Book Title: Adhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Author(s): Ravindra
Publisher: Kanjiswami Smarak Trust Devlali

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Page 206
________________ 205 आध्यात्मिक पूजन- विधान संग्रह विद्यमान बीस तीर्थंकर वंदना - पण्डित अभयकुमारजी स्वचतुष्टय की सीमा में, सीमित हैं सीमन्धर भगवान । किन्तु असीमित ज्ञानानन्द से सदा सुशोभित हैं गुणखान ॥ १ ॥ युगल धर्ममय वस्तु बताते नय-प्रमाण भी उभय कहे । युगमन्धर के चरण - युगल में, दर्श-ज्ञान मम सदा रमें ॥ २ ॥ दर्शन - ज्ञान बाहुबल धरकर, महाबली हैं बाहु जिनेन्द्र | मोह शत्रु को किया पराजित शीष झुकाते हैं शत इन्द्र ॥ ३ ॥ जो सामान्य - विशेष रूप उपयोग सुबाहु सदा धरते । श्री सुबाहु के चरण कमल में भविजन नित वन्दन करते ॥४ ॥ शुद्ध स्वच्छ चेतनता ही है जिनकी सम्यक् जाति महान । अन्तर्मुख परिणति में लखते वन्दन संजातक भगवान ॥ ५ ॥ निजस्वभाव से स्वयं प्रगट होती है जिनकी प्रभा महान । लोकालोक प्रकाशित होता धन्य स्वयंप्रभ प्रभु का ज्ञान ॥ ६ ॥ चेतनरूप वृषभमय आनन से जिनकी होती पहिचान । वृषभानन प्रभु के चरणों में नमकर परिणति बने महान ॥ ७ ॥ वीर्य अनन्त प्रगट कर प्रभुवर भोगें निज आनन्द महान । ज्ञान लखें ज्ञेयाकारों में धन्य अनन्तवीर्य भगवान ॥ ८ ॥ Jain Education International सूर्यप्रभा भी फीकी पड़ती ऐसी चेतन प्रभा महान । धारण कर जिनराज सूर्यप्रभ देते जग को सम्यग्ज्ञान ॥९ ॥ अहो विशाल कीर्ति धारण कर शत इन्द्रों से वन्दित हैं । श्री विशालकीर्ति जिनवर नित त्रिभुवन से अभिनन्दित हैं ॥ १० ॥ स्वानुभूतिमय वज्र धार कर, मोह शत्रु पर किया प्रहार । वन्दन वज्रधार जिनवर को, भोगें नित आनन्द अपार ॥११॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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