Book Title: Adhyatma Pravachana Part 1
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 12
________________ [ मुक्ति का मार्ग | १६ प्रकार की किसी भी बात में जैन दर्शन की श्रद्धा और मति नहीं है । जैन दर्शन का अपना विचार यही है कि पाप और पुण्य के अनुसार जीव को फल भोग करना पड़ता है । फिर भले ही वह संसार का कोई साधारण व्यक्ति हो अथवा असाधारण व्यक्ति हो । किन्तु संसार-चक्र का एक भी प्राणी ऐसा नहीं है, जो स्वतन्त्र रूप से अपने कर्म का कर्ता और भोक्ता न हो । जब मैं आपसे परम चैतन्य और परम आत्मा की बात कहता हूँ, तब आप इसका अर्थ यह न समझ लें कि वह परम चैतन्य और परम आत्मा तथाकथित विश्वनियंता ईश्वर के रूप में कोई व्यक्ति विशेष है और वह कहीं अन्यत्र रहता है । ईश्वर और परमात्मा कहीं अन्यत्र नहीं, तुम्हारे ही पास में है । तुम्हारे ही पास में क्या, वह तुम्हारे अन्दर ही हैं । और अन्दर की भी बात गलत है, तुम स्वयं ही ईश्वर हो, और परमात्मा हो । किन्तु आपका वर्तमान रूप कुछ इस प्रकार का है कि इसमें आपकी चैतन्य - ज्योति की चमक-दमक पूर्णरूपेण अभिव्यक्त नहीं हो रही है । जब तक राग-द्वेष का, मोह माया का आवरण विद्यमान है, तब तक वह विशुद्ध परम तत्त्व पूर्णतया व्यक्त नहीं हो पाता । किन्तु आप इस बात पर विश्वास कीजिए, कि आप स्वयं ही ईश्वर हैं और स्वयं ही परमात्मा हैं । आप स्वयं ही प्रकाशपुंज उस सूर्य के समान हैं, जो काली घटाओं के बीच घिरा रह कर भी प्रभा एवं प्रकाश के रूप में अपनी अभिव्यक्ति किसी न किसी अंश में करता रहता ही है । सूर्य घटाओं से घिर जाता है, यह सत्य है । किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है, कि उसकी प्रभा और प्रकाश सर्वथा विलुप्त हो जाते हों । जीव के साथ कर्म का, माया का, अविद्या का आवरण रहता है, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है, कि उस आवरण से उसका विशुद्ध स्वरूप सर्वथा ही विलुप्त हो जाता हो । आप अपने अन्दर इस संकल्प को बार-बार दुहराइए कि मैं ज्योति-रूप हूँ, मैं अनन्त हूँ, मैं शाश्वत हूँ और मैं एक अजरअमर तत्व हूँ । संसार के यह भव-बन्धन तभी तक हैं, जब तक मैं अपने विशुद्ध स्वरूप को पहचान नहीं लेता हूँ । जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक आत्मा में परमात्म-ज्योति विद्यमान । प्रत्येक चेतन में परम चेतन विराजमान है । चेतन और परमचेतन दो नहीं हैं, एक हैं । अशुद्ध से शुद्ध होने पर चेतन ही परम चेतन हो जाता है । कोई भी चेतन, परम चेतन की ज्योति से मूलतः शून्य या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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