Book Title: Adhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Author(s): Ravindra
Publisher: Kanjiswami Smarak Trust Devlali

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Page 192
________________ 191 आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह जिनमार्ग कितना सुन्दर, कितना सुखमय, अहो सहज जिनपंथ है। धन्य धन्य स्वाधीन निराकुल, मार्ग परम निर्ग्रन्थ है।।टेक।। श्री सर्वज्ञ प्रणेता जिसके, धर्म पिता अति उपकारी। तत्त्वों का शुभ मर्म बताती, माँ जिनवाणी हितकारी। अंगुली पकड़ सिखाते चलना, ज्ञानी गुरु निर्ग्रन्थ हैं॥धन्य.॥१॥ देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा ही, समकित का सोपान है। महाभाग्य से अवसर आया, करो सही पहिचान है। पर की प्रीति महा दुखःदायी, कहा श्री भगवंत है॥धन्य.॥२॥ निर्णय में उपयोग लगाना ही, पहला पुरुषार्थ है। तत्त्व विचार सहित प्राणी ही, समझ सके परमार्थ है। भेद ज्ञान कर करो स्वानुभव, विलसे सौख्य बसंत है॥धन्य.॥३॥ ज्ञानाभ्यास करो मनमाहीं, विषय-कषायों को त्यागो। कोटि उपाय बनाय भव्य, संयम में ही नित चित पागो॥ ऐसे ही परमानन्द वेदें, देखो ज्ञानी संत हैं ॥धन्य.॥४॥ रत्नत्रयमय अक्षय सम्पत्ति, जिनके प्रगटी सुखकारी। अहो शुभाशुभ कर्मोदय में, परिणति रहती अविकारी ॥ उनकी चरण शरण से ही हो, दुखमय भव का अंत है ॥धन्य.॥५॥ क्षमाभाव हो दोषों के प्रति, क्षोभ नहीं किंचित् आवे । समता भाव आराधन से निज, चित्त नहीं डिगने पावे ॥ उर में सदा विराजें अब तो, मंगलमय भगवंत हैं ॥धन्य.॥६॥ हो निशंक, निरपेक्ष परिणति, आराधन में लगी रहे। क्लेशित हो नहीं पापोदय में, जिनभक्ति में पगी रहे। पुण्योदय में अटक न जावे, दीखे साध्य महंत है।धन्य.||७|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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