Book Title: Adhyatma Pravachana Part 1
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 10
________________ मुक्ति का मार्ग | १७ as - प्रकृति की सत्ता होने पर भी उसमें ज्ञान एवं चेतना नहीं है । ज्ञान एवं चेतना शून्य होने के कारण, पुद्गल को अपनी सत्ता एवं स्थिति का बोध नहीं हो पाता । जब उसे स्वयं अपनी सत्ता एवं स्थिति काही बोध नहीं है, तब उसे अपने से भिन्न दूसरे की स्थिति और सत्ता का बोध कैसे हो सकता है ? जड़ प्रकृति सत्ताशील एवं क्रियाशील होकर भी ज्ञान शून्य एवं चेतना विकल होने के कारण, अपने स्वरूप को जान नहीं सकती । इसका अर्थ यह है कि वह द्रष्टा नहीं बन सकती, केवल दृश्य ही रहती है । उपभोक्ता नहीं बन सकती, केवल उपभोग्य ही रहती है । द्रष्टा और उपभोक्ता वही बन सकता है, जिसमें ज्ञान एवं चेतना का प्रकाश हो। जिसमें ज्ञान एवं चेतना का त्रिकालाबाधित दिव्य प्रकाश होता है, उसे दर्शन - शास्त्र में जीव, चेतन एवं आत्मा कहा जाता है । प्रकृति जड़ है, अतः उसमें अंशमात्र भी चेतना का अस्तित्व नहीं है । प्रकृति- जगत के बाद एक दूसरा जगत है, जिसे चैतन्य - जगत कहा जाता है । इस चैतन्य जगत में सूक्ष्म से सूक्ष्म और स्थूल से स्थूल प्राणी विद्यमान हैं । गन्दी नाली के कीड़े से लेकर सुरलोक के इन्द्र, जिसके भौतिक सुख का कोई आर-पार नहीं है, सभी चैतन्य जगत् में समाविष्ट हैं । मैंने अभी आपसे कहा था कि जड़ के पास सत्ता तो है, पर चेतना नहीं है । इसके विपरीत चैतन्य जगत में सत्ता के अतिरिक्त चेतना भी है । उसका अस्तित्व आज से नहीं; अनन्त अतीत से रहा है और अनन्त अनागत तक रहेगा । वह केवल कल्पना - लोक एवं स्वप्नलोक की वस्तु नहीं है । वह अखण्ड सत् होने के साथ-साथ चेतन भी है । भारतीय तत्व - चिन्तन का यह एक मूल केन्द्र है । भारत के विचारक और चिन्तकों ने जीवन के इसी मूल केन्द्र को जानने का और समझने का प्रयत्न किया है। क्योंकि इसी मूलकेन्द्र को पकड़ने से मानवीय जीवन आलोकमय बनता है तथा परंम जीवन का भव्य द्वार खुल जाता है । यदि इस चैतन्य देव के स्वरूप को नहीं समझा, नहीं जाना, तो समस्त तपस्या और समग्र साधना निष्फल एवं निष्प्राण हो जायगी । पवित्र जीवन का भव्य द्वार कभी खुल न सकेगा । अतः अखण्ड चैतन्य सत्य का बोध होना आवश्यक है । चेतन जगत के पास सत्ता एवं बोध दोनों ही हैं, जिससे उसे स्वयं अपना भी ज्ञान होता है और दूसरों का भी । जीव अपनी ज्ञान-शक्ति के द्वारा अपने स्वयं के उत्थान और पतन को भी समझ सकता है तथा दूसरे जीवों के विकास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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