों का हनन करूँ स्वामी ॥ हे पंच..।। ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्योऽष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा। निज-आत्मतत्त्व का मनन करूँ,चितवन करूँ निजचेतन का। दो श्रद्धा ज्ञान चरित्र श्रेष्ठ, सच्चा पथ मोक्ष निकेतन का ॥ उत्तम फल चरण चढ़ाता हूँ, निर्वाण महाफल हो स्वामी ।। हे पंच..॥ ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्यः मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा । जल चंदन अक्षत पुष्प दीप, नैवेद्य धूप फल लाया हूँ। अब तक के संचित कर्मों का, मैं पुञ्ज जलाने आया हूँ॥ यह अर्घ्य समर्पित करता हूँ, अविचल-अनर्घ्यपद दोस्वामी हेपंच..॥ ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्योऽनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। जयमाला जय वीतराग सर्वज्ञ प्रभो, निज ध्यान लीन गुणमय अपार। अष्टादश दोष रहित जिनवर, अहँत देव को नमस्कार ।। अविकल अविकारी अविनाशी, निजरूप निरंजन निराकार। जय अजर अमर हे मुक्तिकंत, भगवंत सिद्ध को नमस्कार ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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