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हती. वृत्तिकार स्वयं वृतिने अंते श्री वज्रसेननो उल्लेख करे छे ( जुओ प्रशस्ति श्लोक २ )
रचनाकाल:-वृत्ति कइ सालमां बनावी तेनो वृतिकार स्वयं उल्लेख करता नथी. परंतु वृत्तिमां आवती योगशास्त्र ( मूल ) नी साक्षी ( जुओ पृ० २६ ) उपरथी जणाय छे के. -आनी रचना संवत् १२१८ पछीनी छे,
उपसंहारः – जो के वर्त्तमानमां आ ' पूर्णिमागच्छ' ना साधुओ जणाता नथी, तेमज तेमनी प्ररूपणाने माननारों श्रावकवर्ग पण नथी. इतिहासना पाछला पानओमां आ गच्छनी प्ररूपणा विलीन थइ गइ छे. हकीकतमां आ गच्छ ने तेनी मान्यता इतिहासना पाने भूतकाल थइ गइ छे, तो पछी आ मान्यतानुं खंडन करता ग्रंथना प्रकाशननी जरुर शी ? आ प्रश्न सहज सुज्ञ वाचको समक्ष आवी जाय. आनो उत्तर आपता मारे जणाववु जरुरी छे के - घणीवार प्राचीन इतिहासना भग्नावशेषोने पण शोधवा पडता होय छे. अने ते पण ऐतिहासिक दृष्टिए महत्वनुं होय छे. तो प्राप्त थतो आकृति ने अप्रकाशित केवी रीते राखी शकाय ? कोइ पण ऐतिहासिक वारसाने नष्ट थवा देवो ए मूर्खामी लेखाय• आ कृति एक महत्वना भूतकालना बनावनी साथै संकलाएल वारसो छे. जेमां ईर्ष्याने वश महान् आचार्य पण शासनना सिद्धांतने फेरववा रूप शुं प्ररूपणा करे ? अने तेनाथी तेमनी पोतानी ज उज्ज्वल कारकीदी पर कलंकनी कालिमा छवाइ जाय त्यारे सामान्य मानवीनी विशात शी. विधिनी केवी वक्रता छे ? आवा एक नहिं पण तमाम ग्रंथोना प्रकाशननी जरुर छे. जेथी आपणा भूतकालीन भव्य - वारसाने भूली न शकीए. ए उज्ज्वल परंपराने अनुसरी वत्त मानने पण भव्य ने उज्ज्वल बनावीए.
अंतमां १२ मी सदीना इतिहासने स्पर्शती 'प्रा० मुनिचंद्रसूरि ' नी आ कृतिना 'परिचय' मां क्यांय पण क्षति होय तो सुज्ञ विद्वान् वडिलो मने बालक समजी क्षमा करशे एवी अभ्यर्थना साथे विरम् छु .
लि. मुनि पुण्योदयसागर