Book Title: Adhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Author(s): Ravindra
Publisher: Kanjiswami Smarak Trust Devlali

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Page 190
________________ 189 आध्यात्मिक पूजन - विधान संग्रह दुःख व्याल से पूरित भव वन, हिंसा अघद्रुम जहाँ अपार । ठौर - ठौर दुर्गति - पल्लीपति, वहाँ भ्रमे यह प्राणि अपार ॥ गुरु प्रकाशित दिव्य पंथ में, गमन करे जो आप मनुष्य । अनुपम - निश्चल मोक्षसौख्य को, पा लेता वह त्वरित अवश्य ॥ ११ ॥ साता और असाता दोनों कर्म और उसके हैं काज । इसीलिए शुद्धात्म तत्त्व से, भिन्न उन्हें माने मुनिराज ॥ भेद भावना में ही जिनका, रात - दिवस रहता है वास । सुख-दुःखजन्य विकल्प कहाँ से, रहते ऐसे भवि के पास ॥ १२ ॥ देव और प्रतिमा पूजन का, भक्ति भाव सह रहता ध्यान । सुनें शास्त्र गुरुजन को पूजें, जब तक है व्यवहार प्रधान ॥ निश्चय से समता से निज में, हुई लीन जो बुद्धि विशिष्ट । वही हमारा तेज पुंजमय, आत्मतत्त्व सबसे उत्कृष्ट ॥१३॥ वर्षा हरे हर्ष को मेरे, दे तुषार तन को भी त्रास । तपे सूर्य मेरे मस्तक पर, काटें मुझको मच्छर डांस | आकर के उपसर्ग भले ही, कर दें इस काया का पात । नहीं किसी से भय है मुझको, जब मन में है तेरी बात ॥ १४ ॥ मुख्य आँख इन्द्रिय कर्षकमय, ग्राम सर्वथा मृतक समान । रागादिक कृषि से चेतन को, भिन्न जानना सम्यक्ज्ञान ॥ जो कुछ होना हो सो होगा. करूँ व्यर्थ ही क्यों मैं कष्ट ? विषयों की आशा तज करके, आराधूं मैं अपना इष्ट ॥ १५॥ कर्मों के क्षय से उपशम से, अथवा गुरु का पा उपदेश बनकर आत्मतत्त्व का ज्ञाता, छोड़े जो ममता निःशेष || करें निरन्तर आत्म-भावना, हों न दुःखों से जो संतप्त । ऐसा साधु पाप से जग में, कमलपत्र सम हो नहिं लिप्त ॥ १६ ॥ " I " गुरु करुणा से मुक्ति प्राप्ति के लिए बना हूँ मैं निर्ग्रन्थ । उसके सुख से इन्द्रिय सुख को, माने चित्त दुःख का पंथ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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