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( 12 ) "देखन दे रे, सप्ती मुने देशन दे, चन्द्र प्रभु-मुगचन्द, सखी । उपशमरसनो फन्द, सखी, गतकलिमल-दुम इन्ह,सखो ॥१॥
अहा । कितनी गहरी भावाभिव्यक्ति है ! सम्बो मुझे देखने दे ! भारता के पीछे कारण है कि भवभ्रमण करते हुए अनन्तकाल में मुझे यह मुबममार प्राप्त नहीं हुआ है। विविध योनियो के मामिक चित्रण का नमूना देगिये --
"सुहम निगोदे न देखियो सखी, गावर अतिहि पिशेष ||सीला पुढवी आऊ न लेखियो ससी, तेऊ आऊ नलेश सावी०॥ वनस्पति, अतिघणदोहा सखी, दौठो नहि दीदार ||ससो। वि-ति-चरिदिय जललोहा, ससो, गतसप्नीपण पार ||सखो०॥
तात्पर्य यह है कि वहां कही मुझे दर्शन का मौका नहीं मिला। फेवल इमी मनुष्यभव मे यह सुअवसर उपलब्ध हुना है, मत मुझे अब देखने दे। प्रस्तावना में कितना विवेचन दिया जाए, प्रत्येक कृति अद्भुत भायों को लिये हुए चली है।
मच्चा माधक कभी अपनी कमजोरी नही छिपाता। वह तो रके की चोट सभी के आगे उसे व्यक्त कर देता है। मन की चचलता के आगे हैरान श्री आनन्दघनजी सत्रहवें कुन्थुनाथस्वामी के स्तवन मे गजब की व्याख्या करते हैं
"कुन्युजिन ! मनडु किम ही न बाजे,
जिम-जिम जतन करी ने रातिम-तिम अलगू भाजे ।" । प्रभो । मेरा मन किसी प्रकार बाज नही आता । इसे वायू करने के लिये ज्यो-ज्यो प्रयत्न करता हूँ, त्यो-न्यो वह दूर भागता है। मन का यह निश्चित स्वभाव है कि जहां जाने के लिये हम रोकना चाहेंगे, वहाँ वह जरूर जायेगा। इसी अनुभवगम्य स्थिति का यह प्रकट दिग्दर्शन है। मन के दौडने की निस्सारता का चित्रण पढिये
"रयणी वासर, वसती-उज्जर, गयण-पायाले जाय ।
साप खाय ने मुखडु चोयु, एह मोखाणो न्याय, हो, कुन्थु ॥ रात-दिन, बसति-उजाड, आकाश-पाताल में यह दौडता रहता है। इतना दौडते हुए भी इसे कुछ प्राप्त नहीं होता। फिर भी मालिक को तो यह भारी बना ही देता है । जैसे-साप काटता है, तो उसका पेट तो नहीं भरता, पर जिसे रंक मारता है, उसे तो विष से व्याकुल बना ही देता है।