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आगमोद्धारक -ग्रन्थमालाया एकोनपञ्चाशं रत्नम्
णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स आगमोद्धारक आचार्य प्रवर श्री आनन्दसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः
आचार्य श्री मुनिचन्द्रसूरिरचिता पाक्षिक-सप्तत्यपराभिधाना
आवश्यक - सप्ततिः
श्री महेश्वराचार्यकृतवृत्तियुता
फ्र
संशोधक:--
पूज्य गच्छाधिपति-भाचार्य श्रीमन्माणिक्यसागरसूरीश्वर शिष्यः शतावधानी - मुनिराज लाभसागरगणिः
र
वीर सं० २४९८
प्रतय: ३०० ]
विक्रम सं० २०२८ आगमोद्धारक सं० २२
[ मूल्यम् १=५०
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मत्थूण समास भगवओ महावीरस्स आगमोद्धारक आचार्यप्रवर श्री आनन्दसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः
_ आगमोद्धारक / ग्रन्थमालाया एकोनपञ्चाशं रत्नम्
आचार्य श्री मुनिचन्द्रसूरिरचिता पाक्षिक-सप्तत्यपराभिधाना
आवश्यक - सप्ततिः
श्री महेश्वराचार्यकृतवृत्तियक्त्र
फ
संशोधक :
-
पूज्य गच्छाधिपति-भाचार्य श्रीमन्माणिक्यसागरसूरीश्वर शिष्यः शतावधानी - मुनिराज लाभसागरगणिः
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वीर सं० २४९८
प्रतय: ३०० 1
बिक्रम सं० २०२८ आगमोद्धारक सं० २२
[ मूल्यम् १ =५०
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प्रकाशक
आगमोद्धारक ग्रंथमाला ना एक कार्यवाहक
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शा. रमणलाल जयचन्द
कपडवंज (जिल्ला - खेड़ा)
५००=०० गणिव श्री चिदानन्दसागरजी महाराज ना सदुपदेशथी Mataria जैन संघना ज्ञानखाता तरफ थी ।
२५१=०० विदुषी साध्वीजी, श्री मलयाश्रीजी महाराजनी सुशिष्या साध्वीजी श्री कैवल्यश्रीजीए करेल ५०० आयंबिल नी तपस्या निमिज्ञे ज्ञानभक्तिमाथी ।
मुद्रक - शांति प्रिन्टर्स इन्दौर - १
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प्रकाशकीय - निवेदन
आ 'आवश्यक सप्ततिः' अपर नाम 'पाक्षिक-सप्ततिः' नामना प्रन्थ ने आगमोद्धारक - ग्रंथमाला ना ४९ मा रत्न तरीके प्रगट करता अमने बहु हर्ष थाय छे ।
आना प्रकाशनमां सुरत जैनानन्द पुस्तकालय तथा छाणी प्रवर्तक श्री कान्तिविजयजी शास्त्र संग्रह नी सोमचंदभाई द्वारा प्राप्त थयेल हस्तलिखित प्रत नो उपयोग कर्यो छे ।
आनी प्रेसकोपी तथा संशोधन पू० गच्छाधिपति आचार्य श्री माणिक्य सागरसूरीश्वरजी म० नी पवित्र दृष्टि नीचे शताधानी मुनिराज श्री लाभसागरजी गणिए करेल छे. ते बदल तेश्रो श्रीनो तेमज जेओए आना प्रकाशन मां द्रव्य तथा प्रति आपवानी सहाय करी छे ते बघा महानुभावो नो आभार मानीए छोए.
लि.
-प्रकाशक
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पृष्ठ पक्ति
१३
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शुद्धि पत्रक
अशुद्ध
ध्याद् विशवि
ठ बइ
सद्वर हे
शय्ययां
मसकु
सयमो
रेमि दुगं तु
काऊं
विश्वग्
प्रतिकम
कण
पाउसिए
चहसि
माहना
निर्विचार
करण
करण
व
गमन
तिथ:
उसी
भाव भावे
शुद्ध
यद विंशति
ठायइ
तद्विर हे
शय्याया
अतिसङ्कसंयमो
बरिसे दुगंध
काउं
विष्वग्
प्रतिक्रम
कण
पाभोसिए
चउद्दसि
माहाना
निर्विचार
करण
करणं
गमनं
तिथी:
चउदसीस
भावाभावे
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विषयानुक्रम
विषय
पृष्ठ संख्या आवश्यकस्य स्वरूपम् । २ क्षेत्रावश्यकनिरूपणम् । ३ आवश्यककरणस्य स्थानचतुष्कम् । ४ अभिशय्याऽभिनिषीधिकशय्ययोः स्वरूपम् । ५ निजगुरोः स्थापना । ६ देवसिकप्रतिक्रमणस्य समयमर्यादा । ७ चतुर्दश्यामेव पाक्षिकप्रतिक्रमणस्य प्रमाणानि । ८ चतुर्दश्यामेव चतुर्यस्य प्रमाणानि । १ दश चित्तसमाधिस्थानानि । १० चतुर्दश्या सर्वचैत्यसाधुवन्दनम् । ११ पयुषणाविधिः ।। १२ अनागतदिनचतुष्केन कल्पकर्षणम् । १३ पयुषणाष्टमोत्तरपारणदिनम् । १४ कालाकालचारिण्या साध्व्याः स्वरूपम् । १५ आर्यरक्षितसूरेः पूर्व साध्वीनां साध्वी पार्वे आलोचना । १६ आलोचनादानतिधिः । १७ पर्वसू क्रियमाणस्य तपसो गुणाः। २८ आलोचनादाने वर्ण्यतिथयः । १९ अष्टादश गणराजानः । २० अवमरातिथिमासाः । २१ विद्यापरिपाटिदानसमयः २२ आचरणालक्षणम् । २३ जीवत्स्वामिनः पुरः देवीप्रभावतीनाट्यम् । २४ सूत्रे देशसर्वग्रहणोदाहरणं तथा सूचे उत्क्रम-क्रमयुक्त बस्तुकथनो
दाहरणम् । २५ उत्सूत्रप्ररूपणाया. संसारहेतुत्वम् । २६ सम्प्रति चतुर्दश्यां चतुर्मासककरणस्य हेतुद्वयम् । २७ भावावश्यकनिरूपणम् ।
भावश्यकस्य पर्रयाः।
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परिचय णमोत्थु णं समणस्स भगवो महावीरस्स जैन इतिहासनु विहंगावलोकन करतां जणाशे के भगवान् श्री ऋषभदेवपरमात्माथी आजदिनपर्यंत जिनेश्वरपरमात्माना शासन उपर ऐक या बीजी रीते बाह्य तेमज आंतरिक आक्रमणो थया छे, अने आ आक्रमण आजे पण शांति, परमतसहिष्णुता, सर्वधर्म-समभाव, सर्वधर्मसमन्वय, बिनसांप्रदायिकता विगेरे अनेक सुदरशब्दोना बहाना नीचे चालुज छे. (अने आ प्रत्ये सेवातु दुर्लक्ष भविष्यमां शासन माटे हानिकारक बनशे.) __ सत्य हमेशां एकज होय छे अनेक नहि. परंतु सत्यनो स्वांग सजीने अनेक असत्यो सत्यने पडकारवा हमेशां तैयार होय छे. आथी आंतरिक शत्रुओ विषेनी साची समज आपवा अने प्रभु शासनना सन्मार्गने वधु प्रकाशित करवा आपणा महान् उपकारी पूर्वमहापुरुषोए अनेक उपायो कर्या छे, तेमांनो एक उपाय ' ग्रंथ-रचना ' छे. आवो एक अपूर्व ग्रंथ 'सिरि आवस्मय - सत्तरी' छे, आ ग्रथनी अंदर मुख्यत्वे पूर्णिमामतना स्थापक आ० प्रभाचंद्रनी उत्सूत्रप्ररूपणानु खडन करवा पक्खी विगेरे पर्वतिथिनी आराधनानु स्पष्ट रीते शास्त्रीय गते निरूपण करेलु होवाथी तेनी साथे आ० प्रभाचंद्र अने तेमने स्थापेल नविन उत्सूत्रप्ररूपणात्मक पूर्णिमागच्छ संकलाएल होवाथी तेओ विषे टुकमा उल्लेख करी ग्रंथ, ग्रथकार अने वृत्तिकार विषे विचारीशु.
स्थापकः- पूर्णिमागच्छना स्थापक आ० प्रभाचंद्र' आ० सर्वदेवमरिना आठ पट्टधरोमांना मोटा पट्टधर आ० जयसिंहमूरिनी पाटे थया. तेओ वडगच्छमां वडिल हता अने तेमने 'वादीभसूरि' नु बिरुद हतु. आ० मुनिचंद्रसूरि तेमनाथी नाना हता, पण संघमां तेमनी लोकप्रियता वधु हती. ते आ० प्रभाचंद्र माटे ईर्ष्यानु कारण बनी अने तेथी आ० प्रभाचंद्र सवत् ११५९ मां आ 'पूर्णिमागच्छ' नामना मतनी स्थापना करी. आ नवीनमतनी प्ररूपणाथी तेओ वडिल विद्वान् वादीन्द्र होवा छतां १ टिप्पण- गुरुतत्त्वप्रदीपकार प्रस्तुतआचार्य, मुनिचन्द्रसूरि, मानदेवसूरि
अने शांतिसूरि आ चारे ने एक गुरु ना शिष्य तरीके जणावे छे. :
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पण शासनमाथी फेंकाइ गया तेमनी उज्ज्वल कारकीर्दीनो चंद्र झंखवाइ गयो नवीनमतनी प्ररूपणाथी शासनना एक आंतरिकशत्रमा वधारो थयो. ईर्थ्यांना विषम चक्करे ज्ञानी अने प्रतिभावंत आचार्य ने पण अज्ञानना घेरा अंधकारमा धकेली दीधा. तेनो आछो ख्याल पण तेमनी नवीनमतनी प्ररूपणा थी स्पष्ट समजाय छे.
प्ररूपणा:-तेओनी मुख्य प्ररूपणा नीचे मुजब छे१. साधु प्रतिष्ठा (अंजनशलाका) न करावी शके, २ पाक्षिक प्रतिक्रमण चतुर्दशी ने बदले पूनमे करवु. ३ पांचमा आरामा छ मासी ( तप ? )न होय अने ४ लघुदीक्षा बाद छ महिना पहेलां उपस्थापना (वडी दीक्षा) न अपाय, विगेरे.
गच्छः-आ गच्छनी मुख्य प्ररूपणा पूनमे पक्खी करवानी होवाथी तेमने स्थापेल नविनमतनु नाम 'पूर्णिमागच्छ' पड्य छे. आ गच्छना आ० भावरत्नसूरिए सं० १८०० मां अंबडरास नव वाड सज्झाय विगेरे रच्या छे. आ उपर थी आ गच्छनु अस्तित्व संबत् १८०० सुधी होवानु तो चोकस जणाय छे (जुओ जैन परं० भा० २ पृ० ३९-४० )
ग्रंथविषयादि- दिगंबर अने चैत्यवासीओनी उत्पत्ति बाद थएल उपरोक्त जणावेल नविन प्ररूपणाओ ना प्रतिकार माटे शासनना तत्कालीन प्रयासोना एक भागरूप रचवामां आबेल आ कृतिमां 'पूर्णिमागच्छनी एक उत्सूत्रप्ररूपणा-'पक्खी पूनमे करवी' तेनु खंडन अने चतुर्दशीए पक्खी करवी' आ शासनमान्य शुद्ध प्ररूपणानी सिद्धि महानिशीथ, बृहत्कल्प, निशीथसूत्र विगेरे अनेक आगमिक ग्रंथोमा आधारे करवामां आवेल छे. प्रस्तुतकृति प्राकृतभाषामां रचाएल छे.' ७० गाथात्मक आ कृतिनी शरुआतमां 'पङ-अावश्यक' ननिदर्शन छे, एनु अपरनाम 'पक्खिअसत्तरी' छे
रचना:--जो के मूलकृतिनो रचना समय मूलकार जणावता नथी, परन्तु संवत् ११४९ पर्छ नी रचना छे, ए तो चोकस जणाय छे
'थोडामां घणु" एम आ कृति गाथासंख्यानी दृष्टिए नानी कही शकाय तेम छे. तेम छतों आमां गुंथाएल जे सित्तर गाथाओ छे ते गाथाओ सामान्य नहिं परंतु आगमोनी विस्तृत पंक्तिओना हादने बहु संक्षेपमां सुंदररीते रजु करे छे. अने एटले आ कृति विद्वानोना मनमा
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मान-गौरवनी लागणी प्रेरे तेम छे. आ नानी पण सुदरकृतिना कर्ता पुण्यनामधेय आचार्य श्री 'मुनिचंद्रसूरि' छे.
ग्रंथकार:-ग्रंथकार महर्षि विक्रमनी १२ मी सदीना शासननभोमंडलना अनेक विशिष्ट प्रभावकतारको (ताराओमां) पूर्णिमाना चंद्रनी जेम अद्वितीय स्थान भोगवे छे. पूज्यश्री चांद्रकुलना अने वडगच्छ (तपागच्छ पूर्वेनु नाम) ना हता.
जन्मादिः-पूज्यश्रीए दर्भावती (डभोइ) नगरीने चिंतक अने मोंबीआई नामना दंपतीने त्यां जन्म लइने पावन करी तेमनुकुल-चिंत्तयकुल हतु तेओए लघुवयमा 'प्राचार्य यशोभद्रसूरि' पासे दीक्षा स्वीकारी, तेओना विद्यागुरु 'उपाध्याय विनयचंद्र' हता. तेओश्रीनु अपरनाम 'चन्द्रसरि होव नु जाणवा मले छे. तेओना नामनो एवो अचिंत्य प्रमाव हतो के तेओनु नाम ज शांतिकमंत्र तरीके गणातु: तेओ बालब्रह्मचारी हता तेओश्री आहारमा १२ वस्तुओ वापरता हता. छ विगय सहित अन्यद्रव्योनो जीवनपर्यंत त्याग को हतो. निरंतर आयंबिल करता अने सौवीरनुपाणी वापरता आवा त्यागनी मूर्तिसमा आ महापुरुषना नामोच्चारथी उपद्रवोनी शांति थाय तेमां आश्चर्य शु?. __तेओश्रीए प्रमाणदर्शननो अभ्यास उत्तरज्झयणनी पाइयवृत्तिकार ते समयना ख्यातनाम विद्वद्वरेण्य वादीवेताल श्रीशांतिसूरि पासे को हतो. आ० सर्वदेवमूरि ना वरद-हस्ते सं. ११२९ थी ११३९ ना गालामां आचार्यपदथी विभूषित थया तेओश्रीनी गणना सैद्धान्तिक' मां थती हती. तेओश्रीना परिवारमा ५०० मुनिओ हता. तेमनु विहारक्षेत्र खंभातथी नागोरपर्यंतनु हतु.
तेओश्री संवत् ११७८ कार्तिक वद ५ पाटणमां स्वर्गभाक थया. आ समये तेमना शिष्य वादीदेवसूरि अंबिकादेवीनी सूचनाथी त्यां हाजर थया हता. तेओश्रीए त्रीस नविनग्रंथो रच्या छे.
वृत्तिकारः-मूलकारना प्रशिष्य अने दिगंबर विजेता श्रीवादिदेवसरिना शिष्य प्रा० महेश्वरसूरिए आ ग्रंथ उपर'सुखप्रबोधिनी' नामनी वृत्ति रची छे. तेमां तेमने मुनि वज्रसेने सहाय करी
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हती. वृत्तिकार स्वयं वृतिने अंते श्री वज्रसेननो उल्लेख करे छे ( जुओ प्रशस्ति श्लोक २ )
रचनाकाल:-वृत्ति कइ सालमां बनावी तेनो वृतिकार स्वयं उल्लेख करता नथी. परंतु वृत्तिमां आवती योगशास्त्र ( मूल ) नी साक्षी ( जुओ पृ० २६ ) उपरथी जणाय छे के. -आनी रचना संवत् १२१८ पछीनी छे,
उपसंहारः – जो के वर्त्तमानमां आ ' पूर्णिमागच्छ' ना साधुओ जणाता नथी, तेमज तेमनी प्ररूपणाने माननारों श्रावकवर्ग पण नथी. इतिहासना पाछला पानओमां आ गच्छनी प्ररूपणा विलीन थइ गइ छे. हकीकतमां आ गच्छ ने तेनी मान्यता इतिहासना पाने भूतकाल थइ गइ छे, तो पछी आ मान्यतानुं खंडन करता ग्रंथना प्रकाशननी जरुर शी ? आ प्रश्न सहज सुज्ञ वाचको समक्ष आवी जाय. आनो उत्तर आपता मारे जणाववु जरुरी छे के - घणीवार प्राचीन इतिहासना भग्नावशेषोने पण शोधवा पडता होय छे. अने ते पण ऐतिहासिक दृष्टिए महत्वनुं होय छे. तो प्राप्त थतो आकृति ने अप्रकाशित केवी रीते राखी शकाय ? कोइ पण ऐतिहासिक वारसाने नष्ट थवा देवो ए मूर्खामी लेखाय• आ कृति एक महत्वना भूतकालना बनावनी साथै संकलाएल वारसो छे. जेमां ईर्ष्याने वश महान् आचार्य पण शासनना सिद्धांतने फेरववा रूप शुं प्ररूपणा करे ? अने तेनाथी तेमनी पोतानी ज उज्ज्वल कारकीदी पर कलंकनी कालिमा छवाइ जाय त्यारे सामान्य मानवीनी विशात शी. विधिनी केवी वक्रता छे ? आवा एक नहिं पण तमाम ग्रंथोना प्रकाशननी जरुर छे. जेथी आपणा भूतकालीन भव्य - वारसाने भूली न शकीए. ए उज्ज्वल परंपराने अनुसरी वत्त मानने पण भव्य ने उज्ज्वल बनावीए.
अंतमां १२ मी सदीना इतिहासने स्पर्शती 'प्रा० मुनिचंद्रसूरि ' नी आ कृतिना 'परिचय' मां क्यांय पण क्षति होय तो सुज्ञ विद्वान् वडिलो मने बालक समजी क्षमा करशे एवी अभ्यर्थना साथे विरम् छु .
लि. मुनि पुण्योदयसागर
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मोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स । आगमोद्धारक - आचार्य प्रवर श्री आनन्दसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।
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श्राचार्य श्री मुनिचन्द्रसूरिरचिता पाक्षिक-सप्तत्यपराभिधाना
आवश्यक-सप्ततिः
श्रीमते वर्द्धमानाय जिनेन्द्राय जगद्विदे | सुरासुरनमस्याय वागीशाय नमो नमः ॥ १ ॥ अनन्यसाधारणशीलसम्पदे विनम्रविद्वज्जन मुद्रितापदे । दिगम्बराडम्बरभङ्गसूरये प्रणम्य तस्मै गुरुदेव सूरये ||२|| स्वगुरूणामपि श्रीमद्-गुरूणामनघा गिरः । सिद्धान्तगर्भसन्दर्भाः क्वचित् किञ्चिद् विवृण्महे || ३ ||
इद्द किल कलिकालबल प्रबल कुतर्क कर्कशप्रादुर्भवत्कुग्रहप्रवेशवशीकृतान्तःकरणाः केचित् तपस्विनः कष्टानुष्ठानेनाऽऽत्मानमायासयन्तः सन्तोऽन्यानपि मुग्धबुद्धीन् व्यामोहयन्ति । ततस्तानेविधानवलोक्य अपारकरुणा सारसुधार से कपारावारा: अनेकान्तजयपताकाचारु-चारी संचार चतुर नर्त्तकी नर्त्तनमूत्रधाराः दुःषमासमयसमुल्लासितप्रमादपातालतलाव मज्जन्निःकलङ्कानुष्ठाननिष्ठाधरणीसमुद्धरणादिवराहरूपाः संसारकान्तारान्तः परिभ्रान्तनितान्तश्रान्तजन्तुजातसन्तापनिर्वाकसद देशना मृतकूपाः कर्मप्रकृत्याद्यखिल खिलप्रन्थप्रन्थिभिदुर - स्वशेमुषीविमुखीकृताखर्व गर्व सुपर्व सूरयः पूज्याः श्रीमन्मुनिचन्द्रसूरयः सूर्या इव मूलोन्मूलिततमः सम्भारेण स्वगोप्रस्तारेण
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आवश्यक-सप्ततिः तेषां सन्मार्गप्रबोधमुत्पादयितु तद्विप्रतार्यमाणाऽन्यजन्तुजातमव - बोधयितुमात्मस्मृतिं विधातुच सिद्धान्तोद्धारसार भूतं प्रमाणनिष्पन्ननामकमावश्यकसप्तत्याख्यं प्रकरणमारभमाणाः प्रत्यूहव्यूहापोहाय स्वाभिमतं प्रत्यासन्नोपकारित्वाच्चरमं तीर्थाधिपतिं यथार्थाभिधानं श्रीमन्महावीरमभिष्टुवन्तः साक्षादभिधेयप्रयोजनाभिधायिकामिमामादावेद गाथां प्राहु:
देविंदविंदवंदिअ-पयपउमं वंदिउं जिणं वीरं । श्रावस्सयस्सरूवं समासो किंपि जंपेमि ॥१॥ व्याख्या-देवेन्द्रवृन्दवन्दितपदपद्म वन्दित्वा जिनं वीरम् आवश्यकस्वरूपं समासतः किमपि जल्पामीति सडक्षेपार्थः।।
व्यासार्थस्त्वयं-देवेन्द्राः-शक्रादयः चतुःषष्टिः भवनपतिव्यन्तर-ज्योतिष्क- वैमानिकेषु यथाक्रम विंशति-द्वात्रिशद्-द्वि-दशसङ्ख्योपेतत्वात् । तेषां वृन्दानि सूर्याचन्द्रमसामसङ्ख्य यत्वात् । यद्वा-देवाश्च इन्द्राश्चेति देवेन्द्रास्तेषां वृन्दानि तैर्वन्दितम-अभितः प्रणतं स्तुतं वा 'बदि अभिवादनस्तुत्यो' रितिवचनात् , पदपद्मचरणारविन्दं यस्य स तथा तं, वीरमिति विशेष्याभिधान, कर्मविदारणातपसा विराजनात् तपोवीर्ययोगाच्च वीरः पृषोदरादित्वात् सिद्धिः । यथोक्तं
विदारयति यत्कर्म तपसा विराजते ।
तपोवीर्येण युक्तश्च तस्माद्वीर इति स्मृतः ॥१।। यद्वा-विशेषेण कर्मणामीरणात् सिद्धिगमनाद्वा वीरः तं, कथम्भूतं ? रागादीनामान्तरशत्रणां जयाज्जिनं वन्दित्वा प्रशस्तमनोवाक्कायव्यापारेण प्रह्वीकृत्येत्यर्थः । किम् ? अवश्यमित्येतस्य भावे चौरादित्वादकवि' आवश्यकम् । अथवाऽवश्यमित्यव्ययं कर्त्तव्यविशिष्टे नियमे वर्त्तते । भव्ययानामनेकार्थत्वात् । ततश्चावश्यकर्त्तव्य
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आप्तस्वरूपम्
भाव आवश्यकमिति गर्भार्थः । तस्यावश्यकस्य स्वरूपम् असाधारणरूपं किं १ केन ? क्व ? कथं १ कर्त्तव्यमित्येवमागमोक्तरूपं समासत:सङ्क्षपेण, सडक्षेपेणापि समग्रमसमनं वोच्यते ? इत्यतः प्राहु:किमपीति-स्तोकं मूलप्रन्थवत्समस्ततत्स्वरूपानभिधानाजमामि-प्रतिपक्षविक्षेपेण व्यक्तं प्रतिपादयामीत्यर्थः ।
अत्र पूर्वार्द्धनाभिमतदेवतां नमस्कृत्योत्तरार्द्धनाभिधेयं सप्रयोजनमभिहितम् । तत्राऽऽवश्यकस्वरूपभिधेयं सङक्षेपभणनं प्रयोजनम् । सम्बन्धस्तु प्रस्तुतप्रकरणाभिधेययोरभिधानाभिधेयलक्षणः सामर्थ्यगम्य एव । अत्र च जिनमित्यनेनापायापगमातिशयोऽभिधीयते । भान्तरारिवर्गविजेतर्येव जिनशब्दप्रवृत्तेः । देवेन्द्रवृन्दवन्दितपदपद्ममित्यनेन तु पूजातिशयः । अतिशयद्वयी तु सामर्थ्यगम्या। तथाहि-परमाप्तत्वाद् भगवतः किलात्र स्मरन्ति पूज्याः । आप्तश्च योऽवितथज्ञानेनावलोक्य पदार्थसाथै यथावस्थितं परेभ्यः प्रतिपादयति स एव व्यपदिश्यते । यथोक्तमस्मद्गुरुभिरनवद्यविद्यावैशारद्यविनिर्जितविबुधसूरिभिः श्रीमद्देवमूरिभिः-अभिधेयं वस्तु यथावस्थितं यो जानीते यथाज्ञात चाभिधत्ते स ाप्त' (प्रमाणनय०) इति । ततश्च भगवतः सम्यगभिधायकत्वाद्वागतिशयः। सम्यग वचनं च सम्यग्ज्ञानपूर्वकमितिकृत्वा ज्ञानातिशयश्च सामथ्याद् गम्यते । इत्यसाधारणातिशयचतुष्टयाभिधानेन स्तुतित्वमत्रोपपन्नमिति ॥१॥
साम्प्रतं 'तत्त्वभेदपर्यायाख्या' इतिन्यायात् व्युत्पत्तिगर्भमावश्यकस्वरूपं निरूपयन्तः परमगुरवः प्राहु:सामाइअ-चउवीसत्थयाइं जमवस्समेव करणिज्ज । समणाइणा तमावस्सयं ति सुत्ते जो भणियं ॥२॥ व्याख्या-समस्य-रागद्वेषरहितस्य सतोऽयन-गमनं समायः।
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आवश्यक-सप्ततिः स एव तत्र भवं वा, तेन वा निवृत्तं तत्प्रयोजनं वा सामायिकम् । यद्वा-सम्यग्ज्ञानादीनामायो-लाभः समायः । शेषं पूर्ववत् । चतुविंशतिसङ ख्यानां तीर्थकराणां स्तवो यत्र दण्डके स चतुर्विंशतिस्तवः। सामायिक चतुर्विंशतिस्तवश्चेति समास: । तावादी यस्य वन्दनक-प्रतिक्रमण-कायोत्सर्ग-प्रत्याख्यानरूपचतुष्टयस्य तचदादि । एवं च सामायिक-चतुर्विंशतिस्तवादि यदवश्यकर्त्तव्यं तदावश्यकमिति योगः । केनेत्याहुः श्रमणादिना । श्रमणः-सर्वसावद्ययोगविरतः तदादिना । आदिशब्दाभिधेयं स्वयमेव वक्ष्यति-'साहूसु' इत्यादिना । एतच्च न स्वातन्त्र्यादुच्यते किन्तु पारगतोक्तागमपारतन्त्र्यादिति 'मुत्ते'त्ति । सूत्रेऽनुयोगद्वाराख्ये यतो भणितमिति ॥२॥ भणितमेव दर्शयतिसमणेण सावरण य अवस्स कायव्ययं हवइ जम्हा । अंतो अहोनिसस्स तम्हा प्रावस्सयं बेंति (नाम) ॥३॥
व्याख्या--श्राम्यति-तपस्यतीति श्रमणः सन्मनाः सममनाश्च । यथोक्तं
तो समणो जइ सुमणो भावेण य जइ न होइ पावमणो। सयणे य जणे य समो समो य माणावमाणेसु' ॥१२॥ तेन, तथा शृणोति सर्वज्ञोक्तं तत्त्वमिति श्रावकः । यदुक्तं
धम्मोवग्गहदाणाइसंगओ सावओ परो होइ। __ भावेण शुद्धचित्तो निच्चं जिणवयणसवणरई' ॥१।। तेन च । चशब्दस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वात् साध्वी-श्राविकाभ्यां च । किम् ? अवश्यं-नियमेन अन्तः-मध्ये अह्नो निशायाश्च कर्त्तव्यक भवति यस्मात् तस्मादावश्यकमिति ब्रु वते ॥३॥
अथावश्यकस्य पूर्वार्द्धन भेदानुत्तरार्द्धन तद्भदाद्यभेदस्य स्वरूपं प्रकटयन्ति
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आवश्यक करणस्य स्थानचतुष्कम्
तं दव्वखित्तकाले भावं च पडुच्च दव्वत्र तत्थ । साहु साहूणीय सुस्सावयसावित्र्यासु य ॥४॥
व्याख्या - तदित्यावश्यकं द्रव्य-क्षेत्र कालान भावं च प्रतीत्यश्रित्य भवतीति शेषः । अत्र प्राधान्यख्यापनार्थ भावस्य व्यस्तनिर्देश: । तत्र तेषु चतुर्षु भेदेषु मध्ये द्रव्यतो- द्रव्यरूपतामाश्रित्योक्तरूपेषु साधुषु साध्वीष्वेव सुश्रावकश्राविका स्वेव चकारयोरेव - कार्थत्वात् । एतदात्मद्रव्याश्रितत्वेन प्रतीयमानत्वादु द्रव्यावश्यकमिति अथ क्षेत्रावश्यकं निरूपयन्ति
वित्तंमि गुरुसमीवे सिरिवच्छाकार मंडलीए उ । तव्विर ठवणाए तस्स चित्र जं सुए भणियं ॥ ५ ॥
व्याख्या - क्षेत्रे - सकल सत्त्वनिरपायपवित्रभूभागरूपे साधूनां नियमेनोपाश्रये, श्रावकाणां पुनश्चतुषु स्थानेषु पौषधशाला - साधुवसति चैत्य-गृहैक देशरूपेषु कर्त्तव्यम् । यदाह आवश्यक चूर्णिकृत
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'चउसु ठाणेसु नियमा कायव्वं । तं जहा- चेइयघरे वा साहुमूले वा पोसह सालाए वा घरे वा आवस्थ्य' मिति । यतिभिः स्वोपाश्रपि । गुरुसमीपे तत्र गृणाति प्रतिपादयति यथावस्थितं तत्त्वमिति गुरुः । यदुक्तं -
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धर्मज्ञो धर्मकर्त्ता च सदा धर्मपरायणः । सत्त्वेभ्यो धर्मशास्त्रार्थ - देशको गुरुरुच्यते ॥१॥
यद्व:- योगक्षेम कारित्वाद् गुरुः स्वामी । यत उक्त - गुणानां पालनं चैव तथा वृद्धिश्च जायते । यस्मात्सदैव स गुरु-त्रकान्तारत्रायकः ॥ ॥ इति ।
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तस्य - गुरोः समीपे - सन्निधौ न च तत्रापि विशर्वरैरेव कार्यमित्याहुः-श्रीवत्साकारमण्डल्यामेव, तुशब्दस्यैव कारार्थत्वात् । यदुक्तमावश्यक- चूर्णिवृत्त्यो:
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आवश्यक-सप्ततिः तत्थ पडिक्कमंताणं इमा ठवणा गुरू पच्छा टायंतो मज्झेणं गंतु सट्ठाणे ठ यइ। जे वामओ ते अणंतरसम्वेणं गंतु सठाणे ठायति । जे दाहिणजे ते अणंतर अवसवेणं गंतु ठायति' त्ति । त द्वरहे-ग्लानप्रयोजनादिना अन्यत्र गतानां गुरुविरहे स्थापनायाम्अक्षकाष्ठादिमय्यां तस्यैव गुरो: सम्बन्धियां कर्त्तव्यमिति शेषः । यत-यस्मात् श्रते-विशेषावश्यकाख्ये भणितमिति ॥५|| भणितमेव दर्शयन्ति
आवस्सयं पि निच्चं गुरुपायमूलंमि देसिनं होइ । वीसुपि य संवसओ कारणो जदभिसिजाए ॥६॥
व्याख्या-'आवस्स०' प्रास्तां तावदन्यदाऽऽलोचनादिकं किन्तु आवश्यकमपि 'वीमुपिय'त्ति । विष्वपि च कारणत:-कारणमाश्रित्य यद्यभिशय्य यां संवसति साधुस्तदा तत्रापि संवसतो व्याघाताभावे सति नित्यं गुरुपादमूले देशितं-सामायिकसूत्रोक्तामन्त्रणार्थभदन्तशब्देन दर्शितं भवतीति सम्बन्धः । अभिशय्या चात्रोपलक्षणममिनिषाधिकायाः। अनयोश्च स्वरूपमिदं-हस्तशतबाह्या मूलवसत्यसम्बद्धा अतिसङ्कीर्णत्वेन कायोत्सर्ग-त्वगवर्तनस्थानरहिता, अभि:आभिमुख्य न कोलाहलादिव्याघातवर्जिता उपविष्टानामेव स्वाध्यायभूमिः अभिनिषोधिका । तत्र स्वाध्यायं कृत्वा निशायामेव मूलबसतो प्रयान्ति । बाह्याऽबाह्या सम्बद्धाऽसम्बद्धा स्वापेपि योग्या स्वाध्याय. भूमिः प्रतिवसतिरमिशथ्या। तदुक्तं व्यवहारे
ठाणं निसीहिय चि य एगटुं तत्य ठाणमेवेगे। चेतेति (वल्लंति) निसि दिवा वा सुत्तत्थ निसीहिया सा उ ।।। सज्झायं काऊणं निसीहियाओ निसिं विय उविति । अहिवसिउं जत्थ निसिं उविंति पाउ तई सेज्जा ।।२।।
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अभिशय्यायां गमनकारणानि पारइति प्रातः, जा सा उ अभिनिसीहिया सा नियमा होइ उ असंबद्धा संबद्धमसंबद्धा अभिसेन्ना होइ नायव्वा ॥३॥'
कानि पुनः कारणानि यान्याश्रित्यानयोर्गन्तव्यम् ? इति चेद्, उच्यते
'असज्झाइय पाहुणए संसत्तेवुट्टिकाय सुयरहस्से' इति । तत्र मूलवसतावस्वाध्यायिके जाते सत्यभिनिषीधिकायां वाह्याऽसम्बद्धाभिशय्यायां च गम्यते । हस्तशतबाह्यत्वेनोभयोरपि स्वाध्यायकरणसम्भवात् ॥१॥ तथा प्राघूर्णकागमने सति असङ्कटत्वेन वसतेः परस्परसट्टादिना ।।२।। सम्मूर्च्छितप्राणिजाते. संसक्तायां च तदुपमर्दादिना ।३। वृष्टिकायेऽपि आर्द्रवस्त्रपरिभोगादिना ॥४॥ यथाक्रममात्मसंयमोभयविराधनाभीरुभिरभिशय्यायां गम्यते । तत्र शयनसम्भवात् ।। तथा श्रुतं-छेदश्र तं रहस्यं विद्यामंत्रादि तस्मिँश्च वसतौ दीयमाने परिणतिरहितानां तच्छवणं स्यात् तच्च तेषां महतेऽन
येत्युभयत्रापि गम्यते । तदुक्तं- पढमचरिमे दुगं तु सेसेसु होइ अभिसेज्जा' इत्युक्तकारणैरव्याघाते आगत्यैव गुरुसमीपे कार्यम् । तदुक्तं व्यवहारे
'आवस्सगं तु काऊ निवाघाएण होइ गंतव्वं । वाघाएण ७ भयणा देसं सव्वं च काऊणं। ।१।। आवस्सगं अकाउं निवाघाएण होइ आगमणं ।
वाघायंमि भयणा देसं सव्वं व काऊणं ॥२॥ देशमित्यपरिपूर्णम् । अन्यत्राप्युक्त-वीसुपि वसंताणं दोन्नि वि भावस्सया सह गुरुहिति । गमनागमनव्याघाताश्चैते । तद्यथा
'तेणा सावयवाला गुम्मिय भारक्खि ठवण पडिणीए ।
इथिनपुंसक संसत्तवासं चिखलकंटे य' ॥१॥ 'गुम्मि'त्ति । सेनापतिः । स गच्छति । ठवण त्ति । क्वचिद्राजकृता
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आवश्यक सप्ततिः
व्यवस्था भवति सूर्यास्तमयानन्तरं न चटक्रमितव्यमिति । वृद्धास्त्वेवं व्याख्यानयन्ति-आवश्यकमपि नित्यं गुरुक्रममूले देशितं आमन्त्रणार्थं भदन्तग्रहणेन दर्शितं भवति विष्वगपि संवसतः । ननु कथं विश्वग संत्रासः ? कारणतो-निर्व्याघाते सति यत् - यस्मादभिशय्यायां संवासः कल्पादावुक्त इत्यध्याहार इति । यत्तु 'जयइ सेज्जाए' पाठान्तरमपेक्ष्य व्याख्यान्तरम् - श्रावश्यकमपि नित्यं गुरुपादमूले दर्शितं भवत्या - मन्त्रणार्थं भदन्तशब्देन वसतिसङ्कीर्णत्वादिकारणतो विष्वपि च सबसतो मुनेः । यस्य तु श्वापदभयादेः कारणतो गुन्तिके प्रतिकमणार्थमागमनं न सम्भवति सोऽन्यस्यामपि शय्यायां स्थितो गुरुस्थापनादिक्रमेण यतते यतनां करोतीति । तत्तथाविधपाठान्तरस्य सूत्रादशैंष्वदर्शनात् । चिरतर वृत्ति कार स्तस्याऽव्याख्यातत्वात् । प्रस्तुत - प्रकरणपरायणै: परमाराध्यैरपि तस्यान मोष्टत्वाच्चानादृतमिति ॥ ६॥
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गुगेः स्थापनायामित्युक्तं, तत्र किं स्वगुरोरन्यस्यापि सा कार्या ? नेति निर्दिशन्ति
ठवणावि निगुरुणो सुत्ते भंते त्ति जेण गणहारी । श्रीमंत तित्थयरं सेसा अष्पष्पणो गुरू ||७|
व्याख्या- न केवलं गुरुपार्श्वे एव प्रतिक्रमितव्यं स्थापनापि निजगुरोरेव, एवकारस्यावधारणार्थत्वात् कार्येति शेषः । निजगुरोरेव स्थापनेति कुतो ज्ञातम् ? इति चेद्, अत्राहु:-सुत्तेत्ति 'करेमि भंते ' इत्यादिसाम विकदण्डकसूत्रे 'भंतेत्ति' मदन्तशब्देन येन कारणेनामन्त्रयति-अभिमुखीकरोति गणधारी-गणभृत गौतमादिस्तीर्थकरं श्री वर्धमानं शेषाः सावत्र आत्मीय गुरुनामन्त्रयन्तीति । यतो अस्यावश्यक चूर्णि:- 'संतेत्ति गोयमसामी भट्टारयं आमंतेइ । सेसा अपणो आयरिए आमंतयंति 'त्ति गुरोश्च स्थापना विनयख्यापनार्थं, यदुक्त -
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भावश्यकस्य भेदाः 'गुरुविरहम्मि य ठवणा गुरूवएसोव सेवणत्थं च । जिणविरहम्मि जिणबिंब-सेवणामंतणं सहलं ॥१॥ • रण्णो य परोक्खस्स वि जह सेवा मंतदेवयाए वा । तह चेव परोक्खस्स वि गुरुणो सेवा विणयहेउ' ॥७॥ इति ॥
अथ कालावश्यकस्य पूर्वार्द्धन भेदान् उत्तरार्द्धन तु तदाद्यभेदं निरूपयन्ति
काले पुण पंचविहं दिवसनिसापक्खिाइमेएण ।
प्रारयणिपढमपहराउ देसि देसि तत्थ ॥८॥ व्याख्या- काले - कालविषयं पुनरावश्यकं • पचविधंपचप्रकारं भवति । तानेवा:-दिवसनिशापाक्षिकादिभेदेनेति
आधाराधेययोरभेदोपचाराद् दिवसेन-दिवसातिचारेण निर्वृत्तं देवसिकमनुष्ठानं, निशया-निशातिचारेण निर्वृत्तं नैशं-रात्रिकम्, भाषत्वादिकणप्रत्ययलोपात् दिवसनिशाशब्दाभ्यामुक्तमिति मन्तव्यम् । एवं पक्षण-पक्षातिचारेण निवृत्त पाक्षिकम् भादिशब्दाचातुर्मासिकसांवत्सरिकपरिग्रह इति । तत्र तेषु फचसु भेदेषु मध्ये भारबनिप्रथमप्रहरान्-निशायाः प्रथमप्रहरमभिव्याप्य दैवसिकं देशितंकथितमावश्यकचूर्णावित्युत्तरगाथापदेन योगः इति ॥८॥
अथ गाथार्द्धन रात्रिकं चूर्णावुत्तत्वेन शेषेण पुनरुभयोरपि व्यवहारानुयायितां दर्शयन्ति
उग्घाडपोरिसिं जा राइयमावस्सयस्स चुन्नीए । ववहाराभिप्पाया भणंति पुण जाव पुरिमड्ढे ॥६॥
व्याख्या-उद्घाटपौरुषीं यावद् इति । उद्घाट्यतेऽर्थोऽस्यामित्युद्घाटाऽर्थपौरुषी-द्वितीयः प्रहर इत्यर्थः । न चैवत स्वमनीषिक
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भावश्यक-सप्ततिः योच्यते, यतो व्यवहारचूर्णावुक्तं-'अंग सुयक्खधं वा पुव्वसूरे' प्रथमप्रहरे । उपाहाए वि पोरिसीए अणुनर्विति निसीहमाईणि'त्ति । पञ्चकरुपचूर्णावप्युक्त-'सो य पुण सत्थो कालुठाई नाम जो सूरे उइए उठेइ । कालनिवेसी उग्घाटपोरिसीए ठाइत्ति' । तामुद्घाटपौरुषी मर्यादीकृत्य, न पुनरभिव्याप्येति । तथाचावश्यकचूर्णि:-दिवसओ वंदणगविहाणं भणियं । राइमाईसु वि जेसु ठाणेसु दिवसग्गहण तत्थ राई भाणिअव्वा । नवरं-'पासिए जाव पोरिसिं न उग्बाड ताव देवसियं भण्णइ ॥ पुत्व जाव न उग्घाडइ ताव राईय'ति । तथा व्यवहार अशठसमाचरणा तदभिप्रायाः सूरयो भणन्तीति योगः। यद्वा-व्यवहारव्यवहारिणोरभेदाद् व्यवहारशब्देन व्यवहारिण उच्यन्ते । तेषामभिप्रायं प्रतीत्य प्रमाणीकृत्य पुरिमा दिनरात्र्योः पूर्वार्द्ध यावद् भणन्ति पूर्ववृद्धाः । केचित्त वृद्धाभविधिकृताद्वरमकृतमित्यसूयावचनमिति वचनार्थमनुसरन्तः सन्तः -
गोसंमि अकयभावस्सयाण पासियं समावन्नं । पाभाइयपडिक्कमण काउं इयरं तभो पच्छा' इत्यादि दिशन्ति ॥९॥ अथ पाक्षिकस्वरूपं विप्रतिपत्तिनिरासार्थ प्रपञ्चतः प्राहु:पक्खिअपडिक्कमणं पुण चउद्दसीए तिहीइ कायव्वं । तं जेण चउत्थेणं भत्तेणेवं सुपाएसो ॥१०॥ व्याख्या-पाक्षिकप्रतिक्रमणं पुनश्चतुर्दश्यामेव तिथौ कर्त्तव्यं, कुनो हेतोः ? इत्याहुः-'तं जेणं' ति । दिति पाक्षिक येन कारणेन चतुर्थन भक्तेनेति एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण श्रुतादेशो-निशीथरूपश्रुता. ज्ञेति । तथा पाक्षिकप्रतिक्रमणं चतुर्दश्यामेव कर्तव्यमित्यत्र पूज्योक्तान्येव हेत्वन्तराणि प्रदर्यन्ते । तद्यथा-व्यवहारे पाक्षिकशब्देन चतुर्दश्या पवाभिधानात् ।। एतच्चाने दर्शयिष्यन्ति · विज्जाणं परिवारिमित्यादिना तथा पक्षाभ्यन्तरे सूत्र क्वचिदपि ज्ञानपञ्चमी
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चतुर्दश्यामेव पाक्षिकप्रतिक्रमणस्य प्रमाणानि . ११ परिहारेण पर्वत्रयस्थानुपदेशात् २॥ पंचदसी पाक्षिकमिति क्वचि. दपि व्याख्यानाऽ शनात् ।३। चतुर्दशी-पाक्षिकयोः एकतरग्रहणेऽन्यतरग्रहणाऽदर्शनात् ।४। प्रस्तुतपर्वत्रयाकरणे पृथक प्राय श्चत्तादर्शनात् ।। पाक्षिकोक्तानुष्ठानानां चतुर्दश्यामेवोपलम्भात् । ६।। इति ।। अमुचार्थ प्रायः स्वयमेव गाथात्रयोदशकेन पूज्याः प्रकटयाञ्चक्रिरे । तथाहि-पंचाणुट्ठाणमयं पक्खियपव्वं जिणेहिं पण्णत।
ताई चउहसीए पायं दोसंति ननस्थ ॥१॥ भट्ठमी-चउहसीसु उववासो साहुणो सुए भणिओ।
आवस्सयचुण्णोए पेइयजइबंदणा भणिया ॥२॥ ववहारे पुण भणिया पक्खिमसद्दे ण चउरपी घेव । __ आवस्सयंमि पक्खियदिणंमि पुण पक्खपटिकमणं । ॥ भणिया निसीहमाइसु पक्खियदिवसंमि सुद्धि पडिवत्तो ।
एवं चाहसीए पंचाणुट्ठाणमणणंति ॥४॥ जं पुण लोए रूढकत्थ वि पन्नरसीतिहि-पडिक्कमणं ।
चउमासगपडिकमण छ?तवेणं सुए भणियं ॥५॥ तं च किल पुनिमाए तस्सनुसारेण पक्खपडिकमणं ।
मोत्त तवाइविसेसं पडिवना सरिसभावाउ ॥६॥ सुयणाणपंचमी भट्ठमी य तह चउरसी उ च उमास ।
संवच्छरियं पव्वा साहुण सया इमे पंच ॥७॥ एवं महानिसीहे भणियं पुन्चेमु तिमु य उववालो।
चउमासे पुण छह तहमो पज्जुसवणाम ।।८।। मुयनाणपंचमीए सुयपूया सा य वोहिलाभाय ।
कम्मक्खयहमहमि उववासो चसीए पुणो ।९॥ निस्सेससिद्विलाभो चउमासग-१ जुसवपन्चेसु ।
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भावश्यक-सप्ततिः उत्तरकरणाइफलो तो विसेसो ज़मो भणिय । १०। उत्तरकरणं एगगाया य भालोयचेइवंदणया ।
मंगलधम्म कहावि य पव्वेसु तवोगुणा होति ॥११॥ सुयनाणपंचमीए उववासो नाणपूयण दोन्नि । . उववासु अहमीए चेइयजइवंदणं तिन्नि ॥१२॥ एए चउसीए तिन्नि तहालोयणा पडिक्कमणं ।
चउमासगवच्छरिएमु पंच एए अणुट्ठाणा । १३॥ अमु च गायोक्तमनुष्ठानपञ्चकमुत्रग्रन्थेन क्वचित् किठिचद् व्यक्तीकरिष्यन्ति ॥१०॥ श्रुतादेशमेव दर्शयन्ति
अट्ठम-छत्रु-चउत्थं संवच्छर-चाउमास-पक्खेसु । न करेइ सायबहुल-तणेण जो तस्स पच्छित्तं ॥११॥
व्याख्या-अष्टानां भक्तानां परिहारेण निवृत्त यत्तदष्टमम्उपवासत्रयम् उत्तरपारणक-पारणकयोरेकभक्तकरणात् । एवं षष्ठचतुर्थयोरपि वाच्यम् । अत्र द्वन्द्वसमासादेकवद्भावः । तदृष्टमषष्ठ. चतुर्थ, 'संवत्सर' त्ति । प्राकृतत्वात् सांवत्सरिकच तुर्मासपाक्षिकेषु न करोति सातबहुलत्वेन-सुखलम्पटत्वेन यस्तस्य प्रायश्चितं यथासङ्खये न चतुर्गुरु-चतुर्लघुमासगुरुरूपं भवति । एतत् स्वरूप च गुरुमुखात् ज्ञातव्यम् । यन्न कृतं तदेव वा तपः प्रायश्चितं भवतीति । तस्मात् सांवत्सरादिषु यथामिहिम्मष्टमादि तपः कार्यमित्यतः पाक्षिके चतुर्थ कर्त्तव्यतया सम्पन्नम् ॥११॥
तञ्चतुर्थ चतुर्दश्यामेव बहुषु प्रन्थेषु निरूपितमिति दर्शयन्तः प्राहुः
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चतुर्दश्यामेव चतुर्थस्य प्रमाणानि १३ तं पक्खिअचुणीए महानिसीहे दसासुअक्खंधे ।
भणिग्रं चउद्दसीए समराइच्चे य फुडमेयं ॥१२॥ व्याख्या-तदिति चतुर्थ पाक्षिकचूर्णी महानिशीथे दशाश्रु तस्कन्ध इति दशाश्रु तस्कन्धचूर्णौ भणितम्-उक्त चतुर्दश्यामेव समरादित्ये च स्फुटमेवेति । अथ क्रमेणैषामालापकाः प्रदयन्ते । तद्यथा'इच्छामि खमासमणो पियं च मे जं भे हाणमित्यादिपाक्षिकक्षामणकसूत्रोक्तपौषधशब्दव्याख्यायां 'पोसहो अहमि-घउद्दसीसु अवधासकरणमिति पाक्षिकचूर्णिः। 'मट्टमि-बाहसि - ना.पंचमि संघच्छर-चाउम्मासेमु चलत्थ भट्ठम-छ? न करेति तो पच्छिन, इति महानिशीथसूत्रम् । तबा-तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे नाम नयरे होत्था । एत्थ नगरवण्णमो भाणियो । तस्स य वाणियग्गामस्स नयर स्स बहिया उत्तर पुरच्छिमे दिसीभाए दुईपत्लासे नाम चेहए होत्था । चेइयवण्णओ। जियसत्त राया धारिणीदेवी । एवं समोसरणं भाणियन्वं, जाव पुढविसिलावट्टमओ, सामी समोस रिमो, परिसा आगया । धम्मो कहिओ । जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया । मज्जो त्ति समणे भगवं महावीरे बहवे निगंथा य निग्गंधीमो य आमंतित्ता एवं क्यासी-इह खलु अज्जो समणाणं निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इरियासमिइयाण जाव कायगुत्ताणं गुतिदियाणं गुत्तबंभयारीण आयट्ठोणं पाहियाणं आयजोगीणं आयपरकमाणं पक्खियपोसहिए सुयसमाहिपत्ताणं झियायमाणाणं इमाइं दस चित्तसमाहिठाणाइ असमुप्पण्ण पुवाइं समुज्जेज्जा' इत्यादि । 'गुत्तभयारीणं'ति न केवलं इदिएसु गुत्ता सेसेसुवि पाणवहाइसु गुत्ता । अट्ठारससु वा सीटांगसहस्सेसु ठिया गुत्तबंभयारी भवंति । 'भाय?णं' ति । आत्मार्थी आयताथीं वा । 'भायहियाणं' ति आत्मनि हिता हिसादि. निवृत्त्या। 'आयजोगीणति जस्स जोगा वसे वट्टते आप्ता वा
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आवश्यक - सप्ततिः
परवशा
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यस्य योगा: । 'आयपरक्कमाणं ति । आत्मार्थ पराक्रमंते न परार्थ वा चौरबालवत् । पक्खियं पक्खियमेव, पक्लिए पोसो पक्खियपोसहो च हसि भट्ठमीसु वा । 'समाहिताणं' ति । नाणदंसणचरितसमाहिपत्ताणं । भियायमाणाणं ' ति । झाणे वट्टमाण | धर्मचिन्ता- सर्वे कुनमया अशोभना अनिर्वाहकाः सर्वेषु शोभनतरोऽयं धर्मो जिनप्रणीतः इति ॥ १ । सञ्ज्ञिज्ञानं वा पूर्वमवेऽ मुकोऽइमासमिति सुदर्शनादिवत् ||२|| स्वप्नदर्शन वा यथा भगवतः श्री वर्धमानस्वामिनः ||३|| तपोमाहात्म्याक्षिप्तदेवदर्शनं वा मथुराच्चपकवत |४| अवधिज्ञानं वा ॥५॥ श्रवधिदर्शन वा | ६| मनःपर्यायज्ञानं वा |७| केवलज्ञानं वा |८| केवलदर्शनं वा || ९ || केवलिमरण वा ॥ १० ॥ सर्वदुःखप्राणायेति दश वित्तसमाधिस्थानानि । इति पञ्चमदशासूत्र चूर्णिश्च । अत्र च पक्प्रियं पक्खियमेवेत्यादिवाक्ये केचित् पाक्षिकं पर्व चतुर्दश्याः पृथगेव व्यवस्थापयन्ति । तत्र किल पञ्चदशीति । न चैतदुपपन्नमाभासते । चउदसि - भट्टमीस य इति समुच्चयनिर्देशप्रसङ्गात् । न चात्रत्यो वाशब्द एव समुच्चयाथः स्यादिति शङ्कनीयं- "पोसहो मट्टमि - चउदसीसु उववासकरणमि'त्यत्र पाक्षिकचूर्णौ पाक्षि कक्षामण कोक्त पौषव शब्द व्याख्यायां पाक्षिकप्रक्रमेऽपि पञ्चदश्यामुपवासानभिधानात् । तस्मात् प्रथमत्राक्येन पाक्षिकशब्दवाच्यं रूढ चतुर्दशीपर्व गृहीतं व्यवहारे पाक्षिकशब्देन चतुर्दश्या एव प्रहणात् । द्वितीयविकल्पनिर्देशन तु पक्षे भवमिति व्युत्पतिबजात् शब्दार्थप्राधान्यात् पाक्षिक पौषधतयाष्टमीचतुर्दश्यावुक्ते इति । यद्येवं श्रुतपञ्चम्यपि किं नोक्ता ? इति चेन् न, उभयपक्षाव्यापकत्वादिति भत्र 'पौषध' इत्युपवासकरणं चतुर्दश्यामेवोक्तमिति । तथा
'गुणसेन अग्गिसम्मा सीहा-णंदा य तह पिया-पुत्ता । सिहिजालिणि माइसुया धण धणसिरिमो य पइभज्जा' ॥१॥
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शिखिकुमार चरितलेशः
इत्यादि मूलगायोक्तप्रकारेण गुणसेनजीवः किल मनुष्यभवापेक्षया तृतीयभवे जम्बूद्वीपापविदेहे कोशपुरेऽग्निशर्मा तापसजीवः जालिनीब्राह्मगीपुत्रत्वेन शिखिकुमार इति नाम्ना सञ्जने । स च तदोयपूर्ववैरानुबन्धप्रवर्तितानुचितप्रवृत्तिदर्शनेनोत्पन्नभविष्यद्भाग्यवैराग्यः सद्ब्रह्मब्रह्मदत्ताभिधानजनकप्रवर्तित प्रव्रज्यामहोत्सवः श्रीमद. जितदेवतीर्थकृद्विजयधर्मगणभृदा वार्यविजयसिंहपादमूले प्रतिपन्नप्रव्रज्यस्तेनैव सार्द्ध मासकल्पविधिना प्रामानुग्रामं विहरमाणः स्वजननीकृत्रिमाह नानुरोधवशानिजगुरुभिस्तद्वन्दापनार्थमतुझातसत्कतिनिचारुसमाचार-यतिपरिवार परिचर्यमाणचरणः स्वविभवोपहसितवित्तेशकोशकोशपुरमाजगाम । तत्र चातिशयोपेतवचनरचनचातुर्यवर्याक्षेपकव्याख्यानवशवशीकृत-श्रीमजितसेनमहाराजप्रमुख राजन्यचक्रः समानन्दितसञ्चःपतिवियोगयोगिनी नि:सीमहत्वकालुष्यवशेन भोगिनी विकटकूटकपटघटनामात्रशालिनीमपि जालिनी निजमातरं विनिर्जितसुधासारानेकप्रकारसद्धर्मप्रवत्तकदेशनाभिः सम्बोधयन् कतिचिदिनानि गमयामास । सा च तन्माता तद्विनाशनोपायानन्वेषयन्ती तदलामादतीवसंतापदहनदन्दह्यमानमानसा समतिक्रमयामास कश्चिदनेहसम् इत्यनेन सम्बन्धेन समरादित्ये इदमभ्यधायि-अन्नया आगया च उहती, ठिया साहुणो उववासेण भिक्खा महिंडणं मुणिया य तीए, तमो चिंतिउ पयत्ता - जइ कहिचि कल्लं न एस वावाइजइ तमो गमिस्सइ पक्खसंधीए, न एत्थ अन्नो कोइ उवाओ ता करेऊग. का (क)सारं तालपुडसंजुयं चेग मोयगं गोसे उवणेमि एयाण निब्बधश्रो य भुजाविस्सामि एए' इत्यादि तावद्यावत् गृहस्थानीतपिंडदोषभणनेप्यप्रतिबुद्धायाः तस्या तद्भावप्रतिपातरक्षणार्थ कुमारेण प्रतिपन्ने भोजने जाव आगया पारणगवेला । कुमारवयणबहुमागमो उवविठ्ठा साहुणो दिन्नाणि य तीए जहोचिएण विहिणा भोयणभायणाणि । परिविट्ठो य सुसंभिभो का (क) सारो पभुत्ता य साहुणो। दिन्नो य
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भावश्यक-सप्ततिः
भुत्तसेस का (क) सारसंगो चेव कुमारस्स ताल उडलडू गो भुत्तो य देणमिति । अतः परं कथासम्बन्धयोजनार्थ किश्चिदुच्यते-यथा विषमविषछ टाविह्वलीभूतं चात्मानमवलोक्य शिखिकुमारमुनिः प्रवर्द्धमान-शुद्धाध्यवसायः कृतानशनप्रतिपत्तिरूपानुत्तराऽध्यवसायः, समनुष्ठिततत्कालोचितमिथ्य दुःकृताद्यनुष्ठानविशेषविशोषितकलुषकषायश्चन्तयामास-आ: ! किमिदमसारसंसार दुर्विलसित यदेवंविधसद्धर्म-कर्मप्रवर्त्तनचिन्तावसरेऽप्यकाण्डकूष्माएडनिपतनमिव कृतान्त-कोदण्डदण्डप्रपतनं, दुर्वारप्रसरो हि मोह महाराजः प्रतिसमयमनेकाभिमनोरथपथप्रत्यर्थिनीभिभङ्गीभिरुज्जभते। तथाहि-दुःप्रतिकारां मातरमुपकरिष्यामीत्यागतः, परमपरम परिणामकारणतया तदपकाराय संवृत्तोऽस्मि । तथाऽस्या:पतिवियोग शोककुमुद्धरिष्यामीति स च द्विगुणीकृतः स्ववियोगेन, संसारपङ्काच्चैतामुद्धरिष्यामीत्यथवैवमकालोपस्थितानर्थप्रथया द्विगुणतमं क्षिप्ता दुर्यशःपङ्के । न लोकाः कलयिष्यन्ति मातुरपत्यवत्सलत्वं किन्त्वन्यथा मुग्धबुद्धितया सम्भावयिष्यन्ति । तदहो! विचित्र: कर्मपरिणाम' इत्यादि परिभावयन् विमुक्तनमस्कारसारविग्रहः प्राप ब्रह्मदेवलोकमिति । तत्रापि चतुर्थ च चतुर्दश्यामेवोक्तमिति ।
भत्र केचित 'जइ गेहं पइदियहपि सोहियं तहवि पक्खसंधीसु । सोहिजइ सविसेसं एवं इहयपि नायव' मित्यागमं स्वच्छन्दतयो व्याख्यानयन्त:-कल्लपक्खसंधीए विहरिस्संति' इति ज्ञापकात पञ्चदशीमेव पक्षसन्धिशब्दवाच्यतया व्यवस्थापयन्ति । तत् सर्वथा सत्पथ. प्रत्यर्थिनां प्रलापमात्रं, यतो न पक्षसन्धिशब्दवाच्या पञ्चदश्येव, चतुर्दशीपञ्चदश्योरुभयोरपि तत्शब्दाभिधेयत्वेन लोके प्रसिद्धत्वात् । तथाहि-अबलाबालगोपालका अपि प्रलपन्ति-'चउद्दसिअमावास पक्खसंधी समुहो कहं देवंतरं गमिस्ससि?'त्ति । ततः साधारणप्रयोगे सत्यपि यद्यत्र सम्भवति तत् तत्र ग्राह्यम् । यथा पशान्ते चन्द्रः क्षीयते
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चतुर्दश्यां सर्वचैत्यसाधुवन्दनम् बर्द्धते चे'त्युक्तावपि यथासम्भवममावास्यापूर्णिमयोहः । तद्वदत्रापि पक्खसंधीए विहरिस्सती' त्यत्र पञ्चशी सम्भवति । प्रतिक्रमण. गाथायां तु पक्षसन्धिध्वनिना चतुर्दश्येव ग्राह्या, तत्रैवोपवासाधनुष्ठानानामुपलम्भात् । पञ्चदश्यास्तु तद्वाच्यत्वस्यतदालापकोक्तपारणकेनैव वाधितत्वात् । यद्यस्यां पक्षसन्धिशब्दवाच्यत्वं तद्वारकं च पाक्षिक स्यात् कथं पारणकमुक्तम्' इति । ततो व्यवहारा वसंवादेन पक्षपर्व व्यवस्थापनीयमिति । यच्चान्यचन्द्रप्रज्ञप्ति-सूर्यप्रज्ञप्ति-ज्योतिःकरण्डादिप्रन्थवचनात् 'एगमेगस्स ण पक्खस्स पन्नरस नामधिज्जा पन्नत्ता' इत्यादिरूपात् 'पक्षोऽर्द्धमास' इत्युक्तं तत्सम्प्रतिपन्नमेव मासादिप्ररूपणापेक्षया, पर्वप्रक्रमे तु तपःप्रभृतेः तत्राभणनादित्यादिबाधकमुक्तमिति । इत्यादिप्रन्थेषु चतुर्दश्यां चतुर्थमुक्तम् ॥१२।।
पाक्षिक पर्व चतुर्थेनैव कार्यमिति व्यपदिशन्ति
संवच्छरियं जह अट्ठमेण चउमासिगं च छहण । - तह पक्खियं चउत्थेण निविप्रारं सुपाएसो ॥१३॥
व्याख्या-सांवत्सरिकं यथाऽष्टमेन, चातुर्मासिकं च षष्ठेन तथा पाक्षिकं चतुर्थेनेति निर्विचार श्रुतस्य-निशाथादेरादेशस्तच्च चतुर्दश्यामेवोक्तमुक्तन्यायेन, पञ्चदश्या तु यतिपर्वत्वेन चतुर्थ करण कुत्रचिन्नोपलभ्यते। प्रत्युत तस्यां समरादित्यालापके पारणस्यैवोपलम्भ इति।१३
अथ चतुर्दश्यां पर्वकृत्यमुपवासमुपदर्य चैत्ययतिवन्दनमुप - दर्शयन्ति
संवच्छरियं च उमासिगं च सुत्तम्मि जह विणिदिट्ट। चेयजईण सव्वेसि वंदणे पक्खिअं पि तहा ॥१४॥
व्याख्या-सांवत्सरिकं चातुर्मासिकं च सूत्रे यथा विनिर्दिष्टं सर्वचैत्ययतिबन्दने कर्त्तव्ये, पाक्षिकमपि तथैव 'मबंदणे चेहसाहूग'
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आवश्यक-सप्ततिः मिति भाष्यं पक्खिए अभत्तट्ठ न करेइ सबसाहू चेइयाणि य न वंदइ तो पच्छित्त' मिति व्याख्यानयता व्यवहारचूर्णिकृता विनिदिष्टमिति योगः । न चैतदनुपपन्नं । यतो-अत्र प्रयोगोऽपि पाक्षिक चैत्ययतिवन्दनपूर्वकमेव कर्त्तव्यं पूर्वदिनातिचारविशोधकरूढपर्वत्वाच्चतुर्मासकवदित्यतोऽपि चैत्ययतिवन्दनं पाक्षिके कर्त्तव्यमिति सिद्धम् । तच्चान्यप्रन्थेष्वमावास्यापूर्णिमयोर्न संवदति ।
चतुर्दश्यां तु संवादं दर्शयन्तिश्रावस्सयचुण्णीए सव्वाणि वि चेइयाणि साहू अ। अट्ठमिचउद्दसीसु जं भणिग्रं वंदिअव्व त्ति ॥१५॥
व्याख्या-अमिचउद्दसीसु अरहना साहूणो य वंदियव्वा' इत्यालापकेनावश्कचूर्णौ भणितमिति योगः । सर्वाण्यपि चैत्यानि साधवश्वाष्टमीचतुर्दश्योर्यद्-यस्माद्वन्दितव्या इति । तथा सत्यनुष्ठानत्रयस्य साक्षाच्चतुर्दश्यामेवागमे भणनादालोचनायाश्चामावास्यायां प्रतिषिद्धत्वेन वक्ष्यमाणत्वादनुष्ठानचतुष्टयं चतुर्दश्यधिकरणं सिद्ध भवति । ततः पाक्षिकप्रतिक्रमणं साक्षादनुष्ठानसामर्थ्यादायाति ।१५।
अमुमेवार्थ सङ्कलय्य निरूपयन्तिचेइयजइवंदणतवदिणंमि पडिकमणमत्थो एइ । न य पुण सुत्ते दीसइ जह पंचदसीइ पडिकमणं ॥१६॥ __ व्याख्या-चैत्ययतिवन्दनतपोदिने प्रतिक्रमणं पाक्षिकप्रतिक्रमणमर्थतः-सामर्थ्यादेति । सामादपि न स्याद् यदि साक्षात्पञ्चदश्यां प्रतिक्रमणाभिधानं स्यादित्याहुः-'न य पुण' ति। न च नैव पुनदृश्यते सूत्रे क्वचिदपि स्थाने यथा एञ्चदश्यां पाक्षिक प्रतिक्रमणमिति । भास्तां पञ्चदश्यामागमे तत्प्रतिक्रमणाभणनं किन्तु तत्सहचरानुष्ठानभणनमपि नास्ति यतीनामिति गर्भार्थः ।
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पर्युषणाविधिः
१९ यच्चात्र केचिद् 'मुणियसमयसम्भाषा-इत्याक्रोशपुरस्सरमागमप्रन्थानामभिधानाभिधानमात्रेण मुग्धव्यामोहनाय विरोधमारोपयन्तः प्रतिपादयन्ति-'जइ चेइयसाहुबंदणतवा उ पक्खिधं चउद्दसीए भाणिजह तो अन्नो कोइ मट्टमीए पंचमो९ वा भणिस्सई' इत्यादि । तदतीव-व्यामोह-व्याकुलितचेतसा तेषां प्रलपितम् । अष्टम्यां पाक्षिकप्रतिक्रमणसहचरालोचनायाः प्रतिषिद्धत्वात् । पञ्चम्याः पुनरुभयपक्षाव्यापकत्वादन्यतिथीनां तु रूढपर्वत्वाभावात् । यच्च चतुर्दश्यां पाक्षिके क्रियमाणे चातुर्मासिवे ऽमम्-उस्सग्गेण पुणासाढसुद्धरसमीए ठियाणमासाढीपुन्निमाए चेव पज्जोसवेअव्वमिति वचनाद्-उत्कृष्टपर्युषणायां चाषाढ पूर्णमासीदिने क्रियमाणायां चतुर्दशमं प्रसञ्जयन्ति । तदप्यागमरहस्यानभिज्ञप्रलपितम् । चतुर्मासकसम्पन्धिचतुर्दश्यास्तद्भिन्नपर्वत्वेनाराधनाश्रवणादिति । पयुषणा त्वाषाढपूर्णिमायाँ नियमग्रहणमात्रं गृहस्थज्ञातीकरणं च । न पुनस्तपः प्रतिक्रमणकरण । तस्य भाद्रपदसितपञ्चम्यां शाश्वतपर्वण्येवाभिधानादिति ॥१६।।
सम्प्रति पयुषणाकल्पाकर्षणानुसारेण गाथाद्वयेन प्रस्तुतेऽभ्युचयमाहुः
पाअोसियकालेणं अणागएसु व चउसु दिवसेसु । पजोसवणाकप्पम्मि कडिए सव्वसाहूणं ॥१७॥ कजइ पजोसवणा निसीहमाईसु जं फुडं भणियं । तं कह पंचदसीए जुञ्ज जा पक्खपडिकमणे १ ॥१८॥ व्याख्या-प्रादोषिककालेनाऽनागतेष्वेव चतुषु दिवसेषु पयुषणाकल्पे कर्षिते सति सर्वसाधूनां किमित्याह-क्रियते पर्युषणेति पर्युषणाविधिरतः परमिदं कल्प्यमिदमकल्प्यमित्येवं रूपो विधीयते इति निशीथे कल्पादिषु च स्फुटं भणितं तत्कथं पञ्चदश्यां पाक्षिकप्रतिक्रमणे क्रियमाणे युज्येत ?, पञ्चदश्यां पाक्षिके अनध्यायसम्भवेन
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आवश्यक-सप्ततिः तत्र कालाग्रहणात्, चतुर्थीपर्युषणापेक्षया प्रतिपदादिनत्रयस्यैवानागतस्य सम्भवात् इति भावः । कथं तत्र स्फुट भणितम इत्युच्यते । 'अप्पणो उवस्सए पाओसिए आवस्सर कए कालं घेत्तु काले सुद्धे भसुद्धे वा पट्टवित्ता कड्ढिजई'। एवं 'चउसु राईसु पज्जोसवणराईए पुण कड ढिए सव्वे साहवो समप्पावणिों का उस्सग्ग करेंति । पज्जोसवणकप्पस्स समप्पावणियं करेमि काउस्सग्गं । जं खंडियं जं विराहियं जं न पडिपूरियं सव्वो दंडओ कड्ढियवो जाप वोसिरामि' त्ति । लोगस्सुजोयगरं चिंतिऊण उस्सारेचा पुणो लोगस्मुज्जोयकर कढित्ता सव्वे साहको निसीयंति । जेण कड्डिमो सो ताहे कालस्स पडिक्कमइ ताहे वरिसाकाल-ठवणा ठविजइति ॥
अथ मूलपर्युषणापेक्षया पूर्वोक्तमपि घटत इति परावकाशमाशङ्कमानाः प्राहु:पंचमिपजोसवणे पंचदसीए वि पक्खपडिकमणे | अह अजकालगाओ परो जुञ्ज ज एयं पि ॥१६॥
व्याख्या-पञ्चम्यां पर्युषणं यत्तस्मिन् क्रियमाणे सति पञ्चदश्यामपि पक्षप्रतिक्रमणे भगवदार्यकालिकात् पस्तो युज्यतेति तत्कालापेक्षया युक्तमासीदेवनिशोथायुक्तमपीति परामिप्रायः ॥१६॥
अथ पञ्चदश्यां पाक्षिकप्रतिक्रमणाभ्युपगमवादेनापि परोक्तमुल्ल. एठयतः समाधानयन्ति
एवं पि पज्जुसवणा चउत्थिदिवसंमि तेण विहिय त्ति । पत्ता जहा पमाणं किं नो तह पक्खपडिकमणं ? ॥२०॥
व्याख्या-पञ्चदश्यां तत्परतोऽपि पाक्षिक सिद्धान्तानुक्तत्वादसम्मतमेव परमभ्युपगम्यापि ब्रमहे । एवमपि पञ्चम्यां पर्युषणे अभ्युपगमवादेन पञ्चदश्यां पक्षप्रतिक्रमणे च सति पर्युषणाचतुर्थी
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अनागतदिन चतुष्वेन कल्पस्य वर्षणम्
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दिवसे तेन भगवता कालिकाचार्येण विहितेति कृत्वा यथा प्रमाणंप्रमिति प्राप्नोति निर्विवादतया सम्मता, किं न तथा पक्षप्रतिक्रमणं चतुर्दश्यां १ । तत्प्राप्त' उभयोस्तन्निरूपितत्वेन समानेऽपि मात्सर्यचर्या - निबन्धन: पक्षपात एकत्रान्यत्र विद्वेषः | २०||
अथाभ्युपगमापेक्षया तन्निरूपितत्वमेव चतुर्दश्याः समर्थयन्तिनू चउद्दसीए तमासि तस्सन्नहा कह घडेजा ? | पोसाकप्पस वहां दिचउक्केणं ॥ २१॥
"
व्याख्या- नूनं निश्चितं स्वयं प्ररूपितचतुर्थी सांवत्सरिकपर्व वर्षादनन्तरं चतुर्दश्यां तदिति पाक्षिकं तस्य श्रीकालिकाचार्यस्यासीदिति योगः । कथमन्यथा पर्युषणाकल्पस्य कर्षणमनागतदिन चतुष्केन तस्य भगवतो घटते ? तस्मात्तस्य पर्युषणाल्पकर्षणान्यथानुपपत्त्या तेनैव चतुर्दश्यां तत्प्ररूपितमिति मन्तव्यमिति । यच्चात्र कैश्चिदुच्यते'नेदं भगवता चतुर्दश्यां प्ररूपितं किन्तु तद्गुणेष्र्यालुनाऽन्येन केन - चिदित्यादि । तदप्यनौचित्यध्याहृतं यतो यदि मस्सरिणा शटेनाचरितं स्यादिदं कथं सर्वसम्मतं स्यात् ? । तथाहि--नेदं शठप्ररूपितं समस्ताचार्य परम्परासम्मतत्वात् यत्त नैवं न तदेवं यथा भवत्प्ररूपितं श्राद्धप्रतिष्ठादि । तस्मात्पूर्वोक्तयुक्ते ज्ञायते भगवतैव प्ररूपितम् । अन्येन वा तत्तुल्यगुणेन सर्वसम्मतेनेति मिथ्यैत्र तत्र विद्वेष इति ।।
अथ चतुर्मासकानुसारिणीं पराऽऽशङ्कामुत्थापयन्तिच उमासगपडिकमणं सुत्ते श्रह पुरिणमाइ निदिट्ठ ं । तो तयणुसार पक्खिपि जुज्जेज पक्खते ||२२||
व्याख्या - चतुर्मासिकप्रतिक्रमणं सूत्रे पूर्णिमायां यतो निर्दिष्ट ततस्तद्वदेव पाक्षिक प्रतिक्रमणमपि पञ्चदश्यामेव युवतं स्यादिति पराभिप्रायः । चतुर्मासक प्ररूपणासूत्रं त्विदं कृत्तियपुणिमाए
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आवश्यक - सप्ततिः
चाउम्मासि पडिक्कता मग्गसिर बहुलपडित्रयाए निग्गंतव्व' मिति निशोथ चूर्णिः । कल्पेपीयमेव । एवं शेषचतुर्मास कान्यपि पूर्णिमाया 'पौर्णमासीषु च तिसृषु चतुर्मासक तिथिषु' इति सूत्रकृताङ्गवृत्तिवचनादिति ||२२||
अत्रानुत्तरमुत्तरं वितरन्ति
छट्टण चउम्मासगमत्रो य तं पुरणमाइवि घडिजा । एयं पुणोववासेण वनिउ चउदसीए सो ॥२३॥
व्याख्या - षष्ठतपसा निशीथादिषु चतुर्मासकं वर्णितमतश्चतुर्दशीपूर्णिमयोरुभयोरुपवाससम्भवात् तच्चतुर्मासकं पूर्णिमायामपि घटते । एतत्पाक्षिकं पुनरुपवासेन वर्णितं प्ररूपितं । स चोपवासश्चतुर्दश्यामेव वर्णित: पाक्षिकचूर्ण्यादिषु । ततोऽस्यामेव तद्युक्तमिति ॥ २३ ॥
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अत्रैवाभ्युच्चयमाद्दुःचउमासगाणुसारा जइ पंचदसीइ पक्खपडिकमणं । ता कह न पंचमीए संवच्छ रिाणुसारेणं १ ।।२४।।
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व्याख्या - चतुर्मासकानुसारेण यदि पञ्चदश्यां पक्षप्रतिक्रमणं क्रियते, ततः कथं सांवत्सरिकानुसारेण पञ्चम्यां पाक्षिकं न स्यादिति । यत्त्वत्र केचित् 'कत्तियचाउम्मा सिपडिवयार निर्गतव्यं । श्रह वासं न भोरमइ तो मग्गसिरे जद्दिवसे पक्कमट्टियं जायं तद्दिवसं चेत्र निग्गतव्वं, उक्कोसेणं तिन्नि दसराया न निग्गच्छेज्जा, मग्गसिरपु ण्णमा ए एत्तियं होइ एय वयणाओ नजइ जं पुण्णिमाए मासऋष्पं काऊण पक्किमित्तु पढिवया अण्णत्थ विइति' इति वदन्ति । तत् कुबोधकश्मलधियां विस्फूर्जितम् । यतो मार्गशीर्ष पौर्णमासीत्यादिवचनेन मासकल्प एव नियम्यते, न पुनः पक्षप्रतिक्रमणं तस्य व्यवस्थाप्यते । तत: चतुर्दश्यां तत्प्रतिक्रमणं, पौर्णमास्यां पारणकं च कृत्वा प्रति
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भाद्रपदसितप्रतिपदिने पर्युषणाष्टमोत्तर पारणम
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पद्यन्यत्र विहरन्तीत्येतदेव सहृदयहृदयसंवेद्यमिति । न च चतुर्मासकवन्मासकल्पेऽपि पौर्णमास्यां तपः प्रतिक्रमणं च कृत्वा प्रतिपद्य - वान्यत्र विहृत्य पारणकं करिष्यन्तीति वाच्यम् । पाक्षिकप्रतिक्रमणानन्तरमन्यत्र विहृत्य प्रतिपदि पारणकस्य क्वचिदत्यागमेऽनुपलम्भात्, पौर्णमास्या पारणकस्य विहारस्य च 'कल्ला' पक्खसंधीए विहरिस्ती' त्यादौ समरादित्यालाप के स्पष्ट निर्दिष्टत्वाच्च । तस्माद् भ्रान्तिरियं यदुत चतुर्मासकल्पाभिप्रायात् पाक्षिक प्रतिक्रमणप्रविष्ठेति ।
अथ दूषणान्तरं गाथाद्वयेन प्रस्तावयन्ति
तह पज्जुसवण - अट्टम - उत्तर पार गगमित्तभणणाउ । भद्दवसेय - पडिवयदिवसंमि निसीह चुन्नीए || २५॥ नज पक्खुवासो पंचदसीए न अत्थि साहूणं । कहमन्नहा घडेजा तहियं तम्मित्तनिद्द ेसो ? ||२६||
व्याख्या--तयेति दूषणान्तरोपक्रमे । भाद्रपदश्वेतप्रतिपत्रि से निशीथ चूर्णौ पर्युषण ऽष्टमोत्तर पारण क्रमात्र भणनात् ज्ञायते पञ्चदश्यां पक्षोपवासो नास्ति साधूनाम् । त्रिपर्यये बाधकमाहुः—'कद्दमन्नह'त्ति । कथमन्यथा घटेत तस्यां प्रतिपदि तन्मात्रनिर्देश:उत्तरपारणक्रमात्र भणनं । युष्मदभिप्रायेण हि पञ्चदश्यां पाक्षिकोपवासे सति पारणकस्यापि सम्भवात् तद्भणनमिति स्यात् तस्यां, न त्वेकस्यैव भणनमिति । तथा च निशीथचूर्णिः - रन्ना अंतेरिया भणिया तुभे अमावसाए उववासं काउं सव्वखज्जभुजविहीहिं साहुत्तरवारणए पडिलाहित्ता पारेह पब्जोसवणाए श्रहमति काउं पडिवयाए उत्तरवारणयं भवइ । तं च लोगस्स कहियं । तभो पभिइ मरहट्ठविसए समणपूयमो नाम छणो पवत्तोत्ति । यत्रत्रामावास्यायामन्तःपुरस्योपवासकरणं तन्नंदीश्वर चैत्याराधनार्थमिति वक्ष्यन्ति ।।२५-२६ ।
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आवश्यक-सप्ततिः
पुनः पराशङ्कामुत्थापयन्तिअह ववहारे पक्खि अदिणंमि चेइअजईण वंदणयं । भणिो अ अभत्तट्ठो इमीइ गाहाइ वक्खाणे ॥२७॥
व्याख्या-सुगमा० यस्या व्याख्याने चैत्ययतिवादनमभक्तार्थश्व भणितं तां गाथां परोक्त्या दर्शयन्ति ॥२७॥ किइकम्मम्स अकरणे काउस्सग्गे तहा अपडिलेहा । पोसहिअतवे य तहा अवंदणे चेइसाहूणं ॥२८॥
व्याख्या-कृतिकर्म वन्दनक तस्याकरणे, तथा 'काउस्सग्गित्ति । आवश्यकगतकायोत्सर्गविषयाकरणे, तथा जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नस्योपधेर प्रतिलेखे, तथा पौषधः-पर्व-अष्टमीपाक्षिकचतुर्मासिकसांवत्सरिकरूपः, तत्र भवं तपः पौषधिक, पूर्वद्वये चतुर्थमन्यत्र षष्ठाष्टमरूपं यत् तद करणे, तथा चैत्यसाधूनामवन्दने प्रायश्चित्तं मासलवादि भवतीत्यध्याहारः। अस्याश्च गाथायाश्चूर्णौ सर्वेष्वप्येतेषु पदेषु पृथक पृथक् प्रायश्चितमुक्तमस्ति । परमत्र पौषधादिचरमपदद्वयाकरणोक्तप्रायश्चित्तस्यैव सोपयोगत्वात् चूर्णिरेवोपदयते । यथाभट्ठमीए चउत्थं न करेइ मासलहू, पक्खिए चउत्थं न करेइ मासगुरू, च उमासे छह न करेइ चटमासलहू, संवत्सरे अट्ठम न करेइ च उमासगुरू इति । तथा चोक्तं-चरस्थछट्ठमकरणे मिक्खचउमासरिसेसु । लहुभो गुरुप्रो लहुया गुरुया य कमेण बोधव्वा । चशब्देन एएसु चेव पव्वेसु चेइए साहूणो वा जे अण्णाए वसहीए. ठिया ते न वंदइ तो मासलहू इति । अत्र पाक्षिके चतुर्थमुक्तमिति ।२८१
जीए वि पक्खिमदिणे उबवासाई तवो इहं सुत्ते । निविइयगाइ पक्खिन-पुरिसाइविभागप्रो नेयं ॥२६॥
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पाक्षिकादौ उपवासाद्यकरणे प्रायश्चितम्
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व्याख्या - जीतेऽपि - जीतकल्पेऽपि पाक्षिकदिने उपवास आदिशब्दादाचाम्लादि । यद्वा तपः प्रतिदिनं करोति, ततः समधिकतर तपः कर्त्तव्यतया भणितमिति शेषः । तदकरणे प्रायश्चित्तभणनात् । इह 'सुत्ति'त्ति । उत्तरार्द्ध रूपे तदेव दर्शयन्ति 'नित्री' इति । निर्विकृतिकम् आदिग्रहणात् पुरिमार्द्धादि प्रायश्चित्तं ज्ञेयमिति सण्डङ्कः । कथं? पाशिकपुरुषादिविभागत इति । पाक्षिक पुरुषशब्दयोर्यथाक्रममादिविभाग शब्दाभ्यां सम्बन्धः । ततश्च पाक्षिकादीति । पाक्षिके, आदिशब्दाचतुर्मास सकियोः क्रमाञ्चतुर्थषष्ठाष्टमाद्यकरणे, पुरुषविभाग इति क्षुल्लकस्थविरभिपाध्यायाचार्यविभागेन यथाक्रमं निर्विकृतिकादि पुरिमर्द्धादि एकासनकादि प्रायश्चित्तं ज्ञेयमिति । पुरुषविभागश्चात्रग्रीष्मादिकारविभागस्योपलक्षणमिति । २९ ॥
ततश्चात्रापि पाक्षिके चतुर्थ मुक्तमित्युक्तागमानुगतं पराभिप्रायमाशङ्क्य दूषयन्ति—
तो तत्थासं किज्जइ पंचदसी सा न हुज मा कहवि । पक्खिश्रमहा निसीहाइएहि तं नो विरोहाम्रो ॥ ३० ॥
व्याख्या - ततचतुर्दशीशब्दपरिहारेण पाक्षिके चतुर्थभणनात् तत्र उपदर्शितव्यवहारगाथा व्याख्यान - जीतकल्प पुत्रयोः भशङ्क्यतेहे प्रतिवादिन् ! त्वया माशङ्का क्रियते यदुत - पञ्चदशी सा प्रसिद्धा पौर्णमास्यमावास्यास्वरूपा 'पाक्षिकशब्दवाच्या पञ्चदशी' ति । तन्नो भवत्येव, पाक्षिकचूर्णि - महानिशीथादिशन्दोक्तदशा टस्कन्धसमरादित्यप्रभृतिभिः सह विरोधात । विरोधश्व पाक्षिकोक्तस्य तपोनुष्ठानविशेषस्य तेषु चतुर्दश्यामेव भणनात् । व्यवहारेण च विरोधः स्पष्ट इत्युक्तम् । तस्मादागमविरोधं परिहरमाणैरियं सामान्योक्तिविशेषोक्तेर विरोधेन व्याख्येया । न पुनरभिमानादात्म कुगतिहेतुर्विरोधो बोवनीयः । यदाहुः पूज्यश्री भद्रबाहुस्वामिनः
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आवश्यक - सप्ततिः
'दुब्भासिएण इक्केण मिरिइ दुक्खसागरं पत्तो । भमिओ कोडा कोडिं सागर सिरिनामधिज्जाणं' ॥ 'अल्पादपि मृषावादाद् रौरवादिषु सम्भवः । अन्यथा वदतां जैनीं वाचं त्वहह ! का गतिः ॥' तस्मान्माध्यस्थ्यमास्थ्येयमिति ॥३०॥
अत्रैव परमाशङ्कय दूषयन्ति -
यह सव्वपामन्नं पुढो पुढो तेन विरोहो वि । चउमासगं व एवं छट्ट ेणं पक्खि पि भवे ॥३१॥
अथ तेषां सर्वेषामपि पृथक् पृथक् प्रामाण्यं तत: चतुर्दश्योक्त' तपः तस्यामेव कर्त्तव्यं, पाक्षिकोक्त तु पञ्चदश्यां तेन-कारणेन विरोधोऽपि नो भविष्यति । अत्रोत्तरं - 'चउमासगं व' ति । एवमिति स्वदुक्ते क्रियमाणे चतुर्मासकवत् पाक्षिकमपि षष्ठेन स्यादिति ॥३१
अथ गाथाद्वयेन द्विराक्षेपं द्विरुत्तरमाहुः
ग्रह
होउ को विरोहो ? मट्टाइयो तं नो । यह चउदसीह पढमो बीओ पुण पक्खिमि तत्रो ॥ ३२ ॥ चउमासगे वि एवं पावइ छट्ठ न जुञ्जए तत्तो ।
तं
पुण सुते भणि छट्ठ े पडिक्कमेयव्वं ||३३||
W
व्याख्या- अथ भवतु पाक्षिकमपि षष्ठ ेन, को विरोध: ? तत्रोत्तरम् - अष्टमषष्ठादि - पूर्वोकनिशोथगाथारूपवचनतो यत्त्वयोक्त तन्नो भवति, चतुर्थेनैव पाक्षिक प्रतिक्रमणस्य तत्र भणनादिति भावः । अथोच्यते - चतुर्दश्यां प्रथमं चतुर्थ, द्वितीयं पुनः पाक्षिके तपः, ततश्च नास्ति पाक्षि के षष्ठप्रसङ्गः । प्राकृतत्वात् स्त्वमिति ।
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कालाकाल चारिणी साध्याः स्वरूपम्
अत्रोत्तरं वितरन्ति - 'चउमासगे वित्ति । चतुर्मास केऽपि 'एवमिति प्रथमं चतुर्थं चतुर्दश्यां द्वितीयं पञ्चदश्यां प्राप्नोति । ततश्च तत्र षष्ठ न युज्यते न घटते । प्रथम चतुर्थस्य चतुर्दश्याराचनाय त्वयाऽङ्गीकृतत्वात् । 'तमि'ति तत्-चतुर्मासकं पुनः सूत्रे - समनन्तरातिदिष्टगाथारूपे भणितं । षष्ठेन प्रतिक्रमितव्यमिति । तस्मात् पाक्षिकं चतुर्दशीत्येकार्थमेव बोद्धव्यमिति ॥३२-३३ ।
तथा अत्रैवोपचयं दर्शयन्ति -
समणीडुमिपक्खिश्र - वायणकालेसु साहूवसहीए । गमणे चउद्दसीवं दणत्थगमणं विरुज्भेजा || ३४ ॥
व्याख्या - श्रमणीनामष्टमीपाक्षिकवाचनाकालेषु साधुवसतौ गमने व्यवहारोक्त श्लोकेन नियमिते सति चतुर्दश्यां वन्दनार्थं तासां तत्र गमनं विरुध्येत - विरुद्ध स्यादिति ||३४|
तमेव श्लोकं यथोक्तमित्यागमपारतन्त्र्यमात्मन्याविर्भावयन्तो दर्शयन्ति - यथोक्तम् -
मोपक्खि मुत्तु ं वायणालोयणाकालमेव य । सेसकालमयंती नायव्वाऽकालचारिश्रो ||३५||
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कालचारिणी । सज्झायट्ठाए वा इंति । भत्तं पारणं वा दाउं गिण्डि उं वा इंति । कंदष्पट्ठाए वा इंति' इत्यादि । च शब्दोऽन्याऽनियतप्रयोजनागमनसूचनार्थः । तथा च प्रामान्तरं गताः सन्तः
व्याख्या- 'अष्टमोपाक्षिके' इति । चतुर्मासक-सांवत्सरिकयोरुपलक्षणम् । ततश्च नियतपर्वचतुष्टयं मुक्त्वा वायणाकालमेव य-मुक्त्वा शेषकालमागच्छन्त्यः संयत्योऽकालचारिण्यो ज्ञातव्याः । यदुक्तं'ताओ दुविहा भो - कालचारिणीओ श्रकालचारिणीओ य । तत्थ कालचारिणीमो जामो पक्खियाइस इंति, एयव्वइरितेसु एज्जमाणोओ
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आवश्यक - सप्ततिः
स्थविरा:, स्वेन सह समागताः साध्वीराकार्यं पूर्वस्थितैकोपाश्रयसाध्वीनां स्वरूपं पृच्छन्ति । 'ताओ पुच्छियाओ इमं परिकहिंति । जा जत्तो गया सा पडिगया न चेव आलोपइ देसियराइयपक्खियाइसु वा नत्थि आलोयणा । सच्छंदाओ आयरियउवज्झायवयणेणं न ठंति । सच्छंदं पवियरंति । त्रिंटलगाणि य परंजंति । गिलाणीए न पतिपति । पाहुणियाण य वच्छल्ल न करिंति' इत्यादि । तथाSsलोचनादानार्थमप्यायान्ति । यतः किल श्रीमदार्यरक्षितात् परतो निर्ग्रन्थ्यो निर्ग्रन्थीनामेत्र पार्श्वे आलोचनां ददुः । तदारतस्तु श्रमणानामेव सकाशे तां ददन्ते । ततस्तदर्थमपि वसतावागमनं चशब्द सूचितं मन्तव्यम् । एतदुक्तं भवति-नियतपर्वचतुष्टयवाचनाSsलोचनादिविशिष्ट प्रयोजनमन्तरेण यतिवसतौ गच्छन्त्योऽकालवारिण्य इति । यच्चात्र- 'कत्थइ देसग्गण' मितिवचनात् । 'पत्थअट्ठमिगणाउ चा उदसिगहणमत्रि न विरुज्झइ' बहुषु ग्रन्थेषु द्वयोपि साहचर्योपलम्भादिति केचिदतत्त्वज्ञाः प्रतिजानते । तन्न सिद्धान्तानुकूलं यतो यद्युपलक्षणव्याख्यानाच्चतुर्दश्यां यतिवन्दनं स्यात्तदा ववन्दने तस्यां प्रायश्चित्तमपि 'अट्ठमिपक्खच उमासवरि से सु'त्ति सूत्रे प्रतिपादितं स्यात् । न चात्रापि सूत्रे उपलक्षणत्वादष्टमीप्रायश्चित्तमेव चतुर्दश्यां भविष्यतीति वाच्यम् । चूर्णिकृता तथा व्याख्यानाकरणात् । तथापि स्वच्छन्दतया तत्परिकल्पनेऽतिप्रसङ्गः स्यादिति । यश्चात्र परैरित्थं विरोध उद्भाव्यते । यदुत-आर्यकालिकाचार्यात् परतो यथावस्थित एवैतस्मिन् श्लोके पञ्चदश्येव पाक्षिकशब्द वाच्येत्युच्यते तदारतस्तु चतुर्दश्येवेति स्पष्टो विरोधः । सोऽव्ययुक्तः । यतस्तवरतोऽपि चतुर्दश्येव पाक्षिकशब्दवाच्येति । कथं तद्दि'एवं पिपज्जुसवणे' त्यादि प्रागुक्तगाथायामार्यकालिकाचार्यविहितत्वेन चतुर्दशी पाक्षिकशब्दवाच्या व्यवस्थापितेति । तदतीवासङ्गतम् । यतोऽभ्युपगमवादेन तदभिहितं न पुनर्व्यवस्थित सिद्धान्तेनेति नास्ति विरोधबोधगन्धोऽपीति ||३५||
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पाक्षिकादौ गुरोः आलोचना नियमेन दातव्या
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मथालोचनाभणनद्वारेणागमोक्तगाथाद्वयपुरस्सरं तृतीयगाथया - Sत्रैव दूषणान्तरमुपदर्शयन्ति -
पक्खिश्र - चाउम्मासे आलोण निश्रमसा उ दायव्वा । गहणं श्रभिग्गहाणं पुव्वग्गहिए निवेएउ || ३६ || उत्तरकरणं एगग्गया य आलोचेइवंदणया | मंगलधम्मक हावि पव्वेषु तवोगुणा हुति ||३७| इच्चा सुते लोण पक्खि धुवा भणिया | तप्पडिसेहो अमावसाइ कह जुज्जर जहुतं ? ॥ ३८ ॥ व्याख्या - द्वन्द्वैकवद्भावात् पाक्षिकचतुर्मासे, अस्य चोपलक्षणत्त्रात् पक्खच उमाससंवत्सर उक्कोसं बारसहं वरिसारणं ।
समणुत्रा आयरिया फडुगवणो य वियति ॥ इति निशीथागफ च्च सांवत्सरिके च । आलोचना - गुरोः समीपेऽभिव्याप्त्या स्वकृतदुष्कृत प्रकटनासकारागमस्य प्राकृतत्वान्नियमेन दातव्या । अभिग्रहाणां च ग्रहणं कर्त्तव्यम् । पूर्वगृहीतान् तान्निवेद्य गुरोरिति शेषः । निरभिग्रहाणां किल न कल्पते स्थातुमिति । तथा 'उत्तरकरण' मिति
अहो निश्च तवोकम्मं सव्वबुद्ध हिं वण्णियं ।
जायलज्जासमावित्ती एगभत्तं च भोयणं ।। इति परमगुरुप्रणीतप्रतिदिन क्रियमाणतपः कम्र्मापेक्षया विशिष्टतपःकरणेनात्मनः संस्करणम् खण्डितत्रिराधितमूलोत्तर गुणानामालोचनादिना विशिष्ट करण वा । एकाग्रता च गोचरचर्यादि वाह्यव्यापार तिरस्कारद्वारेण मनसः स्वस्थता | आलोच-आलोचना पूर्वोक्तस्वरूपा सा च विशिष्टतपः पूर्वकमेव दातव्या । चैत्यवन्दना प्रतीता । सा च तपसि कृते निवृत्ताहारादिव्यापारत्वेन नि:प्रत्यूहा भवति । 'मंगल'- कल्याणं तच्च तपसि
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भावश्यक-सप्ततिः कृते तदुत्तरकालं विघ्नामावेन सम्पद्यते । धर्मकथा-तत्त्वोपदेशः । सा च तस्मिन् कृते सत्याहारादिव्यापाराभावेन निःप्रत्यूहा प्रवतते । अपि चेत्युक्तेतरस्वाध्यायादिशुद्धाध्यवसायसूचकम् । ततश्व ते पूर्वोक्ताः पर्वसु क्रियमाणस्य तपसो गुणा भवन्ति । 'इच्चाइसु'त्ति । इत्यादिषु निशीथायुक्तसूत्रेषु भालोचना पाक्षिके ध्रुवा-निश्चिता भणिता । तस्या-आलोचनायाः प्रतिषेधश्चामावास्यायां कथं युज्यते. केन प्रकारेण युक्तः स्यात् ? पञ्चदशोप्रस्तुनप्रतिक्रमणवादिनाम । 'यथोक्त मिति पूर्वाचार्यप्रणीतसमनन्तरमण्यमानप्रतिषेधगाथोपदर्शनार्थम् । यच्चात्र प्रथमगाथायां पले-अर्द्ध मासे भवं पाक्षिकं पञ्चदशीचतुर्दशी वा इति कश्चिद् व्याख्यातं तत परोपरोधादेवेति मन्तव्यम् । पाक्षिकदिनेऽवश्यं दातव्याऽऽलोचनाया अमावास्यायामत्यन्तक्षीणतिथित्वेन प्रतिषिद्धत्वात् । चतुर्दश्यां चतुर्यादिकरणस्य तदकरणे च प्रायश्चित्तस्याभिधानात् पञ्चदश्यां तु पारणकस्योक्तत्वात व्यवहारादिभिर्विरोधसम्भवाच्च । ततश्च महीयांसस्ते महनीयाः कथं प्रकटविरोधेऽप्येवं ब्रू युः? ततः शङ्के परोपरोधादेवं तथा व्याख्यातमिति ।।
निषेधमेवामावास्यायां दर्शयन्तिमुत्त दड्ढतिहीनो अमावसं अट्ठमि च नवमि च । छट्टि च चउत्थि बारसिं च आलोअणं दिजा ॥३९॥
व्याख्या- दग्धतिथ :धणमीणगए बीया विसे य कुभे य तह चउत्थी य । कक्कडमेसे छट्ठो अट्ठमि मिहुणे य कन्ने य ॥१॥ विच्छिय सीहे दसमी तुले य मयरे य बारसी भणिया। एया दडढतिहीमो वज्जेयव्या पयत्तेणं ॥२॥
इति गाथोक्तस्वरूपाः नाममाहोक्ततिथीश्च मुक्त्वा मालोचनां दद्यादिति । यतोऽन्यत्राप्युक्त -
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चतुर्दशी पाक्षिकयो र कार्थत्वम
"पक्खिय चउमासाइसु नियमेणालोयणं मुणी देज्जा । गिजिभिग्गहे पुण पुव्वगद्दिए निवेइत्ता" ॥ "काले दड्ढतिही तहा अमावसा अट्टमी य नवमी य । छट्ठी य च उत्थी बारसी य दोहंपि पक्खाण" मिति ॥
३१
तस्मादमावास्यायामालोचनाप्रतिषेधात पाक्षिकेऽवश्यं तद्दातव्यत्वभणनान्न सम्भवत्येव पञ्चदश्यां पाक्षिकमिति । न च चतुर्थ्यामप्यालोचनायाः प्रतिषिद्धत्वात् सम्प्रति क्रियमाणपर्युषण पर्वण्यप्यालोचनादानाऽसम्भव इति वाच्यम्। चतुर्थीप्रतिषेधस्य तदितरचतुर्थीदिनेषु सावकाशत्वात् । श्रमावास्यायास्तु युष्मदभिप्रायेण पाक्षिकपर्वाऽव्याप्ताया: सम्भवाभावात् तत् प्रतिषेधक (का) नामसावकाशः स्यादिति । न चास्वाध्यायायिवेऽपि पाक्षिकसूत्रभणनवत् प्रतिषिद्धदिनेऽप्यवश्यं पर्वालोचना दातव्या । अनियताऽऽलोचनायां पुनर. मावास्याप्रतिषेधश्चरितार्थो भविष्यतीति वाच्यम्। पाक्षिकानुष्ठानानां पूर्वमेव चतुर्दश्यां व्यवस्थापितत्वात् । पक्षान्तेऽवश्यदातव्यत्वेनालोचनायां अनियतत्वस्यैवासम्भवाच्च ||३६||
तम्हा चउदसी पक्खियं च वीसुं न पव्वदुगमेयं । सामन्न पक्खि माइट्ठ पक्खसंधी ||४० ॥
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अथ युक्तिजाल कीलिकानिकरेण चतुर्दश्यां पाक्षि शब्द नियत्र्योपसंहरन्ति दूषणान्तरं चोपचिरन्ति -
व्याख्या - तस्माच्चतुर्दशी पाक्षिकं च न विश्वक पर्वद्वयमेत् । यदि ह्येतत् पृथक् पर्वद्वयं स्यात्तदा युगपदव्यागमेऽनयोः कुत्रचिद् भणनं स्यात्, न चोपलभ्यते । तथाहि - 'अट्ठमि च उसी सव्वाणि चेइयाणि बंदियव्वाणि' इत्यावश्यकचूर्णि: । 'मट्ठमि - चउदसीसु Bववासकरण' मिति पाक्षिकचूर्णि: । 'अट्ठमिपक्खिए मुत्तुमिति
त्थछट्ठमकरणे भट्ठमिए पक्खच उमासव रिसेसु' इति व्यवहार
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आवश्यक-सप्ततिः भाष्यम् । 'अट्ठमछट्टचउत्थं संवत्सरचारम्मासपवखेसुत्ति निशथभाष्यम् । 'मिच उद्दमीसु पडिम ठाएगराइय' मति पञ्च शद्विवरणं । 'जइ सइ बले सइ पुरिसक्कारपरक्कमे अणसणं अट्ठमि पक्खिचाउम्मासियसंवच्छरिएसु न करेइ तो पायच्छित्तं विसंभोगो वा' इति पञ्च कल्पचूर्णिः । 'अट्ठमीए चउत्थं न करइ मासलहु । पक्खिए चउत्थं न करेइ मासगुरु । चउमासे 8 न करेइ चउमासलहू । संबच्छरिए अट्ठमं न करेइ चउमासगुरु' त्ति व्यवहारचूर्णिः । 'अमिचउद्दसी-नाणपंचमि-चउमास-संबच्छरिपसु चरस्थ छट्टट्ठमे न करेति तो पच्छित्त'मिति महानिशीथसूत्रम्। इत्यादिषु सूत्रेष्वेकोपादानेऽन्योपादानस्यादर्शनात् ज्ञायतेऽनयोश्चतुर्दशीपाक्षिकयोरेकार्थस्वमिति । तथा सामान्यत एव पाक्षिकमादिष्टमाख्यातं श्रीभद्रबाहु. स्वामिभि:-'जह गेहं पइदियहंपी'त्यादौ समनन्तरगाथायां पक्षसन्धौ, न पुनः पञ्चदश्यां पाक्षिकमिति विशेषत इति ॥४०॥
तामेवावश्य कोक्तगाथां दर्शयन्तिजह गेहं पइदियहं सोहिअं तहवि पक्खसंधीसु । सोहिज्जइ सविसेसं एवं इहयंपि नायव्वं ॥४१॥
व्याख्या-अत्र चूर्णिरपि-'जह गेहं दिव से पमज्जेक्जंतंति पक्खाइसु विसे सेण उवलेषणाई हिं सोहिज्जइ । एवं साहू वि पक्खा. इसु विप्लेसेण सोहि करेंति' ति सामान्ये नेवेति ।।४१॥
पक्षसन्धिशब्दस्योभयतिथिवाचकत्वेन साधारणत्वं निरूप्य हेतुकं स्वाभिप्रेततिथिवाचकत्वे नियमं निरूपयन्ति
चरमदुचरमतिहीणं रूढं जइ नाम पक्खसंधीसु । सविसेसकिच्चभणणा चउद्दसी चेत्र सो जुत्तो ॥४२॥
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महावीर-निर्वाणम्
३३ व्याख्या-चरमा-पञ्चदशी, पश्चानुपूा चरमाया द्वितीया द्विचरमा-चतुर्दशी तत: तयोः यदि नाम पक्षमन्धित्वं रूढं प्रोक्तनीत्या तथापि पूर्वोक्तप्रकारेण सविशेषकृत्यानां चतुर्दश्यामेव भणनात स पक्षसन्धिश्चतुर्द श्यामेव युक्तः प्रकृतगाथायामिति । यच्चात्र केचन'कत्तियबहुलस्स पन्नर सीपक्खेणं जा सा चरमा रयणी तं रयणी च ण समणे भगवं महावीरे कालगए विइक्कते छिण्ण जाइजरामरणबंधणे सिद्धे बुद्धे मुक्के परिनिव्वुर त्ति । तं रयणी च णं नव मल्लइ नव लिच्छ इ य कासीकोसलगा अट्ठारस गणरायाणो वाराभोए पोसहोवव.सं पट्ठवइसु, वुच्छिन्ने भावोज्जोए दव्वुज्जोत करिस्सामो' इति । कासी-वाराणसी तज्जनपदश्च तत्सम्बन्धिनो मल्लकिनामानो नव कोशला-अयोध्या तज्जनपदश्च तत्सत्काश्च लेच्छकिनामानो नव मिलिताश्चाष्टादश । प्रयोजने च सति गणकारित्वात् गणप्रधाना राजानो ये ते तथा । 'वाराभोए' इति । वारमाभोग्यते-अवलोक्यते यस्ते वाराभोगा:-प्रदीपा: तान् न ते केवलं पोषधोपवासं प्रस्थापितवन्तः कृतवन्तः प्रदीपांश्च द्रव्योद्योतरूपान् भावोद्योते गते सतीत्यर्थः । इति पञ्चदशोंसूत्रवचनादमावास्यायाः पक्षसन्धित्वं वणयन्तो अष्टादशानां राज्ञां च तत्र पौषधोपवासं दर्शयन्तःपक्षपतिक्रमणं पञ्चदश्यां समर्थयन्ति । तदयुक्तम्-अत्र चरमरजनित्वमात्रप्रतिपादनेन पक्षसन्धित्वस्यानियन्त्रणात् रूढितश्चरमद्विचरमतिथिव्यापी हि पक्षसन्धिशब्दश्वरमतिथावेवं कथ नियतः स्यात् ? वृक्षवमिवाम्रत्वे । तस्मात् पक्षप्रतिक्रमणसहचरानुष्ठानानां चतुर्दश्यामुपलम्भात् तत्रैव तद्युक्तम् । यत्तु तस्यां रजनावष्टादशकाशीकोशलाधिपतीनां पौषधोपवासकरणं तत् कुतोऽन्यहमहमिकया संचरिष्णु रोधिष्णुविमानमालासहस्रसङ्कलनभस्तलविलोकनादेः कारणाद्विज्ञातभगवनिर्वाणकल्याणकमहोत्सवानां तदिनाराधनाथ चतुःश्व:समाराधनाथ नन्दीश्वरचैत्यपूजनार्थं च ज्ञातव्यम् । न पुनः प्रतिक्रमणार्थम् । प्रक्रमे प्रतिक्रमणनाम्नोप्य श्रवणादिति ॥४२।।
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आवश्यक-सप्ततिः
अथ पुनः परावकाशमा शङ्कते - दिवसाई ह पनरस चउमासा चउदसीदिवसे । नो पुज्जति तो कह एइए पक्खपडिकमणं ॥ ४३॥ व्याख्या - चातुर्मासकस्य पूर्णिमायां क्रियमाणत्वेन चतुर्दश दिनान्येव ततस्तद्दिवसे भवन्तीति पर।भिप्राय: । 'एइए' इत्यनेन वृत्तिछन्नाया श्रपि चतुर्दश्या ग्रहणमिति ॥ ४३ ॥ |
अत्रोत्तरं वितरन्ति -
बाहुल्लवणमे पक्खे जं हुन्ति पनरस दिखाई | see पज्जोसवणा पक्खि कह णु पुजिजा ? ॥४४॥ व्याख्या - पूर्वाद्व सुगमं । 'अन्न'ति । अन्यथा पर्युषणापर्वणोऽनन्तरं भवदभिप्रेततिथावपि पाक्षिकं कथं पूर्येत ? दिनदशकस्यैव तत्र भावात् । यच्च 'पन्नरसहं दिवसाण' मित्यादिदण्डकसूत्रात् पञ्चदशी तत्पर्वतया व्यवस्थाप्यते । तदप्यनुपपन्नम्। यतश्चतुर्मासकसांवत्सरिकपर्वानन्तर दिनपञ्चकमपि यावत्सामणके क्रियमाणे दण्डकसूत्रं तथाविधमेवाभिधीयते इति स्वयापि प्रतिपन्नम् । ततः कथं ततः तद्वयवस्था तस्मान्न्यूनाधिकेष्वपि दिनेषु सत्सु अखण्डदण्डकमणनमेव श्रेयस्करमिति ||४४ ||
सम्प्रति दिन चतुर्दशकेनापि पक्षो भवनोति लोकसमयं सांमत्यं दर्शयन्ति - लोगेवि सिद्धमेयं जह किल वरिसंमि हुति छप्पक्खा । दिचउदसगेण तहा समए वि फुडक्खरं भणिचं || ४५ ||
व्याख्या - सुगमा | नवरं लोके मासपक्षाऽनियतत्वेन पट पक्षा दिन चतुर्दशकेनोक्ता इत्यभिप्रायाल्लोकापेक्षया समये स्फुटाक्षरमित्युक्तम् ||४५||
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भत्रमरात्रतिथयः भथोत्तराध्ययनादिसमयोक्त्या स्फुटाक्षरत्वमेव दर्शयन्ति
आसाढबहुलपक्खे भद्दवए कत्तिए य पोसे य । फग्गुणवइसाहेसु अ बोधव्या प्रोमरत्ताउ ॥४६॥ व्याख्या-मुगमा । नवरं बहुलपवखे इति भाद्रपदादिष्वपि प्रत्येकमभिसम्बध्यन्ते 'ओमित्त । अवमा-न्यूना एकेन दिनेनेति शेषः । रत्ति'त्ति । अहोरात्राः । एवं चैकै कदिनापहारे दिनचतुर्दशकेनैव कृष्णपक्ष एतेषु । एतदुक्तं स्वयमेव पूज्यैः कालविचारे'इह होइ अोमरत्तं एगं इगसहिदिवस अंतमि । बासहिमा तिही जं खिज्जइ एवइदिवसेहिं ॥१॥
एवं छ ओमरत्ता छावटि सएहिं तीहि दिवसाण । भादित्यसंवत्सरेणेत्यर्थः॥
भणिय छ तिहीओ वीरेहि समं न लब्भंति । एए य कसिणपक्खे हवंति न सुक्कपक्खंमि ॥ जत्तो बीयाउ इमं तं जाण विसेसमुत्ताउ । इति । यच्चात्र परैरुक्तमवमरात्रगणना न प्रमाणमिति । तदपि सिद्धान्तबोधवन्ध्यम 'अंगुलं सत्तरत्तेणे'त्यादि गाथासु तस्यापि प्रमाणीकृतत्वात् । तथा चैतद् वृत्तिः केषुचिन्मासेषु दिनचतुर्दशकेनापि पक्षः सम्भवति, तत्र च सप्तरात्रेणाप्यङ्ग लवृद्धिहान्योर्न कश्चिद् विरोध इति ॥४६॥
अथ चन्द्रक्षयवृद्धयाधुपलक्षितसूर्यप्रज्ञप्त्याधुक्तपञ्चदशदिन - प्रमाणपक्षसङ्कल्पं परेषां निरस्यन्तिपक्खो अचंदसिद्धो न घिप्पए वच्छरुव इह सुत्ते । किं पुण चउद्दसीओ तिहीओ सो चउद्दसी जाव ॥४७||
व्याख्या-इह सूत्रे इति 'पन्नरसण्हं दिवसाणमित्यादि पक्षक्षामणासूत्रे पक्षश्चन्द्रसिद्धः- चन्द्रकलाक्षयवृद्धिनिष्ठापक एको.
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३६
आवश्यक - सप्ततिः
नत्रिंशदहोरात्र द्वात्रिंशद् द्विषष्टिभागनिष्पन्नस्य कृष्णप्रतिपदारब्ध पूर्णमासी निष्ठितस्य चन्द्रमासस्याऽर्द्ध प्रमाणस्वरूपो न गृह्यत एव चकारस्यैत्रकारार्थत्वात् । किंवदित्याहुः - 'वच्छ रु०बत्ति । उक्तचन्द्रमासनिष्पन्नचतुःपञ्चाशदुत्तरशतत्र यद्वादशद्विषष्टिभागप्रमाणचान्द्र - संवत्सरवत् । किं पुनश्चतुर्दश्यास्तिथेरारभ्य चतुर्दशीं यावदिति । इदम दम्पर्य - यथा भाद्रपदपञ्चमीमादीकृत्य पुनस्तस्यां संवत्सरो भवति दिनपटक न्यूनत्वेऽपि तदालापकापेक्षया तथा चतुर्दशीमादीकृत्य चतुर्दश्यामेव पच इति । न केवल पूर्वोक्तागमन्यायान्मुनीनामनुष्ठान पक्षश्चतुर्दशी किन्तु लौकिकशास्त्रप्रसिद्धयानि । यदाह वराहमिहीर टीकाकृत - यस्मिन् दिने दिवसस्य प्रहरद्वये चन्द्रस्योदयो भवति यस्मिन् दिने रात्रेः प्रहरद्वये चन्द्रस्योदयो भवति तावेतौ निर्दिष्टावप्रमितिथिपक्षी मुनीनामनुष्ठानपक्षाविति । यस्मिंस्तिथो कलङ्कविकलचन्द्रो भवति यस्मिँस्तिथो कलैकशेषश्चन्द्रो भवति तस्मिन्नेव तिथौ पक्षस्यारम्भः पक्षस्यावसानमिति चतुर्दश्यौ तन्मुनीनामनुष्ठानपचाविति | ४७||
अथ 'वहारे पुण भणिया पक्तियसद्देण चन्दसी चेत्र' इति पूर्वोक्तां स्त्रप्रतिज्ञां समर्थयन्तो. गाथाद्वयं प्राहुः - विज्जाणं परिवार्डि पव्वे पच्चे अदिति आयरिश्रा । मासद्धमासिश्राणं पव्वं पुण होइ मकं तु ||४८ ॥ पक्खस्स अट्ठमी खलु मासस्स य पक्खि मुणेश्रव्वं । सुते विय चुन्नी पक्खियं चउदसी भणिया ||४६॥
व्याख्या- 'साइणजुत्ताथीदेवया य विज्जा' इत्येवं लक्षणलक्षिता विद्यास्तासां परिपाटि वाचनानुज्ञारूपा पर्वणि पर्वणि गुणाधिकशिष्येभ्यो ददत्याचार्याः । पर्व पुनर्मासार्द्ध मासयोर्मध्यमेव भवति,
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विद्यापरिपाटिदानसमय:
३७ धकारस्यैवकारार्थत्वात् । एतदेव विशेषयन्ति-पक्खस्स'त्ति ! पक्षस्य मध्यमष्टमी मासस्य मध्यं पाक्षिकमेव मुणितव्यं 'चाल्दसिग्गहो होइ' इत्युत्तरगाथासूत्रे नियन्त्रितचतुर्दशीरूपम् । तथा एतत्सूत्रचूर्णावपि पाक्षिकं चतुर्दशी भणिता।।
अत्र पुनः पूज्योक्तैव काचिद् व्याख्या विशेषावबोधार्थ लिख्यते । यथा-आयरिय उवज्झाए णं एगरायं वा दुरायं वा तिरायं गणाओ वीसुवसमाणे नाइक्कमइ इति व्यवहारसूत्रम् । अथाऽस्य श्रीभद्रबाहुस्वामिविरचितमेव भाष्यं-विज्जाणं परिवाडी' गाहा-पूर्वोक्ता । 'पक्खस्स अट्ठभी खलु मासस्स य पक्खिों मुणेयव्वं ।
अण्णंपि होइ पव्वं उवराओ चंदसूराणं ॥२॥ चाउसिग्गहो होइ कोइ बहवा वि सोलसिग्गहणं । वत्तं तु अणज्जते होइ दुरायं तिराय वा ।।३।।
अथाऽस्य गाथात्रयस्य तदक्षरैव चूर्णि:- विजाणं परिवाडी' त्यादि गाथा कण्ठ्या । पक्खस्से' त्यादि । व्याख्या-पक्खपवस्स मज्झ भट्टमी बहुलाइया मास त्ति काउं, मासस्स मज्झ पक्खिों , किण्हपक्खचड़द्दसीए विज्जाण साहणोवयारो । सेसं कंठ । आह चयद्येवम् एकरात्रग्रहणं कर्त्तव्यम् । किं द्विरात्रिरात्रग्रहणेनेति १ उच्यते-'चाउसि गाहो होइ कोइ' इत्यादि कण्ठ्यम् । अयमस्या गाथाया भावार्थः-किलेह सूत्रे एकरात्र द्विरात्रं त्रिरात्रं वा गणात् पृथगाश्रये आचार्य उपाध्यायो वा एकाकी विद्यायाः पठार्थ पर्वदिनेषु वसन् माज्ञा नातिक्रामतीत्युक्तमास्ते । तन्नैकरात्रं वासस्तावद्युज्यते । पर्वदिनानामष्टमीचतुर्दशी उपरागरूपाणं परस्परं व्यवधानेन भावात् । यः पुनराित्र त्रिरात्रं वा वासः सूत्र उपदिष्टः स कथं युज्यते ? नैरन्तर्येण पर्वद्वयस्य त्रयस्य वाऽभावादिति परेण प्रेरिते भगवान् भद्रबाहुस्वाम्याह-'चाउद्दसिग्गहो होइ' इत्यादि । चतुर्दश्यां पूर्व
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आवश्यक सप्ततिः
गाथायामेव 'मासस्स य पक्खिश्रं मुणयन्त्र' मितिवचनेनोपाचायां ग्रहो - प्रहणं भवति कश्चिद्विद्यानाम् श्रथवा 'वी'ति पक्षान्त सूचनार्थः । षोडशीग्रहणं षोडश्यां चन्द्रसूर्योपरागोपलक्षितायां प्रतिपल्लक्षणायां तिथौ सूर्यग्रहणे कृष्णपक्षाप्रभाविन्यां चन्द्रग्रहणे च शुक्लपक्षाप्रमाविन्यां यद्द्मणं भर्वात विद्यानां कासाचित् । एवं च यदा कुतोऽपि मेघान्धकारादेर्भ्रान्तिकारणात् सम्यग अविज्ञायमाने अमावास्याप्रतिपदोः सूर्यग्रहणे पूर्णमासीप्रतिपदोश्चन्द्रग्रहणे प्रस्तुततिथिविभागे विद्याग्रहणं कियते तदा द्विरात्रं त्रिरात्रं वा वासो भवति । तत्र कृष्णचतुर्दश्यां प्रगुणवृत्त्यैव विद्याघ्रइणानुज्ञानात् । एवं प्रतिपत्तिथावपि भ्रान्तेश्चामात्रास्या रात्रावपीति त्रिरात्रं द्विरात्रं वा भ्रान्त्या पूर्णमासीप्रतिपदोर्विद्याग्रहणेनेति । ततश्चात्र सूत्रे - पाक्षिकं चतुदेशीति व्याख्यानयन् भगवान् भद्रबाहुस्वामी चूर्णिकारश्च ज्ञापयति यदुत - सर्वसूत्रेष्वपि पाक्षिकशब्देन चतुर्दश्येवोगत्ता इति ॥४८-४६ ॥
अथ पक्षशब्द चतुर्दश्यां सुनिश्चितं विधाय परेषां भ्रान्तिमुद्धावयति -
विज्जासाहणसुत्तंमि पक्खियं चउदसी न सेसंमि । पुण भांति केई उग्गो मोहग्गहो एस ||५० ॥
जं
व्याख्या - चउसिदिणं विज्जापरिवादिदाणमासज्ज भणियं न उण पक्खियपडकमणनिमित्तमित्यादि प्रतिजानाना विद्यासाधनसूत्रे पाक्षिकं चतुर्दशी, न शेषे आवश्यकानुष्ठाने इति द्वन् केचिदागमरहस्यानभिज्ञा: । स एष उप्र:- प्रचण्डो मोहप्रहस्तेषामपारसंसारकान्तारान्तःप्रचार कारणसद्द्बोधापहारहेतुत्वात् । यदि च विद्यासाधनमेवाश्रित्य चतुर्दश्यां पाक्षिकशब्दप्रवृत्तिः स्यात् तदा तत प्रतिक्रमणसहचरोपवासाद्यनुष्ठानानां तस्यामुपलम्भ: पूर्वोक्तयुक्त्या पञ्चदश्यां तु तदनुपलम्भः कथं स्यात् ९ तस्मात् उग्रमोहमह एवायमिति । न चैतदाक्रोशमात्रं यतः परमाराध्यैरप्युक्तं
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भाचरणाप्रमाणम्
३९ पयमक्खरपि एक्कपि जो न रोपइ सुत्तनिट्ठि।
सेसं रोयतो वि हु मिच्छट्ठिी मुणेयव्वोत्ति ॥२०॥ अथ चतुर्दश्यां पाक्षिकशब्दसिद्धावपि कथं तत्प्रतिकमणसम्भव ? इत्याहु:श्रावस्सयचुन्नीए पक्खिादिवसंमि पक्खपडिकमणं । भणिअमओ संसिज्झइ चउद्दसी पक्खपडिकमणं ॥५१॥
व्याख्या-चतुर्दश्यां पूर्वोपदर्शितन्यायेन पक्षशब्दवाच्यत्वे सिद्ध सिद्धमेव सामर्थ्यादावश्यकचूर्णावुक्तं पक्षप्रतिक्रमणं तस्यामिति भाव इति । ५१॥ ___ अथ परमगुरुप्रणीतागमोपनिषन्निकषोद्धृतयुक्तिजालेन पाक्षिक प्रतिक्रमण चतुर्दश्यां व्यवस्थाप्याऽऽचरणामपि तदनुकूला कलयन्त: प्राहु:परिहारिविहारीणं गीयत्थाणं च पुव्वसूरीणं । एस च्चिय आयरणा अलंघणिज्जा जो भणिग्रं ॥५२॥
व्याख्या-आधाकादि दोषपरिहरणशीला विहार शीलाश्च एते परिहारिविहारिणः ।
यथोक्त-माहाकम्माइणं काए सावजजोगकरणं च ।
परिहारी परिहरं अपरिहरंतो अपरिहारी। इति । सामान्येन वा ये उद्यतविहारिणः ते परिहारिविहारिणः तेषां तत एव गीतार्थानां विदितसूत्रपरमार्थानां पूर्वसूरीणामेषेव चतुर्दश्यां प्रतिक्रमणकरणरूपैवाचरणा अलङ्घनीया भवति । यतो भणितं श्री भद्रबाहुस्वामिभिः सूत्रकृनियुक्तौ ॥५२॥ तदेव दर्शयन्ति
आयरियपरंपरएण आगयं जो उ छेयबुद्धीए । कोवेइ छेयवाई जमालिनासं स नासिहीइ ॥५३॥
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आवश्यक-सप्ततिः व्याख्या-आचार्याः-सुधर्मस्वामी-जम्बूनाम--प्रभवाऽऽयंरक्षिताद्यास्तषां प्रणालिका पारम्पर्य तेनागतं यद्वयाख्यान-सूत्राभिप्रायस्तद् यः कुतर्कदोधमातमानसो मिथ्यात्वोपहतदृष्टितया छेकबुद्धयःनिपुणबुद्धया कुशाग्रोयशेमुषोकोऽहमिति कृत्वा कोपयत्यभिभवति । सर्वज्ञादिप्रणीतमप्यर्थमन्यथा प्ररूपयति स जमालिनाश नश्यति । यथा फिल जमाली क्रियमाणं कृत' मिति भगवद्व वस्तत्त्वबहिभूत प्रतिजानानः स्वप्रज्ञाप्रकर्षण 'कृतमेव कृत' मित्यभिमन्यमानः कुबोध सन्तमससमाच्छादितविवेकतरणिः समपदिष्टाश्रितलोकचतुर्गतिससारसरणिः सद्बोधप्रध्वंसरूपं नाशं जगाम तथाऽन्योऽसीति । न चैतत् पूर्वाचा चरितं शठा सम चरितमिति मन्तव्यम् । सिद्धान्तोपनिषन्निषन्नबुद्धि भवद्गुरुपरम्परयैव समाचीर्णत्वात् ।
'असठेहि समाइन्नं जं कत्थइ केणई असावज ।
न निवारियमन्नेहिं बहुमणुमयमेयमायरियं' ।। इत्याचरितलक्षणयोगाच्च । भन्यच्च सर्वस्याप्यनुष्ठानस्य निरस्ताभि मानः कश्चिदुपदेष्टाऽन्वेष्टव्यः । तदत्र भवतां पञ्चदशी पाक्षिकप्रतिक्रमणकरणे को नामोपदेशकः संवृत्तः। न तावद् भवदाद्यपुरुषस्यानन्तरो गुरुस्तस्य स्वयं चतुर्दश्यामेव प्रतिक्रमणकरणे प्रवृत्त. त्वात् । स्वशिष्यवत्सलस्यापि तस्य तेभ्यस्तदनुपदेशकत्वाच्च । नापि परम्परागुरुर्भवदाद्यपुरुषेण तस्यादर्शनात तथाविधतत्प्ररूपितसत्प्र. वादाश्रवणाच । तस्मादमानाभिमानग्रहग्रस्तबुद्धिना तौरकिकाम्रदेव दुःश्राद्धश्रद्धाप्रवर्तकेन । तथाऽनुसर पूर्वाचार्यपरम्परापरिचितममु मार्ग । यतः स्फुटानधिगततत्त्वानामयमेव मिथ्यात्वमन्थाः पन्थाः सम्यगिति निधूततमांसि स्ववचांसि ।
को तत्तो पाषयरो सम्म अणहिगयसमयसब्भावो । भन्नं कुदेसणाए कट्ठयरागंमि पाडेह ॥ इति सिद्धान्तोक्तीश्च प्रतिपादयद्भिः श्री मुनिचन्द्रसूरिभिनिवार्य
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गुरुकुल वासत्यागिनः तपस्यादि न सुन्दरम् ४१ माणेनापि तेनैव प्ररूपितोऽयं मार्गः । स च विशुद्धसिद्धान्तानुगत. मतीनां मोक्षकारणानुष्ठानरतानाम् ।
एकेण कयमकजं करेइ तप्पचया पुणो अन्नो ।
सायाबहुलपरंपरवुच्छेभो संजमतवाण' ॥ मित्यागमप्रतिपत्त्या प्रमाणीकृतसर्वज्ञयतीनां सद्यतीनां सतां भवतां नोचितः समाश्रयितुम् । यदुक्तम-अस्मद्गुरुभिः श्रीमद्देवसूरिभिः स्याद्वादरत्नाकरे--
'यदेव हि सुयुक्तिकं तदेव हि सज्जनः सेवते ।
न तु स्वपितृकुकुरोद्वहननीतिमालम्बते इति । अन्यच्च मात्सर्यचर्यापरिहारेण परिभावयन्तु भवन्तः किमेतत् पक्षपरिग्रहकारिणः साक्षादधिगतसमयसारस्यापि स्वप्रकल्पितपथप्रचारिणस्तस्यैदंयुगीनागमरहस्यदक्षं चतुर्दशीपाक्षिकमित्यत्र बद्धकक्षं स्वगुरुकुलपक्षं परित्यजतः कष्टानुष्ठाननिष्ठासुप्रतिष्ठा न वेति । यतः परमागमे प्रत्यपादि-'सुद्धछ।इसु जत्तो गुरुकुलचागाइणेई विन्नेभो । सबरससरक्खपिच्छत्थघायपायाछिवणतुल्लो' ॥ इति । तस्मादाग्रहत्यागेनैव क्रियमाणमनुष्ठानं शुभं-शुभानुबन्धि भवतीति परिभावनीयं सूक्ष्मबुद्वय। ॥ ५३॥
अथ स्वोत्प्रेक्षितत्वमात्रपरिहार द्वारेण माध्यस्थ्यमात्मन्याविर्भावयन्तः प्राहु:जइ हुज्ज दुण्णि दिवसे चेइयजइवंदणोववासो अ। कस्स न हुज्जाणुमयं परं न सुतेण संवयइ ॥५४॥ .. व्याख्या-यदि स्यात् द्वौ दिवसौ चतुर्दशीपञ्चदशरूपौ प्रतीत्य चैत्ययतिवन्दनोपवासश्च कस्य न स्यादनुमतं ? परं सूत्रेण निशीथव्यवहारादिना पूर्वोक्तपकारेण न संवदतीति ॥५४।।
अथ साधूनां पाक्षिकप्रतिक्रमणविधि चतुर्दश्यां निश्चित्य श्राद्धा
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आवश्यक-सप्ततिः नामपि तत्रैव तं दर्शयन्तिजंमि दिणे साहूणं जुत्तो सो तमि सावयाणंपि । पक्खपडिनकमणविही तवाइतुल्लतभावाउ ॥५॥
व्याख्या-'सवाइतुल्लत्तभावात्ति । चतुर्थचैत्यवन्दनालोचनादेः समानताभावादित्यर्थः । शेष सुगमम् ।।५।। ___ अथैतान्येव तपश्चैत्यवन्दनादीन्यागमोक्तानि श्राद्धानामपि चतुर्दश्यामेवेति गाथात्रयेण दर्शयन्तिदेवीपभावई जं पडिमाए जियंतसामिणीए अ पुरो। अट्ठमिचउद्दसीसु नटुवहारं सयमकासी ॥५६॥ पुत्थयवायणमुक्वास-करणमट्ठमिचउद्दसीदिवसे । जिणदाससावो कासि पोसहं पुण उदाइनिवो ॥५७॥ एयं पुण सविसेसं भणियं श्रावस्सयाइचुण्णीम् । पक्खिअविसेसकिच्चं जाणंता चउद्दसीदिवसे ॥५८॥
व्याख्या-देवी प्रभावती यत् प्रतिमाया जीवतस्वामिन्याः पुरोऽष्टमीचतुर्दश्योर्नाट्योपहार-नाट्य नोपलक्षितां पूजां स्वयमकार्षीदिति सङक्षेपार्थः। ___ व्यासार्थः कथानकादवसे यस्तच्चेइम्-जम्बूद्वीपभरते चम्पानगर्यामनगसेनः सुवर्णकार आस त् । स च पञ्चशैलद्वीपाधिपतिविद्युन्मानिदेवपत्नीभ्यां पतिविप्रयुक्ताभ्यां हासाप्रहासाभ्यां स्त्रीलोलत्वाद् रूपलोभितः सन् पटहोद्घोषणापूर्वकं नावारूढो वृद्धनाविकोपदेशाद्वटद्र मावलग्नो भारण्डपक्षिपादावनद्धदेहयष्टिः पञ्चशैलद्वीपं प्राप्तः । ततश्च मनुष्यशरीरेणाऽsवां नोपभोक्तु पार्यावहे, अतस्त्वमस्मन्निमित्तं निदानं कुर्वित्युक्त्वा ताभ्यां चम्पाया
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प्रभावतीदेवीकथालेशः
४३ मेव निक्षिप्तः । तदनु तद्वियोगविधुरो 'हासाप्रहासे' इत्यादि प्रलपनागिल श्रावकेण निवार्यमाणोऽप कृतनिदानः सन् इङ्गिनीमरण प्रतिपद्य पञ्चशेलाधिपस्तयोः पतिविद्युन्माली बभूव । नागिल श्रावकस्तु कृतविशिष्टसंलेखनाक्रियऽच्युतेन्द्रसामानिकः सञ्जज्ञे । तयोरुभयोरपि नन्दीश्वरयात्रायां परस्परं दर्शनमभूत् । ततो नाइल देवोऽवधिना विज्ञाय प्रतिबन्धबन्धुरः समीपीभूय पूर्वभववृन्तान्तस्मारणपूर्वक प्रतिबोध्य भवान्तरबोधिलाभाय जीवत्स्वामिनः प्रतिमानिर्मापणोपदेशं तस्मै दत्त्वा स्वस्थानं ययौ । विद्युन्माली तु तदा नन्दीश्वरयात्रानन्तरं क्षुल्लहिमवति गत्वा गोशीर्षदारुमयी देवतानुभावेन श्रीवीरप्रतिमा निर्माय नानाऽलङ्कारहरिणीं च विधायाऽपरगोशीर्षदारशकलस्य मध्ये निधाय चिन्तयामास । कुत्र एना निधास्यामीति । ततश्च समुद्रान्तः षण्मासावधि दुर्वातोत्कलिकान्दोल्यमानयानपात्रस्थितं भीतोद्विग्नं दुर्वारपरिमलोद्गारघनसारसारधूपकडच्छुकविहस्तहस्तं कृतेष्टदेवतोपचारं वणिजं विलोक्य विद्युन्माली बभाषे । भोः कल्याणिन् ! मा विषीद प्रातस्ते यानपात्रं वीतभयनगरपरिसरतीरं प्राप्स्यत्यस्मदनुभावात । परमस्मद्वचनादुदयननृपतिस्त्वया तत्रेदं वाच्यो, यदुत-'अनेन गोशीर्षचन्दनेन देवाधिदेवप्रतिमा कार्येति देवाज्ञप्तिरिति । ततः स तथा प्रतिपद्य वीतभयपत्तनं प्राप्य तथैव कृतवान् । राजा तु को नाम देवाधिदेव ? इत्युत्पन्नसंशयः पौरजनसमक्षं तौर्थिकसार्थमाकार्य तेभ्यः पूर्ववृत्तान्तमुदीर्य सूक्ष्मशेमुषीलक्ष्माणं तक्ष्माणमादिष्टवान्-'अत्र देवाधिदेवं निर्मापये' ति । ततश्चतुराननो विष्णुः शङ्करः स्कन्दो वेति प्रत्येकनामग्राहमुद्यम्योद्यम्य मुच्यमानाः कुठाराः कुण्ठधाराः संवृत्ताः । ततो विचित्र रसवत्या रसवत्यां निष्पन्नायामपि व्याकुलत्वादाकारितेऽप्यनागच्छति राजनि ज्ञातवृत्तान्ता अहो ! महामोहव्यामोहितदृष्टयो देवाधिदेवमप्ये ते न जानन्तीति सञ्चिन्त्य जलक्षालितबहिर्मलाऽन्तर्मलक्षालनाय कृतसितवासोनेपथ्या गृहीतपूजोपचारा देवी प्रभावती तत्र
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४४
आवश्यक-सप्ततिः गत्वा- 'देवाधिदेवः श्रीवर्द्धमानस्वामी' त्युक्त्वा तारधारकुटारेण तत्काष्ठं छेदयामास । तत: समुन्मोलयन्ती भव्याम्भोरुहाणि, निमूलयन्ती तमोनिकुरम्बाणि, सन्तोषयन्ती सच्चक्रमानसानि, निरोधयन्ती तामससत्त्वसञ्चाणानि, प्रादुर्भवदत्यद्भतप्रभाप्राग्भारभास्वरभास्वन्मूत्तिरिव निरगात्तन्मध्याद् देवाधिदेव-वीरप्रतिमेत्यनेन सम्बन्धेन निशीथचूर्णावुक्तम्-सा ने रण्णा घरसमीवे देवाययणं काउं तत्थ ठविया । तत्थ य किण्हगुलिया नाम दासी देवयासुस्सूसकारिणी निउचा अट्ठमिचउद्दसीसु य पभावई देवी भत्तिरागेण सयमेव नट्टोवहारं करेइ । रायावि तयागुवत्तीए मुरए वाएइत्ति । ततश्चात्र चतुर्दश्यां चैत्यवन्दनमुक्तम् । तथा पुस्तकवाचनमुपवासकरणमष्टमीचतुर्दशीदिवसे जिनदासश्रावकोऽकार्षीत् । तथा 'पौषध पुनरुदायिनृप' इति पुस्तकवाचनादिकृत्यवचनव्यक्तीकरणार्थं च जिनदास श्रावककथानकमुच्यते--
महुराए नयरीए जिणदासो वाणियो सड्ढो सोमदासी साविया दोवि अहिगयजीवाजीवाइनवपयत्थपरमत्थाणि परिमाणकडाणि तेहिं च उप्पयस्त पञ्चक्खायं । ता दिवसदेवसियं गोरसं गिण्हति । तत्थ य एगा भाभीरी गोरसं गहाय भागया । सा ताए सावियाए भण्णति । मा तुम अण्णत्थ भमाहि । जत्तियं आणेसि तत्तियं गेण्हामि । एवं तासिं संगतं जायं । इमावि से गंधपुडियादि देति । इमा वि कूदगादि दुद्ध दधिं वा देति, एवं तासि दढं सोहियं जायं । अण्णया तेर्सि गोवाणां विवाहो ताहे ताणि निमंतेइ, ताणि भणंति-अम्हे वास्लाणि ण तरामो गंतु । जं तत्थ उवउजति भोयणे कडुमडादि वत्थाणि आभरणाणि धूवपुष्कगंधमल्लादि वधुवरस्स तं तेहिं दिन्नं । तेहिं अतीव सोभावियं । लोगेण य सलाहियाणि । तेहिं तु हिं दो तिवरिसा गोणपोतलया हसरीरा उवट्टविया कंबल-संबत्ति णामेणं, ताणि णेच्छंति, बला बंधिउं गताणि, ताहे तेण सावरण चिंतियं जइ मुच्च हिंति तो लोगो वाहेहित्ति । तो एत्थ चेव अच्छंतु
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जिनदासावरकथा फासुगा चारी किणिऊणं दिजइ, एवं पोसिज्जति । सो वि सावतो अष्टुमिचपदसीमुउववासं करेति पोत्ययं च वाएति । तेवि तं सोऊण भद्दया जाया सणिणो य जदिवसं सावगो ण जेमेति तदिवसं तेवि ण जेमंति, तस्स य सावगस्स भावो जातो। जहा इमे विया उवसंता अब्भहितो य नेहो जातो, ते रूवस्सिणो, तस्स य सावगस्स मित्तो तत्थ भंडीरमणजत्ता, तारिसा नस्थि अण्णस्स बदल्ल। ताहे तेण ते भंडीए जोएत्ता नीता अणापुच्छाए । तत्थ अण्णपणेण समं धार्य कारिया ताहे छिण्णा तेण ते आणेउं बद्धा । न चरति नय पाणियं पियंति जाहे सव्वहा णेच्छंति ताहे सो सावभो तेसिं भत्तं पञ्चक्खाति णमोकारं च देइ । ते कालगया णागकुमारेसु उववण्णा । इओ य छ उमावहारेण विहरमाणो भय बद्धमाणसामी सुरभिपुरं गओ । तत्थं गंगा उत्तरितव्विा । तस्य सिद्धदत्तो नाम नाविओ खेमिलो नाम सउणजाणओ। तत्थ य नावाए लोगो विलग्गइ । कोसिएण महासउणेण वासियं । कोसिओ नाम उलूगो। तओ खेमिलेण भणियं । जारिसं सजणेण भणियं तारिसं अम्हे हि मारणंतियं पावियव्वं किं पुण इमस्स महारिसिस्स पभावेण मुच्चीहामो । सा य णावा पवाहिया सुदाढेण य णागकुमारराइणा दिह्रो भगवं णावाए ठिओ । तस्स कोवो जाभो । सो य किर सीहो वासुदेवत्तणे मारियो । सो संसार भ मऊण सुदाढो नागो जाओ। सो ओहिनाणेण भगवंतं नावारूढं पिच्छिऊण पुत्रवेराणुबंधवससमुप्पन्नकोवो संवट्टावायं विउव्यिता नावं बोलेउ इच्छइ । तो कंबलसंबलनागकुमाराणं आसणं चलियं ओहि पति जाव पिच्छंति तित्थयरस्स वत्सग्गं कीरमाणं । ताहे तेहिं चिंतियं अलाहि ता अण्णेणं सामि मोएमोत्ति आगया। पगेण नावा गहिया एगो सुदाढेण समं जुज्झइ । सो महिढिश्रो तस्स पुण चवणकालो इमे य पहुणोववन्नगा। सो तेहिं पराइओ। ताहे ते णागकुमारा तित्थगरस्स महिमं करेंति सत्तं रूत्रं च गायंति एवं लोगो वि । तो सामी उत्तिण्णो । तत्य देवेहिं सुरभिगंधोदयवाई पुप्फवासं च
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आवश्यक - सप्ततिः
४६
वुट्ठ ते वि पडिगया इति ।
तथा पाडलिपुत्रे कोणिकपुत्र श्रीमदुदायिनृपमधिकृत्ये क्तं -- सो राया अट्ठमिचद्दसीसु पोसहं करे३ । तत्थ भायरिया आइति धम्मकहानिनित्तमिति । अत्र 'अटुमिचउदसी सुमि' त्यादिवाक्येन श्रावकाणां पुस्तकवाचनपौषधोपवासकरणं चतुर्दश्यामुक्तम् । अन्यत्राप्युक्तं
'पोसहो उववासो उण अट्ठमिचाउद्दसीसु जम्मादिणे ।
नाणे निव्वाणेच उमासभट्ठा हि पज्जुणे' । तथा 'एयं पुण'ति । एतत्पुनः पूर्वोक्तं तपश्चैश्यवन्दनादि सविशेष चतुर्दश्यां भणितमावश्यकचूर्णो आदिशब्दा न्निशीथचूर्यादिपरिग्रहः । 'ता' इति तस्मात् पाक्षिकविशेषकृत्यं पाक्षिक प्रतिक्रमणतत्सहचरालोचनाद्यनुष्ठानं 'ताणं' ति । तेषां श्रावकाणां चतुर्दश्यां दिवसे त्रिज्ञेयमिति । ५६-५७-५८।।
J
ननु पञ्चदश्यामुपवास: सिद्धान्ते दृश्यते श्राद्धानां तत् किमुच्यते चतुर्दश्यामुपवास? इत्याशङ्कयाहु:
जो पुण अमावसाए उववासो सातिवाहण निवस्स । तेरस्स सुव्बाइ स भवे नंदीसरस्सावि ॥ ५६ ॥
व्याख्या-य: पुनरमावास्यायामुपवासः सातिवाइननृप सम्बन्धिनोऽन्तःपुरस्य श्रूयते । स भवेन्नन्दीश्वरस्यापीति । तद्गतचैत्याराधनार्थ तत्तप इत्यर्थः । तदुक्तम्- अमावास्यायां पटलिखितनन्दीश्वर जिननिलयपूजान्वितमुपवासादीनामन्यतमन्नन्दीश्वर इति ॥५९॥
श्रथेदं तपो भवतु नन्दीश्वराराधनाय परं यः पञ्चश्श्यां पौषधः श्रयते श्रावकाणां स पाक्षिकप्रतिक्रमणज्ञापको भविष्यतीति गाथाद्वयेन पराभिप्रायं तृतीयगाथया चोत्तरमाविः कुर्वन्तः प्राहु:
पिंचदसी कत्थइ टुमिचउदसीसु पि । कत्थइति वितिहीसु जो सावगपोसहो सुते ॥ ६० ॥
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४७
देशग्रहणसूत्रम् कत्थई देसग्गहणं कत्थइ धिप्पंति निरवसेसाई । उक्कमकमजुत्ताई सुत्ताण विचित्तभावाओ ॥६१॥ पंचदसीए जइ नाम पोसहो कह णु पक्खपडिकमणं ? | तमुवासेण चउद्दसि-मुल्लंघेउं न सो जुत्तो ॥६२॥ व्याख्या-'अष्टमीपञ्चदशोषु अष्टमीचतुर्दशीष्वपि कुत्रचिदि' ति
'सव्वेसु कालपव्वेसु पसत्थो जिणमए तवो जोगो। अट्ठमिपण्णरसीसुनियमेण हविज्ज पोसहिओ' । इत्युल्लेखेन तथा 'सो राया अमि-चरदसी पोसहं करेइ' इत्युल्लेखेन च द्वयमप्यावश्यकचूर्णौ । तथा कुत्रचिदिति 'चाउद्दसि अट्ठमिउदिट्ठपुषिण. मासीणीसु पडिपुराणं पोसह पालेमाणा विहरति ।' इत्यालापकेन निशीषदशाश्रतस्कन्धादौ तिसृष्वपि तिथिषु यः श्रावकाणां पौषधः सूत्रे दृश्यते । स पञ्चदशीपाक्षिकप्रतिक्रमणज्ञापको भविष्यतीतिशेषः ।
योच्यते-पञ्चदश्यां पौषधः सर्वसूत्रे नोपलभ्यते तत्कथं ज्ञापकः सस्यादिति । तत्राहु:-'कत्थईत्ति । कुत्रचिदपि सूत्रे देशग्रहणमर्थकदेशप्रहण भवति, तेन च सजातीयं सर्व ज्ञाप्यते । यथा कल्पस्य 'आमे तालपलंबे' इत्यादिप्रथमसूत्रे प्रलम्बग्रहणेन शेषवनस्पतिभेदाः कन्दस्कन्ध-त्वक शाखा-पत्र पुष्प-बीजादयो ज्ञाप्यन्ते । यदा-क्वापि बीज. ग्रहणेन तदितरे ज्ञाप्यन्ते । तथा कुत्रचिन्निरवशेषाणि वस्तू 'न गृह्यन्ते । यथा
कोहो य माणो य मणिग्गहीया माया य लोभो य पवडढमाणा । __चत्तारि एए कसिणो कसाया सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स ॥ इत्यत्र सर्वकषायग्रहणमिति । तथोत्क्रममयुक्तानि कुत्रचिवस्तूनि भण्यन्ते । तत्रोत्क्रमो यथा-आचाराङ्गप्रथमशस्त्रपरिज्ञाध्ययने पृथिव्यादिक्रममुल्लङध्य मुग्धबुद्धीनां सुखेन सजीवताप्रतिपत्त्यर्थं जीवत्वेन वनस्पति निरूप्य पवनप्रत्यायनं । क्रमस्तु गोचरपिण्डेषणादौ । पेडार्द्धपेढादि
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आवश्यक-सप्ततिः गोचरचर्या भिग्रहाणां संसृष्टासं सृष्टादिपिण्डेषणानां त्वाऽऽचारे क्रमेणैव प्रतिपादनात् । कुत एतत ? कुत्रचित् सूत्राणां विचित्रभावादिति । यथोक्तं
देसगहणे बीएहिं सूइया मूलमाइणो सव्वे । कोहाइ अणिग्गहिया सिंचंति भवं निरवसेणं (सं) ॥१॥ सत्थपरिण्णा उक्कम गोयरपिंडेसणा कमेणं तु । जं पिय उक्कमकरणं तंपिऽभिणधम्मबोइट्ठा ॥२॥
तस्मादत्र देशग्रहणन्यायात व्याप्त्या पञ्चदश्यां पौषधे सिद्ध तत् प्रतिक्रमणममावास्यायां स्यादित्यत्राहु:-'पचदसित्ति । पञ्चदश्यों यदि नाम पौषधः स्यात् कथं नु पक्षप्रतिक्रमण नैव स्यादित्यर्थः । तत्प्रतिक्रमणस्य पौषधेन सह प्रतिबन्धभावात् । उपवासालोचनादिभिः सहैव तस्य प्रतिबन्धात् । अत एवाहुः-'तमुवासेण'ति । तदिति पक्षप्रतिक्रमणमुपवासे नोपलक्षणत्वादालोचनादिभिश्च कृतैरेव कर्त्तव्यम् । स चोपवासश्चतुर्दशीमुल्लध्य न युक्तस्तस्यामेवोक्तप्रकारेण भावात् । आलोचनादीनामपि तत्रैव समर्थितत्वादिति । ___यद्यपि-पोसह दुहओ पक्ख एगगइ न हायए' इत्युत्तराध्ययनवचनात् प्रतिक्रमणं भणितं । तदप्ययुक्तं-एतद्वयाख्याने 'लितेतरयोश्चतुर्दशीपौर्णमास्यादितिथिषु' इति । एतस्मिन् तत् प्रतिक्रमणाभणनात् पौषधस्य तु तत्प्रतिकमणाज्ञापकत्वादित्युक्तमिति । मूलव्याख्यानं तु किलैवमत्र श्रयते । पराभिप्रायव्यक्तीकरणाय सामान्येन तावद् गाथाद्वयमाहुः- 'अहमि' त्ति । 'कत्थइ' त्ति । अष्ठम्यादि तिथिगतवैचिव्येण यः श्रावकाणां पौषधः सूत्रे श्रयते स सूत्राणां वैचित्र्याद् देश. ग्रहणन्यायेन सर्वसूत्रेषु तिथित्रयव्याप्त्या पौषधग्रहांसद्धे न सूत्राणां परस्परविरुद्धत्वदोषावह इति भावः ।
नन्वेवमुक्तन्यायात सर्वत्र पञ्चदश्यां पौषधग्रहणे सिद्ध तदाक्षिप्तं पाक्षिकप्रतिक्रमणमपि तस्यां स्यादिति पराशङ्कां चेतसि निधायो
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अनेकप्रकार सूत्रम् त्तरमाहुः- 'पंचदसीए' इति । तत्त्वतस्तु तद्वयोरपि व्याख्यानयोर्भेद इति ।। ६०-६१-६२ ॥ ____पुनर्माध्यस्थ्यमवलम्बमानाः पराभ्युपगमे दुर्निरोधविरोधोपसंहारमाहुःअम्हाणमभिनिवेसो न कोई इत्थ परमाणहा सुत्तं । अघडतं पि च पुव्वावरेण पडिहाइ किं करिमो ? ॥६३।। व्याख्या-पाठसिद्धव ।।६३॥ .
अथ लोके पञ्चदश्यां पूर्णपक्षप्रसिद्धिः, सिद्धान्ते च-पक्खियं पडिकमियव्य'मित्युक्तं, ततः पञ्चदश्यामेव तत् सिद्धयतीति पराशङ्काशङ कुसमुद्धरणार्थ निशीथगाथामाहुःजंजह सुत्ते मणियं तहेव जइ तविश्रारणा नत्थि । किं कालिप्राणुरोगो दिट्ठो दिटिप्पहाणेहिं ? ॥६॥ ___ व्याख्या-यद्-एकाकिविहारादि 'यथा' येन प्रकारेण गुणाधिकसहायालाभादिना सूत्रे 'न या लभिजा निउणं सहाय' मित्यादिरूपे भणितम्-उक्तम् । तथैव-तेनैव प्रकारेण यदि-चेत् तत्सूत्रं, किमुक्तं भवति-विचारणा-विषयविभागकल्पना नास्ति-यदि न विधेया भवति, तदा f' केन हेतुना कालिकानुयोगः-उत्तराध्ययनादिकालिकश्रतस्य द्वितीयपौरुष्या व्याख्यानरूपो दृष्टोऽनुमतो दृष्टिप्रधानस्तीर्थकरगणधरा. दिभिः । अतोऽनुयोगकरणात् ज्ञायते पूर्वापराविरोधेन सूत्रं व्याख्येयं,
यस्माद्--उस्सग्गसुयं किं वा किं वा अवधाइयं मुणेयव्वं । तदुभयसुत्तं किं वा सुत्तस्स गमा मुणेयव्वा' ॥ इत्यागमादनेकप्रकारस्य सूत्रस्य व्याख्यानादेव सम्यगर्थपतिप्रत्तिः । ततोऽत्रापि 'पक्खिए पविख्यामिति यत् सूत्रं तत् तथैव न ग्राह्य किन्तु लोकहेरि
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आवश्यक - सप्ततिः
परित्यज्य पूर्वोक्तप्रकारतो व्यवहाराद्यन्यग्रन्थाविरोधेन व्याख्येयमिति ॥ ६४ ॥
अमुमेवार्थ सङ्कलय्योपसंहरन्ति -
पुव्वावरेण परिभाविऊण सुत्तं पयासियव्वमिगं । जं वयणपारतंतं एवं धम्मत्थिणो लिंगं ॥ ६५॥
व्याख्या -- पौर्वापर्येण परिभाव्य पूर्वापरव्यवस्थित सूत्रार्थपरामर्शविरोधसंकलनपूर्व ' सूत्रमिद ' मिति पक्खिए पक्खियमित्येवंरूपं व्याक्रियमाणत्वेन प्रत्यक्ष प्रकाशयितव्यं पूर्वापर सूत्रार्थाविरुद्धचतुर्दशीलक्षणेऽर्थे व्यवस्थापनीयम् । न पुनर्लोकयात्रामात्रानुवर्त्तितया निजकुहे वाकसमर्थनाय पञ्चदश्यां योजनीयम् । उत्सूत्रप्ररूपणायाः संसारहेतुत्वात् । यथोक्तं
-
'फुडपागडमक हिंतो जहट्ठियं बोहिलाभमभिहणइ ।
"
जह भगवओो वि सालो जरमरणमहोभही आसि' ॥ त्ति ' जं वयण'ति । यद् वचनपारतन्त्र्यं तीर्थंकराज्ञापारवश्यमेतद्धर्मार्थिनो लिङ्ग - चिह्नमिति । यथोक्तं- .
'समयपत्रित्ती सब्बा आणाबज्झत्ति भवफला चेव । तित्थगरुद्द सेण वि न तत्तमो सा तदुद्दे सा ॥ १ ॥
मूढ़ा अणा मोहा तहा तथा एत्थ संपयट्टता । तं चैव य मण्णंता अवमण्णंता न याणंति' ||२||
अन्यत्राऽप्युक्त - तित्थयराणा मूलं नियमा धम्मस्स तीए वाघाए । किं धम्मो किमधम्मो मूढा नेवं वियारंति ॥ १॥ मोह विसपरममंतो विसोक्खफलस्ख कप्पतरुकंदो । तित्थगराणा जम्हा तम्हा एईए जइयव्वं ॥ इति ॥ ६५॥
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सम्प्रति चतुर्दश्यां चातुर्मास ककरणस्य हेतुद्वयम्
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सम्प्रति पाक्षिकावश्यकं निःशङ्क प्रपञ्चत प्ररूप्य 'दिवसनिसापविवयाइभेपण' मित्यादिपदोपात्तं चातुर्मासकावश्यकं तावन्नि रूपयन्ति
चउमासगाइ पुत्रोइयंमि दिवसे जमरणहेयाणि । पायं छस्सासत्ति यरण चेगे || ६६ ||
व्याख्या -- चतुर्मासकानि पूर्वोदिते (दिवसे) पौर्णमासीदिने पूर्वमासन् यत्विदानीमन्यथा चतुर्दश्यां क्रियते तत्र हेतुद्वयं तदेवाहु:प्रायः पष्ठस्याशक्तितश्च साम्प्रतमनुष्याणां बाहुल्येन षष्ठतपसः करणे शक्तेरभावादिति । आचरणतश्च बहुभिरशठै राचीर्णत्वादिति । अत्र च यदि चतुर्थ्यां पर्युषणे कृते सति पौर्णमास्यां चातुर्मासकं क्रियते तदा- 'पण्णासाए पज्जोसवेयध्व' मिति न पूर्यते । पौर्णमासीतश्चतुर्थी यावदेकोनपञ्चाशद्दिनानामेव भावात् । तथा - 'पजोसत्रिए सत्तरीए पक्किमित्तु विहरिय' मित्यपि वर्द्धते । पर्युषणाचतुर्थीत: पौर्णमासीं यावदेकदिनाधिकायाः दिनसप्ततेः सम्भवात् । तत एतत्सूत्रं प्रमाणं कुर्बाणैराचीर्णमित्याद्याचरणाकारणं वाच्यमिति । चकारौ समुच्चये । अत्र च स्वातन्त्र्यपरिहारार्थमाहुः - 'एगे' इति । एके पूर्वाचार्या एवमामनन्तीति ॥ ६६ ॥
·
अथादिशब्दोपात्तमेव सांवत्सरिकावश्यकं निरूपयन्ति - परओ ज्जका लगाओ भद्दवए सेयपंचमीदिवसे । वारसिअं संपइ पुग्ण तेणेव कयं चउत्थी || ६७ ||
व्याख्या--परतः आार्यकालकात् - श्रीमदार्यकालकाचार्यकालातू पूर्व, अस्य चोपलक्षणत्वात् तत्कालेऽपि कृताचरणायाः पूर्वं यः भाद्रपदश्वेतपञ्चमीदिवसः तत्रासीद् वार्षिक, सम्प्रति पुनस्तेनैव भगवता प्रथमानुयोगादिग्रन्थ सूत्रणासूत्रधारेण सातवाहन नृपतेः पञ्चम्यामिन्द्रानुज्ञापनमहोत्सवव्याकुलतया चैत्यसाधुवन्दनादिकं पर्युषणा
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आवश्यक-सप्ततिः पर्वकृत्यं कर्तुमशक्नुवतो वचनमनुवर्त्तयता तदनुवर्त्तनया च प्रभावनाद्यधिकधर्मातिशयमुत्तरकालमालोक्य कृतं-विहितं चतुथ्यों ततश्च-असढेहिं समाइण्ण' मित्याद्याचरितलक्षणयोगात् ।
अवलंबिऊण कज्जं जं किंची आयरंति गीयत्था ।
थेवावराह बहुगुण सव्वेसिं तं पमाणं तु ॥ इतिवचनविमर्शाच प्रमाणीकृतम् तत्कालोत्तरकालवर्त्तिभिरन्यैरपि बहुश्र तरिति । तथा च परमागमनिशीथचूर्णि:-पव्वे पज्जोसवेयव्वं नो अपव्वे । सीसो पुच्छइ-इयाणिं कहं च उत्थीए अपव्वे पज्जोस विजइ ? आयरिओ भणइ-कारणिया चउत्थी अज्जकालगायरिएण पवत्तिया। कहं ? भण्णइ कारणं- कालगायरिओ विहरंतो 'उज्जेणिं' गओ । तत्थ वासावासं ठिो । तत्थ नयरीए 'बलमित्तो' राया तस्स कणिट्ठो माया 'भाणुमित्तो' जुवराया। तेसिं भगिणी 'भाणुसिरी' तीसे पुत्तो बलभाणु नाम सो य पगइभद्दय भद्दविणीययाए साहू पज्जुधासइ । आयरिएहि से धम्मो कहिओ पडिबुद्धो पवाविओ य । तेहिं य बल मित्तभाणुमित्तेहि रहहिं कालगज्जो अपज्जोसविए निव्विसओ को। __ केई आयरिया भणंति-जहा बलमित्त-भाणु मत्ता कालगायरियाण भागिणिज्जा भवंति । 'माउल'त्ति काउं ते महंतं आदरं करेंति अब्भु. ठाणाइयं । तं च पुरोहिमस्स अप्पत्तियं । भणइ य-एस सुद्धपासंडो वेयाइबाहिरो रण्णो अग्गओ पुणो पुणो उल्लवितो भायरिण निपिट्ठपसिणवागरणो कओ। ताहे सो पुरोहियो आयरिभस्स पठ्ठो रायाणं भणुलोमेहि विष्परिणमेइ । एए रिसिणो महाणुभावा एए जेण पहेण गच्छंति, तेण पहेण जइ रण्णो जणो गच्छइ पयाणि वा अक्कमइ तो असेयं भवइ । तम्हा विसज्जेहि ताहे विसजिया। अण्णे भणंतिरण्णा अवारण विसजिया। कहं ? सव्वमि नगरे किल रण्णा अणेसणा कारविया । ताहे ते निग्गया एवमाइयाण कारणाण अन्नतमेणं निगाया विहरंता पइट्ठाणनगरतेण पट्ठिया पइट्ठाणसमणसंघस्स अज'
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सातवाइननृपप्रश्नः कालगहि संदिटुं जावाहं आगच्छामि ताव तुम्भेहि नो पज्जोसवियध्वं । तत्थ य 'सायवाहणो' राया सावो सो कालगज्ज इंतं सोउं निग्गओ अभिमुहो समणसंघो य । महाविभूइए पविट्ठो कालगज्जो पविट्ठोहि भणियं-मद्दवयसुद्धपंचमीए पज्जोसविज्जइ, समणसंघेण पडिवन्नं ताहे रण्णा भणियं । तदिवस मम लोगाणुवत्तीए इंदो अणुजाणियव्वो भविस्सइ साहुचेइए न पज्जुवासिस्सं तो छट्ठीए पज्जुसवणा कजउ । न वट्टइ अइक्कमेउं वाहे रण्णा भणिय-तो भणागयं च उत्योए पजोसविज्जइ । आयरिएहि भणियं-एवं भवउ । ताहे च उत्थीए पज्जोसवियं । एवं जुगप्पहाणेहिं कालगज्जेहिं चरस्थी कारणे पचिया सच्चेव अणुमया सव्वसाहूणपि इति ॥६७॥ ___ अथ द्रव्यक्षेत्रकालावश्यकानि निरूप्य भावावश्यक निरूपयन्तः
आहुः
उद्धरिप्रसव्वसल्लो पुव्वुत्तविसेसतवसमाउत्तो । तल्लेस्सो तचित्तो य भावो कुणउ सबमिणं ।।६८॥
. व्याख्या-उद्धृतसर्वशल्यो-माया-निदान-मिथ्यादर्शनरूपशल्यत्रयोद्धारादवातमुखासिक: पूर्वोक्ते पक्षादिकृत्ये चतुर्थादिविशेषतप:स्वरूपे विषयभूते सम्यग-अवैपरीत्येनाऽऽयुक्तो-उपयोगवान् । तथा तस्मिन्नावश्यके लेश्या-कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यजनितात्मपरिणाम. रूपा यस्य स तल्लेश्यः । तथा तस्मिन्नावश्यक सामान्योपयोगरूपं चित्तं यस्य स तच्चिचः। चशब्दात्तन्मनास्तदध्यवसानस्तदर्पितकरणस्तदर्थोपयुक्तस्तदेकमनास्तदनुरागपर इत्यादिशेषविशेषणकलाप: परिगृह्यते । ततश्चैतद्विशेषणविशेषितो भावतः करोतु सर्वमिदं द्रव्यावश्यकादि । भाव भावे तु तत्रणं परमानन्दस्वरूपशिवसौख्यासम्पादकत्त्वादस्पफलमेव ।
यदुक्तं-कियाशून्यस्तु यो भाषो भावशून्या च या क्रिया ।
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आवश्यक-सप्ततिः ___ अनयोरन्तरं ज्ञेयं भानुखद्योतयोरिव' ॥ इति । इत्थं तत्त्वमेदव्या. ख्या ख्यापिता पूज्यैः । पर्यायव्याख्या तु सुखोन्नेयत्वान्नोक्ता परमित्थं ज्ञातव्या।
आवस्सय अवस्सकरिणज्जं धुवनिग्गहो विसोही य । अझयणछक्कवरगो णाश्रो आराहणामग्गो ॥ धुवनिग्गहोत्ति । अनादित्वात् प्रायोऽनन्तत्वाच्च ध्र वं-कर्म तत्फलभूतो वा भवस्तस्य निग्रहः। तथा नैयत्येन जीवकर्मसम्बन्धव्यवहारापनयनान्यायः । शेष सुगमम् ।।६८।।
अर्थतस्य चतुर्विधस्यापि करणफलमुपदर्श पन्तः प्राहुःदवाइसुद्धमेयं धीरा आवस्सयं विहेऊणं । पाविति पावणिज्जं णिरवज्ज मुक्खसुक्खंति ॥६९।।
व्याख्या-द्रव्यं तावद्-- 'भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके ।
तद् द्रव्यं तत्त्वज्ञैः सचेतनाचेतनं कथितम' ॥ इत्येवं लक्षणलक्षितं साध्वादि, आदिशब्दसूचितं च क्षेत्रं गुरुसमीपादि, कालश्च दिवसादिः, भावश्चोपयोगप्रधानत्वादिः एतैः शुद्ध', शुद्धता चास्य द्रव्यादिभिस्तदेव भवति यदि प्रागुक्तानि साध्वादीनि द्रव्यादीनि भवन्ति, तद्विपरीतानि तु मिथ्यादृष्टि-क्षेत्रान्तर-कालान्तर-भावशून्यस्वादीनि द्रव्याद्याभासानि तैरपरिशुद्धमेवैतदिति भावः । ततो द्रव्यादिभिः शुद्धमेतत् 'सामाइय चउवीसत्थयाई' त्यादिगाथोक्तसामान्यलक्षणलक्षितमावश्यकं हेयोपादेविवेकवत्या धिया राजन्त इति धीरा:स्थिरप्रतिज्ञाः विधाय-कृत्वा विचित्रव्रतचर्यया प्रापणीयं, तथा
'स्मरज्वरजरामुख्या दोषा भवभुवोऽत्र ये ।
सर्वथा ते न सन्त्येव यत्र तत्परमं पदम् ॥ इति स्वयमेव पूज्य. पादोपदर्शितप्रकारेण प्रत्यासत्तिमात्रप्रकटीकृतमधुरत्वात् किम्पाक
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मोक्षस्वरूपम्
५५ प्रतिषिषमैविषयैस्तथा सद्य एव जनितनितान्तसन्तापतान्तिभिर्जन्मजरारोगशोकादिदुरन्तदुःखैर्दोषरूपैरदूषितत्वानिरवद्यम् । यत्-कृत्स्नकमक्षयलक्षणे मोक्षे सिद्धानां तस्य वा सुख-परमाह्नादरूप संसारोत्तमानुत्तरसुरसौख्यादप्यनन्तानन्तगुणं तत्प्राप्नुवन्तीति ।।।
सम्प्रति प्रस्तुतप्रकरणस्यावश्यक सप्तत्याख्यस्य पाक्षिकसप्तत्यपरनामधेयस्य प्रयोजनं प्रकटयन्तः स्वप्रज्ञामात्रपरिकल्पितत्वं नियुक्तिकत्वं च परिहरन्तः प्राहु:मुणिचंदररिणा सुमरणथमिणमप्पणो पवयणायो । उद्धरियं जुत्तिजुअं परेसि संबोहणत्थं च ॥७०।।
इति पाक्षिक-सत्तरी। व्याख्या:-- मुनि चन्द्रसूरिणेत्यौद्धत्यपरिहारार्थमे कवचनम् । मात्मनः स्मरणार्थमित्यनेन प्रधानप्रयोजनमुक्तं, स्मरणं च प्रक्रमादावश्यकस्वरूपस्यैव, इदमावश्यक-सप्तत्याख्यं प्रकरणं प्रवचनात्महानिशीथ-कल्पव्यवहार-दशाश्रतस्कन्धावश्यकचूर्णिप्रमुखाचतुर्दशपूर्वक्षीरार्णव सुधारसस्वरूपादुद्धत न पुनः स्वमतिमात्रपरिकल्पितं, तत एव युक्तियुतं पूर्वोक्तप्रकारेण पूर्वापराविरुद्धयुक्तिजालकलितं परेषां विप्रतिपन्नानां तद्विप्रतार्यमाणान्यजन्तूनां च सम्बोधनार्थं च-सम्यक यथावस्थिततत्त्वप्रदर्शनेन बोधनार्थ च, न केवलमात्मस्मरणार्थ, चेत्यानुषङ्गिकप्रयोजनसमुच्चय इति ॥७०॥
श्रीदेवसूरिसुगुरोः स्फुटनाममन्त्र
नित्यस्मृतिम्तदुपदेशषशेन वृत्तिम् । श्रीमन्मुनीन्द्र-मुनिचन्द्रकृतावमुष्यां
सूरिमहेश्वर इति प्रकटीचकार ॥१॥ सिद्धान्ततर्कसाहित्यलक्षणेषु विचक्षणः ।
वनसेनसुधीरस्मतसाहाय्यं कृतवानिह ।२।।
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आवश्यक - सप्ततिः
मूलग्रन्थनिरीक्षणोत्सुकमनाः कृत्वा तदन्वेषण प्रादुर्भूतगुरूक्तिनिश्चल मतिवृत्तिं यतो निर्ममे । तद्युष्माभिरशेषशास्त्र हृदय प्राहिस्फुरनिर्मलप्रज्ञैरज्ञजनैरिवात्र न मनः कार्य समारोपतः ||३|| विपक्षः क्षेपविक्षेपवलक्षं दिक्षु यद्यशः मतिः सिद्धान्तशुद्धा च तत्सद्यः फलमस्य नु ॥
इति श्रीमुनीन्द्रश्रीमुनिचन्द्रसूरिविरचितायामावश्यकसप्ततिकायां श्रीदेवसूरिपूज्यपादपद्मोपजीविना श्री महेश्वराचार्येण विरचिता सुखप्रबोधिनी वृत्तिः समाप्ता ।
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