Book Title: Adhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Author(s): Ravindra
Publisher: Kanjiswami Smarak Trust Devlali

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Page 207
________________ 206 आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह चारु-चन्द्र सम आनन जिनका, हरण करे जग का आताप। चन्द्रानन जिन चरण-कमल में प्रक्षालित हों सारे पाप ॥१२।। दर्शन-ज्ञान सुबाहु भद्र लख, भद्र भव्य भूलें आताप। वन्दन भद्रबाहु जिनवर को मोह नष्ट हों अपने आप ॥१३॥ गुण अनन्त वैभव के धारी, सदा भुजंगम जिन परमेश । जिनकी विषय विरक्त वृत्ति लख भोग भुजंग हुए निस्तेज ॥१४|| हे ईश्वर ! जग को दिखलाते निज में ही निज का ऐश्वर्य। निज परिणति में प्रगट हुए हैं दर्शन-ज्ञान-वीर्य-सुख कार्य॥१५॥ निज वैभव की परम प्रभा से, शोभित नेमप्रभ जिनराज। ध्रुव की धुनमय धर्मधुरा से, पाया गुण अनन्त साम्राज्य ॥१६॥ परम अहिंसामय परिणति से शोभित वीरसेन भगवान । गुण अनन्त की सेना में हो व्याप्त द्रव्य तुम वीर महान ॥१७॥ सहज सरल स्वाभाविक गुण से भूषित महाभद्र भगवान । भद्रजनों द्वारा पूजित हैं, अतः श्रेष्ठ हैं भद्र महान ॥१८॥ गुण अनन्त की सौरभ से है जिनका यश त्रिभुवन में व्याप्त । धन्य-धन्य जिनराज यशोधर एक मात्र शिवपथ में आप्त ॥१९॥ मोह शत्रु से अविजित रहकर, अजितवीर्य के धारी हैं। वन्दन अजितवीर्य जिनवर जो त्रिभुवन के उपकारी हैं।॥२०॥ सत्पुरुष के वचन सुनना दुर्लभ है, विचारना दुर्लभ है, तो अनुभवना दुर्लभ हो - इसमें क्या आश्चर्य ? जिन आदतों को हम प्रयत्नपूर्वक पालते हैं, वे हमारा भाग्य बन जाती हैं और फिर हम उनके दास बन जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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