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आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह राज्यकाल में भी प्रभु अंतरंग उदास था,
चित्त में स्व-चित्स्वरूप का ही मात्र वास था। एक दिवस देख द्वार पर बंधे सु हस्ति को,
हुआ सु जाति स्मरण सहज प्रभो विरक्त हो॥४॥ त्याग सर्व परिग्रह साधु दीक्षा धरी,
ध्यान ऐसा किया कर्म प्रकृति हरी। छठवें तीर्थनाथ वर्तमान के हुए,
वज्र चामर आदि शतक गणधर हुए ॥५॥ समवशरण माँहिं अंतरीक्ष मन मोहते,
अष्ट प्रातिहार्य सह अनेक विभव सोहते। ओंकार ध्वनि खिरी तत्त्व दर्शित हुए,
आत्मबोध प्राप्त कर भव्य हर्षित हुए॥६॥ सिद्ध सम शुद्ध बुद्ध आत्मा दिखा दिया,
गुणस्थान आदि से भिन्न दर्शा दिया। मोह आदि दुःखरूप बंध हेतू कहे,
ज्ञानमय संवरादि मुक्ति हेतू कहे ॥७॥ मुक्तिदशा साध्य ध्येय शुद्ध आत्मा कहा,
आत्मदृष्टि धारि पूजते प्रभो ! तुम्हें अहा । साधु-संग होय प्रभु ! असंग रूप ध्याऊँ मैं,
___ आपके प्रसाद सहज सिद्ध स्वपद पाऊँ मैं ॥८॥ ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला अर्घ्यं नि. स्वाहा।
(सोरठा) पद्मप्रभ भगवान, लोक शिखर पर राजते। पाऊँ आतमज्ञान, भाव सहित पूजूं नमूं।
॥ पुष्पांजलिं क्षिपामि ।
दोषों को छिपाने का नहीं, मिटाने का उपाय करो।
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