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विना दुमग कोई चारा नहीं है । मूल को कितनी यचाता कौन सा है? यही देखना वहाँ अभीष्ट है। , वैसे ही चौबीमी के पदो में जहां-जहां कुछ शास्त्रीपजीयी भावनाएं हैं, वहां-वहां उन-उन शास्त्रीय प्राचीन ग्रन्यों के पलोक मादि टिप्पण में मप्रमाण दे दिये गये हैं। इससे प्रस्तुत भाग्य की मौलिकता पर और भी चार चांद लग गये हैं।
व्याख्या की प्रामाणिकता वही व्याख्याकार अपने और कृतिकार के साथ न्याय करता है, जो अपनी मान्यताओ को प्राधान्य न दे कर कृति के भावों को प्राधान्य देता है, क्योंकि वह वहां अपनी मान्यताओ की व्याख्या नहीं कर रहा है, बल्कि फिमी अन्य व्याख्येय की व्याख्या कर रहा है। इस विषय में भी भाप्यकार विलकुल सरे उतरे हैं। मेरी दृष्टि में यह उनको ग्याल्या की प्रामाणिकता है, जो विशेष श्लाघनीय एव अनुकरणीय है।
फूलो की बगिया महक रही है, मौरभ विखेर रही है, कौन उमसे प्रीणित होगा-उसे यह परवाह नहीं है। कलरव के साथ पीतल मधुर पानी का मोता वह रहा है, कौन उस पानी का उपभोक्ता होगा--उसे इसकी चिन्ता नहीं है। मुनि श्रीनेमिचन्द्रजी भी उसी धुन के धनी हैं। ये स्वान्त.सुखाय सतत साहित्यसाधना मे सलग्न रहते हैं। कोन कसा उपभोग करेगा- इस चिन्ता से विरत हैं, फिर भी सौरम व शीतल जल का उपभोग हर कोई करना ही चाहेगा। सस्कृत के एक सुभापित मे कहा है
"गुणा कुवन्ति दूतत्वं, दूरेऽपि वसतां सताम् । केतकी-गन्धमाघ्राय, स्वयमायान्ति पट्पदा.॥"
-वस इन्ही शब्दो के साथवि० स० २०३३, ज्येष्ठशुक्ला १०॥ बेलनगज, आगरा।
--चन्दनमुनि