Book Title: Adhyatma Pravachana Part 1
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 13
________________ २० | अध्यात्म-प्रवचन । रिक्त नहीं है । वह दीन, हीन एवं भिखारी नहीं है । यह मत समझिए कि कर्म - आवरण के कारण जो आत्मा आज संसार में भटक रहा है, वह कभी संसार के बन्धनों से मुक्त न हो सकेगा । इस विराट विश्व का प्रत्येक चेतन अपने स्वयंसिद्ध अध्यात्म - राज्य के सिंहासन पर बैठने का अधिकारी है, उसे भिखारी समझना भूल है भिखारी हर चीज माँगता है और साधक प्रत्येक वस्तु को अपने अन्दर से ही प्राप्त करने का प्रयत्न करता है । मैं आपसे कहता हूँ कि प्रत्येक साधक अधिकारी है, वह भिखारी नहीं है । अधिकारी का अर्थ है- अपनी सत्ता पर विश्वास करने वाला और भिखारी का अर्थ है-अपनी सत्ता पर विश्वास न करके दूसरे की दया और करुणा पर अपना जीवन व्यतीत करने वाला | जैन- दर्शन का तत्व चिन्तन उस ज्योति, प्रकाश और परमात्व-तत्व की खोज कहीं बाहर नहीं, अपने अन्दर ही करता है । वह कहता है कि 'अप्पा सो परमप्पा' अर्थात् आत्मा ही परमात्मा है । 'तत्वमसि' का अर्थ भी यही है कि आत्मा केवल आत्मा ही नहीं है, बल्कि वह स्वयं परमात्मा है, परब्रह्म है और ईश्वर है । मात्र आवश्यकता है - अपने को जागृत करने को और आवरण को दूर फेंक देने की । भारत के कुछ दर्शन केवल प्रकृति की व्याख्या करते हैं, पुद्गल के स्वरूप का ही वे प्रतिपादन करते हैं । भौतिक दर्शन पुद्गल और प्रकृति की सूक्ष्म से सूक्ष्म व्याख्या करता है, किन्तु पुद्गल और प्रकृति से परे आत्म-तत्व तक उसकी पहुँच नहीं है । भौतिकवादी दार्शनिक पुद्गल और प्रकृति के सम्बन्ध में बहुत कुछ कह सकता है और बहुत कुछ लिख भी सकता है, परन्तु वह स्वयं अपने सम्बन्ध में कुछ भी जान नहीं पाता, कुछ भी कह नहीं पाता और कुछ भी लिख नहीं पाता । वह अपने को भी प्रकृति का ही परिणाम मानता है । अपनी स्वतन्त्र सत्ता की ओर उसका लक्ष्य नहीं जाता। इसके विपरीत अध्यात्मवादी दर्शन प्रकृति के वात्याच में न उलझकर आत्मा की बात कहता है । वह कहता है कि आत्मा स्वयं क्या है और वह क्या होना चाहता है ? अध्यात्मवादी दार्शनिक यह सोचता है और विश्वास करता है कि मेरी यह आत्मा यद्यपि मूल स्वरूप की दृष्टि से शुद्ध, बुद्ध, निरञ्जन एवं निर्विकार है, फिर भी जब तक इसके साथ कर्म का संयोग है, जब तक इस पर माया एवं अविद्या का आवरण है, तभी तक यह विविध बन्धनों में बद्ध है । पर जैसे ही यह आत्मा निर्मल हुई कि शुद्ध-बुद्ध होकर समस्त प्रकार के बन्धनों से सदा के लिए विमुक्त हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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