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आध्यात्मिक पूजन- विधान संग्रह
निष्काम निजानन्द नहिं जाना, भोगों में चित्त लुभाया था । अनुकूल भोग सामग्री पा, इतराया शील नशाया था । अब परम शील सुख पाने को, चिद्रूप आत्मा को ध्याऊँ ॥ धर्मनाथ प्रभु की पूजा कर, परमधर्म निज में पाऊँ ॥ ॐ ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा । ज्ञायकस्वभाव की दृष्टि बिना, स्वाभाविक तृप्ति न पाई थी । रे! क्षुधा रोग से पीड़ित हो, जो वस्तु मिली सब खाई थी । अविनाशी आनन्द पाने को, परिपूर्ण आत्मा को ध्याऊँ ॥ धर्मनाथ ॥ ॐ ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । मोहान्धकार में भटकाया, भव-भव में स्वामिन् दुखी हुआ । निजनिधि अवलोकन करन सका, भव-भव में जन्मा और मुआ ॥
अब सम्यग्ज्ञान प्रकाश मिला, चैतन्य आत्मा को ध्याऊँ ॥ धर्मनाथ ॥ ॐ ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा । अग्नि में खेय दशांग धूप, जग में जो धुआँ उड़ाते हैं । नहिं इससे कर्म नष्ट होते, बहुते प्राणी मर जाते हैं । अब कर्म नशाऊँ ध्यानानल में, ध्येय आत्मा को ध्याऊँ ॥ धर्मनाथ ॥ ॐ ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा । प्रभु पुण्य-पाप के फल पाकर, रति- अरति करें प्राणी जग के । पर पुण्य-पाप को सहज त्याग, ज्ञानी साधक हों शिवमग के ॥ अविनाशी शिवफल पाने को, निर्मुक्त आत्मा को ध्याऊँ ॥ धर्मनाथ ॥ ॐ ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा । बहुबार चढ़ाया द्रव्य अर्घ्य, पर प्रभु स्वरूप से रहा विमुख । कुछ नहीं मूल्य है द्रव्य अर्घ्य का, निज अनर्घ्यपद के सन्मुख ॥ अविचल अनर्घ्यपद पाने को, अब अनुपम शुद्धातम ध्याऊँ ॥ धर्मनाथ . ॥ ॐ ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
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