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१८ | अध्यात्म-प्रवचन
और ह्रास को भी वह देख सकता हैं । जिसने स्वयं को जाना, वही दूसरों को जान सकता है । जिसने स्वयं को सँभाला, वही दूसरों को सँभाल सकता है । जिसके पास स्वयं है, वही दूसरों को भी प्रकाश दिखला सकता है | भला, जो स्वयं अन्धा है, जिसके पास अपनी स्वयं की दृष्टि नहीं है, वह दूसरे को दृष्टि कैसे दे सकता है ? चेतन के पास स्वयं अपना प्रकाश है, स्वयं अपनी दृष्टि है और स्वयं अपना ज्ञान है । चेतन में जो बोध-शक्ति है वह कहीं बाहर से नहीं आई, स्वयं उसकी अपनी ही है ।
मैं आपसे जड़ और चेतन की बात कह रहा था। मैंने जड़ और चेतन के स्वरूप को संक्षेप में बतलाने का प्रयत्न किया है । किन्तु याद रखिए - इस दृश्यमान जगत में एक सत्ता और है, जिसे हम परमसत्ता कहते हैं । इस जगत में एक चेतन और है, जिसे हम परम वेतन कहते हैं । यह परम सत्ता एवं परम चेतन क्या वस्तु है ? उसे समझने एवं जानने की अभिलाषा एवं जिज्ञासा आप में से प्रत्येक व्यक्ति के मन में उठ सकती है, और वह उठनी भी चाहिए। उस परमसत्ता एवं परम चेतन को भारतीय दर्शन में विविध संज्ञाओं से सम्बोधित किया गया है - भगवान्, ईश्वर और परमात्मा आदि । चैतन्य के बाद परम चैतन्य की सत्ता है । चैतन्य के आगे इस परम चैतन्य की सत्ता से इन्कार नहीं किया जा सकता। भारतीय दर्शन के अनुसार मानवीय चैतन्य का लक्ष्य संसार की अँधेरी गलियों में भटकना नहीं है । उसका लक्ष्य है - चैतन्य से परम चैतन्य होना ।
परम चैतन्य सत्त्व में सत्ता और चेतना के अतिरिक्त आनन्द भी माना गया है । संसारी जीव में सत्ता एवं चेतना तो हैं, किन्तु आनन्द नहीं है । आनन्द नहीं है, इसका इतना ही अर्थ है, कि उसका सुख सहज, निर्विकार एवं स्थायी नहीं है । स्थायी सुख एवं स्थायी आनन्द केवल परम चैतन्य में ही रहता है। हम जिस प्रत्यक्ष जगत में रह रहे हैं, वह भी एक सत्ता है और उससे परे भी एक विराट परम सत्ता है, जिसके विषय में पर्याप्त तर्क वितर्क, विवाद और संघर्ष चला करता है । परन्तु वह विराट, परम चैतन्य या परम सत्ता कहीं अलग नहीं है । जो हम पर शासन करती हो और जड़ एवं चैतन्य विश्व को मनचाहा रूप देती हो । जैन दर्शन का लक्ष्य यह नहीं है कि हम किसी अदृश्य शक्ति के हाथ की कठपुतली हैं । उस कठपुतली के अनुसार ही हम सोचते और विचारते हों, या संकल्प एवं विकल्प करते हों । इस
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