________________
99
आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह द्वेष भाव तो नहीं रहा, रागांश मात्र अवशेष हुआ। ध्यान अग्नि प्रगटी ऐसी, तहाँ कर्मेन्धन सब भस्म हुआ। अहो ! आत्मशुद्धि अद्भुत है, धर्म सुगन्धी फैल रही। दशलक्षण की प्राप्ति करने, प्रभु चरणों की शरण गही।
स्व-सन्मुख हो अनुभवू, ज्ञानानन्द स्वभाव।
निज में ही हो लीनता, विनसैं सर्व विभाव।। ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। सम्यग्दर्शन मूल अहो ! चारित्र वृक्ष पल्लवित हुआ। स्वानुभूतिमय अमृत फल, आस्वादूँ अति ही तृप्त हुआ। मोक्ष महाफल भी आवेगा, निश्चय ही विश्वास अहो। निर्विकल्प हो पूर्ण लीनता, फल पूजा का प्रभु फल हो।
निर्वांछक आनन्दमय, चाह न रही लगार।
भेद न पूजक पूज्य का, फल पूजा का सार ।। ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा । सम्यक् तत्त्व स्वरूप न जाना, नहिं यथार्थतः पूज सका। रागभाव को रहा पोषता, वीतरागता से चूका ॥ काललब्धि जागी अन्तर में, भास रहा है सत्य स्वरूप। पाऊँगा निज सम्यक् प्रभुता, भास रही निज माँहिं अनूप ॥
सेवा सत्य स्वरूप की, ये ही प्रभु की सेव।
जिन सेवा व्यवहार से, निश्चय आतम देव ॥ ॐ ह्रीं श्री आदिनाजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक अर्घ्य
(सोरठा) कलि असाढ़ द्वय जान , सर्वार्थसिद्धि विमान से। आय बसे भगवान, मरुदेवी के गर्भ में।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org