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श्रीवर्द्धमानाय नमः।
अंक
भाग
१२
११-१२
जनहितैषी
नवंबर, दिसंबर १९१६.
जैनसमाज। तीर्थक्षेत्रोंके झगड़े, स्त्रियोंकी अज्ञानमय-दुःखमय दशा, शास्त्रोंकी रक्षा और प्रचारके काममें लापरवाही और अगुओंकी 'भेड़ियाधसान' बुद्धिके अन्धेर: ये सब बातें देखकर शासनदेवी धनवानों, पण्डितों और बाबुओंको सम्मिलित शक्तिसे उद्योग करनेके लिए समझा रही है।
RALA सं०--नाथूरामप्रेमी।
Fotomalaritalese Oriya
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___ विषय-सूची।
प्रार्थनायें। १. जनहितैषी किसी स्वार्थबुद्धिसे प्रेरित होकर निजी लाभ के लिए नहीं निकाला जाता है। इसमें जो समय
और शक्तिका व्यय किया जाता है वह केवल अच्छे १ भद्रबाहु-संहिता ( ग्रन्थपरीक्षा )
विचारोंके प्रचारके लिए। अत: इसकी उन्नतिमें लेखक, श्रीयुत बाबू जुगलकिशोरजी।
हमारे प्रत्येक पाठकको सहायता देनी चाहिए। मुख्तार। ... ... ५२१ २. जिन महाशयों को इसका कोई लेख अच्छा मालूम २ हिन्दी-जैनसाहित्यका इतिहास. ५४० हो उन्हें चाहिए कि उस लेखको जितने मित्रोंको
वे पढ़कर सुना सकें अवश्य सुना दिया करें। ३ सभापतिका व्याख्यान-व्या०,श्रीयुत
३. यदि कोई लेख अच्छा न मालूम हो अथवा विरुद्ध बाबू माणिकचन्दजी जैन बी. ए. एल मालम हो तो केवल उसीके कारण लेखक या
एल. बी. वकील-- ... ... ५६९ सम्पादकसे द्वेष भाव न धारण करने के लिए सवि४ लड़ना धर्म है या क्षमाभाव रख-
नय निवेदन है। ना-ले०, श्रीयुत वाडीलाल मोतीलाल शाह ५८९ ४. लेख भेजनेके लिए सभी सम्प्रदायके लेखकोंको ५ स्याद्वाद महाविद्यालयकी भीतरी
आमंत्रण है।
-सम्पादक। दशा-ले०, श्रीयुत बाबू निहालकरण सेठी एम. एस. सी. ... ... ५९५ ।।
१. हमारे हिन्दी ग्रन्थोंकी कदर । ६ उन्माद (कहानी)- ले०, श्रीयुत बाबू
हिन्दी-ग्रन्थरत्नाकरके ग्रन्थोंके प्रेमी यह जानकर पदुमलाल बक्षी बी. ए. ... ५९९ बहुत प्रसन्न होंगे कि इन्दौरकी 'महाराजा होलकर्स ७ विधवा-विवाह विचार ... ... ६.१ हिन्दीसाहित्य-समिति ' ने हमारी नीचे लिखी पुस्त८ विविध प्रसर ... ... ६१० कोंपर प्रसन्न होकर उनके लेखकोंको नीचे लिखे अन९ अहिंसाका अर्थ ( कविता )—ले. सार परितोषिक प्रदान किया हैः___ श्रीयुत प. रामचरित उपाध्याय ... ६२३ १ स्वावलंबन ( हिन्दी सेल्फहेल्प )-ले०, १० विश्वप्रेम ( कविता ) ले० श्रीयुत बाबू
- बाबू मोतीलाल बी. ए , ... ... ... ४५) मोतीलाल जैन वी. ए. ... ... ६२४
२ सफलता और उसकी साधनाके उपाय-ले०, बाबू रामचन्द्र वर्मा, ... २०)
__३ युवाओंकी उपदेश-ले०, बाबू दयाचन्द नियमावली। वी. ए.,
२०). १. वार्षिक मूल्य उपहारसहित ३) तीन रुपया पेशगी
४ व्यापाराशिक्षा-ले०,पं० गिरिधर शर्मा,२०)
___ इसके सिवाय मध्यप्रदेश ( सी. पी.) के शिक्षाहै। वी. पी. तीन रुपया एक आनेका भेजा जाता है।
है। खातेने अपने यहाँकी लायबेरियोंके और विद्यार्थि२. उपहारके बिना भी तीन रुपया मूल्य है।
। योके पारितोषिकके लिए नीचे लिखी पुस्तके मंजूर ३. ग्राहक वर्षके आरंभसे किये जाते हैं और बीचसे अर्थात् ७ वें अंकसे । बीचसे ग्राहक होनेवालोंको
की हैं और हमें इस प्रकारके नैतिक शिक्षाप्रद ग्रन्थ उपहार नहीं दिया जाता। आधे वर्षका मूल्य
प्रकाशित करनेके लिए बहुत ही उत्साहित किया है:११) रु. है।
१ मितव्ययता (किफायतशारी) मू. ) ४. प्रत्येक अंकका मूल्य पाँच आने है।
२ चरित्रगठन ओर मनोबल , )
३ अच्छी आदतें डालने की शिक्षा, ॥ ५. सब तरहका पत्रव्यवहार इस पतेसे करना चाहिए। ४ स्वावलम्बन (सेल्फ हेल्प) , १॥ मैनेजर-जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, ५पिताके उपदेश
६ शान्ति वैभव हीराबाग, पो० गिरगांव-बंबई। ७ युवाओंको उपदेश
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हितं मनोहारि च दुर्लभ वचः ।
बारहवाँ भाग। अंक ११-१२
जैनहितैषी।
कार्तिक मार्ग०२४४२ नवम्बर, दिस० १९१६.
PRASTRasranamanarnamamaRRER
सारे ही संघ सनेहके सूतसौं, संयुत हों, न रहै कोउ द्वेषी। ? प्रेमसौं पालैं स्वधर्म सभी, रहैं सत्यके साँचे स्वरूप-गवेषी ॥ ॐ
बैर विरोध न हो मतभेदतें, हों सबके सब बन्धु शुभैषी ।। * भारतके हितको समझें सब, चाहत है यह जैनहितैषी ॥ Roupasubversu URV
भद्रकाहु-संहिता। (ग्रन्थ-परीक्षा-लेखमालाका चतुर्थ लेख ।)
मश्या
.
(२) [ले. श्रीयुत बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तार ।] जिन लोगोंका अभीतक यह खयाल रहा है के मध्यवर्ती किसी समयमें हुआ है। अस्तु । कि यह ग्रंथ (भद्रबाहुसंहिता) भद्रबाहु श्रुत- इस ग्रंथके साहित्यकी जाँचसे मालूम होता है केवलीका बनाया हुआ है-आजसे लगभग २३०० कि जिस किसी व्यक्तिने इस ग्रंथकी रचना की वर्ष पहलेका बना हुआ है-उन्हें पिछला लेख है वह निःसन्देह अपने घरकी अकल बहुत कम पढ़नेसे मालूम होगया होगा कि यह ग्रंथ वास्त- रखता था और उसे ग्रंथका सम्पादन करना वमें भद्रबाहु श्रुतकेवलीका बनाया हुआ नहीं है, नहीं आता था। साथ ही, जाली ग्रंथ बनानेके न उनके किसी शिष्य-प्रशिष्यकी रचना है और कारण उसका आशय भी शुद्ध नहीं था । यही न विक्रमसंवत् १६५७ से पहलेहीका बनाहुआ वजह है कि उससे, ग्रंथकी स्वतंत्र रचनाका है। बल्कि इसका अवतार विक्रमकी १७ वीं होना तो दूर रहा, इधर उधरसे उठाकर रक्खे शताब्दिके उत्तरार्धमें-संवत् १६५७ और १६६५ हुए प्रकरणोंका संकलन भी ठीक तौरसे नहीं
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५२२
SAHARAMILARIORIm
जैनहितैषी
होसका और इसलिए उसका यह ग्रंथ इधरउध- षामें दिये हैं, जिनके साथमें उनका संस्कृत रके प्रकरणोंका एक बेढंगा संग्रह बन गया है। अर्थ नहीं है। चौथे, पहले खंडके पहले अध्याआज इस लेखमें इन्हीं सब बातोंका दिग्दर्शन में कुछ संस्कृत के श्लोक भी ऐसे पाये जाते हैं कराया जाता है। इससे पाठकों पर ग्रंथका जाली- जिनके साथ संस्कृतमें ही उनकी टीका अथवा पन और भी अधिकताके साथ खुल जायगा और टिप्पणी लगी हुई है। ऐसी हालतमें प्राकृतकी साथ ही उन्हें इस बातका पूरा अनुभव हो जायगा वजहसे संस्कृत अर्थका दिया जाना कोई अर्थ कि ग्रंथकर्ता महाशय कितनी योग्यता रखते थे:- नहीं रखता । यदि कठिनता और सुगमताकी
(१) इस ग्रंथके तीसरे खंडमें तीन अध्याय- दृष्टि से ऐसा कहा जाय तो वह भी ठीक नहीं चौथा, पाँचवाँ, और सातवाँ-ऐसे हैं जिनका बन सकता । क्योंकि इस दृष्टि से उक्त चारों मूल प्राकृत भाषामें है और अर्थ संस्कृतमें दिया ही अध्यायोंकी प्राकृतमें कोई विशेष भेद नहीं है। चूंकि इस संहिता पर किसी दूसरे विद्वान है। रही संस्कृत श्लोकोंकी बात, सो वे इतने की कोई टीका या टिप्पणी नहीं है इस लिए उक्त सुगम हैं कि उनपर टीका-टिप्पणीका करना अर्थ उसी दृष्टि से देखा जाता है; जिस दृष्टिसे ही व्यर्थ है। नमूनेके तौरपर यहाँ दो श्लोक कि शेष सम्पूर्ण ग्रन्थ । अर्थात् वह ग्रंथकर्ता टीका-टिप्पणीसहित उद्धृत किये जाते हैं:(भद्रबाहु ) का ही बनाया हुआ समझा जाता
१-पात्रान्संतमे दानेन भक्त्या भुजेत्स्वयं पुनः । है; परन्तु ग्रंथकर्ताको ऐसा करनेकी जरूरत क्यों
भोगभूमिकरः स्वर्गप्राप्तेरुत्तमकारणम् ॥ ८॥ पैदा हुई, यह कुछ समझमें नहीं आता। इसके ।
टीका-पात्रानिति बहुवचनं मुनि आर्यिका उत्तरमें यदि यह कहा जाय कि प्राकृत होनेकी
श्रावक श्राविका इति चतुर्विधपात्रप्रीत्यर्थे । एतेअजहसे ऐसा किया गया तो यह कोई समुचित वन्यतमं पूर्वमाहारादिदानेन संतर्य पुनः स्वयं भुजेत् । उत्तर नहीं हो सकता । क्योंकि प्रथम तो पात्रदानं च भोगभूमिस्वर्गप्राप्तेरुतमकारणं ज्ञेयमित्यर्थः । ऐसी हालतमें, जब कि यह सारा ग्रंथ संस्कृतमें
२-कांस्यपात्रे न भोक्तव्यमन्योन्यवर्णजैः कदा । रचा गया है, इन अध्यायाका प्राकृतम रचकर
शूद्रस्त्वपक्कं पक्वं वा न भुंजेदन्यपंक्तिषु ॥ ८४॥ ग्रंथकर्ताका डबल परिश्रम करना ही व्यर्थ मालम
टिप्पणी-पंक्तिषु इति बहुवचनाद्वर्णत्रयपकाहोता है। दूसरे, बहुतसे ऐसे प्राकृत ग्रंथ भी देखनेमें आते हैं जिनके साथ उनका संस्कृत वव पक्कमपक्वं वा न भुजेत् इत्यर्थः । अर्थ लगाहुआ नहीं है । और न भद्रबाहके सम- इससे पाठक समझ सकते हैं कि श्लोक यमें, जब कि प्राकृत भाषा अधिक प्रचलित थी, कितने सुगम हैं, और उनकी टीका-टिप्पणीमें । प्राकृत ग्रंयोंके साथ उनका संस्कृत अर्थ क्या विशेषता की गई है। साथ ही मुकाबलगानेकी कोई जरूरत थी। तीसरे इस लेके लिए इससे पहले लेखमें और इस लेखके खंडके तीसरे अध्यायमें 'उवसंग्गहर' और अगले भागमें उद्धृत किये हुए बहुतसे कठि'तिजयपहुत्त ' नामके दो स्तोत्र प्राकृत भा- नसे कठिन श्लोकोंको भी देख सकते हैं जिन १-२ ये दोनों स्तोत्र श्वेताम्बरोंके 'प्रतिक्रमणसूत्र' पर काइ टाका-टप्पण
पर कोई टीका-टिप्पण नहीं है । और फिर में भी पाये जाते हैं; परन्तु यहाँ पर उक्त प्रतिक्रमण उससे नतीजा निकाल सकते हैं कि कहाँ सूत्रसे पहले स्तोत्रमें तीन और दूसरेमें एक ऐसी तक ऐसे श्लोकोंकी ऐसी टीका-टिप्पणी कचार गाथायें अधिक हैं।
रना श्रुतकेवली जैसे विद्वानोंका काम हो सकता
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CLAULA
HARITALLAHABATMAHARAS H TRAILERY
भद्रबाहु-संहिता। RamnfinitionARTIES
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है। सच तो यह है कि यह सब मूल और इसका उल्लेख पाया जाता है। इस तरह पर टीका-टिप्पणियाँ भिन्नभिन्न व्यक्तियोंका कार्य दोनों संप्रदायोंके विद्वानों द्वारा यह हिन्दुओंका मालूम होता है । मूलकर्ताओंसे टीकाकार भिन्न एक ज्योतिष ग्रंथ माना जाता है। परन्तु पाठजान पड़ते हैं । सबका ढंग और कथन- कोंको यह जानकर आश्चर्य होगा कि इस शैली प्रायः अलग है । चौथे और सातवें बृहत्संहिताके अध्यायके अध्याय भद्रबाहसंहिअध्यायोंकी टीकामें बहुतसे स्थानों पर, 'इत्य- तामें नकल किये गये हैं-ज्योंके त्यों या कहीं पि पाठः -ऐसा भी पाठ है-यह लिखकर, कहीं कुछ भद्दे और अनावश्यक परिवर्तनके मूलका दूसरा पाठ भी दिया हुआ है, जो साथ उठाकर रक्खे गये हैं-परन्तु यह सब कुछ मलका उल्लेखयोग्य पाठ-भेद होजानेके बाद होते हुए भी वराहमिहिर या उनके इस ग्रंथका टीकाके बननेको सूचित करता हैं । यथाः- कहीं नामोल्लेख तक नहीं किया । प्रत्युत, वराह
१-वाहिमरणं ( व्याधिमरणं)-'रायमरण मिहिरके इन सब वचनोंको भद्रबाहुके वचन ( राजमरणं) इत्यपि पाठः' ॥ ४-३०॥
प्रगट किया गया है और इस तरह पर एक २-'मेहंतर ( मेघान्तर-)'-'हेमंतर ( हेमा
अजैन विद्वानके ज्योतिषकथनको जैन ज्योन्तर-) इत्यपि पाठः ' ॥ ४-३१ ॥
३- 'अण्णेणवि (अन्येनापि )- अण्णो. तिषका ही नहीं बल्कि जैनियोंके केवलीका ण्णवि (अन्योन्यमपि-परस्परमपि) इत्यपि पाठः कथन बतलाकर सर्वे साधारणको धोखा दिया ॥७-२१॥
गया है । इस नीचता और धृष्टताके कार्यका इससे मूलकती और टीकाकारकी साफ तौरसे पाठक जो चाहे नाम रख सकते हैं और उसके विभिन्नता पाई जाती है। साथ ही. इन सब उपलक्षम ग्रंथकताको चाहे जिस पदवीसे विभबातोंसे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि ग्रंथकर्ता षित कर सकते हैं, मुझे इस विषयमें कुछ कहइन दोनोंसे भिन्न कोई तीसरा ही व्यक्ति है। नेकी जरूरत नहीं है । मैं सिर्फ यहाँ पर ग्रंथउसे संभवतः ये सब प्रकरण इसी रूपमें (टीका- काके इस कृत्यका पूरा परिचय दे देना टिप्पणीसहित या रहित ) कहींसे प्राप्त हए हैं ही काफी समझता हूँ और वह परिचय इस
और उसने उन्हें वहाँसे उठाकर बिना सोचे प्रकार हैं:. समझे यहाँ जोड़ दिया है।
(क) भद्रबाहुसंहिताके दूसरे खंडमें (२) हिन्दुओंके यहाँ ज्योतिषियोंमें 'वराह- 'करण ' नामका २९ वा अध्याय है, जिसमें मिहिर' नामके एक प्रसिद्ध विद्वान आचार्य- कुल ९ पद्य हैं । इनमेंसे शुरूके ६ पद्य बहहो गये हैं। उनके बनाये हुए ग्रंथोंमें 'बृहत्संहिता' त्संहिताके तिथि और करण ' नामके ९९ वें नामका एक खास ग्रंथ है, जिसको लोग अध्यायसे, जिसमें सिर्फ ८ पद्य हैं और पहले 'वाराहीसंहिता' भी कहते हैं । इस ग्रंथका दो पद्य केवल 'तिथि ' से सम्बंध रखते उल्लेख विक्रमकी ११ वीं शताब्दिमें होनेवाले हैं, ज्योंके त्यों ( उसी क्रमसे ) उठाकर " सोमदेव ' नामके जैनाचार्यने भी अपने रक्खे गये हैं । सिर्फ पहले पद्यमें कुछ “यशस्तिलक ' ग्रंथमें किया है । साथ ही अनावश्यक उलट फेर किया है। बृहत्संहिता. 'जैनत्तत्वादर्श' आदि श्वेताम्बर ग्रंथोंमें भी का वह पद्य इस प्रकार है:
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यत्कार्य नक्षत्रे तद्दैवत्यासु तिथिषु तत्कार्ये । करणमुहूर्तेष्वपि तत्सिद्धिकरं देवतासदृशम् ॥ ३ ॥ भद्रबाहुसंहितामें इसके पूर्वार्धको उत्तरार्ध और उत्तरार्धको पूर्वार्ध बना दिया है । इससे अर्थमें कोई हेर फेर नहीं हुआ । इन छहों पयोंके बाद भद्रबाहुसंहिता में सातवाँ पय इस प्रकार दिया है:
लाभे तृतीये च शुभैः समेते, पापैर्विहीने शुभराशिलने । वेध्यौ तु कर्णौ त्रिदशेज्यलग्ने * तिष्येन्दुचित्राहरिरेवतीषु यह बृहत्संहिता के ' नक्षत्र' नामके ९८ वें अध्यायसे उठाकर रक्खा गया है, जहाँ इसका नम्बर १७ है । यहाँ 'करण' के अध्यायसे इसका कोई सम्बंध नहीं है । इसके बादके दोनों पद्य ( नं० ८-९ ) भी इस करण - विषयक अध्याय से कोई संबंध नहीं रखते । वे बृहत्संहिता के अगले अध्याय नं १०० से उठाकर रक्खे गये हैं, जिसका नाम है ' विवाहनक्षत्रलग्ननिर्णय' और जिसमें सिर्फ ये ही दो हैं। इनमें से एक पद्य नमूने के तौर पर इस प्रकार है:
रोहिण्युत्तररेवतीमृगशिरोमूलानुराधामघाहस्तस्वातिषु षष्ठ तौलिमिथुनेषूद्यत्सु, पाणिग्रहः । सप्तायन्त्यबहिः शुभैरुडुपतावेकादशद्वित्रिगे, क्रूरैस्त्रयायषडष्टगैर्न तु भृगौ षष्ठे कुजे चाष्टमे ॥ ८ ॥ (ख) बृहत्संहिता में ' वस्त्रच्छेद' नामका ७१ वाँ अध्याय है, जिसमें १४ श्लोक हैं । इनमेंसे श्लोक नं० १३ को छोड़कर बाकी सब श्लोक भद्रबाहुसंहिताके ' निमित्त ' नामक ३० वें अध्यायमें नं० १८३ से १९५ तक नकल किये गये हैं । परन्तु इस नकल करनेमें एक तमाशा किया है, और वह यह है कि अन्तिम श्लोक नं० १४ को तो अन्तमें ही उसके स्थानपर की जगह
भद्रबाहुसंहिता में ' त्रिदशेज्य
*
• अमरेज्य' बनाया है ।
( नं० १९५ पर) रक्खा है । बाकी श्लोकों में से पहले पाँच श्लोकों का एक और उसके बाद के सात श्लोकों का दूसरा ऐसे दो विभाग करके दूसरे विभागको पहले और पहले विभागको पछि नकल किया है । ऐसा करने से श्लोकोंके क्रममें कुछ गड़बड़ी हो गई है । अन्तिम श्लोक नं० १९५, जो नूतन वस्त्रधारणका विधान करनेवाले दूसरे विभाग के श्लोकोंसे सम्बंध रखता था, पहले विभागके श्लोकों के अन्त में रक्खे जानेसे बहुत खटकने लगा है और असम्बद्ध मालूम होता है । इसके सिवाय अन्तिम श्लोक और पहले विभाग के चौथे श्लोक में कुछ थोड़ासा परिवर्तन भी पाया जाता है । उदाहरण के तौरपर यहाँ इस प्रकरणके दो श्लोक उद्धृत किये जाते हैं:
वस्त्रस्य कोणेषु वसन्ति देवा नराश्च पाशान्तदशान्तमध्ये | शेषास्त्रयश्चात्र निशाचरांशास्तथैव शय्यासनपादुकासु ॥ १ ॥ भोक्तुं नवाम्बरं शस्तमृक्षेऽपि गुणवर्जिते । विवाहे राजसम्माने ब्राह्मणानां च सम्मते ॥ १४ ॥
भद्रबाहु संहितामें पहला श्लोक ज्योंका त्यों नं० १९० पर दर्ज है और दूसरे श्लोक में, जो अन्तिम श्लोक है, सिर्फ ' ब्राह्मणानां च सम्मते ' के स्थान में 'प्रतिष्ठामुनिदर्शने ' यह पद बनाया गया है ।
( ग ) वराहमिहिर ने अपनी बृहत्संहिता में अध्याय नं ० ८६ से लेकर ९६ तक ११ अध्यायोंमें ' शकुन' का वर्णन किया है। इन अध्यायोंके पयोंकी संख्या कुल ३१९ है । इसके सिवाय अध्याय नं० ८९ के शुरू में कुछ थोड़ासा गद्य भी दिया है। गयको छोड़कर इनमें ३०१ पय भद्रबाहु संहिता के 'शकुन नामके ३१ वें अध्याय में उठाकर रक्खे गये हैं और उन पर नम्बर भी उसी ( प्रत्येक अध्यायके
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HARImm
भद्रबाहु-संहिता
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अलग अलग ) क्रमसे डाले गये हैं जिस प्रकार द्रव्योंसे पूजा करे । फिर अकेला अर्धरात्रिके कि वे उक्त बृहत्संहितामें पाये जाते हैं । बाकीके समय उस वृक्षके आग्नकोणमें खड़ा होकर १८ पद्योंमेंसे कुछ पद्य छूट गये और कुछ छोड़ तथा पिंगलाको अनेक प्रकारकी शपथें दिये गये मालूम होते हैं । इस तरह पर ये ग्यार- ( कसमें ) देकर पद्य नं० ४२।४३१४४ में दिया हके ग्यारह अध्याय भद्रबाहुसंहितामें नकल हुआ मंत्र ऐसे स्वरसे पढ़े जिसे पिंगला सुन सके किये गये हैं और उनका एक अध्याय · बनाया और उसके साथ पिंगलासे अपना मनोरथ पूछे । गया है। इतने अधिक श्लोकोंकी नकलमें सिर्फ ऐसा कहने पर वृक्ष पर बैठी हुई वह पिंगला यदि आठ दस पद्य ही ऐसे हैं जिनमें कुछ परिवर्तन कुछ शब्द करे तो उसके फलका विचार पद्य पाया जाता है। बाकी सब पद्य ज्योंके त्यों नं० १५ में* दिया है और उसके कछ नकल किये गये हैं। अस्तु । यहाँ पाठकोंके शब्द न करने आदिका विचार स ऊपर उद्संतोषार्थ और उन्हें इस नकलका अच्छा ज्ञान धृत किये हुए पद्यमें बतलाया है । इससे इस करानेके लिए कुछ परिवर्तित और अपरिवर्तित पद्यका साफ सम्बन्ध उक्त सात पद्योंसे पाया जाता दोनों प्रकारके पद्य नमूनेके तौर पर उद्धृत किये है। मालूम होता है कि ग्रंथकर्ताको इसका कुछ जाते है:
भी स्मरण नहीं रहा और उसने उक्त सात पद्यों१-वानरभिक्षुश्रवणावलोकनं नैऋतात्ततीयांशे। को छोड़कर इस पद्यको यहाँ पर असम्बद्ध बना फलकुसुमदन्तघटितागमश्च कोणाचतुर्थाशे ॥२-८॥ दिया है।
इस पद्यमें नैर्ऋत कोणके सिर्फ ततीय और ३- राजा कुमारो नेता च दृतः श्रेष्ठी चरो द्विजः । चतुर्थ अंशोहीका कथन है । इससे पहले दो गजाध्यक्षश्च पूर्वाद्याः क्षत्रियाद्याश्चतुर्दिशम् ५-४ अंशोंका कथन और होना चाहिए जो भद्रबाहु- यह पद्य यहाँ 'शिवारुत ' प्रकरणमें बिलसंहितामें नहीं है । इसलिए यह कथन अधूरा कुल ही असम्बद्ध मालूम होता है । इसका यहाँ है । बृहत्संहिताके ८७ वें अध्यायमें इससे पहलेके कुछ भी अर्थ नहीं हो सकता । एक बार इसका
एक पद्यमें वह कथन दिया है और इसलिए अवतरण इसी ३१ वें अध्यायके शुरूमें नं० २८ · · इस पद्यको नं० ९ पर रखा है। इससे स्पष्ट है पर हो चुका है और बृहत्संहिताके ८६ वे अकि वह पद्य यहाँ पर छूटगया है। ध्यायमें यह नं० ३४ पर दर्ज है । नहीं मालूम
२-अवाक्प्रदाने विहितार्थासद्धिः पूर्वोक्तदिक्चक्र- इसे फिरसे यहाँ रखकर ग्रंथकर्ताने क्या लाभ फलौरथान्यत् । वाच्यं फलं चोत्तममध्यनीचशाखा- निकाला है । अस्तु । इसके बदलेमें इस प्रकरणस्थितायां वरमध्यनीचम् ॥ ३-३९॥
का 'शान्ता...' इत्यादि पद्य नं० १३ ग्रंथकर्ता बृहत्संहितामें, जिसमें इस पद्यका नं० ४६ से छूट गया है और इस तरहपर लेखा बराबर है, इस पद्यसे पहले सात पद्य और दिये हो गया-प्रकरणके १४ पद्योंकी संख्या ज्योंकी हैं जो भद्रबाहुसंहितामें नहीं हैं और उनमें त्यों बनी रही। पिंगला जानवरसे शकुन लेनेका विधान किया * यथाः- "इत्येवमुक्त तरुमूर्ध्वगायाश्चिरिल्वरिल्वीहै। लिखा है कि,-'संध्याके समय पिंगलाके
तिरुतेऽर्थसिद्धिः। निवास-वृक्षके पास जाकर ब्रह्मादिक देवताओंकी
अत्याकुलत्वं दिशिकारशन्दे कुचाकुचेऔर उस वृक्षकी नये वस्त्रों तथा सुगंधित
त्येवमुदाहृते वा ॥४५॥
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. जैनहितैषीdiffmirmitiful
मारक
४- क्रूरः षष्ठे क्रूरदृष्टो विलमाद्यस्मिन्त्राशौ तद्गृहांगे (गोब्राह्मण ) की जगह 'जिनादि ' बनाया
व्रणः स्यात् । गया है और उससे यह सूचित किया है एवं प्रोक्तं यन्मया - जन्मकाले चिह्न रूपं तत्तदस्मि
कि यात्राके समय उत्तरदिशामें यदि साधु विचिन्त्यं ॥ ११-१
" और जिनादिक होवें तो श्रेष्ठ फल होता इस पद्यके उत्तरार्धमें लिखा है कि 'इसी है। परन्तु इस तबदीलीसे यह मालूम न प्रकारसे जन्मकालीन चिह्नों और फलोंका जो हआ कि इसे करके ग्रंथकर्ताने कौनसी कुछ वर्णन मैंने किया है उन सबका यहाँ भी बद्धिमत्ताका कार्य किया है। क्या 'साधु' विचार करना चाहिए । वराहमिहिरने 'बृह- शब्दमें 'जिन' का और 'जिनादि ' शज्जातक ' नामका भी एक ग्रन्थ बनाया है जिस- ब्दोंमें 'साधु' का समावेश नहीं होता था ? में जन्मकालीन चिह्नों और उनके फलोंका वर्णन यदि होता था तो फिर साधु और जिनादि ये है । इससे उक्त कथनके द्वारा वराहमिहिरने दो शब्द अलग अलग क्यों रक्खे गये ? अपने उस ग्रंथका उल्लेख किया मालूम होता साथ ही, जिस गौ और ब्राह्मणके नामको है । ग्रंथकर्ताने उसे बिना सोचे समझे यहाँ उडाया गया है उसको यदि कोई ' आदि' ज्योंका त्यों रख दिया है। भद्रबाहुसंहितामै शब्दसे ग्रहण कर ले तो उसका ग्रंथकाने इस इस प्रकारका कोई कथन नहीं जिससे इसका श्लोकमें क्या प्रतीकार रक्खा है ? उत्तर इन सम्बंध लगाया जाय। .
सब बातोंका कुछ नहीं हो सकता । इसलिए ५-ओजाः प्रदक्षिण शस्ता मृगः सनकुलाण्डजाः। ग्रंथकर्ताका यह सब परिवर्तन निरा भूल भरा चाषः सनकुलो वामो भृगुराहापराह्नतः ॥ १-३७॥ और मूर्खताका द्योतक है । ___ यह बृहसंहिता (अ० ८६) का ४३ वाँ ७-धीवरशाकुनिकानां सप्तमभागे भयं भवति दीप्ते पद्य है । इसमें 'भृगु' जीका नाम उनके वचन भोजनविघातउक्तो निधनभयं च तत्परतः॥२-३३॥ सहित दिया है। भद्रबाहुसंहितामें इसे ज्योंका इस पद्यमें सिर्फ 'निर्ग्रन्थभयं' के स्थात्यों रक्खा है । बदला नहीं है। संभव है कि नमें ‘निधनभयं ' बनाया गया है और इसका यह पद्य परिवर्तनसे छूट गया हो । अब आगे अभिप्राय शायद ऐसा मालूम होता है कि ग्रंथपरिवर्तित पर्याक दो नमूने दिखलाये जाते हैं:- कर्ताको निग्रंथ ' शब्द खटका है । उसने
६-श्रेष्ठो हयः सितः प्राच्यां शवमांसे च दक्षिणे। इसका अर्थ दिगम्बर मुनि या जैनसाधु कन्यका दधिनी पश्चादुदग्साधुजिनादयः॥१-४०। समझा है और जैनसाधुओंसे किसीको भय
बृहत्संहितामें इस पद्यका पहला चरण ' श्रे- नहीं होता, इसलिए उसके स्थानमें 'निधन । ठे हयसिते प्राच्यां' और चौथा चरण 'दुद- शब्द बनाया गया है। परन्तु वास्तवमें निग्रंथका ग्गो विप्रसाधवः ' दिया है। बाकी दोनों अर्थ दिगम्बर मुनि या जैनसाधु ही नहीं है चरण ज्योंके त्यों हैं । इससे भद्रबाहुसंहितामें बल्कि निर्धन' और 'मूर्ख' भी उसका इस पद्यके इन्हीं दो चरणोंमें तबदीली पाई अर्थ है x और यहाँ पर वह ऐसे ही अर्थमें जाती है। पहले चरणकी तबदीली साधारण + यथाः-निग्रंथः क्षपणेऽधने बालिशेऽपि।' इति है और उससे कोई अर्थभेद नहीं हुआ । श्रीधरसेनः ॥ 'निर्ग्रथो निस्वमूर्खयोः श्रमणे च।' इति रही चौथे चरणकी तबदीली, उसमें 'गोविप्र' हेमचन्द्रः ॥
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व्यवहृत हुआ है । अस्तु ग्रंथकर्ताका इस परिवनसे कुछ ही अभिप्राय हो, परन्तु छंदकी दृष्टिसे उसका यह परिवर्तन ठीक नहीं हुआ । ऐसा करनेसे इस आर्या छंदके चौथे चरण में दो मात्रायें कम हो गई हैं- १५ के स्थानमें १३ ही मात्रायें रह गई हैं । यहाँ पाठकोंको यह जानकर आश्चर्य होगा कि वराहमिहिर आचार्यने तो अपना यह संपूर्ण शकुनसम्बंधी वर्णन अनेक वैदिक ऋषियों तथा विद्वानोंके आधारपर - अनेक ग्रंथोंका आशय लेकर - लिखा है और उसकी सूचना उक्त वर्ण के शुरू में लगा दी है । परन्तु भद्रबाहु - संहिता के कर्ता इतने कृतज्ञ थे कि उन्होंने जिस विद्वानके शब्दोंकी इतनी अधिक नकल कर डाली है उसका आभार तक नहीं माना । प्रत्युत अध्यायके शुरूमें मंगलाचरणके बाद यह लिखकर कि ' श्रेणिक के प्रश्नानुसार गौतमने शुभ अशुभ शकुनका जो कुछ कथन किया है वह ( यहाँ मेरे द्वारा ) विशेषरूपसे निरूपण किया गया है * ' इस संपूर्ण कथनको जैनका ही नहीं बल्कि जैनियोंके केवलीका बना डाला है ! पाठक सोचें और विचार करें, इसमें . कितना अधिक धोखा दिया गया है।
(घ) भद्रबाहु संहिता में, शकुनाध्यायके बाद, 'पाक' नामका ३२ वाँ अध्याय है, जिसमें १७ पद्य हैं । यह पूरा अध्याय भी बृहत्संहिता से नकल किया गया है । बृहत्संहिता में इसका नं० ९७ है और पयोंकी संख्या वही १७ दी है। इन पयोंमेंसे ८ पयोंकी नकल भद्रबाहुसंहितामें ज्योंकी त्यों पाई जाती है । बाकी पद्य कुछ परिवर्तन के साथ उठाकर रक्खे गये हैं । परिवर्तन आम तौर
*
भद्रबाहु -संहिता ।
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'श्रेणिकेन यथा पृष्ठं तथा गौतमभाषितम् । शुभाशुभं च शकुनं विशेषेण निरूपितम् ॥ २ ॥
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पर शब्दोंको प्रायः आगे पीछे कर देने या किसी किसी शब्द के स्थान में उसका पर्यायवाचक शब्द रखदेने मात्र से उत्पन्न किया गया है । उदाहरण के तौर पर आदि अन्तके दो पय उन पद्योंके साथ नीचे प्रकाशित किये जाते हैं जिनसे वे कुछ परिवर्तन करके बनाये गये हैं:
पक्षाद्भानोः सोमस्य मासिकोऽङ्गारकस्य वक्रोक्तः । आदर्शनाच्च पाको बुधस्य जीवस्य वर्षेण ॥ १ ॥ ( - बृहत्संहिता । )
पाकः पक्षाद्भानोः सोमस्य च मासिकः कुजस्य वक्रोक्तः आदर्शनाच्च पाको बुधस्य सुगुरोश्च वर्षेण ॥ १ ॥ (- भद्रबाहुसंहिता । )
ऊपरके इस पद्यका भद्रबाहुसंहिता में जो परिवर्तन किया गया है उससे अर्थ में कोई भेद नहीं हुआ । हाँ इतना जरूर हुआ है कि आर्या छंदके दूसरे चरण में १८ मात्राओंके स्थान में २१ मात्रायें होगई हैं और एककी जगह दो 'पाक' शब्दोंका प्रयोग व्यर्थ हुआ है । यदि शुरूके ' पाकः ' पदको किसी तरह निकाल भी दिया जाय तो भी छंद ठीक नहीं बैठता । उस वक्त दूसरे चरण में १७ मात्रायें रह जाती हैं इसलिए ग्रंथकर्ता ने यह परिवर्तन करके कोई बुद्धिमानीका काम नहीं किया ।
२- निगदितसमये न दृश्यते चेदधिकतरं द्विगुणे प्रपच्यते तत् । यदि न कनकरत्नगोप्रदानैरुपशमितं विधिद्विजैश्च शान्त्या ॥ १७ ॥ बृहत्संहिता ॥
निगदितसमये न दृश्यते चेत् अधिक (तरं) द्विगुणे विपच्यते तत् । यदि न जिनवचो गुरूपचर्या शमितं तन्महकैश्च लोकशान्त्यै ॥ १७ ॥ भद्र० सं० ।
इस पद्यको देखनेसे मालूम होता है कि भद्रबाहुसंहितामें इसके उत्तरार्धका खास तौर से परिवर्तन किया गया है । परिवर्तन किस दृष्टिसे किया गया और उसमें किस बातकी विशेषत
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रक्खी गई है, इस बातको जाननेके लिए सबसे अर्थात्-जो कोई भी उत्पात या दूसरा कोई पहले बृहत्संहिताके इस पद्यका आशय मालूम विघ्न हो उसमें ब्राह्मण देवताओंको दक्षिणा देना होना जरूरी है और वह इस प्रकार है:- चाहिए-सोना, गौ और भूमि देना चाहिए। ऐसा
'ग्रहों तथा उत्पातों आदिके फल पकनेका करनेसे उत्पातादिककी शांति होती है। जो समय ऊपर वर्णन किया गया है उस समय इस गाथाको पढ़कर शायद कुछ पाठक यह पर यदि फल दिखाई न दे तो उससे दने कह उठे कि 'यह कथन जैनधर्मके विरुद्ध समयमें वह अधिकताके साथ प्राप्त होता है। है ।' परन्तु विरुद्ध हो या अविरुद्ध, यहाँ उसके परन्तु शर्त यह है कि, वह फल सुवर्ण, रत्न दिखलानेका आभिप्राय या उसपर विचार करने
और गोदानादिक शांतिसे विधिपूर्वक ब्राह्मणोंके का अवसर नहीं है-विरुद्ध कथनोंका अच्छा द्वारा उपशमित न हुआ हो । अर्थात् यदि वह दिद्गदर्शन पाठकोंको अगले लेखमें कराया फल इस प्रकारसे उपशांत न हुआ हो तब ही जायगा-यहाँ सिर्फ यह दिखलानेकी गरज है दूने समयमें उसका अधिक पाक होगा, अन्यथा कि
कि ग्रंथकाने एक जगह उक्त परिवर्तनके द्वार। नहीं । स्मरण रहे, भद्रबाहुसंहितामें इस पद्यका यह पूरा
यह सूचित किया है कि सोना तथा गौ आदिकजो कुछ परिवर्तन किया गया है वह सिर्फ इस के दानसे ब्राह्मणोंके द्वारा शांति * नहीं होती पद्यकी उक्त शर्तका ही परिवर्तन है । इस शर्तके
और दूसरी जगह खुले शब्दोंमें उसका विधान स्थानमें जो शर्त रखी गई है वह इस प्रकार है:- किया है । ऐसी हालतमें समझमें नहीं आता कि
- ग्रंथकर्ताके इस कृत्यको उन्मत्तचेष्टाके सिवाय परन्त शर्त यह है कि वह फल लोक- और क्या कहा जाय ! यहाँ पर यह भी प्रगट शांति के लिए महत्पुरुषों द्वारा की हुई जिनवचन कर देना जरूरी है कि ग्रंथकर्ताने, अपने इस
और गुरुकी सेवासे शांत न हुआ हो।' कृत्यसे छंदमें भी कुछ गड़बड़ी पैदा की है। ____ इस शर्तके द्वारा इस पद्यको जैनका लिबास बृहत्संहिताका उक्त पय 'पुष्पिताग्रा' नामक पहनाकर उसे जैनी बनाया गया है। साथ ही, छन्दमें+ है । उसके लक्षणानुसार चतुर्थ ग्रंथकाने अपने इस कत्यसे यह सचित किया पाटमें भी गणोंका विन्यास उसी प्रकार होना है कि शांति सुवर्ण, रत्न, और गौआदिके दानसे चाहिए था जिस प्रकार कि वह द्वितीय चरणमें नहीं होती बल्कि जिनवचन और गरुकी सेवासे पाया जाता है । परन्तु भद्रबाहसंहितामें ऐसा होती है। परन्तु तीसरे खंडके 'ऋषिपुत्रिका' नहीं है । उसके चौथे चरणका गणविन्यास नामक चौथे, अध्यायमें प्रतिमादिकके उत्पातकी दूसरे चरणसे बिलकुल भिन्न हो गया है। जिसके पाकका इस पाकाध्यायमें भी वर्णन है, (0) भद्रबाहुसंहितामें 'वास्तु ' नामका शांतिका विधान करते हुए लिखा है कि:- - जं किचिवि उप्पादं अण्णं विग्धं च तत्थ णासेड। * ब्राह्मणोंके उत्कर्षकी बातको दो एक जगह और दक्खिणदेजसुवणं गावी भूमी उ विप्पदेवाणं ११२ * भी बदला है जिसका ऊपर उद्धृत किये हुए (ख)
और (ग) भागके पद्योंमें उल्लेख आचुका है। * इसकी संस्कृतछाया इस प्रकार है:-
+इस छंदके विषम (१-३) चरणों में क्रमशः यत्किंचिदपि उत्पातं अन्यद्विघ्नं च तत्र नाशयति । नगण नगण रगण यगण और सम (२-४) चरदक्षिणा दद्यात् सुवर्ण गौः भूमिश्च विप्रदेवेभ्यः ॥ णोंमें नगण जगण जगण रगण और एक गुरु होते हैं।
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भद्रबाहु-संहिता। infrintimilimtitititiurmiritur
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३५ वाँ अध्याय है, जिसमें लगभग ६० श्लोक बाकी नहीं रहता कि यह सब कथन उक्त वसुनन्दिके 'प्रतिष्ठासारसंग्रह ' ग्रंथसे उठाकर बृहत्संहितासे उठाकर ही नहीं बल्कि चुराकर रक्खे गये हैं और जिनका पिछले लेखमें उल्लेख रक्खा गया है । साथ ही इससे ग्रंथकर्ताकी किया जा चुका है। इन श्लोकोंके बाद एक सारी योग्यता और धार्मिकताका अच्छा पता श्लोकमें वास्तुशास्त्रके अनुसार कथनकी प्रतिज्ञा मालूम हो जाता है। देकर, १३ पद्य इस बृहत्संहिताके 'वास्तु- (३) पहले लेखमें, भद्रबाहु और राजा विद्या ' नामक ५३ वें अध्यायसे भी उठाकर श्रेणिककी ( ग्रंथकर्ता द्वारा गढ़ी हुई ) असम्बद्ध रक्खे हैं। जिनमेंसे शुरूके चार पोंको आयर्या मुलाकातको दिखलाते हुए, हिन्दुओंके 'बृहछंदसे अनुष्टपमें बदल कर रक्खा है और बाकीको त्पाराशरी होरा ' ग्रंथका उल्लेख किया जा चुका प्रायः ज्योंका त्यों उसी छंदमें रहने दिया है। है । इस ग्रंथसे लगभग दोसौ श्लोक उठाकर इन पद्योंसे भी दो नमूने इस प्रकार हैं:- भद्रबाहुसंहिताके अध्याय नं० ४१ और ४२ में १ षष्ठिश्चतुर्विहींना वेश्मानि भवन्ति पंच सचिवस्य । रक्खे गये हैं । संहितामें इन सब श्लोकोंकी स्वाष्टांशयुता दैये तदर्धतो राजमहिषीणाम् ॥ ६॥ नकल प्रायः ज्योंकी त्यों पाई जाती है। सिर्फ
(-बृहत्संहिता।) दस पाँच श्लोक ही इनमें ऐसे नजर आते हैं सचिवस्य पंच वेइमानि चतुहीना तु षष्ठिकाः। जिनमें कुछ थोड़ासा परिवर्तन किया गया है। स्वाष्टांशयुतदैर्ध्याणि महिषीणां तदर्धतः ॥ ६८॥
(-भद्रबा० सं०।)
१-भौमजीवारुणाः पापाः एक एव कविः शुभः । २ ऐशान्यां देवगृहं महानसं चापि कार्यमाग्नेय्याम् ।
शनैश्चरेण जीवस्य योगोमेषभवो यथा ॥४१-१६॥ नैर्ऋत्यां भाण्डोपस्करोऽर्थ धान्यानि मारुत्याम् ॥ ७८ ॥
२-स्वात्रिंशांशेऽथवा मित्रे त्रिंशांशे वा स्थितो यदि । इन पद्योंमें दूसरे नम्बरका पद्य ज्योंका त्यों
तस्य भुक्तिः शुभा प्रोक्ता भद्रबाहुमहर्षिभिः४२-१८ नकल किया गया है और बृहत्संहितामें नं० ११८
३-एवं देहादिभावानां षड्वर्गगतिभिः फलम् । पर दर्ज है । पहले पद्यमें सिर्फ छंदका परिवर्तन . है, । शब्द प्रायः वहीके वही पाये जाते हैं । इस
सम्यग्विचार्य मतिमान्प्रवदेत् मागधाधिपः ४२-द्वि.१७ परिवर्तनसे पहले चरणमें एक अक्षर बढ इनमेंसे पहला श्लोक ज्योंका त्यों है और वह गया है-८ की जगह ९ अक्षर हो गये हैं। यदि उक्त पाराशरी होराके पूर्वखंड सम्बन्धी १३ वें ग्रंथकर्ताजी किसी मामूली छंदोवित्से भी अध्यायमें नं० १९ पर दर्ज है । दूसरे श्लोकमें सलाह ले लेते तो वह कमसे कम 'सचिवस्या 'कालविद्भिर्मनीषिभिः ' के स्थानमें 'भद्रके स्थानमें उन्हें 'मंत्रिणः । कर देना जरूर बाहुमहर्षिभिः ' और तीसरे श्लोकमें ' कालबतला देता, जिससे छंदका उक्त दोष सहजहीमें वित्तमः' की जगह मागधाधिपः ' बनाया दूर हो जाता । अस्तु ।
गया है । दूसरे श्लोकमें भद्रबाहुके नामका जो ऊपरके इस संपूर्ण परिचयसे-ज्योंके त्यों १ यह श्लोक बृहत्पाराशरीहोराके ३७ वें अध्यायमें उठाकर रक्खे हुए, स्थानान्तर किये हुए, छूटे नं. ३ पर दर्ज है। हुए, छोड़े हुए और परिवर्तित किये हुए पद्योंके २ यह श्लोक बृ. पाराशरी होराके ४६ वें, अध्या-. नमूनोंसे-साफ जाहिर है और इसमें कोई संदेह यका ११ वा पद्य है।
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"जैनहितैषी -
परिवर्तन है उस प्रकारका परिवर्तन इस अध्याय के और भी अनेक श्लोकों में पाया जाता है और इस परिवर्तन के द्वारा ग्रंथकर्ताने हिन्दुओंके इस होरा-कथनको भद्रबाहुका बनानेकी चेष्टा की है । रहा तीसरे श्लोकका परिवर्तन, वह बड़ा ही विलक्षण है । इसके मूलमें लिखा था कि ' इस प्रकार बुद्धिमान् ज्योतिषी ( कालवित्तमः भले प्रकार विचार करके फल कहे ' । परन्तु संहिताके कतीने, अपने इस परिवर्तन से, फल कहनेका वह काम मागधोंके राजाके सपुर्द कर दिया है ! और इसलिए उसका यह परिवर्तन यहाँ बिलकुल असंगत मालूम होता है । यदि विसर्गको हटाकर यहाँ ' मागधाधिपः ' के स्थानमें 'मागधाधिप ऐसा सम्बोधन पद भी मान लिया जाय तो भी असम्बद्धता दूर नहीं होती क्योंकि ग्रंथ में इससे पहले उक्त राजाका कोई ऐसा प्रकरण या प्रसंग नहीं है जिससे इस पदका सम्बंध हो सके ।
।
( ४ ) हिन्दुओंके यहाँ ' लघुपाराशरी' नाम का भी एक ग्रंथ है और इस ग्रंथसे भी बहुत से श्लोक कुछ परिवर्तनके साथ उठाकर भद्रबाहुसंहिता के अध्याय नं० ४१ में रक्खे हुए मालूम होते हैं, जिनमें से एक श्लोक उदाहरण के तौर पर इस प्रकार है:
"
जिनदेवं प्रणम्यादौ सर्वज्ञं विबुधार्चितम् । लक्षणानि च वक्ष्येऽहं भद्रबाहुर्यथागमं ॥ १ ॥ इस पद्यमें, मंगलाचरणके बाद, लिखा है किमैं भद्रबाहु आगमके अनुसार लक्षणोंका कथन करता हूँ।' इस प्रतिज्ञावाक्यसे एक दम ऐसा मालूम होता है कि मानो भद्रबाहु स्वयं इस अध्यायका प्रणयन कर रहे हैं और ये सब शब्द उन्हींकी कलमसे अथवा उन्हींके मुखसे निकले हुए हैं; परंतु नीचे के इन दो पर्योके पढ़नेसे, जो उक्त पद्यके अनन्तर दिये हैं, कुछ और ही मालूम होने लगता है । यथा:पूर्वमायुः परीक्षेत पश्चालक्षणमेव च । आयुर्हीननृनारीणां लक्षणैः किं प्रयोजनम् ॥ २ ॥ नारीणां वामभागे तु पुरुषस्य च दक्षिणे । यथेोक्तं लक्षणं तेषां भद्रबाहुवचो यथा ॥ ३ ॥ पद्य नं० ३ में 'भद्रबाहुवचो यथा' ये शब्द आये हैं, जिनका अर्थ होता है ' भद्रबाहुके दशायुग्मे मध्यगतस्तदयुक् शुभकारिणाम् ॥ ४१ ॥ वचनानुसार अथवा जैसा कि भद्रबाहुने कहा है।' लघुपाराशरी में यह श्लोक इस अर्थात् ये सब वचन खास भद्रबाहुके शब्द दिया है:नहीं हैं - उन्होंने इस अध्यायका प्रणयन नहीं किया बल्कि उनके वचनानुसार ( यदि यह सत्य हो ) किसी दूसरे ही व्यक्तिने इसकी रचना की है । आगे भी इस अध्यायके श्लोक नं०३२, १३१ और १९५ में यही ' भद्रबाहुव
योगो दशास्वपि भवेत्प्रायस्सुयोगकारिणोः ।
प्रकार
दशास्वपि भवेद्योगः प्रायशो योगकारिणोः । दशाद्वयी मध्यगतस्तदयुक् शुभकारिणाम् ॥ १८ ॥ पाठक दोनों पद्यों पर दृष्टि डालकर देखें, कितना सुगम परिवर्तन है ! दो एक शब्दोंको आगे पीछे करदेने तथा किसी किसी शब्दका
गया है । लघुपाराशर के दूसरे पद्योंका भी प्रायः यही हाल है । संहितामें उनका भी इसी प्रकारका परिवर्तन पाया जाता है ।
(५) भद्रबाहु संहिता के दूसरे खंड में 'लक्षण' नामका एक अध्याय नं० ३७ है, जिसमें प्रधानतः स्त्रीपुरुषोंके अंगों - उपांगों आदि के लक्षणों को दिखलाते हुए उनके शुभाशुभ फलका वर्णन किया है । इस अध्यायका पहला पद्य इस प्रकार है
१ अन्तके २० पद्योंमें कुछ थोड़ेसे हाथी घोड़ोंके
पर्यायवाचक शब्द रख देने मात्र से परिवर्तन हो भी लक्षण दिये हैं ।
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भद्रबाहु-संहिता।
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चो यथा, शब्द पाये जाते हैं, जिनसे इस कोशमें 'सामुद्रक ' शब्दके नीचे कुछ श्लोक पिछले कथनकी और भी अधिक पुष्टि होती है। किसी सामुद्रकशास्त्रसे उद्धृत करके रखे गये. इसके सिवाय एक स्थानपर, श्लोक नं० १३६ हैं, जिनमेंके दो श्लोक इसप्रकार हैं:में, ग्राह्यकन्या कैसी होती है, इत्यादि प्रश्न
वामभागे तु नारीणां दक्षिणे पुरुषस्य च । देकर अगले श्लोक नं० १३७ में 'भद्रबाहु
निर्दिष्टं लक्षणं तेषां समुद्रेण यथोदितम् ॥ रुवाचेति ' इस पर भद्रबाहु बोले, इन शब्दोंके
पूर्वमायुः परीक्षेत पश्चाल्लक्षणमेव च । साथ उसका उत्तर दिया गया है। प्रश्नोत्तर रूपके आयुहीन नराणां चेत् लक्षणैः किं प्रयोजनम् ॥ ये दोनों श्लोक पहले लेखमें उद्धृत किये जा इन श्लोकोंमें पहला श्लोक उक्त तीसरे पद्यसे चुके हैं । इनसे बिलकुल स्पष्ट होजाता है कि बहुत कुछ मिलता जुलता है । मालूम होता है यह सब कथन भले ही भद्रबाहुके वचनानुसार कि संहिताका उक्त पय इसी श्लोक परसे या लिखा गया हो, परन्तु वह खास भद्रबाहुका इसके सदृश किसी दूसरे श्लोक परसे परिवर्तित वचन नहीं है और न उन लोगोंका वचन है किया गया है और इस परिवर्तनके कारण ही जिनके प्रश्नपर भद्रबाहु उत्तररूपसे बोले थे। वह कुछ दूषित और असम्बंधित बन गया है । क्योंकि यहाँ ‘उवाच' ऐसी परोक्ष भूतकी अन्यथा, इस श्लोकमें उक्त प्रकारका कोई दोष क्रियाका प्रयोग पाया जाता है । ऐसी हालतमें नहीं है। इसका 'तेषां पद भी इससे पहले श्लोककहना पड़ता है कि यह सब रचना किसी तीसरे के उत्तरार्धमें आये हुए 'मनुष्याणां ' पदसे ही व्यक्तिकी कृति है । परन्तु ऐसा होनेपर सम्बन्ध रखता है । रहा दूसरा श्लोक, उसे पहले श्लोकमें दिये हुए उक्त प्रतिज्ञावाक्यसे देखनेसे मालूम होता है कि वह और संहिताका विरोध आता है और इसलिए सारे कथन पर ऊपर उद्धत किया हुआ पद्य नं० २ दोनों जालीपनेका संदेह होजाता है। तीसरे नम्बरके एक हैं । सिर्फ तीसरे चरणमें कुछ नाममात्रका पद्यको फिरसे जरा गौरके साथ पढ़ने पर मालूम परिवर्तन है जिससे कोई अर्थभेद नहीं होता। होता है कि उसमें 'भद्रबाहुवचो यथा' बहुत संभव है कि संहिताका उक्त पय भी इस के होते हुए 'यथोक्तम् ' पद व्यर्थ पड़ा है, दूसरे श्लोकपरसे परिवर्तित किया गया हो। उसका ‘तेषां' शब्द खटकता है और चूंकि परन्तु इसे छोड़कर यहाँ एक बात और नोट 'यथोक्त 'पद 'लक्षणं' पदका विशेषण है, की जाती है और वह यह है कि इस अध्यायमें इसलिए इस पद्यमें कोई क्रियापद नहीं है और एक स्थान पर, 'नारदस्य वचो यथा' यह न पिछले तथा अगले दोनों पद्योंकी क्रियाओंसे पद देकर नारदके वचनानुसार भी कथन कर-. उसका कोई सम्बंध पाया जाता है । ऐसी हाल- नेको सूचित किया है । यथाःतमें, इस पद्यका अर्थ होता है- 'स्त्रियोंके वाम
ललाटे यस्य जायेत रेखात्रयसमागमः। भागमें और पुरुषके दक्षिणभागमें उनका यथोक्त
षष्ठिवर्षायुरुद्दिष्टं नारदस्य वचो यथा ॥१३०॥ लक्षण भद्रबाहुके वचनानुसार ।' इस अर्थसे यह
इससे मालूम होता है कि इस अध्यायका पद्य यहाँ बिलकुल असम्बद्ध मालूम होता है और किसी दूसरे पद्यपरसे परिवर्तित करके बनाये १ वह उत्तरार्ध इस प्रकार है:- लक्षणं तु मनुजानेका खयाल उत्पन्न करता है। शब्दकल्पद्रुम- ष्याणां एकैकेन वदाम्यहम् ।
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कुछ कथन किसी ऐसे ग्रंथसे भी उठाकर रक्खा - गया है जो हिन्दुओंके नारद मुनि या नारदाचार्य से सम्बंध रखता है । 'नारदस्य वचो यथा' और ' भद्रबाहुवचो यथा ' ये दोनों पद एक ही वजनके हैं | आश्चर्य नहीं कि इस अध्याय में जहाँ ' भद्रबाहुवचो यथा ' इस पदका प्रयोग पाया जाता है वह ' नारदस्य वचो यथा ' इस पदको बदल कर ही बनाया गया हो और ऊपर के पद्यमें 'नारदस्य' के स्थान में 'भद्रबाहु ' का परिवर्तन करना रह गया हो । परन्तु कुछ भी हो ऊपरके इस संपूर्ण कथनसे इस विषय में कोई संदेह नहीं रहता कि इस अध्यायका यह सब कथन, जो २२० पयोंमें है, एक या अनेक सामुद्रक शास्त्रों- लक्षणग्रंथों - अथवा तद्विषयक अध्यायोंसे उठाकर रक्खा गया है और कदापि भद्रबाहुश्रुत वलीका वचन नहीं है ।
जैनहितैषी -
( ६ ) भद्रबाहुसंहिता के पहले खंडमें दस अध्याय हैं, जिनके नाम हैं १ चतुर्वर्णनित्यक्रिया, २ क्षत्रियनित्यकर्म, ३ क्षत्रियधर्म, ४ कृतिसंग्रह, ५ सीमा निर्णय, ६ इंडपारुष्य, ७ स्तैन्यकर्म, ८ स्त्रीसंग्रहण, ९ दायभाग और १० प्रायश्चित्त । इन सब अध्यायों की अधिकांश रचना प्रायः मनु आदि स्मृतियों के आधार पर हुई है, जिनके सैंकड़ों या तो ज्योंके त्यों और या कुछ परिवर्तनके साथ जगह जगह पर इन अध्यायोंमें पाये जाते हैं । मनुके १८ व्यवहारों - विवादपदों का भी अध्याय नं० ३ से १ तक कथन किया गया है । परन्तु यह सब कथन पूरा और सिलसिलेवार नहीं है । इसके बीच में कृतिसंग्रह नामका चौथा अध्याय अपनी कुछ निराली ही छटा दिखला रहा है - उसका मजमून ही दूसरा है - और उसमें कई विवादोंके कथनका - दर्शन तक भी नहीं कराया गया । इन अध्या-यों पर यदि विस्तार के साथ विचार किया जाय
तो एक खासा अलग लेख बन जाय; परन्तु यहाँ इसकी जरूरत न समझकर सिर्फ उदाहरणके तौरपर कुछ पयोंके नमूने दिखलाये जाते हैं:क-ज्योंके त्यों पद्य । त्रैविद्येभ्यस्त्रयीं विद्यां दंडनीतिं च शाश्वतीम् । आन्वीक्षिकीं चात्मविद्यां वार्तारंभांच लोकतः २-१३४ तैः सार्धं चिन्तयेन्नित्यं सामान्यं संधिविग्रहम् । स्थानं समुदयं गुप्तिं लब्धप्रशमनानि च ॥ १४५॥
ये दोनों पद्य मनुस्मृतिके सातवें अध्यायके हैं जहाँ वे क्रमशः नं० ४३ और ५६ पर दर्ज हैं ।
वाँ
नोपगच्छेत्प्रमत्तोऽपि स्त्रियमार्तवदर्शने । समानशयने चैव न शयीत तया सह ॥ ४-४२ ॥ यह पद्य मनुस्मृतिके चौथे अध्यायका ४० है 1 कन्यैव कन्यां या कुर्यात्तस्याः स्याद्विशतो दमः । शुल्कं च द्विगुणं दद्याच्छिफाश्चैवाप्नुयाद्दश ॥ ८-१४ ॥ यह पद्य मनुस्मृतिके आठवें अध्यायमें नं० ३६९ पर दर्ज है।
ख -- परिवर्तित पद्य ।
मनुस्मृतिके सातवें अध्यायमें राजधर्मका वर्णन करते हुए, राजाके काम से उत्पन्न होनेवाले दस व्यसनोंके जो नाम दिये हैं वे इस प्रकार हैं:
मृगयाक्षो दिवास्वप्नः परिवादः स्त्रियोमदः । तैयित्रिक वृथाय्या च कामजो दशको गणः ॥ ४७ ॥ भद्रबाहु संहिता में इस पथके स्थान में निम्न लिखित डेढ़ पद्य दिया है:परिवादो दिवास्वप्नः मृगयाक्षो वृथाटनम् । तौर्यत्रिकं स्त्रियो मद्यमसत्यं स्तैन्यमेव च ॥२-१३८॥ इमे दशगुणाः प्रोक्ताः कामजाः बुधनिन्दिताः ।
दोनों पद्योंके मीलानसे जाहिर है कि भद्रबाहुसंहिताका यह डेढ़ पद्य मनुस्मृतिके उक्त पद्य नं० ४७ परसे, उसके शब्दों को आगे पीछे
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SHABARTIMLAIMLIMATIBIOTALED ___ भद्रबाहु-संहिता।
Timfimum
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करके बनाया गया है। सिर्फ 'असत्य' और बनाया गया है । इस परिवर्तनसे 'पुत्र अपने ही 'स्तैन्य ' ये दो व्यसन इसमें ज्यादह बढ़ाये समान हकदार है ' की जगह ' आत्मा निश्चयसे गये हैं, जिनकी वजहसे कामज व्यसनों या पुत्ररूप होकर उत्पन्न होता है' यह अर्थ हो गया है। गुणोंकी संख्या दसके स्थानमें बारह हो गई है। कृत्वा यज्ञोपवीतं तु पृष्ठतः कंठलम्बितम् । परंतु वैसे भद्रबाहुसंहितामें भी यह संख्या विण्सूत्रे तु गृही कुर्याद्वामकर्णे व्रतान्वितः ॥ १-१८॥ दस ही लिखी है, जिससे विरोध आता है। यह पद्य वही है जिसे विट्रल नारायण कृत संभव है कि ग्रंथकर्ताने 'तौर्यत्रिक' को एक । आह्निक ' में 'अंगिराः । ऋषिका वचन लिखा गुण या एक चीज समझा हो । परन्तु वास्तवमें है। सिर्फ 'समाहितः । के स्थानमें यहाँपर ऐसा नहीं है। गाना, बजाना और नाचना ये 'व्रतान्वितः' का परिवर्तन किया गया है। तीनों चीजें अलग अलग हैं और अलग अलग मनस्मतिके आठवें अध्यायमें, लोकव्यवहागण कहे जाते हैं, जैसा कि उक्त पदमें लगे रके लिए कुछ संज्ञाओंका वर्णन करते हुए, हुए ‘त्रिक ' शब्दसे भी जाहिर है। लिखा है कि झरोखेके भीतर सर्यकी किरणों के नाधर्मश्चरितो लोके सद्यः फलति गौरिव । प्रविष्ट होनेपर जो सूक्ष्म रजःकण दिखलाई शनैरावर्तमानस्तु कर्तुर्मूलानि कृन्तति ॥४-१७२ ॥ देते हैं उसको त्रसरेणु कहते हैं । आठ त्रसरेणु
. (-मनुस्मृतिः।) ओंकी एक लीख, तीन लीखोंका एक राजसर्षप, नाधर्मस्त्वरितो लोके सद्यः फलति गौरिव । तीन राजसर्षपोंका एक गौरसर्षप और छह शनैरावर्तमानस्तु कर्तुर्मूलानि कृन्तति ॥ ४-८५॥ गौरसर्षपोंका एक मध्यम यव (जौ ) होता.
- (-भद्रबाहु स०) है। यथाः -- ये दोनों पद्य प्रायः एक हैं । भद्रबाहुसंहि
जालान्तरगते भानौ यत्सूक्ष्म दृश्यते रजः । ताके पद्यमें जो कुछ थोड़ासा परिवर्तन है वह
प्रथमं तत्प्रमाणानां त्रसरेणुं प्रचक्षते ॥ १३२॥ समीचीन मालूम नहीं होता । उसका ‘मिश्रं'
त्रसरेणवोऽटौ विज्ञेया लिका परिमाणतः । पद बहुत खटकता है और वह यहाँ पर कुछ ता राजसर्षपस्तिस्रस्ते त्रयो गौरसर्षपाः ॥१३३ ॥ भी अर्थ नहीं रखता । यदि उसे किसी तरह सर्षपाः षट् यवो मध्यः..................) पर 'सद्यः' का पर्यायवाचक शब्द 'शीघ्र' भद्रबाहसंहिताके कर्ताने मनुस्मृतिके इस मान लिया जाय तो ऐसी हालतमें 'स्त्वरितो' कथनमें त्रसरेणुसे परमाणुका अभिप्राय समझकर के स्थानमें 'श्चरितो' भी मानना पड़ेगा और तथा राजसर्षप और गौरसर्षपके भेदोंको उड़ातब पद्य भरमें सिर्फ एक शब्दका ही अना- कर जो कथन किया है वह इस प्रकार है:वश्यक परिवर्तन रह जायगा।
+ यस्य भागो पुनर्नस्यात्परमाणुः स उच्यते । आत्मा वै जायते पुत्रः पुत्रेण दुहिता समा। तेऽौ लिक्षा त्रयस्तच्च सर्षपस्ते यवो हि षट् ॥३-२५२॥ तस्यामात्मनि तिष्ठन्त्यां कथमन्यो धन हरेत् ॥९-२६॥ -
+ इससे पहले श्लोकमें त्रसरेण्वादिके भेदसे ही मानदायभाग प्रकरणका यह पय वही है जो ,
संज्ञाओंके कथनकी प्रतिज्ञा की गई है जिससे मालूम मनुस्मृतिके ९ वें अध्यायमें नं० १३० पर दर्ज होता है कि ग्रंथकर्ताने त्रसरेणुको परमाणु समझा है। है। सिर्फ उसके 'यथैवात्मा तथा पुत्रः' के यथाः संसारख्यवहारार्थ मानसंज्ञा प्रकथ्यते । हेमस्थानमें 'आत्मा वै जायते पुत्रः' यह वाक्य रत्नादिवस्तूनां त्रसरेण्वादिभेदतः ॥ २५१ ॥
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alumammmmHDAMAMTARA
जैनहितैषी। Shrimammintinu m my
__ अर्थात्-जिसका विभाग न हो सके उसको (क) पहले खंडके 'प्रायाश्चत्त ' नामक ‘परमाणु कहते हैं । आठ परमाणुओंकी एक लीख, १० वें अध्यायमें, एक स्थान पर, ये तीन तीन लीखोंका एक सर्षप ( सरसोंका दाना ) और पद्य दिये हैं:छह सर्षपोंका एक जो होता है । संहिता- पण दस बारस णियमा पग्णारस होइ तहय दिवसेहिं । का यह सब कथन जैनदृष्टिसे बिलकुल गिरा खत्तिय बंभाविस्सा सुद्दाय कमेण सुझंति ॥ ३७॥ हुआ ही नहीं बल्कि नितान्त, असत्य मालूम क्षत्रियासूतकं पंच विप्राणां दश उच्यते। होता है। इस कथनके अनुसार एक जौ, असं- वैश्यानां द्वादशाहेन मासार्धेष्वितरे जने ॥ ३८॥ ख्यात अथवा अनंत परमाणुओंकी जगह, सिर्फ यतिः क्षणेन शुद्धः स्यात्पंच रात्रेण पार्थिवः । १४४ परमाणुओंका पुंज ठहरता है, जब कि ब्राह्मणो दशरात्रेण मासार्धेनेतरो जनः ॥ ३९ ॥ मनुस्मृतिका कर्ता उसे ४३२ त्रसरेणुओंके इन तीनों पद्योंमेंसे कोई भी पद्य 'उक्तं च' बराबर बतलाता है। एक त्रसरेणुमें बहुतसे आदि रूपसे किसी दूसरे व्यक्तिका प्रगट नहीं परमाणुओंका समूह होता है । परमाणुको जैन- किया गया और न दूसरा पद्य पहले प्राकृत शास्त्रोंमें इंदियगोचर नहीं माना; ऐसी हालत पद्यकी छाया है । तो भी पहले पद्यमें जिस बातहोते हुए लौकिक व्यवहारमें परमाणुके पैमानेका का वर्णन दिया है वही वर्णन दूसरे पद्यमें भी प्रयोग भी समुचित प्रतीत नहीं होता । इन सब किया गया है । दोनों पद्योंमें क्षत्रिय, ब्राह्मण, बातोंसे मालूम होता है कि ग्रंथकर्ताने संज्ञाओंकी वैश्य और शूद्रोंकी सूतकशुद्धिकी मर्यादा यह कथन मनस्मृति या उसके सदृश किसी क्रमशः पाँच, दस, बारह और पंद्रह दिनकी दूसरे ग्रंथसे लिया तो जरूर है; परन्तु वह उसके बतलाई है । रहा तीसरा पद्य, उसमें क्षत्रियों आशयको ठीक तौरसे समझ नहीं सका और और ब्राह्मणोंकी शुद्धिका तो कथन वही है जो उसने परमाणुका लक्षण साथमें लगाकर जो इस ऊपरके दोनों पद्योंमें दिया है और इसलिए यह कथनको जैनकी रंगत देनी चाही है उससे यह कथन तीसरी बार आगया है, बाकी रही वैश्यों कथन उलटा जैनके विरुद्ध होगया है और और शूद्रोंकी शुद्धिकी मर्यादा, वह इसमें इससे ग्रंथकर्ताकी साफ मूर्खता टपकती है । सत्य १५ दिनकी बतलाई है, जिससे वैश्योंकी है 'मल्का प्रसाद भी भयंकर होता है।' शद्धिका कथन पहले दोनों पद्योंके कथनसे
(७) इस संहितामें अनेक कथन ऐसे पाये विरुद्ध पड़ता है। क्योंकि उनमें १२ दिनकी जाते हैं जिन्हें ग्रंथकर्ताने विना किसी नूतन मर्यादा लिखी है । इसके सिवाय ग्रंथमें इन तीनों आवश्यकताके एकसे अधिक वार वर्णन किया पद्योंका ग्रंथके पहले पिछले पद्योंके साथ कुछ है और जिनके इस वर्णनसे न सिर्फ ग्रंथकर्ताकी सम्बंध ठीक नहीं बैठता और ये तीनों ही मूढता अथवा हिमाकत ही जाहिर होती है बल्कि पद्य यहाँ 'उठाऊ चूल्हा' जैसे मालूम पड़ते हैं । साथ ही यह बात और स्पष्ट हो जाती है कि यह (ख ) दूसरे खंडमें 'तिथि ' नामका २८ पूरा ग्रंथ किसी एक व्यक्तिकी स्वतंत्र रचना वाँ अध्याय है, जिसमें कुल तेरह पद्य हैं। इनमेंन होकर प्रायः भिन्न भिन्न व्यक्तियोंके प्रकर- से छह पद्य नं० ४, ५, ७, ८, ९, १० बिलणोंका एक बेढंगा संग्रह मात्र है। ऐसे कथनोंके कुल वे ही हैं जो इससे पहले 'मुहूर्त' नामके कुछ नमूने इस प्रकार हैं:
: २७ वें अध्यायमें क्रमशः नं० ९, १०, १५,
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TAMAmmmmmmmm
भद्रबाहु-संहिता।
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१८, १९, २० पर दर्ज हैं । यहाँ पर उन्हें वाँ अध्याय है, जिसमें स्वमका भी वर्णन दिया व्यर्थ ही दुबारा रक्खा गया है।
है। इन दोनों अध्यायोंमें स्वप्नविषयक जो (ग) दूसरे खंडमें विरोध ' नामका एक कुछ कथन किया गया है उसमेंसे बहुतसा ४३ वाँ, अध्याय भी है जिसमें कुल ६३ श्लोक कथन एक दूसरेसे मिलता जुलता है और एकके हैं । इन श्लोकों में शुरूके साढे तेईस श्लोक-नं० होते दूसरा बिलकुल व्यर्थ और फिजूल मालूम २ से नं० २५ के पूर्वार्ध तक-बिलकल ज्योंके होता है । नमूनेके तौरपर यहाँ दोनों अध्यात्यों वे ही हैं जो पहले इसी खंडके ग्रहयद्ध' योंसे सिर्फ दो दो श्लोक उद्धृत किये जाते हैं:नामके २४वें अध्यायके+शुरूमें आचुके हैं और १-मधुरेर्चिविंशेत्स्वप्ने दिवा वा यस्य वेश्मनि । उन्हीं नम्बरोंपर दर्ज हैं। समझमें नहीं आता तस्यार्थनाशं नियतं मृतोवाप्यभिनिर्दिशेत् ॥ ४५॥ कि जब दोनों अध्यायोंका विषय भिन्न भिन्न था
-अध्याय २६ ।। तो फिर क्यों एक अध्यायके इतने अधिक श्लोकों- मधुछत्रं विशेत्स्वप्ने दिवा वा यस्य वेश्मनि । को दूसरे अध्यायमें फिजल नकल किया गया। अर्थनाशो भवेत्तस्य मरणं वा विनिर्दिशेत् ॥१३३॥ संभव है कि इन दोनों विषयोंमें ग्रंथकर्ता
-अध्याय ३० । को परस्पर कोई भेद ही मालूम न हुआ हो । उसे २-मूत्रं वा कुरुते स्वप्ने पुरीषं वा सलोहितम् । इस ‘विरोध ' नामके अध्यायकोरखनेकी जरू- प्रतिबुध्येत्तथा यश्च लभते सोऽर्थनाशनम् ॥५२॥ रत इस वजहसे पड़ी हो कि उसके नामकी
-अ० २६ । . सूचना उस विषयसूचीमें की गई है जो इस पुरीष लोहितं स्वप्ने मत्रं वा कुरुते तथा । खंडके पहले अध्यायमें लगी हुई है और जो तदा जागर्ति यो मर्यो द्रव्यं तस्य विनश्यति ॥१२१॥ पहला अध्याय अगले २३-२४ अध्यायोंके साथ
-अ० ३० । किसी दूसरे व्यक्तिका बनाया हुआ है, जैसा कि इनसे साफ जाहिर है कि ग्रंथकर्ताने इन पहले लेखमें सूचित किया जा चुका है और दोनों अध्यायोंका स्वप्नविषयक कथन भिन्न इसलिए ग्रंथकर्ताने इस अध्यायमें कुछ श्लोकोंको भिन्न स्थानोंसे उठाकर रक्खा है और उसमें 'ग्रहयुद्ध' प्रकरणसे और बाकीको एक या इतनी योग्यता नहीं थी कि वह उस कथनको अनेक ताजिक ग्रंथोंसे उठाकर रख दिया हो छाँटकर अलग कर देता जो एक बार पहले और इस तरहपर इस अध्यायकी पूर्ति की हो। आचुका है । इसी तरह पर इस ग्रंथमें 'उत्पात' परन्तु कुछ भी हो, इसमें सन्देह नहीं कि ग्रंथ- नामका एक अध्याय नं० १४ है, जिसमें केवल कर्ताने अपने इस कृत्यद्वारा सर्व साधारण पर उत्पातका ही वर्णन है और दूसरा 'ऋषिपुत्रिका'
अपनी खासी मूर्खता और हिमाकतका इजहार नामका चौथा अध्याय, तीसरे खंडमें, है जिसमें किया है।
उत्पातका प्रधान प्रकरण है । इन दोनों अध्या(घ) इस ग्रंथमें 'स्वप्न' नामका एक
योंका बहुतसा उत्पातविषयक कथन भी एक अध्याय नं०. २६ है, जिसमें केवल स्वप्नका ही
दूसरेसे मिलता जुलता है । इनके भी दो दो नमूने वर्णन है और दूसरा 'निमित्त ' नामका ३०
. इस प्रकार हैं:
१-नर्तनं जलनं हास्यं उल्कालापौ निमीलनं । + इस २४ वें अध्यायमें कुल ४३ श्लोक हैं। देवा यत्र प्रकुर्वन्ति तत्र विद्यान्महद्भयम् ॥१४-१०२॥
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ILALATHALALIBAIL
जैनहितैषी
ITTERTYNTHATANT
देवो णचंति जहिं पसिज्जति तहय रोवती। विदिग्गतश्चोर्ध्वगतोऽधोगतो दीप एव च । जइ धूमंति चलंति य हसंति वा विविहरूवेहिं। कदाचिद्भवति प्रायो ज्ञेयो राजन् शुभोऽशुभः३-८-१८ लोयस्सदिति मारिं दुब्भिक्खं तहय रोय पीडं वा ४-७८ ये चारों पद्य क्रमशः १ दिव्येन्द्रसंपदा, २ आरण्या ग्राममायान्ति वनं गच्छंति नागराः ।
२ व्यंजन, ३ चिह्न और ४ दीप नामके चार उदति चाथ जल्पंति तदारण्याय कल्पते ॥१४-६॥
अलग अलग अध्यायोंके पद्य हैं । इनमें 'नृप' आरणयामिग पक्खी, गामे णयरम्म दीसदे जत्थ ।
और 'राजन् । शब्दोंद्वारा किसी राजाको होहदि णायरविणासो परचक्कादो न संदेहो ॥४-५६॥
सम्बोधन करके कथन किया गया है; परन्तु ___ इससे स्पष्ट मालूम होता है कि इन अध्यायों
पहले यह बतलाया जा चुका है कि इस संपूर्ण का यह उत्पात विषयक कथन भी भिन्न भिन्न
मिन्न ग्रंथमें कहीं भी किसी राजाका कोई प्रकरण या स्थानोंसे उठाकर रक्खा गया है और चूंकि इन प्रसंग नहीं है और न किसी राजाके प्रश्न पर इस दोनों अध्यायोंमें बहुतसा कथन एक दूसरेके ग्रंथकी रचना कीगई है, जिसको सम्बोधन करके विरुद्ध भी पाया जाता है, जिसका दिग्दर्शन ये सब वाक्य कहे जाते । इसलिए ये चारों पय अगले लेखमें कराया जायगा, इसलिए ये दोनों
इस ग्रंथमें बिलकुल असम्बद्ध तथा अनमेल मालूम अध्याय किसी एक व्यक्तिके बनाये हुए भी नहीं
हा होते हैं और साथ ही इस बातको सूचित करते ग्रंथकर्ताने उन्हें जहाँ तहाँसे उठाकर बिना हैं कि ग्रंथकर्ताने इन चारों पाहीको नहीं सोचे समझे यहाँ जोड़ दिया है।
बल्कि संभवतः उक्त चारों अध्यायोंको किसी (८) यद्यपि इससे पहले लेखमें और इस ऐसे दूसरे ग्रंथ या ग्रंथोंसे उठाकर यहाँ रक्खा है लेखमें भी ऊपर, प्रसंगानुसार, असम्बद्ध कथ. जहाँ उक्त ग्रंथ या ग्रंथोंके कर्ताओंने उन्हें नोंका बहुत कुछ उल्लेख किया जा चुका है तो अपने अपने प्रकरणानुसार दिया होगा । मालूम भी यहाँ पर कुछ थोड़ेसे असम्बद्ध कथनोंको और होता है कि संहिताके कर्ताके ध्यानमें ही ये दिखलाया जाता है, जिससे पाठकों पर ग्रंथका बेढं- सम्बोधन पद नहीं आये । अथवा यों कहना गापन और भी अधिकताके साथ स्पष्ट हो जायः- चाहिए कि उसमें इनके सम्बंधविशेषको समझ(क) गणेशादिमुनीन् सर्वान् नमंति शिरसा सदा। नेकी योग्यता ही नहीं थी । इस लिए उसने निर्वाणक्षेत्रपूजादीन् भुंजतीन्द्राश्च भो नृप ॥३६-५१॥ उन्हें ज्योंका त्यों नकल कर दिया है। त्रसरेण्वादिकं चान्यत्तिलकालकसंभवं । इत्येवं व्यंजनानां च लक्षणं तत्त्वतो नृप ॥३८-१९॥ (ख ) इस ग्रंथके तीसरे खंडमें 'नवग्रहमनुष्येषु भवेचिहं छत्रतोरणचामरं ।
स्तुति ' नामका सबसे पहला अध्याय है । सिंहासनादिमत्स्यान्तं राज्यचिह्नं भवेनृप ॥ ३९-६ ॥ अन्तिमवक्तव्यमें भी इस अध्यायका नाम
'ग्रहस्तुति ' ही लिखा है; परन्तु इस सारे . १ संस्कृतछायाः-"देवा नृत्यंति यदि प्रस्वेद्यंति तथा च रुदन्ति ( वदन्ति )। यदि धूमंति चलंति च
" अध्यायका पाठ कर जाने पर, जिसमें कुल १५ हसंति वा विविधरूपैः ॥ लोकस्य ददति मारी दुर्भिक्षं पद्य हैं, ग्रहोंकी स्तुतिका इसमें कहीं भी कुछ तथा रोगपीडां वा ॥७८ ॥
पता नहीं है। इसका पहला पद्य मंगलाचरण __२ संस्कृतछायाः
और प्रतिज्ञाका है, जिसमें ग्रहशान्ति प्रवआरण्यकमृगपक्षी ग्रामे नगरे च दृश्यते यत्र ।
क्ष्यामि ' इस वाक्यके द्वारा ग्रहोंकी स्तुति नहीं भविष्यति नगरविनाशः परचक्रात् न संदेहः ॥५६॥ बल्कि शान्तिके कथनकी प्रतिज्ञा की गई है।
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ILIBHIBHIBIHABAROBAILER
भद्रबाहु-संहिता। infinimimuTITHAIRATIme
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दूसरे पद्यमें ग्रहों (खेचरों) को 'जैनेन्द्र' उसकी विपदायें नाश हो जाती हैं और उसे सुख बतलाया है और उनके पूजनकी प्रेरणा की है। मिलता है। इसके बाद एक पद्यमें ग्रहोंकी धूपके, इसके बाद चार पद्योंमें तीर्थकरों और ग्रहोंके दूसरेमें ग्रहोंकी समिधिके और तीसरेमें सप्त नामोंका मिश्रण है । ये चारों पद्य संस्कृत साहि- धान्योंके नाम दिये हैं और अन्तिम पद्यमें यह त्यकी दृष्टिसे बड़े ही विलक्षण मालूम होते हैं। बतलाया है कि कैसे यज्ञके समान कोई शत्रु इनसे किसी यथेष्ट आशयका निकालना बड़े नहीं है। अध्यायके इस संपूर्ण परिचयसे पाटक बुद्धिमानका काम है * । सातवें पद्यमें खेचरों भले प्रकार समझ सकते हैं कि इन सब कथसहित जिनेंद्रोंके पूजनकी प्रेरणा है । आठवें नोंका प्रकृत विषय ( ग्रहस्तुति ) से कहाँ तक पद्यमें ग्रहोंके नाम दिये हैं और उन्हें 'जिन' सम्बन्ध है और आपसमें भी ये सब कथन कितने भगवानकी पूजा करनेवाले बतलाया है । इसके एक दूसरेसे सम्बंधित और सुगठित मालूम होते बादके दो पद्योंमें लिखा है कि “ जो कोई हैं ! आश्चर्य है कि ऐसे असम्बद्ध कथनोंको भी जिनेंद्रके सन्मुख ग्रहोंको प्रसन्न करनेके लिए भद्रबाहु श्रुतकेवलीका वचन बतलाया जाता है । 'नमस्कारशत' को भक्तिपूर्वक १०५ बार जपता (ग ) तीसरे खंडों 'शास्ति' नामके पाँचवें है ( उससे क्या होता है? यह कुछ नहीं बत- अध्यायका प्रारंभ करतेहुए सबसे पहले निम्र लिलाया ) । पाँचवें श्रुतकेवली भद्रबाहुने यह सब
खित श्लोक दिया है:कथन किया है । विद्यानुवादपूर्वकी ग्रहशांतिविधि की गई। ” यथाः
ग्रहस्तुतिः प्रतिष्ठा च मूलमंत्रर्षिपुत्रिके।
शास्तिचके क्रियादीपे फलशान्ती दशोत्तरे ॥१॥ जिनानामग्रतो योहि ग्रहाणां तुष्टिहेतवे । नमस्कारशतं भक्त्या जपेदष्टोत्तरं शतं ॥६॥ यह श्लोक वही है जो, उत्तर खंडके दस भद्रबाहुरुवाचेति पंचमः श्रुतकेवली । अध्यायोंकी सूची प्रगट करता हुआ, आन्तिम विद्यानुवादपूर्वस्य ग्रहशांतिविधिः कृतः ॥ १०॥ वक्तव्यमें नं० ५ पर पाया जाता है और जिस
११ वें पद्यमें यह बतलाया है कि जो कोई का पिछले लेखमें उल्लेख होचुका है। यहाँ पर नित्य प्रातःकाल उठकर विघ्नोंकी शांतिके लिए यह श्लोक बिलकुल असम्बद्ध मालूम होता है पढ़े (क्या पढ़े ! यह कुछ सूचित नहीं किया) और ग्रंथकर्ताकी उन्मत्तदशाको सूचित करता
__ है। साथ ही इससे यह भी पाया जाता है कि * उक्त चारों पद्य इस प्रकार हैं, जिनका अर्थ 'अन्तिम वक्तव्य ' अन्तिमखंडके अन्तमें नहीं पाठकोंको किसी संस्कृत जाननेवालेसे मालूम करना
बना बल्कि वह कुल या उसका कुछ भाग पहचाहिए:"पद्मप्रभस्य मार्तडश्चंद्रश्चंद्रप्रभस्य च। वासुपूज्यस्य
लेसे गढ़ा जाचुका था । तबही उसके उक्त भपुत्रो बधेप्यष्टजिनेश्वराः ॥३॥ विमलानन्तधर्माणः वाक्यका यहाँ इतने पहलेसे अवतार होसका है। शांतिकुंथुर्नमिस्तथा । वर्धमानजिनेंद्रस्य पादपद्मे बुधं इस श्लोकके आगे प्राकृतके ११ पद्योंमें संस्कृतन्यसेत् ॥ ४॥ वृषभाजितसुपार्श्वश्वाभिनंदनशीतलौ । छायासहित इस अध्यायका जो कुछ वर्णन किया सुमतिः संभवः स्वामीश्रेयांसश्च वृहस्पतेः ॥५॥ सुविधेः । कथितः शुक्रः सुव्रतस्य शनैश्चरः । नेमिनाथो भवेद्राहो: है वह पहले पद्यको छोड़कर जिसमें मंगलाचरण केतुः श्रीमल्लिपार्श्वयोः ॥६॥"
और प्रतिज्ञा है, किसी यक्षकी पूजासे उठाकर
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HARTIALAALHAR
जैनहितेषी
रक्खा गया है और उसकी 'जयमाल ' मालूम कुछ गद्य देकर 'इदं प्रायश्चित्तप्रकरणमार होता है।*
___ भ्यते ' इस वाक्यके बाद, ये तीन पद्य दिये हैं; (घ) तीसरे खंडके ९ वें अध्यायमें ग्रहचा- और इनके आगे बरतनोंकी शुद्धि आदिका रका वर्णन करते हुए 'शनैश्चरचार ' के सम्बंधमें कथन है:जो पद्य दिया है वह इस प्रकार है:--
यथाशुद्धि व्रत्तं धृत्वोपासकाचारसूचितम् । शनैश्चरं चारमिदं च भूमिपो यो वेत्ति विद्वानिभृतो
भोगोपभोगनियमं दिग्देशनियतिं तथा ॥१॥
यथावत् । सपूजनीयो भुवि लब्धकीर्तिः सदा सहायेव हि
अनर्थदंडविरतिं तथा नित्यं व्रतं कमात् ।
अहंदादीनमस्कृत्य चरणं गहमेधिनाम् ॥२॥ दिव्यचक्षुः ॥४३॥
कथितं मुनिनाथेन श्रुत्वा तच्छावयेदमून् । इस पद्यमें शनैश्चरचारका कुछ भी वर्णन न।
पायाद्यतिकुलं नत्वा पुनर्दर्शनमस्त्विति ॥३॥ देकर सिर्फ उस विद्वान् राजाकी प्रशंसा की गई। जो शनैश्चरचारके 'इस कथन ' को जानता है। इन तीनों पद्योंका अध्यायके पहले पिछले परन्तु इससे यह मालूम न हुआ कि शनैश्चर- कथनसे प्रायः कुछ भी सम्बंध नहीं हैं। तीसरे चारका वह कथन कौनसा है जिसका यहाँ 'इदं' पद्यका उत्तरार्ध भी शेष पद्योंके साथ असंगत (इस ) शब्दसे ग्रहण किया गया है। क्योंकि जान पड़ता है । इसलिए ये पद्य यहाँपर असंबद्ध अध्याय भरमें इस पद्यसे पहले या पीछे इस मालूम होते हैं । इनमें लिखा है कि-' उपासविषयका कोई भी दूसरा पद्य नहीं है जिससे इस काचारमें कहे हुए भोगोपभोगपरिमाण व्रतको 'इदं । शब्दका सम्बंध हो सके। इसलिए यह दिग्विरति, देशविरति तथा अनर्थदंडविरति नामके पद्य यहाँपर बिलकुल असम्बद्ध और अनर्थक व्रतोंको और तैसे ही अन्य नित्यव्रतोंको क्रमशः मालूम होता है। ग्रंथकर्ताने इसे दूसरे खंडके यथाशक्ति धारण करके और अहंतादिकको'शनैश्चर-चार ' नामके १६ वें अध्यायसे उठा- नमस्कार करके मुनिनाथने गृहस्थोंके चारित्रका कर रक्खा है जहाँपर यह उक्त अध्यायके अन्तमें वर्णन किया है । उसको सुनकर उन्हें सुनावे, दर्ज है । इसी तरह पर ग्रहाचारसम्बन्धी अध्या- रक्षा करे, यतिकुलको नमस्कार करके फिरदर्शन योंके प्रायः अन्तिम पद्य हैं और वहींसे उठाकर होवे, इस प्रकार । ' इस कथनकी अन्य बातोंको यहाँ रक्खे गये हैं। नहीं मालूम ग्रंथकर्ताने ऐसा छोड़कर, मुनिनाथने उपासकाचारमें कहे हुए करके अपनी मूर्खता प्रगट करनेके सिवाय और श्रावकोंके व्रतोंको धारण किया, और वह भी कौनसा लाभ निकाला है।
पूरा नहीं, यथाशक्ति ! तब कहीं गृहस्थोंके च(ङ) पहले खंडमें 'प्रायश्चित्त ' नामका स्त्रिका वर्णन किया, यह बात बहत खटकती है दसवाँ अध्याय है । इस अध्यायके शुरूमें, पहले और कुछ बनती हुई मालूम न होकर असमंजस * मंगलाचरणके बादका पद्य निम्न प्रकार है और
र प्रतीत होती है। जैनसिद्धान्तकी दृष्टिसे मुनीभन्तमें 'घत्ता' के बाद 'मइ णिम्मल होउ...'
", स्वरोंको श्रावकोंके व्रतोंके धारण करनेकी कोई इत्यादि एक पद्य दिया है:-"चारणावास कैलास जरूरत नहीं है । वे अपने महाव्रतोंको पालन सैलासिओ, किंणरीवेणुवीणाझुणीतोसिओ। सामवण्णो करते हुए गृहस्थोंको उनके धर्मका सब कुछ सउण्णो पसण्णो मुहो, आइ देवाण देवाहि पम्मो उपदेश देसकते हैं । नहीं मालूम ग्रंथकर्ताने कहाँ मुहो ॥३॥"
कहाँके पदोंको आपसमें जोड़कर यहाँपर यह
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भद्रबाहु-संहिता।
भद्रबाहु-संहिता। असमंजसता उत्पन्न की है। परन्तु इसे छोड़िए पर, अपने अन्तिम वक्तव्यमें, यह आज्ञा चढ़ा
और एक नया दृश्य देखिए । वह यह है कि, दी है कि, ' यह संहिता (भट्टारकी गद्दीपर बैठइस अध्यायमें अनेक स्थानोंपर कीडी, बीडा, नेवाले ) आचार्यके सिवाय और किसीको भी न ताम्बूल बीडा, खटीक, चमार, मोची, डोहर, दी जाय । मिथ्यादृष्टि और मूढात्माको देनेसे कोली कंटी. जिमन खाती सोनारा लोप हो जायगा । आगेके लोग पक्षपाती होंगे। छीपी, तेली, नाई, डोंव, वरुड और मनियार यह संहिता सम्यक्दृष्टि महासूरि (भट्टारक ) इत्यादि बहुतसे ऐसे शब्दोंका प्रयोग पाया जाता के ही योग्य है, दूसरेके योग्य नहीं है ।' यथाःहै जिनका हिन्दी आदि दूसरी भाषाओंके साथ संहितेयं तु कस्यापि न देया सूरिभिर्विना ॥ १५ ॥ सम्बंध है । संस्कृत ग्रंथमें संस्कृत वाक्योंके साथ मिथ्याविने च मूढाय दत्ता धर्मे विलुपति । इस प्रकारके शब्दोंका प्रयोग बहुत ही खटकता पक्षपातयुताश्चाग्रे भविष्यति जनाः खलु ॥ १६ ॥ है और इनकी वजहसे यह सारा. अध्याय बड़ा एषा महामंत्रयुता सुप्रभावा च संहिता । ही विलक्षण और बेढंगा मालूम होता है । नमू- सम्यग्दृशो महासूरेोग्येयं नापरस्य च ॥ १७ ॥ नेके तौरपर ऐसे कुछ वाक्य नीचे उद्धृत किये- पाठकगण ! देखा, कैसी विलक्षणआज्ञा है ! जाते हैं:
धर्मके लोप हो जानेका कैसा अद्भुत सिद्धान्त है ! १-" चाडालकलाकचमारमोचीडोहरयोगिकोलांक- कैसी अनोखी भविष्यवाणी की गई है ! और दीनां गृहे जिमन इतर समाचारं करोति तस्य प्राय- किस प्रकारसे ग्रंथकर्ताने अपने मिथ्यात्व, मढता श्चित्त...मोकलाभिषेकाः विंशति...बीडा १००।"
१. , और पक्षपात पर परदा डालनेके लिए दूसरोंको
. मिथ्यादृष्टि, मूढ और पक्षपाती ठहरायाहैं !! २-" अष्टादशप्रकारजातिमध्ये सालिमालीतलीत
साम्प्रदायिक मोह और बेशरमीकी भी हद हो वीसूत्रधार-खातीसोनार-ठठेराकुंभकारपरोथटछीपीनाई
गई !!! परन्तु कुछ भी हो, इस आज्ञाका इतना डोववुरुडगणीमनी-यारचित्रकार इत्यादयःप्रकारा एतेषां
परिणाम जरूर निकला है कि समाजमें इस संहिगृहे भुंक्ते समाचारं करोति तस्य प्रायश्चित्तं उपवासा
ताका अधिक प्रचार नहीं हो सका। और यह एकभक्तानि ३ .........ताम्बूल बीडा ४००।।
अच्छा ही हुआ । अब जो लोग इस संहिताका मालूम होता है कि ग्रंथकर्ताने यह सब कथन प्रचार करना चाहते हैं, समझना चाहिए कि, वे किसी ऐसे ही खिचड़ी ग्रंथसे उठाकर रक्खा है ग्रंथकर्ताके उक्त समस्त कूट, जाल और अयुक्ता
और उसे इसको शुद्ध संस्कृतका रूप देना नहीं चरणके पोषक तथा अनुमोदक ही नहीं बाल्क आया। इससे पाठक ग्रंथकर्ताकी संस्कृतसम्बंधिनी भद्रबाहुश्रुतकेवलीकी योग्यता और उनके पवित्र योग्यताका भी बहुत कुछ अनुभव कर सकते हैं। नामको बट्टा लगानेवाले हैं । अगले लेखमें, विरुद्ध इस तरह पर यह ग्रंथ इधर उधरके प्रकरणोंका कथनोंका उल्लेख करते हुए, यह भी दिखलाया एक बेढंगा संग्रह है। ग्रंथकर्ता यह सब संग्रह जायगा कि ग्रंथकर्ताने इस संहिताके द्वारा अपने कर तो गया, परन्तु मालूम होता है कि बादको किसी कुत्सित आशयको पूरा करनेके लिए किसी घटनासे उसे इस बातका भय ज़रूर लोगोंको मार्गभ्रष्ट (गुमराह ) और श्रद्धानभ्रष्ट हुआ है कि कहीं मेरी यह सब पोल सर्वसाधारण करनेका कैसा नीच प्रयत्न किया है। पर खुल न जाय। और इसलिए उसने इस ग्रंथ १५-११-१६ ।
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हिन्दी-जैनसाहित्यका इतिहास । 9 जैन लेखकों और कवियों द्वारा हिन्दी साहित्यकी सेवा । (මළපුවපිළපිපිටපළපපපපපපපපපපපපඩිපළම सभापति महाशय और सभ्यवृन्द ! ___ इस असहिष्णुता या अनुदारताने देशकी
भारतवर्षको अपनी धार्मिक सहिष्णुताका बौद्धिक और राष्ट्रीय उन्नातके मार्गमें खूब ही अभिमान है। इस पुण्यभूमिमें आस्तिक, नास्तिक, काँटे बिछाये । इससे हमारी मानसिक प्रगतिको वैदिक, अवैदिक, ईश्वरवादी, अनीश्वरवादी आदि लकवा मार गया और हमारे साहित्यकी बाढ़ सभी परस्परविरुद्ध विचार रखनेवाले एक दूसरेको अनेक छोटी बड़ी सीमाओंके भीतर अवरुद्ध कष्ट दिये विना फलते-फूलते और वृद्धि पाते हो गई । इसकी कृपासे ही हमारा बहुतसा रहे हैं । हजारों वर्षों तक यहाँ यह हाल रहा साहित्य पड़ा पड़ा सड़ गल गया और बहुतसा है कि एक ही कुटुम्बमें वैदिक, जैन, और बौद्ध नष्ट कर दिया गया । यद्यपि अब भी हमको धर्म एक साथ शान्तिपूर्वक पाले जाते रहे हैं। इस बलाके पंजेसे छुट्टी नहीं मिली है-न्यूनामतविभिन्नता या विचारभिन्नताके कारण यहाँके धिक रूपमें उसका व्यक्त अव्यक्त प्रभाव हमारे लोग किसीसे द्वेष या वैर नहीं करते थे, बल्कि हृदयों पर अब भी बना हुआ है; तो भी सौआदरकी दृष्टिसे देखते थे।
भाग्यवश हम नये ज्ञानके प्रकाशमें आ पड़े हैं यही कारण है जो यहाँ चार्वाक-दर्शनके प्रणेता
- जिससे हमारी आँखें बहुत कुछ खुल गई हैं ।
। हम धीरे धीरे अपने पुराने मार्गपर आने लगे 'महर्षि के महत्त्वसूचक पदसे सत्कृत किये हैं, विचारभिन्नताका आदर करने लगे है गये हैं और वेदविरोधी भगवान् ऋषभदेव तथा और अपने पराये सभी धर्मोको उदार दृष्टिसे बुद्धदेव 'अवतार' माने गये हैं।
देखने लगे हैं। पर हमारी यह अभिमानयोग्य परमतसहि- आज हिन्दीसाहित्यसम्मेलनके इस प्लेटष्णुता पिछले समयमें न रही और जबसे यह कम फार्म पर मुझे जो 'जैन लेखकों और कवियों होने लगी, तभीसे शायद भारतका अधःपतन द्वारा हिन्दी साहित्यकी सेवा' पर यह निबन्ध होना शुरू हो गया। लोग मतभिन्नताके कारण पढ़नेकी आज्ञा दी गई है सो मेरी समझमें एक दूसरेसे घृणा करने लगे और वह घृणा इसी प्रकाशका ही परिणाम है। मुझे आशा है कि इतनी बढ़ गई कि धीरे धीरे यहाँ परमतसहिष्णुता हमारी यह उदारता दिन पर दिन बढ़ती जायगी
और विचारौदार्यकी हत्या ही हो गई । 'हस्तिना और कमसे कम हमारी साहित्यसम्बन्धी संस्थाओंसे पीड्यमानोऽपि न गच्छेज्जैनमन्दिरम्' जैसे वाक्य तो धार्मिक पक्षपात सर्वथा ही हट जायगा। उसी समय गढ़े गये और धार्मिक द्वेषके बीज बो प्रसंगवश ये थोड़ेसे शब्द कहकर अब मैं दिये गये।
'अपने विषयकी ओर अ * सप्तम हिन्दीसाहित्यसम्मेलन, जबलपुरमें पढ़े जानेके लिए जनहितैषी-सम्पादक द्वारा लिखित ।
दसरोंके
विचारो
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हिन्दी-जैनसाहित्यका इतिहास। mimminimunitlimiminimit
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१ जैनसाहित्यका महत्त्व। दिखाया जायगा, प्राकृतके अपभ्रंशसे मिलता हिन्दीका जैन साहित्य बहत विशाल है और जुलता है । यह संभव है कि प्राचीन हिन्दीकी बहुत महत्त्वका है । भाषाविज्ञानकी दृष्टिसे उसमें शरीररचनामें अन्य भाषाओंका भी थोड़ा बहुत कुछ ऐसी विशषतायें हैं जो जैनेतर साहित्यमें हाथ रहा हो, पर उसकी मूल जननी तो अपनहीं हैं।
भ्रंश ही है। ऐसा जान पड़ता है कि प्राकृतका १ हिन्दीकी उत्पत्ति और क्रमविकासके इति- जब अपभ्रंश होना आरंभ हुआ, और फिर हासमें इससे बहुत बड़ी सहायता मिलेगी। उसमें भी विशेष परिवर्तन होने लगा, तब हिन्दीकी उत्पत्ति जिस प्राकृत या मागधीसे मानी उसका एक रूप गुजरातीके साँचेमें ढलने लगा जाती है, उसका सबसे अधिक परिचय जैन और एक हिन्दीके साँचेमें । यही कारण है जो विद्वानोंको रहा है । अभीतक प्राकृत या माग- हम १६ वीं शताब्दीसे जितने ही पहलेकी हिन्दी धीका जितना साहित्य उपलब्ध हुआ है, उसका और गुजराती देखते हैं, दोनोंमें उतनी ही अधिकांश जैनोंका ही लिखा हुआ है । यदि यह अधिक सदृशता दिखलाई देती है। यहाँ तक कहा जाय कि प्राकृत और मागधी शुरूसे अब- कि १३ वी १४ वीं शताब्दीकी हिन्दी और तक जैनोंकी ही सम्पत्ति रही है, तो कुछ गुजरातीमें एकताका भ्रम होने लगता है । अत्युक्ति न होगी। प्राकृतके बाद और हिन्दी- उदयवन्त मुनिके 'गौतम-रासा'को जो वि० संवत् गुजराती बननेके पहले जो एक अपभ्रंश भाषा १४१२ में बना है विचारपूर्वक देखा जाय, रह चुकी है उस पर भी जैनोंका विशेष अधि- तो मालूम हो कि उसकी भाषाकी गुजरातीके कार रहा है । इस भाषाके अभी अभी कई ग्रन्थ साथ जितनी सदृशता है, हिन्दीके साथ उससे उपलब्ध हुए हैं, और वे सब जैन विद्वानोंके कुछ कम नहीं है * । गुजराती और हिन्दीकी यह बनाये हुए हैं । प्राकृत और अपभ्रंशके इस अधिक सदृशता कहीं कहीं और भी स्पष्टतासे दिखलाई देती परिचयके कारण, जैन विद्वानोंने जो हिन्दी है । कल्याणदेवमुनिके 'देवराज वच्छराज चउरचना की है उसमें प्राकृत और अपभ्रंशकी प्रकृति पई,' नामके ग्रंथसे-जो सं० १६४३ में बना है सुस्पष्ट झलकती है। यहाँ तक कि १९ वीं और और जिसकी भाषा गजरातीमिश्रित हिन्दी २० वीं शताब्दीके जैनग्रन्थोंकी हिन्दीमें भी है-हमने कुछ पद्य आगे उद्धृत किये हैं, औरोंकी अपेक्षा प्राकृत और अपभ्रंश शब्दोंका जिनमें बहुत कम शब्द ऐसे हैं जिन्हें प्राचीन प्रयोग अधिक पाया जाता है । ऐसी दशामें स्पष्ट हिन्दी जाननेवाला या प्राचीन गुजराती समझहै कि हिन्दीकी उत्पत्ति और क्रमविकाशका नेवाला न समझ सकता हो । गुजरातके पुस्तज्ञान प्राप्त करनेके लिए हिन्दीका जैनसाहित्य कालयोंमें ऐसे बीसों रासे मिलेंगे, जो गुजरातीबहुत उपयोगी होगा।
की अपेक्षा, हिन्दीके निकटसम्बन्धी हैं; पर
है वे गुजराती ही समझे जाते हैं । माल कविका २ गुजराती साहित्यके विद्वानोंका खयाल है कि गुजराती भाषाका जो प्राचीनरूप है, वह .
। 'पुरंदर-कुमर-चउपई' नामका जो ग्रन्थ है, अपभ्रंश प्राकृत है। हमारी समझमें प्राचीन * गौतमरासाके पद्योंके कुछ नमूने आगेके पृष्ठोंमें हिन्दीका आदिस्वरूप भी, जैसा कि आगे दिये गये हैं।
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जैनहितैषी
उसे लोगोंने अभीतक गुजराती ही समझ रक्खा ग्रन्थ 'राजस्थान' लिखनेमें जिनसे बड़ी भारी था;पर अब सुपण्डित मुनि जिनविजयजीने उसको सहायता मिली थी, वे ज्ञानचन्द्रजी यति एक अच्छी तरह पढ़ करके मुझको लिखा है कि वह जैन साधु ही थे । कविवर बनारसीदासजीका निस्सन्देह हिन्दी ग्रन्थ है। गरज यह कि हिन्दी आत्मचरित अपने समयकी अनेक ऐतिहासिक
और गुजराती एक ही प्राकृतसे अपभ्रंश होकर बातोंसे भरा हुआ है । मुसलमानी राज्यकी अंधाबनी हैं; इस कारण उनके प्रारंभके-एक दो धुंधीका उसमें जीता जागता चित्र है । इस तरह शताब्दियोंके-रूप मिलते-जुलते हुए हैं । हिन्दी इतिहासकी दृष्टिसे भी हिन्दीका जैनसाहित्य महभाषाका इतिहास विना इन मिलते-जुलते त्वकी वस्तु है। रूपोंका अध्ययन किये नहीं लिखा जा सकता, अभी तक हिन्दी साहित्यकी जो खोज इस कारण इसके लिए हिन्दीका जैनसाहित्य
हुई है उसमें पद्यग्रन्थोंकी ही प्रधानता है । गद्य खास तौरसे पढ़ा जाना चाहिए । इस कार्यमें
ग्रन्थ बहुत ही थोड़े हैं। परन्तु जैनसाहित्यमें यह बहुत उपयोगी सिद्ध होगा।
गद्य ग्रन्थ भी बहुतसे उपलब्ध हैं । आगे ग्रन्थ३ जिस तरह संस्कृत और प्राकृतके जैन- कर्ताओंकी सूचीसे मालूम होगा कि उन्नीसवीं साहित्यने भारतके इतिहासकी रचनामें बहुत शताब्दीके बने हुए पचासों गद्यग्रन्थ जैनसाहिबड़ी सहायता दी है, उसी तरह हिन्दीका त्यमें हैं । अठारहवीं शताब्दीके भी पाँच सात जैनसाहित्य भी अपने समयके इतिहास पर गद्यग्रन्थ हैं । सत्रहवीं शताब्दीमें पं० बहुत कुछ प्रकाश डालेगा । जैन विद्वानोंका हेमराजजीने पंचास्तिकाय और प्रवचनसारकी इतिहासकी ओर सदासे ही आधिक ध्यान रहा वचनिकायें लिखी हैं । समयसारकी पांडे है। प्रत्येक जैन लेखक अपनी रचनाके अन्तमें रायमल्लजीकृत बालावबोधटीका इनसे भी अपने समयके राजाओंका तथा गुरुपरम्पराका पहलेकी बनी हुई है। आश्चर्य नहीं जो वह कछ न कुछ उल्लेख अवश्य करता है। यहाँ तक सोलहवीं शताब्दी या उससे भी पहलेकी गद्यकि जिन लोगोंने ग्रन्थोंकी नकलें कराई हैं, और रचना हो। पर्वत धर्मार्थीकी बनाई हुई 'समाधिदान किया है उनका भी कुछ न कुछ इतिहास तंत्र' नामक ग्रन्थकी एक वचनिका है जो उन ग्रन्थोंके अन्तमें लिखा रहता है। जैन लेख- सोलहवीं शताब्दीके बादकी नहीं मालूम होती। कोंमें विशेष करके श्वेताम्बरोंमें पौराणिक चरि- गरज यह कि जैनसाहित्यमें गद्यग्रन्थ बहुत त्रोंके सिवाय ऐतिहासिक पुरुषोंके चरित्र लिख- हैं, इसलिए गद्यकी भाषाका विकासक्रम समझनेकी भी पद्धति रही है । खोज करनेसे भोज- नेके लिए भी यह साहित्य बहुत उपयोगी है। प्रबन्ध, कुमारपाल-चरित्र, आदिके समान और भी
२ जैनसाहित्यके अप्रकट अनेक ग्रन्थोंके मिलनेकी संभावना है। मूता नेणसीकी ख्यात' जैसे ऐतिहासिक ग्रन्थ भी जैनोंके
रहनेके कारण । द्वारा लिखे गये हैं जो बहुतसी बातोंमें अपनी १ ज्यों ही देशमें छापका प्रचार हुआ, त्यों सानी नहीं रखते । श्वेताम्बर यतियोंके पुस्तका. ही जैनसमाजको भय हुआ कि कहीं हमारे लयोंमें इतिहासकी बहुत सामग्री है और वह ग्रन्थ भी न छपने लगें । लोग सावधान हो गये हिन्दी या मारवाड़ीमें ही है। कर्नल टाडको अपना और जीजानसे इस बातकी कोशिश करने लगे
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हिन्दी-जैनसाहित्यका इतिहास amin10miltinititimminine
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कि जैनग्रन्थ छपने न पावें । इधर कुछ लोगों. म्बर सम्प्रदायकी प्रधान भाषा हिन्दी है, और पर नया प्रकाश पड़ा और उन्होंने जैनग्रन्थोंके श्वेताम्बर सम्प्रदायकी गुजराती । श्वेताम्बरोंकी छपानेके लिए प्रयत्न करना शुरू किया । लगा- बस्ती यद्यपि राजपूताना, युक्तप्रान्त और पंजाबमें तार २० वर्ष तक दोनों दलोंमें अनवरत युद्ध भी कम नहीं है; परन्तु उक्त प्रान्तोंमें शिक्षाप्राप्त चला और अभी वर्ष ही दो वर्ष हुए हैं, जब जैनोंकी कमीसे और गुजरातमें शिक्षित जैनोंकी इसकी कुछ कुछ शान्ति हुई है। फिर भी जैन- अधिकतासे इनकी धार्मिक चर्चामें गुजराती समाजमें ऐसे मनुष्योंकी कमी अब भी नहीं है भाषाका प्राधान्य हो रहा है । श्वेताम्बर सम्प्रजिन्हें पक्का विश्वास है कि ग्रन्थ छपानेवाले नर- दायके साधुओंमें भी गुजराती जाननेवालोंकी ही कमें जायेंगे और वहाँ उन्हें असह्य यातनायें सह- संख्या अधिक है, इसलिए उनके द्वारा भी सर्बत्र नी पड़ेंगी ! और समाजोंमें भी थोड़ा थोड़ा गुजरातीकी ही तूती बोलती है। ऐसी दशामें यदि छापेका विरोध शुरू शुरूमें हुआ था, पर हिन्दीका श्वेताम्बरसाहित्य पड़ा रहे, उसकी जैनसमाज सरीखा विरोध शायद ही कहीं हुआ कोई दूँढ खोज न करे, तो क्या आश्चर्य है । हो । इसने इस विषयमें सबको नीचा दिखला जहाँ तक हम जानते हैं, श्वेताम्बर सम्प्रदायके दिया।अभी तीन ही चार वर्ष हुए हैं जब 'जैन- बहुत ही कम लोगोंको यह मालूम है कि हिन्दीमें रत्नमाला' और 'जैनपताका' नामके मासिक पत्र भी श्वेताम्बर साहित्य है । इस तरह हिन्दीछापेका विरोध करनेके लिए ही निकलते थे भाषाभाषी श्वेताम्बरोंकी उपेक्षा, अनभिज्ञता और ग्रन्थ छपानेवालोंको पानी पी पकिर कोसते और गुजरातीकी प्रधानताके कारण भी हिन्दीके थे। ऐसी दशामें जब कि स्वयं जैनोंको ही जैनसाहित्यका एक बड़ा भाग अप्रकट हो हिन्दीका जैनसाहित्य सुगमतासे मिलनेका रहा है। उपाय नहीं था, तब सर्वसाधारणके निकट तो जैनसमाजके विद्वानोंकी अरुचि या उपेक्षावह प्रकट ही कैसे हो सकता था !
दृष्टि भी हिन्दी जैनसाहित्यके अप्रकट रहनेमें २ एक तो जैनसमाज इतना अनुदार है कि कारण है। उच्च श्रेणीकी अंगरेजी शिक्षा पाये वह अपने ग्रन्थ दूसरोंके हाथमें देनेसे स्वयं हिच- हए लोगोंकी तो इस ओर रुचि ही नहीं है। कता है और फिर जैनधर्मके प्रति सर्वसाधारण- उन्हें तो इस बातका विश्वास ही नहीं है कि के भाव भी कुछ अच्छे नहीं हैं। नास्तिक वेद- हिन्दीमें भी उनके सोचने और विचारनेकी कोई विरोधी आदि समझकर वे जैनसाहित्यके प्रति चीज मिल सकती है। अभी तक शायद एक अरुचि या विरक्ति भी रखते हैं । शायद उन्हें
भी हिन्दीके जैनग्रन्थको यह सौभाग्य प्राप्त नहीं यह भी मालूम नहीं है कि हिन्दीमें जैनधर्मका साहित्य भी है और वह कुछ महत्त्व रखता है।
3 हुआ है कि उसका सम्पादन या संशोधन किसी
" ऐसी दशामें यदि जैनसाहित्य अप्रकट रहा जैन ग्रेज्युएटने किया हो। शेष रहे संस्कृतज्ञ सज्जन, और लोग उससे अनभिज्ञ रहे, तो कुछ आश्चर्य सो उनकी दृष्टिमें बेचारी हिन्दीकी-भाखाकी-औनहीं है।
कात ही क्या है ? वे अपनी संस्कृतकी धुनमें ही ___३ हिन्दीका जैनसाहित्य दो भागोंमें विभक्त मस्त रहते हैं । हिन्दी लिखना भी उनमेंसे बहुत है एक दिगम्बर और दूसरा श्वेताम्बर । दिग- कम सज्जन जानते हैं।
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जैनहितैषी -
३ खोजकी जरूरत । जैसा कि हम पहले कह चुके हैं श्वेताम्बरोंका हिन्दी साहित्य अभीतक प्रकाशित ही नहीं हुआ है । पर हमें विश्वास है कि श्वेताम्बर सम्प्रदायका भी बहुतसा साहित्य तलाश करनेसे मिल सकता है । अभी थोड़े ही दिन पहले हमने जोधपुर के प्रसिद्ध इतिहासज्ञ मुंशी देवीप्रसादजीको पत्र लिखकर हिन्दीके जैन साहित्य के विषयमें कुछ पूछताछ की थी । उसके उत्तर में उन्होंने लिखा था कि “ओसवालों के बहुतसे ग्रन्थ यहाँ ढूँढ़नेसे मिल सकते हैं । मैंने उनकी कविता संग्रह की है | आप छापें, तो मैं ग्रन्थाकारमें तैयार करा कर भेजूँ । हर एक कविकी कुछ कुछ जीवनी भी है । "
१ राजपूताना और मालवेके यतियों के पुस्तकालयों में हिन्दी के प्राचीनग्रन्थोंके मिलनेकी आशा है । अभी हमने इन्दौर के यतिवर्य श्रीयुत माणिकचन्दजीके सेवामें एक पत्र इस विषय में लिखा था कि उन्होंने अपनी ' जगरूप जति लायब्रेरी ' के १०० से अधिक जैन ग्रन्थोंकी सूची तैयार करके भेज दी जिनमें उनके कथनानुसार हिन्दी या हिन्दी मिश्रित गुजराती ग्रन्थ ही अधिक हैं और उनमें से जिन चार ग्रन्थोंके देखनेकी हमने इच्छा प्रकट की, उन्हें भी भेज दिया । इस तरह और और यतियोंके पुस्तकालयों में भी सैकड़ों ग्रन्थ होंगे ।
२ पाटण, जैसलमेर, ईडर, जयपुर आदिके प्राचीन पुस्तकभण्डारोंमें हिन्दी ग्रन्थोंका अन्वेषण खास तौर से होना चाहिए । अभीतक इन भण्डारोंका अन्वेषण संस्कृत के पण्डितोंने ही किया है, जिनकी दृष्टिमें भाषाका कोई महत्त्व नहीं है । यह भी संभव है कि उक्त भण्डारोंके प्राचीन हिन्दी ग्रन्थ प्राकृत समझ लिये गये हों । अभी मुनि महोदय जिनविजयजीको पाटणके
भण्डारमें मालकविके 'भोजप्रबन्ध' और 'पुरन्दरकुमर-च उपई' नामके दो हिन्दी ग्रन्थ मिले हैं ।
३ इस निबन्धमें आगे हमने जिन ग्रन्थोंका उल्लेख किया है, उनका बहुत बड़ा भाग आगरे और जयपुर के आसपासका बना हुआ है । बुन्देलखंड आदि प्रान्तोंमें भी बहुतसे हिन्दी जैनग्रंथ मिलनेकी संभावना है। जयपुर में कोई दोसौ तीन सौ वर्षोंसे ऐसा प्रबन्ध है कि यहाँ ग्रन्थ लिखा लिखाकर दूर दूरके लोग ले जाते हैं अथवा लिखकर मँगवा लेते हैं । यही कारण है जो सारे दिगम्बर सम्प्रदाय में यहींके और यहाँ से निकट सम्बन्ध रखनेवाले आगरेके बने हुए ही हिन्दी - ग्रन्थोंका फैलाव हो गया है । अन्यत्र जो ग्रन्थ बने होंगे, वे प्रचारकी उक्त सुविधा न होनेके कारण वहीं पड़े रहे होंगे । यह सच है कि आगरे और जयपुर में विद्वानों का समूह अधिक रहा है, इतना और स्थानों में नहीं रहा है, तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि अन्यत्र विद्वान् थे ही नहीं और उन्होंने ग्रंथरचना सर्वथा की ही नहीं । अतः अन्यत्र खोज होनी चाहिए ।
४ जहाँ जहाँ दिगम्बर सम्प्रदाय के भट्टारकोंकी गद्दियाँ हैं वहाँ वहाँके सरस्वतीमन्दिरों में भी अनेक हिन्दी के ग्रन्थोंके प्राप्त होनेकी आशा है । हमारा अनुमान है कि भट्टारकोंके बनाये हुए हिन्दीग्रन्थ बहुत होने चाहिए, परन्तु हमारे इस निबन्धमें आप देखेंगे कि चार ही छह भट्टारकोंके ग्रन्थोंका उल्लेख है । जयपुर में तेरह पंथका बहुत जोर रहा है, इसी कारण उसके प्रतिपक्षी भट्टारकोंके ग्रन्थोंका वहाँसे अधिक प्रचार नहीं हो सका है । भट्टारकोंका साहित्य उन्हीं के भंडारोंमें पड़ा होगा ।
५ दक्षिण और गुजरात में भी खोज करनेसे हिन्दी ग्रन्थ मिलेंगे । गुजराती और मराठी में दिग
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TWILLAILATIMIRALARIAATAHARARIAAIIRATRAITALD
हिन्दी-जैनसाहित्यका इतिहास।
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म्बरी साहित्य प्रायः बिल्कुल नहीं है, इस कारण करनेसे निबन्ध बहुत बढ़ गया है और इस इन प्रान्तोंके दिगम्बरियोंका काम हिन्दीग्रन्थोंसे कारण मुझे भय है कि इसके पढ़नेके लिए समय ही चलता रहा है। अतएव यहाँके भण्डारोंमें मिलेगा या नहीं; तो भी यह निश्चय है कि भी हिन्दकि दिगम्बर ग्रन्थ मिलेंगे। दो तीन वर्ष मेरा परिश्रम व्यर्थ न जायगा । हिन्दीके सेवक पहले हमने बार्सी (शोलापुर ) से दो ऐसे हिन्दी इससे कुछ न कुछ लाभ अवश्य उठायँगे । ग्रन्थ मँगाकर देखे थे, जो इस ओर कहीं भी ५ उपलब्ध जैनसाहित्यके नहीं मिलते हैं।
विषयमें विचार । ४ अपूर्ण खोज।
१ उपलब्ध जैनसाहित्य दो भागोंमें विभक्त मेरा यह निबन्ध पूरी खोजसे तैयार नहीं हो सकता है-श्वेताम्बर और दिगम्बर । हो सका है । जयपुरमें बाबा दुलीचन्दजीका श्वेताम्बर सम्प्रदायके साहित्यमें कथाग्रन्थ ही हस्तलिखित भाषाग्रन्थोंका एक अच्छा पुस्तका- अधिक हैं, तात्त्विक या सैद्धान्तिक ग्रन्थ प्रायःलय है, उसकी सूचीसे, बाबू ज्ञानचन्द्रजी नहींके बराबर हैं, पर दिगम्बर साहित्यमें लाहौरवालोंकी ग्रन्थनाममालासे, छपे हुए जितने कथाग्रन्थ या चरित्रग्रन्थ हैं लगभग ग्रन्थोंसे, पूज्य पं० पन्नालालजी द्वारा बनीहुई उतने ही तात्त्विक और सैद्धान्तिक ग्रन्थ हैं । गोजयपुरके कुछ भण्डारोंकी सूचीसे और बम्बईके म्मटसार, राजवार्तिक, सर्वार्थसिद्धि, आत्मख्याति, तेरहपंथी मन्दिरके पुस्तकालयके ग्रन्थोंसे मैंने भगवती आराधना, प्रवचनसार, समयसार, पंचायह निबन्ध तैयार किया है। जिन लेखकोंका स्तिकाय जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थोंकी वचनिकायें समयादि नहीं मिला है, उनको प्रायः छोड़ दिगम्बरसाहित्यमें मौजूद हैं। किसी किसी ग्रन्थके दिया है । यदि लेखकके सामने सबके सब ग्रन्थ तो दो दो चार चार गद्यपद्यानुवाद मिलते हैं। होते, तो वह इस निबन्धको और भी अच्छी देवागम. परीक्षामख, न्यायदीपिका, आप्तमीमांसा तरहसे लिख सकता।
आदि न्यायके ग्रन्थों तकके हिन्दी अनुवाद कर लेखकको विश्वास है कि खोज करनेसे डाले गये हैं। ऐसा कहना चाहिए कि दिगम्बरिहिन्दीके प्राचीन जैनग्रन्थ बहुत मिलेगी और योंके संस्कृत और प्राकृत साहित्यमें जिन जिन उनसे यह निश्चय करने में सहायता मिलेंगे कि विषयोंके ग्रन्थ मिलते हैं, प्रायः उन सभी विषहिन्दीका लिखना कबसे शुरू हुआ।
यों पर हिन्दीमें कुछ न कुछ लिखा जा चुका है। 'जैन लेखकों और कवियों द्वारा हिन्दी साहि- हिन्दकि लिए यह बड़े गौरवकी बात है। यदि ल्यकी सेवा' यह विषय ऐसा है कि इसमें सन् कोई चाहे तो वह केवल हिन्दी भाषाके द्वारा संवत् न दिया जाता तो भी काम चल सकता दिगम्बर जैनधर्मका ज्ञाता हो सकता है । इसका था; परन्तु जब निबन्ध लिखना शुरू किया फल भी स्पष्ट हो रहा है । श्वेताम्बर सम्प्रदायमें जो गया, तब यह सोचा गया कि इसके साथ साथ लोग संस्कृत और प्राकृत नहीं जानते हैं, उनमें यदि लेखकोंका इतिहास भी दे दिया जाय, तो धार्मिक ज्ञानका प्रायः अभाव देखा जाता है-प्रायः एक और काम हो जायगा और समय भी अधिक लोग मुनिमहाराजोंके ही भरोसे रहते हैं; पर न लगेगा। अतः इसमें कवियोंका थोड़ा थोड़ा दिगम्बर सम्प्रदायमें यह बात नहीं है। यहाँ जैनपरिचय भी शामिल कर दिया गया है । ऐसा धर्मकी जानकारी रखनेवाले जगह जगह मौजूद
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जैनहितैषी -
हैं, गोम्मटसार आदिकी गंभीर चर्चा करनेवाले सैकड़ों ऐसे भाई हैं, जो संस्कृतका अक्षर भी नहीं जानते हैं। गाँव गाँवमें शास्त्रसभायें होती हैं और लोग भाषा ग्रन्थोंका स्वाध्याय करते हुए नजर आते हैं ।
२ हिन्दीके जैनग्रन्थोंका प्रचार केवल हिन्दीभाषाभाषी प्रान्तोंमें ही नहीं है; गुजरात और दक्षि में भी है । दक्षिण और गुजरातके जैनोंके द्वारा हिन्दी के कई बड़े बड़े ग्रन्थ छपकर भी प्रकाशित हु
हैं। सुदूर कर्नाटक तकमें - जहाँ हिन्दी बहुत कम समझी जाती है - बहुतसे हिन्दी ग्रन्थ जाते हैं और पढ़े जाते हैं । एक तरहसे हिन्दी दिग म्बर सम्प्रदायकी सर्वसामान्य भाषा बन गई है । आपको यह सुनकर आश्चर्य होगा कि 'जैन मित्र' आदि हिन्दी पत्रोंके एक चौथाईसे भी अधिक ग्राहक गुजरात और दक्षिण में हैं। इस तरह दिगम्बर सम्प्रदाय के हिन्दी साहित्यके द्वारा हिन्दी भाषाका दूसरे प्रान्तोंमें भी प्रचार हो रहा है।
३ जैनधर्मका एक सम्प्रदाय और है जिसे 'स्थानकवासी' या 'ढूँढ़िया' कहते हैं । हम समझते थे कि इस सम्प्रदायका भी हिन्दी साहित्य होगा । क्योंकि इस सम्प्रदायके अनुयायी ४-५ लाख समझे जाते हैं और वे राजपूताना तथा पंजाब में अधिक हैं, परन्तु तलाश करनेसे मालूम हुआ कि इस सम्प्रदायमें हिन्दीके ग्रन्थ प्रायः नहीं बराबर हैं । स्थानकवासी सम्प्रदायके साधु श्रीयुत आत्मारामजी उपाध्यायसे इस विषमें पूछताछ की गई तो मालूम हुआ कि स्थानकवासियोंमें पं० हरजसरायजी आदि दो तीन ही कवि हुए हैं जिनके चार पाँच ग्रन्थ मिलते हैं और थोड़ी बहुत पुस्तकें अभी अभी लिखी गई हैं। इस सम्प्रदाय पर भी गुजराती भाषाका आधिपत्य हो रहा है। संभव है
कि खोज करने से इस सम्प्रदाय के भी दश पाँच हिन्दी ग्रन्थ और मिल जावें ।
४ श्वेताम्बरी और दिगम्बरी साहित्य में एक उल्लेख योग्य बात यह नजर आती है कि सारे श्वेताम्बर साहित्य में दो चार ही ग्रन्थ ऐसे होंगे जिनके कर्ता गृहस्थ या श्रावक हों, इसके विरुद्ध दिगम्बर साहित्यमें दश पाँच ही हिन्दी ग्रन्थ ऐसे मिलते हैं जिनके कर्त्ता भट्टारक या साधु हों । प्रायः सारा ही दिगम्बर साहित्य गृहस्थों या श्रावकोंका रचा हुआ है । दिगम्बर सम्प्रदाय में साधु- संघका अभाव कोई ४००-५०० वर्षोंसे हो रहा है । यदि इस सम्प्रदाय के अनुयायी श्वेताम्बरोंके समान केवल साधुओंका ही मुँह ताकते रहते, तो आज इस सम्प्रदायकी दुर्गति हो जाती । इस सम्प्रदाय के गृहस्थोंने ही गुरुओं का भार अपने कन्धोंपर ले लिया और अपने धर्मको बचा लिया । इन्होंने गत दो सौ तीन सौ वर्षोंमें हिन्दी साहित्यको अपनी रचनाओंसे भर दिया ।
५ इन दोनों सम्प्रदायों के साहित्यमें एक भेद और भी है। श्वेताम्बर साहित्य में अनुवादित ग्रन्थ बहुत ही कम हैं, प्रायः स्वतंत्र ही अधिक हैं, और दिगम्बर साहित्यमें स्वतंत्र ग्रन्थ बहुत कम हैं, अनुवादित ही अधिक हैं । इसका कारण यह मालूम होता है कि परम्परागत संस्कार के अनुसार गृहस्थ या श्रावक अपनेको ग्रन्थरचनाका अनाधिकारी समझता है । उसे भय रहता है कि कहीं मुझसे कुछ अन्यथा न कहा जाय । इस लिए दिगम्बर साहित्य की रचना करनेवाले गृहस्थ लेखक और कवियोंको स्वतंत्र ग्रन्थ रचने का साहस बहुत ही कम हुआ है - सबने पूर्वरचित संस्कृत ग्रन्थोंके ही अनुवाद किये हैं । कई अनुवादक इतने अच्छे विद्वान हुए हैं कि यदि वे चाहते, तो उनके लिए दो दो चार चार स्वतंत्र ग्रन्थोंकी रचना करना कोई बड़ी बात नहीं थी । पर
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HELLBHABILIBAB I TAHARIHARMILLIABILIBRARY SEX हिन्दी-जनसाहित्यका इतिहास।
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उन्होंने ऐसा नहीं किया। जब हम पं० जय- हैं कि एक चौबीसी पूजापाठ बना डाला है। चन्द्रजीके अनुवाद किये हुए ग्रन्थोंकी सूचीमें मजा यह है कि इन सब रचनाओंमें विशेषता 'भक्तामरचरित्र' का नाम देखते हैं, तब इनकी कुछ नहीं। सबमें एक ही बात । एक दूसरेका 'प्राचीन-श्रद्धा' पर आश्चर्य होता है। संस्कृत
- अनुकरण । इनका बनाना भी चूरनके लटकोंसे में भट्टारकोंके बनाये हुए ऐसे पचासों ग्रन्थ हैं जो
. ज्यादा कठिन नहीं है । जिसके जीमें रचनाकी दृष्टिसे कौड़ी कामके नहीं हैं, तो भी
" आता है वही एक पूजा बना डालता है। उनके हिन्दी अनुवाद हो गये हैं और अनुवाद
नुवाद आपको यह सुनकर आश्चर्य होगा कि संस्कृत और करनेवालोंमें बहुतसे ऐसे हैं जो यदि चाहते तो प्राकतमें पजापाठके ग्रन्थ बहुत ही कम उपलब्ध मूलसे भी कई गुणी अच्छी रचना कर सकते हैं. और जो हैं वे उच्च श्रेणीके हैं । पर हिन्दीथे-वे स्वयं ही मूलसे अच्छी संस्कृत लिखनेकी वालोंने इसके लिए मलग्रन्थोंका सहारा लेनेकी योग्यता रखते थे।
जरूरत नहीं समझी । बस, इसी एक विषयके ६ हिन्दीके जैनसाहित्यको हम चार भागोंमें ग्रन्थोंकी हिन्दी-जैनकवियोंने सबसे आधिक विभक्त करते हैं, एक भागमें तो तात्त्विक ग्रन्थ स्वतंत्र रचना की है ! पिछले दिनोंमें जैनसम्प्रहैं, दूसरे में पुराण चरित्र कथाद हैं, तीसरेमें पूजा दायमें पूजा प्रतिष्ठाओंको जो विशेष प्रधानता दी पाठ हैं और चौथेमें पदभजन विनती आदि हैं। गई है, उसीका यह परिणाम है । इस समयकी इनमेंसे पहले तीन प्रकारके ग्रन्थोंका परिमाण दृष्टिसे जैनोंका सबसे बड़ा काम पूजा-प्रतिष्ठा लगभग बराबर बराबर होगा । पहले दो विषय करना-कराना है। पद-भजन-स्तवनादि सम्बन्धी ऐसे हैं कि उन पर चाहे जितना लिखा जा चौथे प्रकारके साहित्य पहले तीन प्रकारकासाहित्यों सकता है, पर यह बात लोगोंकी समझमें कम जितना तो नहीं है, तो भी कम नहीं है। परिआयगी कि पूजापाठके ग्रन्थ भी उक्त दोनों श्रम करनेसे कई हजार जैनपदोंका संग्रह हो विषयोंके ही बराबर हैं। सचमच ही इस विषयमें सकता है। भूधर, द्यानत, दौलत, भागचन्द, जैनोंने 'अति' कर डाली है। हमने अपने इस बनारसी आदिके पद अच्छे समझे जाते हैं। निबन्धमें जो जुदे जुदे कवियोंके ग्रन्थ बत- इनका प्रचार भी खूब है । इस साहित्यसे और लाये हैं, उनमें पूजापाठके ग्रन्थ प्रायः छोड़ दिये पूजासाहित्यसे जैनधर्ममें 'भक्तिरस ' की बहुत हैं और जिन कवियोंने केवल पूजापाठोंकी ही पुष्टि हुई है। किसी किसी कविने तो इस रसके रचना की है, उनका तो हमने उल्लेख भी नहीं प्रवाहमें बहकर मानो इस बातको भुला ही दिया किया है । एक ही एक प्रकारके पूजा पाठ दश है कि 'जैनधर्म ईश्वरके कर्तापनेको स्वीकार दश बीस बीस कवियोंने बनानेकी कृपा की है। नहीं करता, अतः उसमें भक्तिकी सीमा बहुत ही चौबीसी पूजापाठ तो कमसे कम २०-२५ मर्यादित है ।' इस विषयमें जान पड़ता है जैनकवियोंके बनाये हुए होंगे। इनका ताँता अबतक धर्म पर वैष्णवधर्मके भक्तिमार्गका ही बहुत कुछ भी लगा जा रहा है। लोगोंको अब भी संतोष नहीं प्रभाव पड़ा है । कहीं कहीं यह प्रभाव बहुत ही है। केवलारी (सिवनी) के एक सज्जनने अभी स्पष्ट हो गया है । एक कवि कहता है-" नाथ हाल ही एक पूजापाठ रचकर प्रकाशित किया है। मोहि जैसे बने तैसे तारो; मोरी करनी कछु न कुचामनके पं . जिनेश्वरदासजीने भी सुनते विचारो।" 'करनी' को ही ईश्वर माननेवाले
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KHALIBOORTILITAMITRAILE
जैनहितैषी।
जैनहितैषी।
जैन कविके इन वचनोंम देखिए ईश्वरके कर्तृ- रादिके निरूपण करनेवाले ग्रन्थ उन्होंने भावका कितना गहरा
नहीं लिखे । ___७ हिन्दीके जैनसाहित्यकी प्रकृति शान्तरस ९ यह हमें मानना पड़ेगा कि जैन कवियोंमें है। इसके प्रत्येक ग्रन्थमें इसी रसकी प्रधानता उच्च श्रेणीके कवि बहुत ही थोड़े हुए हैं। बनारसीहै। शृंगारादि रसोंके ग्रन्थोंका इसमें प्रायः दास सर्वश्रेष्ठ जैनकवि हैं । रूपचन्द, भूधरदास, अभाव है । इतने बड़े साहित्यमें एक भी अलं- भगवतीदास, आनन्दघन, उच्चश्रेणीमें गिने जा कार या नायिकाभेद आदिका ग्रन्थ देखनेमें सकते हैं। दीपचंद, द्यानतराय, माल, यशोविजय, नहीं आया । जयपुरके एक पस्तकभण्डारकी वृन्दावन, बुलाकीदास, दौलतराम, बुधजन आदि सू में दीवान लालमाणके 'रसप्रकाश अलं- दूसरी श्रेणीके कवि हैं। इनकी संख्या भी कम कार ' नामके ग्रन्थका उल्लेख है; पर हमने है। तीसरे दर्जे के कवि अगणित हैं । जो उच्चउसे देखा नहीं । सुनते हैं हनुमच्चरित्र और श्रेणीके कवि हुए हैं, उन्होंने प्रायः ऐसे विषयोंपर शान्तिनाथचरित्रके कर्ता सेवाराम राजपूतने भी रचना की है जिनको साधारण बुद्धिके लोग समझ
नहीं सकते हैं। चरित या कथाग्रन्थोंकी यदि ये एक 'रसग्रन्थ' बनाया था; पर वह अप्राप्य है। कविवर बनारसीदासजीकी भी कछ शंगाररसकी लोग रचना करते तो बहुत लाभ होता।चरितोंमें
__एक पार्श्वपुराण ही ऐसा है जो एक उच्चश्रेणीके रचना था, पर उन्होंने उसे यमुनाम बहा कविके द्वारा रचा गया है। फिर भी उसमें नरक. दिया था !
स्वर्ग, त्रैलोक्य, कर्मप्रकृति, गुणस्थानादिका विशेष ___ संस्कृत और प्राकृतमें जैनोंके बनाये हुए वर्णन किये बना कविसे न रहा गया और शृंगारादिके ग्रन्थ बहुत मिलते हैं । उस समयके इसलिए वह भी एक प्रकारसे तात्त्विक ग्रन्थ बन जैनविद्वानोंको तो इस विषयका परहेज नहीं गया है। उसमें कथाभाग बहुत कम है। इस तरह था । यहाँ तक कि बड़े बड़े मुनियोंके बनाये साधारणोपयोगी प्रभावशाली चरितग्रन्थोंका जैनहुए भी काव्यग्रन्थ हैं जो शृंगाररससे लबालब भरे साहित्यमें प्रायः अभाव है और जैनसमाज तुलहुए हैं । तब यह एक विचारणीय बात है कि सीकृत रामायण जैसे उत्कृष्ट ग्रन्थोंके आनन्दसे हिन्दीके लेखकोंने इस ओर क्यों ध्यान वंचित है । शीलकथा, दर्शनकथा, और खुशालनहीं दिया । इसका कारण यही जान चन्दजीके पद्मपुराण आदिकी रद्दी निःसत्व पड़ता है कि जिस समय जैनोंने हिन्दीके ग्रन्थ कविताको पढते पढ़ते जैनसमाज यह भूल ही लिखे हैं उस समय उन्हें जैनधर्मका ज्ञान फैलाने- गया है कि अच्छी कविता कैसी होती है। की, और जैनधर्मकी रक्षा करनेकी ही धुन विशेष १० गद्यलेखकोंमें तथा टीकाकारोंमें टोडरथी । उनका ध्येय धर्म था, साहित्य नहीं। इसी मल्ल सर्वश्रेष्ठ हैं । जयचन्द, हेमराज, आत्माराम, कारण उन्होंने इस ओर कोई खास प्रयत्न नहीं नेणसी मूता अच्छे लेखक हुए हैं । सदासुख, किया । पर उन्हें इस विषयसे कोई परहेज नहीं भागचन्द, दौलतराम, जगजीवन, देवीदास
था । यही कारण है जो उन्होंने स्त्रियोंके नख- आदि मध्यम श्रेणीके लेखक हैं। बाकी सब शिखवर्णन और विविध शृंगारचेष्टाओंसे भरे हुए साधारण हैं । गद्यमें श्वेताम्बरोंका साहित्य प्रायः
आदिपुराण आदिके अनुवाद लिखनेमें संकोच है ही नहीं, मुनि आत्मारामजाक अवश्य ही कुछ नहीं किया है। हाँ खालिस शृंगार और अलंका- ग्रन्थ हैं जो गणनीय हैं । शेष श्वेताम्बरी साहि
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AHMMMMAMAWAIMIMMMAHARAMHAAAAAAAIAIIMALAILE
हिन्दी-जेनसाहित्यका इतिहास ।
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त्य पद्यमें है । श्वेताम्बरी साहित्य जितना उप- राती और हिन्दी दो भाषाओंमें निकलता है। लब्ध है, उसमें तात्त्विक चर्चा बहुत ही कम है, श्वेताम्बर सम्प्रदायक साप्ताहिक 'जैनशासन में केवल कथाग्रन्थ हैं।
भी हिन्दकि कुछ लेख रहते हैं। ‘जैनसंसार' ११ आधुनिक समयके जैनलेखकोंने सर्वोप- और 'जैन मुनि' क्रमसे श्वेताम्बर और स्थानकयोगी और सार्वजनिक पुस्तकोंका लिखना भी शुरू वासी सम्प्रदायके नवजात पत्र हैं। . कर दिया है। उन्होंने अपने प्राचीन क्षेत्रसे-केवल इनके पहले हिन्दीके और भी कई पत्र निकधार्मिक साहित्यसे बाहर भी कदम बढ़ाया है। लकर बन्द हो चुके हैं । जहाँतक हम जानते हैं, अभी ५-७ वर्षोंसे इस विषयमें खासी उन्नति सबसे पहला हिन्दी जैनपत्र 'जैनप्रभाकर' था, हुई है। उच्चश्रेणीकी अँगरेजी शिक्षा पाये हुए जो अजमेरसे निकलता था। यह कई वर्ष तक युवकोंका ध्यान इस ओर विशेष आकर्षित हुआ चलता रहा । यह कोई २०-२२ वर्ष पहलेकी है। ऐसे सज्जनोंका परिचय इस निबन्धके बात है । लाहौरकी ‘जैनपत्रिका' ८-१० अन्त में दिया गया है। आशा है कि थोड़े ही वर्ष तक चलकर बन्द हो गई । जैनतत्त्वप्रकासमयमें जैनसमाजमें हिन्दी लेखकोंकी एक शक, जैनपताका, जैननारीहितकारी, जैनकाफी संख्या हो जायगी और उनके द्वारा सिद्धान्तभास्कर कोई दो दो वर्ष चलकर बन्द हिन्दीकी अच्छी सेवा होगी।
हो गये। इनमें 'सिद्धान्तभास्कर' उल्लेख योग्य ६ सामयिक साहित्य। पत्र था। आत्मानन्द जैनपत्रिका श्वेताम्बरजैनसमाजके कई हिन्दी पत्र भी निकलते .
र सम्प्रदायकी मासिक पत्रिका थी । यह ५-७ वर्ष हैं। इनकी संख्या खासी है । अधिकांश हिन्दी .
" चलकर बन्द हो गई। 'जैनरत्नमाला' और 'जैनी' पत्र दिगम्बर सम्प्रदायके हैं । साप्ताहिकोंमें
: एक एक वर्ष तक ही जीवत रहे । 'स्याद्वादी' जैनगजट और जैनमित्र हैं । जैनमित्रकी
और 'चित्तविनोद' का एक ही एक अंक निकला! दशा अच्छी · है, पर जैनगजट तो पत्रोंका जयपुरस 'जनप्रदाप ' नामका पत्र भी कुछ कलङ्क है । मासिकोंमें जैनहितैषी, जातिप्रबो- महीनोंतक निकलता रहा था। धक, जैनप्रभात, दिगम्बर जैन, और सत्यवादी एक दो सार्वजनिक पत्र भी जैनोंके द्वारा हैं । इनमेंसे पिछला पुराने विचारवालोंका मुख- प्रकाशित होते हैं । देहलीके साप्ताहिक 'हिन्दी पत्र है । 'दिगम्बर जैन ' केवल यहाँ वहाँके समा- समाचार' के स्वामी सेठ माठूमलजी और देहचारों और लेखोंको आँख बन्द करके संग्रह कर रादूनके 'भारतहितैषी' के सम्पादक और प्रकाशक देनेवाला है । उसके कोई खास खयाल नहीं हैं। लाला गुलशनरायजी जैनी हैं। हिन्दीके सुप्रसिद्ध उसमे आधी गुजराती भी रहती है। 'जाति- अस्तंगत 'समालोचक' पत्रके स्वामी मि० प्रबोधक' केवल सामाजिक सुधारका काम जैनवैद्य भी जैनी थे। करता है। इसके सम्पादक एक ग्रेज्युएट हैं ।
जैनोंटाग हिन्दीकी 'जैनप्रभात ' एक सेठोंकी सभाका पत्र है, इस लिए उसे बहुत कुछ दबकर लिखना पड़ता है।
उन्नतिकी चेष्टा। 'स्थानकवासी कान्फरेस प्रकाश' स्थानक- आपको मालूम होगा कि बम्बईके हिन्दीवासी सम्प्रदायका साप्ताहिक पत्र है । यह गुज- ग्रन्थरत्नाकर कार्यालयके संचालक जैनी हैं।
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बम्बई नवजात ' हिन्दीगौरवग्रन्थमाला' के स्वामी भी जैनी हैं । झालरापाटनकी हिन्दी साहित्य समितिका जो ११-१२ हजार रुपयोंका स्थायी फण्ड है, वह केवल जैनों का दिया हुआ है । इसके द्वारा हिन्दी के उत्तमोत्तम ग्रन्थ लागत के मूल्य से बेचे जायँगे । इन्दौरकी मध्यभारत हिन्दी साहित्य समितिको भी जैनोंकी ओरसे कई हजार रुपयोंकी सहायता मिली है । खण्डवेकी हिन्दी ग्रन्थप्रसारक मंडली के संचालक बाबू माणिकचन्दजी वकील भी जैनी हैं । हमको आशा है कि भविष्य में हिन्दी साहित्यकी उन्नतिमें जैन समाजका और भी अधिक हाथ रहेगा। ८ जैनग्रन्थप्रकाशक संस्थायें । जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, जैनसाहित्य-प्रचा रक कार्यालय, और रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला, बम्बईकी ये तीन संस्थायें हिन्दीके जैनग्रन्थ प्रकाशित करनेवाली हैं । इनमेंसे से तीसरीके स्वामी श्वेताम्बर हैं, शेष दोके दिगम्बर । लाहौरके बाबू ज्ञानचन्द्रजीने हिन्दीके बहुत ग्रन्थ छपाये हैं, पर इस समय उनका काम बन्द है देवबन्दके बाबू सूरजभानजी वकीलने भी ग्रन्थ प्रकाशनका कार्य बन्द कर दिया है । कलकतेकी सनातन जैन ग्रन्थमाला अब हिन्दीके ग्रन्थ भी प्रकाशित करने लगी है | सूरत के दिगम्बरजैनकार्यालयसे, कोल्हापुर के जैनेन्द्रप्रेससे और बम्बई के जैनमित्र कार्यालय से भी अनेक ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं । इसके सिवाय और भी कई सज्जन थोड़े बहुत हिन्दी ग्रन्थ छपाया करते हैं । श्वेताम्बरसम्प्रदायकी ओरसे हिन्दी ग्रन्थप्रकाशक संस्थाओंके स्थापित होनेकी बहुत आवश्यकता है।
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1
९ हिन्दीका इतिहास । जैन साहित्यका इतिहास बतलाने के हमें हिन्दी साहित्यका इतिहास देख
जैनहितैषी -
पहले
जाना
चाहिए । शिवसिंह सरोज के कर्त्ता और मिश्रबन्धुओंके विचारानुसार हिन्दीकी उत्पत्ति संवत् ७०० से मानी जाती है । सं० ७७० में किसी पुष्य नामक कविने भाषा के दोहोंमें एक अलंकारका ग्रन्थ लिखा था । सं० ८९० के लगभग किसी भाट कविने 'खुमान रासा' नामक भाषा ग्रन्थ लिखा । ये दोनों ही ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं । इनके बाद चन्द कविने वि०सं० १२२५ से १२४९ तक 'पृथ्वीराज रासा' बनाया। उसके बाद के जगनिक केदार और बारदर बेणा नामक कवि हुए, पर इनकी रचनाका पता नहीं । चन्दका बेटा जल्हण हुआ उसने पृथ्वीराज रासाका शेष भाग लिखा । उसके बाद ' कुमारपालचरित' नामका ग्रन्थ सं० १३०० के लगभग बना । कुमारपाल अणहिलवाड़ेके राजा थे । इनके बाद १३५४ में भूपतिने 'भागवत का दशम स्कन्ध' बनाया । १३५४ में नरपति नाल्हने 'वीसलदेवरासा, ' १३५५ नल्लुसिंहने 'विजयपालरासा, ' और १३५७ में शारंगधरने ' हम्मीर रासा' बनाया । १३८२ में अमीर खुसरोका देहान्त हुआ, जो उर्दू फारसी के सिवा हिम्दीके भी कवि थे । इनके बाद १४०७ से गोरखनाथका कविताकाल शुरू होता है ।
हमारी समझमें इस इतिहास में बहुतसी बातें असल में सबसे पहला ग्रन्थ ' पृथ्वीराज रासो ' विना किसी प्रमाणके, भ्रमवश लिखी गई हैं। 1 गिना जाना चाहिए । इसके पहले के ग्रन्थ केवल अनुमानसे या भ्रमसे समझ लिये गये हैं कि हिन्दी के हैं । पर वास्तवमें यदि वे होंगे तो प्राकृत या अपभ्रंश भाषाके होंगे । आज कल जिस प्रकार भाषा कहने से हिन्दीका बोध होता है उसी प्रकार एक समय ' भाषा' कहने से 'प्राकृत' का भी बोध होता था । पुष्य कविका 'दोहाबद्ध अलंकार' और 'खुमानरासा ' ये दोनों ही ग्रन्थ प्राकृत के होने चाहिए । चन्दके बादका 'कुमारपालचरित'
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STIANIMAITHILIAMITRALLIAM I NATIBARD
हिन्दी-जैनसाहित्यका इतिहास ।
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भी भ्रमसे हिन्दीका समझ लिया गया है। इसका बदलने लगता है वैसे ही भारतीय भाषाओंका दूसरा नाम 'प्राकृत व्याश्रय महाकाव्य ' है। यह भी रूप परिवर्तित होने लगता है। इसके पहले जैनाचार्य हेमचन्द्र द्वारा बनाया गया है और उत्तर और पश्चिमभारतमें वह अपभ्रंश भाषा कुछ १३ वीं शताब्दीमें ही-कुमारपालके समयमें ही- थोड़ेसे हेर-फेरके साथ, बोली जाती थी, जिसका इसकी रचना हुई है । इसे बम्बईकी गवर्नमेंटने व्याकरण हेमचंद्रसूरिने अपने 'सिद्धहैम-शछपाकर प्रकाशित भी कर दिया है । इसमें ब्दानुशासन ' नामक महान् व्याकरणके अष्टमाप्राकृत, सौरसेनी, पैशाची और अपभ्रंश भाषा- ध्यायके चतुर्थपादके ३२९ वें सूत्रसे लेकर
ओंका संग्रह है और इन सबको ‘भाषा ' कहते अंतिम सूत्र ४४८ वें तक (१२० सूत्रोंमें ) लिखा हैं । जान पड़ता है, इसी कारण यह हिन्दीका है । हेमचंद्रसूरि अपने समयके सबसे बड़े वैयाग्रन्थ समझ लिया गया है। इसके सिवाय इसका करण थे। उन्होंने अपने व्याकरणके पहले ७ अपभ्रंश भाग ( श्रीमान् मुनि जिनविजय- अध्यायोंमें संस्कृतका सर्वांगपूर्ण व्याकरण लिख जीके कथनानुसार ) पुराने ढंगकी हिन्दीसे कर आठवें अध्यायमें प्राकृत वगैरह व्यावहारिक १०-१२ आने भर मिलता है। इस कारण भी भाषाओंका व्याकरण बनाया। अंतमें अपनी इसके हिन्दी समझ लिये जानेकी संभावना है। मातृभाषा-प्रचलित देशभाषा-कि जिसका नाम इसके बादके भूपति कविकी भाषासे यह बोध उन्होंने 'अपभ्रंश' रक्खा है, उसका व्याकनहीं होता कि वह संवत् १३५४ के लगभगका रण भी लिख डाला। यह काम सबसे पहले कवि है। उसकी भाषा सोलहवीं सदीसे पहलेकी उन्होंने ही किया। उन्होंने अपभ्रंशका केवल नहीं मालूम होती । नाल्ह आदिकी रचनाके विष- व्याकरण ही नहीं लिखा; परंतु कोश और छन्दोयमें भी हमें सन्देह है । मिश्रबन्धुओंने इसके नियम भी बना दिये । व्याकरण कोश और सम्बन्धमें कोई भी सन्तोषयोग्य प्रमाण नहीं छन्दोंके उदाहरणोंमें सैकड़ों पद्य आपने उन दिये हैं। अतः चन्दको छोड़कर सबसे पहले ग्रन्थोंके दिये हैं जो उस समय, देशभाषाके निश्चित कवि महात्मा गोरखनाथ हैं जि- सर्वोच्च और प्रतिष्ठित ग्रन्थ गिने जाते थे। नको समय खोजके लेखकोंमें सं० १४०७ हेमचंद्रसरिने अपनी जन्मभाषाका गजराती निश्चित किया है (यद्यपि हमें इस समयमें भी सन्देह हिन्दी और मराठी आदि कोई खास नाम है)। अर्थात् पृथ्वीराज रासोको छोड़कर हिन्दीके न रखकर 'अपभ्रंश' ऐसा सामान्य नाम उपलब्ध साहित्यका प्रारंभ विक्रमी १५ वीं रक्खा है जिसका कारण यह है कि वह भाषा शताब्दीसे होता है।
उस समय, उसी रूपमें बिलकुल थोड़ेसे . १० हिन्दीका प्रारंभ । भेदके साथ भारतके बहुतसे प्रदेशोंमें बोली
हमारे विचारसे हिन्दीका प्रारंभ तेरहवीं शता- जाती थी । इस लिए आचार्य हेमचंद्रने उसे ब्दीके मध्यभागसे होता है। जो समय भारतके खास किसी प्रदेशकी भाषा न मान कर राष्ट्रीयभावोंमें बड़ा भारी परिवर्तन करता है वही सामान्य अपभ्रंश भाषा मानी । अच्छा तो अब उसकी भाषाओंमें भी सविशेष परिवर्तन करता यह बात उपस्थित होगी कि यह अपभ्रंश है । दिल्लीश्वर पृथ्वीराज चौहानके पतनके बाद (विकृतरूप) किस भाषाका था। इस प्रश्नका भारतके स्वातंत्र्यका जिस तरह एकदम स्वरूप उत्तर हमें केवल जैनसाहित्यसे मिलेगा और
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mumDIOBILLIBAHAAR
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जैनहितैषी PHTRIPTES
HOTOGETiminimundtRED
किसीसे नहीं। इसके लिए हमें उन प्राकृत चितताने इन प्रदेशोंकी जो व्यापक भाषा अपग्रंथोंको देखना चाहिए जो हेमचंद्राचार्यके पहले भ्रंश थी उसके भावी विकाशको प्रान्तीय-भाषाक्रमसे ३-४ शताब्दियोंमें, लिखे गये हैं। ओंके भिन्न भिन्न भेदोंमें विभक्त कर दिया । यद्यपि उन सबका अवलोकन अभी तक ठीक यहींसे, गुजराती, राजपूतानी, मालवी, और ठीक नहीं किया गया है तो भी जितना किया हिन्दी भाषाओंके गर्भका सूत्रपात हुआ और धीरे गया है उससे इतना तो नि:संकोच कहा जा धीरे १५ वीं शताब्दीमें पहुँचकर इन भाषाओंने सकता है कि यह अपभ्रंश, शौरसेनी और अपना स्वरूप स्पष्टतया प्रकट कर दिया । महाराष्ट्री प्राकृतका था।दशवीं शताब्दीके पहले- ऐसी दशामें हेमचंद्राचार्यके अपभ्रंशको ही इन के जितने जैन प्राकृतग्रंथ हैं उनमें इन्हीं दोनों उपर्युक्त भाषाओंका मूल समझना चाहिए । इसभाषाओंकी प्रधानता है। दशवीं शताब्दीके की पष्टिमें अपभ्रंशके कुछ पद्य यहाँ पर उद्धृत बादके जो ग्रंथ हैं, उनमें ये भाषायें क्रमसे लुप्त कर देने आवश्यक हैं जो हेमचंद्रसूरिने अपने होती जाती हैं और अपभ्रंशका उदय दृष्टि- व्याकरणमें उदाहरणार्थ, उस समयके प्रचलित गोचर होता है । महाकवि धनपाल, महेश्वरसूरि लोक ग्रंथोंमेंसे-रासाओंमेंसे-उद्धृत किये हैं। और जिनेश्वरसूरि आदिके ग्रंथोंमें अपभ्रंशका
ढोल्ला मई तुहुं वारिया आदि आकार तथा रत्नप्रभाचार्यकी उपदेशमाला
मा कुरु दीहा माणु। की 'दोघट्टी वृत्ति' और हेमचंद्रसूरिके ग्रंथोंमें
निद्दए गमिही रत्तंडी उसकी उत्तरावस्था प्रतीत होती है । ऊपर लिखा
दर्डवड होइ विहाँणु॥ जा चुका है कि दशवीं शताब्दीके पहलेके ग्रंथों
बिट्टीए मइ भणिय तुहुँ में शद्ध सौरसेनी और महाराष्ट्री प्राकृत है और मा कुरु वंकी दिहि। बादमें उनका विकृतरूप है । कालकी गतिके पुत्ति सकण्णी भल्लि जिवं साथ होनेवाले उन भाषाओंके स्वरूपके भ्रंशही- मारइ हिअई पइहि॥ को हेमचंद्रसूरिने अपभ्रंश नाम दिया और शौर- भल्लों हुआ जु मारिआ सेनी तथा प्राकतके बाद ही अपने व्याकरणमें बहिणि महारा कन्तु। उसका भी व्याकरण लिपिबद्ध कर दिया।
लज्जेजंतु वयंसिअहु
जइ भग्गा घरु एन्तु ॥ हेमचंद्रसूरिके देहान्तके बाद थोड़े ही वर्षों में भारतमें राज्यक्रांति हुई और राष्ट्रीय परिस्थितिमें १ रात्रिके प्रारंभमें स्त्रीपुरुषके प्रणयकलहकी सघोर परिवर्तन होने लगा। हममें परस्पर ईर्ष्याग्नि माप्तिपर किसी नवयौवनाकी अपने पतिके प्रति यह सुलगने लगी और विदेशी विजेता उसका लाभ उक्ति जान पड़ती है। 'ढोला' शब्द नायकके सउठाने लगे । देशोंका पारस्परिक स्नेह-संबंध म्बोधनमें है । २ वारितः-रोका । ३ दीर्घ ।
४ निद्रायां-नींदमें। ५ रात । ६ जल्दी। ७ प्रभात । टटा और एक राज्यके रहनेवाले दूसरे राज्यके
८ रोषातुर पुत्रीके प्रति स्नेही पिताकी उक्ति । रहनेवालोंको शत्रु मानने लगे। इसी कारण, गुज- विद्रीए-हे बेटी । ९ वक्रदृष्टि । १० पुत्री । ११ हृदयमें रात, राजपूताना, अवन्ती और मध्यप्रन्तिके निवा- पैठकर । १२ भावार्थ-हे बहिन भला हुआ जो मेरा सियोंका इसके पहले जितना व्यावहारिक सम्बन्ध पति मर गया । यदि भागा हुआ घर आता तो मैं विस्तृत था उसमें संकुचितता आई । इस संकु- सखियोंमें लजित होती। १३ वयस्यानां मध्ये।
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हिन्दी - जैन साहित्यका इतिहास ।
इन पयोंके साथ 'पृथ्वीराजरासो' या उसी समय के लिखे गये किसी और ग्रंथके पद्योंका यदि मिलान किया जाय तो भाषाविषयक बहुत कुछ सादृश्य ही नहीं बिलकुल एकता दिखाई देगी । ऐसी दशा में 'पृथ्वीराजरासो' यदि हिन्दीहीका ग्रंथ गिना जाने योग्य है, तो उसके आसपास के बने हुए जैन ग्रंथ भी जिनका उल्लेख आगे किया गया है हिन्दी ग्रंथ गिने जाने योग्य हैं ।
इस उल्लेखसे, हमने जो हिन्दी का प्रारंभ १३ वीं शताब्दीके मध्यसे माना है वह भी युक्तिसंगत मालूम देगा और साथ में, जिस तरह अजैनोंके रचे हुए हिन्दी ग्रंथ, उसके प्रारंभकालके मिलते हैं वैसे जैनोंके भी मिलने के कारण हिन्दीका इतिहास लिखने में उनकी उपयोगिता कितनी अधिक है यह भी भली भाँति ज्ञात हो जायगा ।
हमने अगले पृष्ठों पर १३ वीं, १४ वीं और १५ वीं शताब्दी के जिन जैन ग्रंथों को हिन्दी के या उससे बहुत मिलती जुलती हुई भाषाका माना है, उनके अवलोकनसे हिन्दी के विकाशकी बहुत कुछ नई नई बातें और नये नये रूप मालूम होंगे, जो हमारी भाषा के शरीरसङ्गठनका इतिहास लिखमें अति आवश्यक साधन हैं। अजैन साहित्यमें, जब चंदके बाद गोरखहीका ग्रंथ हमें दृष्टिगोचर होता है - मध्यका कोई नहीं तब, जैन साहित्यमें इस बीच के पचासों ग्रंथ खोज करने पर मिल सकते हैं। इससे सिद्ध हुआ कि हिन्दीका संपूर्ण इतिहास तैयार करने में जैनसाहित्यसे महत्त्वकी सामग्री मिल सकती है ।
तेरहवीं शताब्दी |
१ जम्बूस्वामी रासा । बड़ोदा महाराजकी सेंट्रल लायब्रेरीकी ओरसे निकलने वाले .' लाइब्रेरी मिसेलेनी ' नामके त्रैमासिक पत्रकी अप्रैल १९१५ की संख्या में श्रीयुत चिम्मन - लाल डाह्याभाई दलाल एम. ए. का एक महत्त्वपूर्ण लेख प्रकाशित हुआ है । उसमें उन्होंने सुप्रसिद्ध जैन पुस्तकालयों की खोज करनेसे प्राप्त हुए अलभ्य संस्कृतप्राकृत - अपभ्रंश और प्राचीन गुजरातीके ग्रन्थोंका विवरण दिया है । उसमें 'जम्बूस्वामी
५-६
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रासा' नामका एक ग्रन्थ है । यह महेन्द्रसूरि शिष्य धर्मसूरिने सं० १२६६ में बनाया है । लेखक इसकी भाषाको प्राचीन गुजराती बतलाते हैं और इसे उपलब्ध गुजराती साहित्य में सबसे पहला ग्रन्थ मानते हैं; परन्तु हमारी समझ में चन्दकी भाषा आजकल के हिन्दी जाननेवालों के लिए जितनी दुरूह है, यह उससे अधिक दुरूह नहीं है और गुजराती के साथ इसका जितना सादृश्य है उससे कहीं अधिक हिन्दीसे है । उक्त विवरण परसे हम यहाँ उसके प्रारंभ के दो पद्य उद्धृत करते हैं:
जिण चउ-विस पये नमेवि गुरु चरण नमेचि ॥ जंबू स्वामिहिं तं चरियं भविडे निसुणेत्रि ॥ करि सानिध सरसत्ति देवि जीयरयं ( 2 ) कहाणउ । जंबू स्वामिहि (सु) गुणगहण संविवखाणउ ॥ जंबूदीवि सिरि भरह खित्ति तिहिं नर पहाणउ ॥ राजग्रह नामेण नयर
पहुंची खाण || राज करइ सेणिये नरिंद्र नरवरहं जु सारो । तासु तैइ (अति) बुद्धिवंत मति अभयकुमारो ॥ २ ॥ २ रेवतगिरि रासा | पाटनके संघवीपाड़ा के भण्डार में 'रेवंत गिरि रासा' नामका एक ग्रन्थ और भी विक्रमकी तेरहवीं शताब्दीका बना हुआ है 1 वस्तुपालमंत्री के गुरु विजयसेन सूरिने संवत् १२८८ के लगभग- जब कि वस्तुपालने गिरनारका संघ निकाला था - इसे बनाया है । इसमें गिरनारका और वहाँके जैनमन्दिरों के जीर्णोद्धारका वर्णन
१ पद-चरण । २ चरित्र । ३ भविक-भव्य । ४ सुनो। ५ संक्षिप्त । ६ नगर । ७ प्रधान । ८ पृथिर्वामें । ९ विख्यात । १० श्रेणिकराजा । ११ तनय पुत्र । * जिस प्रतिसे ये पद्य लिये गये हैं, वह शुद्ध नहीं है, इसलिए इनमें छन्दोभंग जान पड़ता है ।
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है । इसकी भाषा को भी दलाल महाशय प्राचीन गुजराती बतलाते हैं। प्रारंभ के कुछ दोहे देखिए
।
परमेसर तित्थेसरह पये पंकज पणमेव । भणिसु रासु रेवंतगिरिअंबिकैदिवि सुमरेवि ॥ १ ॥ गामागर-पुर-वण-गहण सरि-सरवरि-सुपरसु । देवभूमि दिसि पच्छिमह मणहरु सोरठ देसु ॥ २ ॥ जिणु तहिं मंडल - मंडणउ मरगय-मउड-महंतु | निम्मल-सामंल-सिहर भर, रेहें गिरि रेवंतु ॥ ३॥ तसु सिरि सामिंड सामेलउ सोहंग सुंदर सारु ।
. इव निम्मल-कुल- तिलैउ निवसई नेमिकुमारु ॥ ४ ॥ तसु मुहणु दस दिसवि देस दिसंतरु संघ |
आवइ भाव रसालमण उहलि ( ? ) रंग तरंग ॥ ५ ॥ पोरवाडकुल मंडणउ
जैनहितैषी ।
नंदणु आसाराय ! वस्तुपाल वर मंति" तहि तेजपालु दुइ भाइ ॥ ६ ॥ गुर्जर ( वर ) धर धुरि धवल वीर धवल देवराज । बिर्ड बँधेवि अवरियउ समऊ दूäम माझि ॥ ७ ॥ हमारी समझमें यह प्राचीन हिन्दी कही जा सकती है।
१ तीर्थेश्वरके । २ पदपंकज । ३ प्रणम्य-प्रणाम करके । ४ गिरनारपर्वतकी अम्बिका देवी । ५ स्मृत्वा - स्मरण करके । ६ सुप्रदेश । ७ मनोहर । ८ मरकत मणिके मुकुटसे शोभित। ९ श्यामल । १० शिखर । ११ राजे । १२ स्वामी । १३ श्यामल । १४ शोभक - शोभायुक्त १५ तिलक । १६ मुखदर्शन । १७ मंत्री । १८ दोनों । १९ बन्धु । २० अवतरित किया । २१ सुसमय । २२ दुःषमकालमें ।
।
३ नेमिनाथ चउपई । पाटणके भण्डारों में एक 'नेमिनाथ चतुष्पादिका' नामका ४० पयोंका ग्रन्थ है। इसके कर्ता रत्नसिंह के शिष्य विनय - चन्द्र सूरि हैं । इनका समय विक्रमकी १३ वीं शताब्दीका अन्तिम भाग है । मल्लिनाथ महाकाव्य, पार्श्वनाथचरित, कल्पनिरुक्त आदि अनेक संस्कृत - प्राकृत ग्रन्थ इनके बनाये हुए उपलब्ध हैं । इस चपईकी मूल प्रति भी सं० १३५५५८ की लिखी हुई है । अतः यह तेरहवीं शतादकि अंतकी रचना है । इसके प्रारंभकी पाँच चौपाइयाँ इस प्रकार हैं:सोहंग सुंदरु घण लायन्नु सुमरवि सामि सॉमलवन्तु । सखि पति राजल चडि उत्तरिय, - बार माल सुणि जिम वज्जरिय ॥ १ ॥ नेमि कुमर सुमरवि गिरनारि, सिद्धी राजल कन्न कुमारि । श्रावणि सरवाण कडुए मेहु, गज्जइ विरहि रिझिज्जहु देहु || विज्जुं झक्क रक्खसे जेव, मिहि विणु सहि सहियइ केव ॥ २ ॥ सखी भणइ सामिणि मन झूरि, दुज्जण तणा मनवंछित पूरि । गयेउ नेमि तउ विनठउ काइ, अछइ अनेरा वरह सयाइ ॥ ३ ॥ बोलइ राजल तउ इंह वयणु, नत्थ नेमि वर सन वर-रेंयणु ॥ धरइ तेजु गहण सवि ताउ, गयाणि न उग्गइ दिर्णेयर जावें ॥ ४ ॥ भादवि भरिया सर पिक्खेवि, सकरुण रोवइ राजल देवि । हा एकलैंडी मइ निरधार, किम उवेषिसि करुणासार ॥ ५ ॥
५
१ सुभग । २ लावण्य । ३श्यामल वर्ण । ४ मेघा विजली । ६ राक्षसीके समान । ७ सखि । ८ है स्वामिनि । ९ यदि नेमि चला गया तो क्या विनष्ट बिगड़ ) गया, . और बहुतसे वर हैं । यह इस चरणका अभिप्राय है । १० वररत्न । ११ ग्रहगण - नक्षत्र । १२ तब तक । १३ गगन या आकाशमें । १४ दिनकर-सूर्य । १५ यावत् जब तक । १६ भादोंमें। १७ अकेली ।
(
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हिन्दी - जैन साहित्यका इतिहास ।
1
४ उवएसमाला कहाणय छप्पय । यह भी उपर्युक्त विनयचन्द्रसूरिहीकी रचना धर्मदासगणकी बनाई हुई प्राकृत उपदेशमाला के अनुवाद रूपमें ये छप्पय बनाये गये हैं । इसमें - सब मिलाकर ८१ छप्पय हैं । छप्पय छन्दोंकी तरफ विचार किया जाय तो वे प्रायः हिन्दी के ग्रंथोंहीमें अधिक देखे जाते हैं - गुजराती में बहुत कम | चंद्रका 'पृथ्वीराजरासो' प्रायः इन्हीं छप्पय छन्दोंमें बना हुआ है | अतः इस ग्रंथको हिन्दीग्रंथ कहने में कोई प्रत्यवाय नहीं है । भाषा भी चंदके रासोसे बिल्कुल मिलती जुलती है। इसके आदि - अंत छप्पय इस प्रकार हैं:विजयन रिंद जिणिंदेवीरहथि हिं-वय-लेविणु । धम्मदास गणि नामि गामि नयरिहिं विहरइ पुणु । नियपुत्तेह रणसी हरायपडिबोहण सारिहिं । करइ एस उवएसमाल जिणवयणवियारिहिं । सय पंच च्याल गाहा रमणमणिकरंड महियलि मुणउ । सुभावि सुद्ध सिद्धंत सम, सवि साहू सावयं सुणउ ॥ १ ॥ अंत:
इणि परि सिरि उवएर्स
माल (सु रसाल ) कहाणय । तव - संजम संतास
विषयविज्जाइ पहाण्य | सार्वय संभरणत्थ अत्यंपय छप्पय छंादाह ।
)
१ जिनेन्द्रवीरके हाथसे जिन्होंने व्रत (दीक्षाव्रत लिया था, वे धर्मदास गणि । २ निजपुत्र रणसिंहरा के प्रतिबोधनार्थ । ३ उपदेशमाला । ४ गाथारूप रत्नोंका मणिकरण्s या पिटारा । ५ श्रावक । ६ उपदेशमा ला-कथानक । ७ तप संयम संतोष विनय- वि. या प्रधान 1 ८ श्रावकवणार्थ । ९ अर्थपद ।
रयणसिंह सूरीस सीस पण आणदिहिं । अरिहंत आण अणुदिण उदय, धम्ममूल मत्थइ हउं । भो भविय भत्तिसत्तिर्हि सहल सयल-लच्छिलीला लहउ ॥ १ ॥ चौदहवीं शताब्दी |
५५५
१ सप्तक्षेत्रिरास | कर्ताका नाम अभी तक स्पष्ट ज्ञात नहीं हुआ; पर रचना - काल संवत् १३२७ है । इसमें जिनमंदिर, जिनप्रतिमा, ज्ञान, साधु, साध्वी, श्रावक और श्रविकारूप (श्वेताम्बर संप्रदाय में माने हुए) सात पुण्यक्षेत्रोंकी उपासनाका वर्णन है । यद्यपि इसमें कितने ही शब्दप्रयोग गुजरातीकी ओर झुकते हुए दिखाई देते हैं पर हिन्दी के साथ सादृश्य रखनेवाले शब्दों की प्रधानता अवश्य है । नमूने के लिए कुछ अंतके पद्य देखिए:
सातै क्षेत्र इम बोलिया पुण एक कहीसिह ! कर जोडी श्रीसंघपासि अविणउ मागीसइ । कांई उ ऊणं आगउं बोलिउ उत्सूत्रु | ते बोल्या मिच्छादुक्कय श्रीसंघवदीतुं ॥ १९६ ॥
मूर (ख) तोइए कुण मात्र पुर्ण सुगुरुपसाओ ।
१ प्रभणति - कहते हैं । २ आज्ञा । ३ भक्तिश-क्तिसे । ४ सकललक्ष्मीलीला अर्थात् केवलज्ञान । ५ सात क्षेत्र इस प्रकार कह कर मैं फिर एक बात कहूँगा - हाथ जोड़कर श्रीसंघ के पास अविनय माँगूगा अर्थात् क्षमा माँगूगा कि यदि कुछ 'ऊ' न्यून 'आगउं' अधिक या 'उत्सूत्र' शास्त्रविरुद्ध कहा गया है तो श्रीसंघ में प्रसिद्ध 'मिथ्या दुष्कृत हो । ६ मैं मूर्ख हूँ इस लिए मैं कौन मात्र हूँ - क्या... चीज हूँ; परन्तु सुगुके प्रसे और त्रिभुवनस्वामी जगन्नाथ हृदय में बसते हैं इससे यह 'रास' बना सका हूँ ।
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५५६
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जैनहितैषी
अनइ ज त्रिभुवनसामि
सिजवाला धर धडहडइ वसई हियडइ जगनाहो।
वाहिणि बहुवेगि। ताण प्रमाणिइ सातक्षेत्र
धरणि धडक्का रजु उडए इम कीधउ रासो।
नवि सूझइ मागो। श्रीसंघु दुरियह अपहरउ
हय हींसह आरसइ करह सामी जिणपासो॥११७ ॥
वोग वहइ बहल्ल। संवत तेर सत्तावीसए
सादकिया थाहरइ
अवरु नवि देई बुल्ल ॥२॥ माह मसवाडइ।
निसि दीवी झलहलहि गुरुवारि आवीय दसाम
जेम ऊगिउ तारायणु। पहिलइ पखवाडइ।
पावल पारु न पामियए तहि पूरू हुउ रासु
वेगि वहई सुखासणु। सिवसुखनिहाणूं।
आगेवाणिहि संचरए । जिण चउवीसइ भवियणइ
संघपति साहु देसलु। करिसिइ कल्याणूं ॥१९८॥
बुद्धिवंतु बहु निवंतु २संघपतिसमरा-रास। अणहिल्लपुर पट्टनके
परिकमिहि सुनिश्चलु ॥३॥ आसवाल शाह समरा संघपतिने सं०१३७१
इन पद्योंकी रचना तो सोलहवीं और सत्र में शत्रुजय तीर्थका उद्धार अगणित धन व्यय , करके किया था । इस उद्धारको लक्ष्य करके
हवीं शताब्दीके राजपूतानाके चारणीय रासोंसे
• भी विशेष सरल और सहजमें समझमें आजानेनागेन्द्र गच्छके आचार्य पासड सूरिके शिष्य अंबदेवने यह रासा बनाया है। इसमें गुजराती प्रयो
वाली है। गोंके स्थानमें राजस्थानी भाषाके शब्द अधिक . २ थूलिभद्र फागु । इस नामकी एक दिखाई देते हैं इससे, इसके कर्ताका वासस्थान
सी पुस्तक खरतर गच्छके आचार्य जिनपद्मसंभवतः राजपूतानाका कोई प्रदेश होना ।
सूरिने विक्रमकी चौदहवीं शताब्दीके अन्तमें,
' चैत्र महीनेमें फाग खेलनेके लिए बनाई है। चाहिए । राजस्थानी भाषाओंका जितना सादृश्य गुजरातीके साथ है उससे कई गुना अधिक
उसका प्रारंभ इस प्रकार है:
पणमिय पास जिणंदण्य, हिन्दीसे है और यह आज भी प्रत्यक्ष है।
अनु सरसई समरोवि। पट्टनसे संघ निकाल कर समरा शाहने जब थूलभद्रमुणिवइ भणिसु, शत्रुजयकी तरफ प्रयाण किया उस समयका फागु बंध गुणकवि ॥१॥ कवि वर्णन करता है:
अह सोहग सुंदर रूबरंतु वाजिय संख असंख नादि
गुणमणिभंडारो। कंचण
जिम झलकंत कंति संजम काहल दुडुदुडिया। घोड़े चड़इ सल्लारसार
सिरि हारो ॥ थूलिभद्र राउत सींगड़िया।
मुणिराउ जाम महियली तउ देवालउ जोत्रि योग
बोहंतउ । नयरराय पाडलिय घाघरि रवु झमकह।
मांहि पहूतउ विहरंतउ ॥ सम विसम नवि गणइ
'कच्छलिरासा ' आदि और भी कई कृतिकोई नवि वारिउ थक्का॥१॥ याँ इस शताब्दीकी मिलती हैं।
१सं० १३२७ मसबाड़ (मार्गसिर ?), पहले ज्यक्षकी दशमी, गुरुवार ।
१ सरस्वति । २ स्थूलभद्र मुनिपाते। ३ नगरराज-श्रेष्ठ नगर । ५ पाटलीपुत्रमें।
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KALALITALIATIMITRATIMILAIMARATHAILABILIARD
हेन्दी-जैनसाहित्यका इतिहास । HTTTTTTTTTTTTTTTTTTuiuiltTTTTTTTE R
પપ૭
३ संस्कृतमें जैनाचार्य मेरुतुङ्गकृत प्रबन्ध पन्द्रहवीं शताब्दी। चिन्तामणि नामका एक ऐतिहासिक ग्रन्थ है,
१ गौतमरासा । पन्द्रहवीं शताब्दीका सबसे जो शास्त्री रामचन्द्र दीनानाथ दारा छपकर पहला ग्रन्थ 'गौतमरासा' मिला है । इसे संवत् प्रकाशित हो गया है। यह विक्रम संवत् १३६१ १४१२ में उदयवंत या विजयभद्र नामके श्वेतामें बनकर समाप्त हुआ है । इसके कई प्रबन्धोंमें ।
म म्बर साधुने बनाया है। पाटनमें इसकी एक प्रति यत्र तत्र कुछ दोहे दिये हुए हैं जो अपभ्रंश १५ वीं शताब्दीके उत्तरार्धकी लिखी हुई मिली भाषाके हैं और हिन्दी जैसे जान पड़ते हैं।
पड़त है । है । यह ग्रन्थ छप गया है, पर शुद्ध नहीं छपा
। ग्रंथकर्ताके समयमें वे जनश्रुतियोंमें या प्रचलित
लत इसके प्रारंभके कुछ पद्य ये हैं:-- देशभाषाके किसी जैनग्रन्थमें प्रसिद्ध होंगे, इस कारण उन्हें चौदहवीं शताब्दीके या उससे
वीर जिणेसरचरणकमल
कमलाकयवासो, पहलेके कह सकते हैं।
पणमवि पभणिसु सामि जा मति पाछइ संपजइ,
साल गोयमगुरुरासो। सा मति पहिली होइ।
मणु तणु चरणु एकंतु मुंजु भणइ मुणालवइ,
करवि निसुणउ भो भविया, विधन न बेढ़इ कोइ॥ (पृष्ठ ६२) जिम निवसइ तुम्ह देहि जइ यह रावणु जाइयो,
गेहि गुणगण गहगहिया ॥१॥ दह मुहु इक्कु सरीरु।
जंबुदीवि सिरिंभरहखित्ति जननि वियंभी चिन्तवइ,
खोणीतलमंडणु, कवनु पियाइए खीरु ॥ (पृष्ठ ७०)
मगधदेस सेणिय नरेस कसु करु पुत्र कलत्र धी,
रिउ-दलबल खंडणु। कसु करु करसण बाड़ि।
धणवर गुव्वर नाम गामु आइवु जाइवु एकला
जहि गुणगणसज्जी, हत्थ...विवि झाड़ि॥ ( पृष्ठ १२१) विप्पु वसे वसुभूइ मुंजु भणइ मुणालवइ.
तत्थ जसु पुहवी भज्जा ॥२॥ जुर्वण्णु गयउ न झुरि।
ताण पुत्तु सिरि इंदर्भूइ जइ सक्कर सयखंड थिय,
भूवलयपसिद्धउ, तोइ स मीठी चूरि॥ (पृष्ठ ५९) चउदहविज्जों विविहरूप
नारी-रस विद्धउ। ___ इन पद्योंमें यद्यपि अपभ्रंश शब्द अधिक हैं,
विनय विवेकि विचार सार तो भी इनके समझनेमें पृथ्वीराज रासोकी अपेक्षा
गुणगणह मनोहरु, अधिक कठिनाई नहीं पड़ती । इसलिए इनकी भाषाको प्राचीन हिन्दी कहनेमें हमें कोई संकोच १ कमलाकृतवासः-जिनमें लक्ष्मीका निवास है। नहीं होता।
२ स्वामि । ३ गोतम । ४ सुनो। ५ जम्बूद्वीप ।
६ श्रीभरतक्षेत्र। ७ क्षोणीतलमंडन । ८ श्रेणिक । १ मृणालवती। २ विजूंभित होकर-घबड़ाकर। ९ रिपु । १० सजी हुई। ११ विप्र । १२ वसुभूति । ३ क्षीर-दूध । ४ कृश कर। ५ दोनों । ६ यौवन । १३ पृथ्वी नामकी भार्या। १४ इन्द्रभूति।१५विद्या
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SamamamamamOLICADAILE
जैनहितैषीAmmunimittamil
सात हाथ सुप्रमाण देह
कोहु मानु माया ( मद) मोहु, रूपिहिं रंभावरु॥३॥
जर झपे पारयउ संदेहु ॥५॥ नेयणवयण करचराण
दान न दिन्नउ मुनिवर जोगु, जिण वि पंकजजलि पाडिय, ना तप तपिउ न भोगेउ भोगु । तेजिहि ताराचंद सूर
सावय घरहि लियउ अवतारु, आकासि भमाडिय।
अनुदिनु मनि चिंतहु नवकारु ॥ ६॥ रुविहि मयणु अनंग
इस ग्रन्थकी प्राचीन हिन्दी और भी अधिक करवि मेल्हिउ निहाडिय,
स्पष्ट हैं । यह मुजरातीकी अपेक्षा हिन्दीकी ओर धीरिम मेरु गंभीर सिंधु चंगिम चय चाडिय॥४॥ बहुत अधिक झुकती हुई है । २ ज्ञानपंचमी चउपई । मगधदेशमें वि- ३ धर्मदत्तचरित्र-इम ग्रन्थका उल्लेख हार करते समय जिनउदयगुरुके शिष्य और मिश्रबन्धुओंने अपने इतिहासमें किया है । इसे ठक्कर माल्हेके पुत्र विद्धणूने संवत १४२ ३ में संवत् १४८६ में दयासागरसूरिने बनाया था। इसकी रचना की है । उदाहरणः--
सोलहवीं शताब्दी। जिणवर सासाण आछइ सारु, जासुन लभइ अंत अपारु ।
१ ललितांगचरित्र; इसे शान्ति सूरिके पढ़हु गुणहु पूजहु निसुनेहु,
शिष्य ईश्वर सूरिने मण्डपदुर्ग ( मडलगढ़ ) के सियपंचमिफलु कहियउ एहु ॥१॥ बादशाह ग्यासुद्दीनके पुत्र नासिनहीन के समय सियपंचाम फलु जाणइ लोइ, (वि० सं० १५५५-१५६९) में, मलिक माफजो नर करइ सो दुहिउ न होइ। रके पट्टधर सोनाराय जीबनके पुत्र पुंज मंत्रीकी संजम मन धरि जो नरु करइ, प्रार्थनासे सं० १५६१ में बनाया है । इसकी सो नरु निश्चइ दुत्तर तरइ॥२॥
रचना बड़ी सुन्दर है । प्राकृत और अपभ्रंशका ओंकार जिणइ (?) चउवीस, सारद सामिनि करउ जगीस।
मिश्रण बहुत है । कवि स्वयं अपने काव्यकी वाहग हंस चडी कर वीण,
प्रशंसा आर्या छन्दमें इस प्रकार करता है:सो जिण सासणि अच्छइ लीण ॥३॥ सालंकारसमत्थं अठदल कमल ऊपनी नारि,
सच्छंदं सरससुगुणसंजुत्तं । जेण पयासिय वेदइ चारि।
ललियंगकुमरचरियं ससिहर बिंबु अमियरसु फुरइ,
ललणालियब्ब निसुणेह ।। नमस्कार तसु 'विद्धणु' करइ॥४
अब थोड़ेसे पद्य और देखिए:चिंतासायर जवि नरु परइ, घर धंधल सयलइ वीसरइ ।
महिमहति मालवदेस,
धण कणयलच्छि निवेस । १ अपने नेत्रों, वचनों, हाथों और चर
तिहं नयर मंडवदुग्म, गोंकी शोभासे पराजित करके जिसने पंकजोंको
अहिनवउ जाण कि संग्ग ॥६७॥ जलमें पठा दिये । २ तेजसे चन्द्रसूर्यको आकाशमें
तिहं अतुलबल गुणवंत, भमाया । ३ रूपसे मदनको अनंग ( विनः अंगका) बनाके निर्धारित कर दिया या निकाल दिया।
श्रीग्याससुत जयवंत। ४ श्रुतपंचमी । ५ दुखी । ६ दुस्तर ।
१ कनक-सुवर्ण । २ अभिनव । ३ स्वर्ग ।
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BIMALAMROMITALIRILD REE हिन्दी-जैनसाहत्यका इतिहास।
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५५९
समरस्थ साहसधीर,
वह हिन्दी है । कविको श्वेताम्बर सम्प्रदायकी श्रीपातसाह निसीर ॥६८॥ प्रधान भाषा गुजरातीका परिचय आधिक रहा तसु जि सकल प्रधान, है, ऐसा जान पड़ता है। गुरु रुवरयण निधान। हिंदुआ राय वजीर,
४ यशोधर चरित्र । लाहौरके बाबू ज्ञानश्रीपुंज मयणह वीर ॥६९॥
चन्दजीने अपनी सूचीमें फफोंदू ग्रामनिवासी
गौरवदास नामके जैनविद्वान्के बनाये हुए इस सिरिमाल-वंशवयंस, मानिनीमानसहंस।
ग्रन्थका उल्लेख किया है और इसके बननेका सोनाराय जीवनपुत्त,
समय १५८१ बतलाया है। जयपुरके बाबा बहुपुत्त परिवर जुत्त ॥ ७० ॥ दुलीचन्दजीके सरस्वतीसदनमें इसकी एक प्रति श्रीमलिक माफर पट्टि,
मौजूद है। बाबाजीने अपनी जैनशास्त्रमालामें हयगय सुहड बहु चट्टि।
इसे लिखा है श्रीपुंज पुंज नरिंद,
४ कृपणचरित्र : यह छोटासा पर बहुत बहु कवित केलि सुछंद ॥७१॥ नवरस विलासउ लोल,
ही सुन्दर और प्रसादगुणसम्पन्न काव्य बम्बई नवगाहगेयकलोल।
दिगम्बर जैनमन्दिरके सरस्वतीभण्डारमें एक निज बुद्धि बहुअ विनाणि,
गुटकेमें लिखा हुआ मौजूद है । इसमें कविने गुरु धम्मफल बहु जाणि ॥७२॥ एक कंजूस धनीका अपनी आँखों देखा हुआ इयपुण्यचरिय प्रबंध,
चरित्र ३५ छप्पय छन्दोंमें किया है । घेल्हके ललिअंग नृपसंबंध।
बेटे ठकुरसी नामके कवि इसके रचयिता हैं। पहुं पास चरियह चित्त,
वे १६ वीं शताब्दीके कवि हैं । पन्द्रहसौ उद्धरिय एह चरित्त ॥७३॥
अस्सीमें उन्होंने इसकी रचना की है, जैसा कि वे २सार-सिखामन रासा।यह ग्रन्थ इन्दौ- अन्तके छप्पयमें कहते हैं:रके श्रीमान यति माणिकचन्दजीके भण्डारमें है;
इसौ जाणि सहु कोई, और उक्त यति महोदयकी कृपासे हमें
मरम मूरिख धन संच्यो। प्राप्त हुआ था । बड़ तपगच्छके जयसुन्दर दान पुण्य उपगारि, सूरिके शिष्य संवेगसुन्दर उपाध्यायने संवत् दित धणु किवै ण खंच्यौ। १५४८ में इसकी रचना की है । कोई मैं पंदरा सौ असइ, २५० पद्योंमें यह समाप्त हुआ है । रचना पोष पांचै जाग जाण्यौ। साधारण है । रातको न खाना, छना हुआ पानी
जिसौ कृपणु इक दीठु, पीना, जीवधात नहीं करना, अमुक अमुक
तिसौ गुणु तासु बखाण्यौ। अभक्ष्य पदार्थ नहीं खाना आदि बातोंकी शिक्षा
कवि कहइ ठकुरसी घेल्हतणु,
मैं परमत्थु विचारियो। (सिखापन ) इसमें दी गई है । भाषामें गुज
खरचियो त्याहं जीत्यौ जनमु तीकी झलक है-कहीं कहीं अधिक है-तो भी जिह सांच्यौ तिह हारियो।
१ राज्यमें। २ हिन्दू । ३ मंत्री । ४ श्रीमालवंशके कवि अपनी कथाका प्रारंभ इस प्रकार अवतंस-मुकुट । ५ विज्ञानी । ६ प्रभु । ७ पार्श्व। करता है:
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CARBOARATHAADITIOLATALABULL
जनहितैषी
कृपणु एकु परसिद्ध,
कृपणु कहै रे मीत, नयरि निवसंतु निलक्खणु ।
मज्झु घरि नारि सतावै। कही करम संजोग
जात चालि धणु खरचि, तासु घरि, नारि विचक्खण ॥
कहै जो मोहि न भावै ॥ देखि दुहूकी जोड़,
तिहि कारण दुब्बलौ, सयलु जग हिउ तमासै।
रयण दिन भूख न लागै। याहि पुरिषकै याहि,
मीत मरणु आइयौ, दई किम दे इम भासै ॥
गुज्झु आँखौ तू आगै ॥ वह रह्यौ रीति चाहै भली, दाण पुज्ज गुण सील सति।
ता कृपण कहै रे कृपण सुणि, यह दे न खाण खरचण किवै,
___ मीत न कर मनमाहि दुखु । दुवै करहिदीण कलह अति ।
पीहरि पठाइ दै पापिणी, ... गुरसौं गोठि न करै,
ज्यों को दिण तूं होइ सुखु ॥२१॥ देव देहुरौ न देखे ।
स्थानाभावसे अब हम और पद्य उद्धृत नहीं मांगिण भूलि न देइ,
कर सकते। आखिर सेठजी घर आये और एक गालि सुणि रहै अलेखै ॥ झूठी चिट्ठी घरवालीके सामने पढ़कर बोले कि सगी भतीजी भुवा बहिणि,
तुम्हारे बड़े भाईके पुत्र उत्पन्न हुआ है, इसलिए भाणिजी न ज्यावै॥
उन्होंने तुम्हें बुलानेके लिए यह चिठी देकर आदमी रहै रूसणी माड़ि, आप न्यौतौ जब आवै॥
भेजा है। तुम्हें पीहर चली जाना चाहिए । पाहुणौ सगौ आयौ सुणै, बेचारीको जाना पड़ा । इसके बाद यात्रियों का रहइ छिपिउ मुहु राखि करि। संघ चला गया। जब कुछ समयके बाद वह जिव जाय तवहि पाण नीसरइ, सकुशल लौट आया और उसमें सेठने देखा कि इम धन संच्यौ कृपण नर ॥
कई लोग मालामाल होकर आगये हैं तत उमे एक दिन कृपणका स्त्रान कहा कि गिरनार- बडा दुःख हआ कि मैं धयों न गया। मैं जाता जीकी यात्राके लिए बहुतसे लोग जा रहे हैं, तो खूब किफायतशारीसे रहता और इनसे भी यदि आप भी मुझे लेकर यात्रा करा लावें, तो अधिक धन कमा लाता । इस दुःखसे वह रात अपना धन पाना सफल हो जाय । इस पर सेठ दिन दुःखी रहने लगा और धीरे धीरे जी बड़े खफा हुए । दोनोंमें बहुत देर तक विवाद होता रहा। सेठान ने धनकी सफलता दान
मरणशय्यापर पड़ गया । लोगोंने बहुत भोग आदिसे बतलाई और सेठने उसका विरोध
समझाया कि अब तू कुछ दानधर्म कर ले, पर किया । अन्तमें सेठजी तंग आकर घरसे चल उसने किसीकी न सुनी । वह बोला, मैं सारे दिये । मार्गमें उनका एक पराना मित्र धनको साथ ले जाऊँगा । उसने लक्ष्मीसे मिला, वह भी कंजूस था । उसने पूछा, आज प्रार्थना कि मैंने तुम्हारी जीवनभर एकनिष्ठतासे तुम उन्मना और दुर्बल क्यों हो रहे हो ? सेठजी सेवा की है, अब तुम मेरे साथ चलो । लक्ष्मीने उत्तर देते हैं:
कहा, कि मेरे साथ ले चलनेके जो कई दानादि १ गोष्टी बातचीत।
१ यात्रा । २ गुह्य-गुप्त वात । ३ कह दिया ।
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उपाय थे उन्हें तूने किये नहीं, इसलिए मैं तेरे साथ नहीं जा सकती । कृपण मर गया और नरक में तरह तरहके दुःख भोगने लगा । इधर उसके मरनेसे लोग बहुत खुश हुए और कुटुम्बी आदि आनन्दसे धनका उपभोग करने लगे । यही इस चरित्रका सार है । कविने कथा अच्छी चुनी है । रचना उसकी एक आँखों देखी घटना पर की गई है, इस कारण उसमें प्राण हैं | मालूम नहीं, इस कविकी और भी कोई रचना है या नहीं |
हिन्दी - जैन साहित्यका इतिहास ।
५ रामसीताचरित्र । इस ग्रन्थका उल्लेख मिश्रबन्धुओंने अपने हिन्दी के इतिहासमें किया है । इसे बालचन्द जैनने विक्रम संवत् १५७८ में बनाया है ।
सत्रहवीं शताब्दी |
इस शताब्दी के बने हुए जैनग्रंथ बहुत मिलते हैं । इसमें हिन्दीकी खासी उन्नति हुई है। हिन्दी के अमर कवि तुलसीदासजी इसी शता में हुए है।
१ बनारसीदास । इस शताब्दीके जैनकवि और लेखकों में हम कविवर बनारसीदासजीको सर्व श्रेष्ठ समझते हैं । यही क्यों, हमारा तो खयाल है कि जैनोंमें इनसे अच्छा कवि कोई हुआ ही नहीं । ये आगरके रहनेवाले श्रीमाल वैश्य थे । इनका जन्म माघ सुदी ११ सं० १६४३ को जौनपुर नगरमें हुआ था । इनके पिताका नाम खरगसेन था । ये बड़े ही प्रतिभाशाली कवि थे । अपने समयके ये सुधारक थे। पहले श्वेताम्बर सम्प्रदायके अनुयायी थे, पीछे दिगम्बरसम्प्रदायमुक्त हो गये थे; परन्तु जान पड़ता है, इनके विचारोंसे साधारण लोगोंके विचारोंका मेल नहीं खाता था । ये अध्यात्मी या वेदान्ती थे । क्रियाकाण्डको बहुत महत्त्व नहीं देते थे । इसी कारण बहुत से लोग इनके विरुद्ध हो गये
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थे । यहाँ तक कि उस समय के मेघविजय उपाध्याय नामके एक श्वेताम्बर साधुने उनके विरुद्ध एक युक्तिबोध ' नामका प्राकृत नाटक ( स्वोपज्ञ संस्कृतटीकासहित ) ही लिख डाला था, जो उपलब्ध है । उससे मालूम होता है कि इनको और इनके अनुयायियों को उस समय के बहुत से लोग एक जुदा ही पन्थके समझने लगे थे ।
बनारसीदासजी के बनाये हुए चार ग्रन्थ - १ बनारसीविलास, २ नाटक समयसार, ३ अर्द्ध कथानक और ४ नाममाला ( कोष ) प्रसिद्ध हैं । इनमें से पहले तीन उपलब्ध हैं। दो छप चुके हैं और तीसरेका आशय पहले के साथ प्रकाशित हो चुका है । बनारसीविलास कोई स्वतंत्र ग्रन्थ नहीं है, किन्तु उनकी कोई ६० छोटी बड़ी कविता - ओंका संग्रह है । यह संग्रह जगजीवन नामके एक आगरे के कविने संवत् १७०१ में किया था । सूक्तमुक्तावली, समयसार कलशा, और कल्याणमन्दिर स्तोत्र नामकी तीन कविताओंको छोड़कर इस संग्रहकी सब रचनायें स्वतंत्र हैं, और एकसे एक बढ़कर हैं । अध्यात्मके प्रेमी उनमें तन्मय हो जाते हैं । समयाभाव के कारण हम दो चार दोहे सुनाकर ही संतोष करेंगे:
एक रूप हिन्दू तुरुक, दूजी दशा न कोइ । मनकी दुविधा मानकर, भये एकसों दोइ ॥ ७ ॥ दोऊ भूले भरम में,
करें वचनकी टेक |
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'राम राम' हिन्दू कहें, तुरुक 'सलामालेक' ॥ ८ ॥ इन पुस्तक वांचिए, वेहू पढ़ें किते । एक वस्तु के नाम द्वय, जैसे 'शोभा' ' जेब ' ॥ ९ ॥
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तिनकौं दुविधा - जे लखें, रंग विरंगी चाम । मेरे नैनन देखिए,
जैनहितैषी -
घट घट अन्तर राम ॥ १० ॥ गुप्त यह है
यह बाहर यह माहिं ।
जब लग यह कछु है रहा, तब लग यह कछु नाहिं ॥ ११ ॥ दूसरा ग्रन्थ नाटक समयसार है । प्राकृत भाषामें भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यका बनाया हुआ समयसार नामका एक ग्रन्थ है और उस पर अमृतचन्द्राचार्य कृत संस्कृत व्याख्यान है। नाटक समयसार इन्हीं दोनों ग्रन्थोंको आधार मानकर लिखा गया है। मूल और व्याख्यानकं मर्मको समझ कर उसे इन्होंने अपने रंग में रंगकर अपने शब्दोंमें अपने ढंगसे लिखा है । बड़ा ही अपूर्व ग्रन्थ है । इसका प्रचार भी खूब हैं। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंमें इसका खूब आदर है । इस पर कई टीकायें भी बन चुकी हैं और उनमें से दो छप भी गई हैं । जो सज्जन वेदान्त के प्रेमी हैं, उनसे हमारा अनुरोध है कि वे इस ग्रन्थको अवश्य ही पढ़ें । जैनधर्मके सिद्धान्तोंका जिन्हें परिचय है, वे इसे पढ़कर अवश्य प्रसन्न होंगे। इसका केवल एक ही सीधा साधा पद्य सुनाकर मैं आगे बढ़गा:भैया जगवासी, तू उदासी हैकै जगतसौं, एक छै महीना उपदेस मेरो मानु रे । और संकलप विकलपके विकार तजि, बौठके एकंत मन एक ठौर आनु रे ॥ तेरौ घट सर तामैं तू ही है कमल वाकौ, तू ही मधुकर है सुवास पहिचानु रे । प्रापति न है है कछू ऐसें तू विचारतु है, सही है है प्रापति सरूप यौंही जानु रे ॥
भाषा की दृष्टिसे भी इसकी रचना उच्चश्रेणीकी | भाषापरकविको पूरा अधिकार हैं।
श
ब्दों को तोड़े-मरोड़े बिना उन्होंने उनका प्रयोग किया है । छन्दोभंगादि दोषोंका उनके ग्रन्थमें अभाव है।
तीसरा ग्रन्थ अर्धकथानक है । यह ग्रन्थ उन्हें जैनसाहित्यके ही नहीं, सारे हिन्दी साहित्यके बहुत ही ऊँचे स्थानपर आरूढ़ कर देता है । एक दृष्टि से तो वे हिन्दी के बेजोड़ कवि सिद्ध होते हैं । इस ग्रन्थ में वे अपना ५५ वर्षका आत्मचरित लिखकर हिन्दी साहित्य में एक अपूर्व कार्य कर गये हैं और बतला गये हैं कि भारतवासी आजसे तीन सौ वर्ष पहले भी इतिहास और जीवनचरितका महत्त्व समझते थे और उनका लिखना भी जानते थे । हिन्दी में ही क्यों, हमारी समझमें शायद सारे भारतीय साहित्य में ( मुसलमान बादशाहों के आत्मचरितोंको छोड़कर ) यही एक आत्मचरित है, जो आधुनिक समयके आत्मचरितोंकी पद्धति पर लिखा गया है । हिन्दी भाषाभाषियों को इस ग्रन्थका अभिमान होना चाहिए।
अर्धकथानक छोटासा ग्रन्थ है । सब मिलाकर इसमें ६७३ दोहा-चौपाइयाँ हैं । इसमें कविने अपना विक्रम संवत् १६९८ तक का ५५ वर्षका जीवनचरित लिखा है । ग्रन्थके अन्त में कविने लिखा है कि आजकलकी उत्कृष्ट आयुके हिसाब से ५५ वर्षकी आयु आधी है। इस लिए इस ५५ वर्षके चरितका नाम 'अर्धकथानक' हुआ है । यदि जीता रहा और बन सका, तो मैं शेष आयुका चरित और भी लिख जाऊँगा ! मालूम नहीं कविवर आगे कब तक जीते रहे और उन्होंने आगेका चरित लिखा या नहीं । जयपुर के बाबा दुलीचन्दजीने अपनी सूची में बनारसी पद्धति नामका ५०० श्लोकपरिमित एक और ग्रन्थका उल्लेख किया है । आश्चर्य नहीं, जो उसीमें उनकी शेषजीवनकी कथा सुरक्षित हो ।
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हिन्दी - जैनसाहित्यका इतिहास ।
अर्धकथानक में कविवरने अपने जीवनकी तमाम छोटी मोटी दुखसुखकी बातोंका बहुत ही अच्छे ढंगसे वर्णन किया है जिनका पढ़नेवालों पर गहरा प्रभाव पड़ता है । उन्होंने अपने तमाम बुरे और भले कर्मोंका - गुणों और अवगुणोंका- इसमें चित्र खींचा है । वे जहाँ अपने गुणों का वर्णन करते हैं वहाँ दुर्गुणों का भी करते हैं । दुर्गुण भी ऐसे वैसे नहीं, जिन्हें साधारण लोग स्वममें भी नहीं कह सकते हैं, उन्हें उन्होंने लिखा है । इससे उनकी महानुभावता प्रकट होती है - यह मालूम होता है कि उनका आत्मा कितना बहुत ही और संसार के मानापमान से परे आकाशमें विहार करनेवाला था । अपनी जीवनकथासे सम्बन्ध रखनेवाली उस समयकी उन्होंने ऐसी अनेक बातों का वर्णन किया है जो बहुत ही मनोरंजक और कुतूहलवर्द्धक हैं | मुगल बादशाहों के राज्य में वणिक महाजनों को जो कष्ट होते थे, साधारण प्रजा जो कष्ट पाती थी, अधिकारी लोग जो अत्याचार करते थे, उनका वर्णन भी इसमें जगह जगह पर पाया जाता है । विक्रम संवत् १६७३ में आगरेमें प्लेग रोगका प्रकोप हुआ था, इस घटनाका भी कविने उल्लेख किया है:
इस ही समय इति विस्तरी, परी आगरे पहिली मरी । जहाँ तहाँ सब भागे लोग, परगट भया गांठका रोग ॥ ५७४ निक गांठ मरै छिन माहिं, काहूकी बसाय कछु नाहिं । चूहे मरें वैद्य मर जाहिं, भयसौं लोग अन्न नहिं खाहिं ॥ ७५ बनारसीदासजी पर एक बार बड़ी विपत्ति आई थी । उनके पास एक पाई भी खर्च कर
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नेके लिए नहीं थी । सात महीने तक वे एक कचौरीवालेकी दूकानसे दोनों वक्त पूरी कचौरी उधार लेकर खाते रहे । जब हिसाब किया, तो उसका दाम कुल १४ रुपया हुआ ! अर्थात् उस समय आगरे जैसे शहरमें दो रुपये महीने में आदमी दोनों वक्त बाजारकी पूरी कचौरी खा सकता था । इससे उस समय के ' सुकाल ' का पता लगता है । जिस समय बादशाह अकबरके मरनेका समाचार जौनपुर पहुँचा, उस समय वहाँके निवासियोंकी दशाका वर्णन कविने इस प्रकार किया है:
इसी बीच नगर मैं सोर, भयौ उदंगल चारिहु ओर । घर घर दर दर दिये कपाट, टवानी नहिं बैठे हाट ॥ ५२ ॥ भले वस्त्र अरु भूषन भले, ते सब गाड़े धरती तले । हंडवाई ( ? ) गाड़ी कहूं और, नगद माल निरभरमी ठौर ॥ ५३ ॥ घर घर सबनि बिसाहे सत्र, लोगन्ह पहिरे मोटे वस्त्र । ठाढ़ी कंबल अथवा खेस, नारिन पहिरे मोटे वेस ॥५४ ॥ ऊँच नीच कोऊ न पहिचान, धनी दरिद्री भये समान । चोरी धारि दिसे कहुं नाहिं, यही अपभय लोग डराहिं ॥ ५५
इससे श्रोतागण उस समय के राजशासनकी परिस्थितियोंका बहुत कुछ अनुमान कर सकेंगे ।
समय न रहने के कारण मैं इस ग्रन्थका और अधिक परिचय नहीं दे सकता । जो महाशय अधिक जानना चाहते हों, वे मेरे द्वारा सम्पादित बनारसीविलास के प्रारंभ में इस ग्रन्थका विवरण पढ़नेका कष्ट उठावें ।
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KAMARITAIMERALIAMLILABALIBAGALLAHRA
जैनहितैषी। TUmminiminimum
यद्यपि इस ग्रन्थकी रचना नाटकसमयसार चौथा ग्रन्थ नाममाला हिन्दीका दोहाबद्ध जैसी नहीं है, तो भी विषयके लिहाजसे वह कोश है । इसे हमने अभीतक देखा नहीं है, खासी है। कहीं कहींका वर्णन बड़ा ही स्वाभा- पर खोजनेसे यह मिल सकता है । कविवरका विक और हृदयस्पर्शी है । अपने भाई धन- एक और ग्रंथ शृंगाररसकी रचनाओंका संग्रह मलकी मृत्युका शोक कविने इस प्रकार वर्णन था जिसे उन्होंने स्वयं जमुनामें बहा दिया था। किया है:
उन्हें इस विषयसे घृणा होगई थी और घनमल घनदर
यही कारण था जो उन्होंने उसका अस्तित्व ही काल-पवन-संजोग ।
न रहने दिया। मात पिता तरुवर तए,
२ कल्याणदेव । ये श्वेताम्बर साधु जिनचन्द्र लहि आतप सुत-सोग ॥ १९ जब कविवर एक बड़ी बीमारीसे मुक्त होकर.
सूरिके शिष्य थे। इनके बनाये हुए देवराज बच्छ
राज चउपई' नामक एक ग्रन्थकी हातलिखित ससुरालसे घर आये तब
प्रति हमें श्रीमान यति माणिक चन्द्रजीकी कृपासे आय पिताके पद गहे,
प्राप्त हुई है । संवत् १६४३ में यह ग्रन्थ विक्रम मा रोई उर ठोकि। जैसे चिरी कुरीजकी,
नामक नगरमें रचा गया है। इसमें एक राजाके त्यों सुत दशा विलोकि ॥१९४॥ पुत्र बच्छराज और देवराजकी कहानी है। एक बार परदेशमें कवि अपने साथियोंके बच्छराज बड़ा था, परन्तु मर्य था, इस कारण सहित कहीं ठहरे कि इतने में मसलधार पानी राज्य देवराजको मिला। ऋच्छराज्य घरसे निकल बरसने लगा। तब भागकर सरायमें गये, पर गया, पीछे अनेक कष्ट सहकर और अपनी वहाँ जगह न मिली. कोई उमराव ठहरे हुए थे. उन्नति करके आया। भाईने बहुत सी परीक्षाबाजार में खड़े होनेको जगह न थी, सबके कि- ये लीं । अन्तमें बच्छराज उत्तिर्ण हुआ और बाड़ बन्द थे। उस समयका चित्र कविवर इस
स आधे राज्यका स्वामी हो गया। रचना साधारण
आ तरह खींचते हैं:
है। भाषामें गुजरातीका मिश्रण है और यह बात फिरत फिरत फावा भये,
श्वेताम्बर सम्प्रदायके हिन्दी साहित्यमें अक्सर बैठन कहै न कोई।
पाई जाती है । नमूनातलै कीचसौं पग भरें,
जिणावर चरणकमल नमी, ऊपर वरसत तोइ ॥ ९४॥
सुह गुरुहीय धरेसि । अंधकार रजनी विय,
समरयां सवि सुख संपजइ, हिमरितु अगहन मास ।
भाजइ सयल कलेसि ॥१ नारि एक बैठन कह्यौ,
बुद्धइ घणसुख पाइए, पुरुष उठ्यो लै बाँस ॥९५॥
बुद्धलाहिए राज। बनारसीदास अपने दूसरे पुत्रकी मृत्युका बुद्धइ आति गरुअउपणउ, उल्लेख इन शब्दों में करते हैं -
बुद्धि सरइ सवि काज ॥३ बानारसिके दूसरो, भयौ और सुत-कीर। विद्याधर कुल ऊपनी, दिवस कैकुमैं उड़ि गयौ,ताजे पांजरासरीर॥ सुरवेगा अभिधान।
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हिन्दी - जैनसाहित्यका इतिहास ।
राजानी अति मानिता, वनितामाहिं प्रधान ॥ ७६ ॥ संवत सोल त्रयाला वरसिइ, एह प्रबन्ध कियउ मन हरसिहि । विक्रम नयरइ रिषभ जिणेसा, जसु समरण सबि टलइ किलेसा ॥८४॥
३ मालदेव । ये बड़गच्छीय भावदेवसूरिके शिष्य थे । साधारणतः ये 'माल' के नाम से प्रसिद्ध हैं। अपने ग्रंथों में भी ये 'माल कहइ' या 'माल भणइ' इस तरह अपना उल्लेख करते हैं । इनके बनाये हुए दो ग्रन्थ उपलब्ध हैं, एक 'भोज - प्रबन्ध' और दूसरा 'पुरन्दर कुमरच उपई ' । ‘पुरन्दरकुमरचउपई' विक्रम संवत् १६५२ का बना हुआ है।यह ग्रन्थ श्रीयुत मुनि जिनविजयजीके पास । इसके विषय में आप अपने पत्र में लिखते हैं कि "यह पुरन्दर कुमर चउपई ग्रन्थ हिन्दीमें है ( गुजरातीमें नहीं ) । इसे मैंने आज ही ठीक ठीक देखा है। रचना अच्छी और ललित है। जान पड़ता है 'माल' एक प्रसिद्ध कवि हो गया है। गुजराती प्रसिद्ध कवि ऋषभदासने अपने 'कुमारपाल रास' में जिन प्राचीन कवियोंका स्मरण किया है, उनमें मालका नाम भी . है । वह 'माल' और कोई नहीं किन्तु 'भोजप्रबन्ध' और 'पुरंदर चउपई ' का कर्त्ता ही होना चाहिए। ' पुरंदर चउपई' का आदि और अन्तिमभाग यह है :
आदि:
वरदाईश्रुत देवता, गुरु प्रसादि आधार । 'कुमर - पुरंदर' गाइस्यूं, सीलवंत सुविचार ॥ नरनारी जे रसिक ते, सुणिहु सब चितु लाइ । ठूंठ न कब हि घुमाइयहिं, विना सरस तरु नाइ ॥
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सरस कथा जइ होई तौ, सुणइ सविहि मन लाइ । जिहाँ सुवास होवहि कुसुम, सरस मधुप तिहाँ जाइ ॥ अंतः- भावदेवसूरि गुणनिलउ, बडगछ- कमल - दिणंद । तासु सुसीस शिष्य ( ? ) कहइ, मालदेव आनंद ॥”
ये लोग सिन्ध और पंजाबके मध्यमें रहा करते थे। ऐसा सुना गया है कि भावदेवसूरि के उपाश्रय अब भी बीकानेर राज्य के 'भटनेर' और ' हनुमानगढ़ ' नामक स्थानों में हैं । "
दूसरा ग्रन्थ 'भोजप्रबन्ध' उक्त मुनि महोदय मेरे पास भेज देने की कृपा की है । इसकी प्रतिमें शुरू के दो पत्र, अन्तका एक पत्र और बीच के २० से २४ तकके पृष्ठ नहीं हैं । पद्यसंख्या १८०० है । इसमें तीन सम्बन्ध या अध्याय हैं। पहलेमें भोजके पूर्वजोंका, भोजके जन्मका और वररुचि धनपालादि पण्डितोंकी उत्पत्तिका वर्णन है, दूसरे में परकायाप्रवेश, विद्याभ्यास, देवराजपुत्रजन्म, और मदनमंजरीका विवाह तथा तीसरे में देवराज बच्छराज विदेशगमन और भानुमतीके समागमका वर्णन है । यद्यपि यह प्रबन्धचिन्तामणि तथा बल्लाल के भोजप्रबन्ध आदि आधारसे बनाया गया है; तथापि इसकी रचना स्वतंत्र है । 'कविरनुहरतिच्छायां' के अनुसार उक्त थकी छाया ही ली गई है । भाषा प्रौढ है; परन्तु उसमें गुजरातीकी झलक है और अपभ्रंश शब्दोंकी अधिकता है । वह ऐसी साफ नहीं है जैसी उस समय के बनारसीदासजी आदि कवियोंकी है । कारण, कवि और राजगुजरात पूतानेकी बोलियों से अधिक परिचित था । वह प्रतिभाशाली जान पड़ता है । कोई कोई पय बड़े ही चुभते हुए हैं:
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भलउ हुअउ जइ नीसरी, अंगुलि सप्पिं-मुहाहु | ओछे सेती प्रीतड़ी, जदि तु तदि लाहु ॥ ९१ ॥ सिन्धुल लौटकर जब राजा-मुंजके समीप आया, तब मुंज कपटकी हँसी हँसकर उसके गलेसे लिपट गया । इसको लक्ष्य करके कवि कहता है:
-
धूरत राजा मुंज पणि
मिल्लउ उठि गलि लागि । को जाणइ घन दामिनी, जल महिं आई आणि ॥ १२० ॥ घणु वरसइ सीयल सलिल, सोई मिलि हइ विज्जु । रुहँ तूसइँ जीवयइ, रूठइँ विणसर कज्ज ॥ १२१ ॥
तैलिपदेवकी लड़ाई में हार कर राजा मुंज भागा और एक गाँव में आया, उस समयका कविने बड़ा ही सजीव वर्णन किया है: --
वनतें वन छिपत फिरउ, गव्हर वनहँ निकुंज । भूखउ भोजन माँगिवा, गोवलि आयउ मुंज ॥ २४७ ॥ गोकुल काई ग्वारिनी,
ऊँची बइठी खाटि ।
जैनहितैषी
सात पुत्र सातइ बहू,
दही बिलोवहिं माँटि ॥ ४८ ॥ काहिं दूध कहुं केइ मिलि, माखणु काहिं केइ । as पधारहि घीउ तह, जिसु भावइतिसु देइ ॥ ४९ ॥
गाइ वाछरू कट्टरू, महिषी अंगण देखि ।
खाज पीजइ विलसियइ, गरव करइ सुविसेखि ॥ ५० ॥
१ सर्पके मुँह से । २ है । ३ मिट्टी के वर्तनमें ।
जिस समय मृणालवती के विश्वासघात करने से फिर मुंज पकड़ा गया और बड़ी दुर्दशा के साथ नगर में घुमाया गया, उस समय मुंजके मुँह से कविने कई बड़े मार्मिक दोहे कहलवाये हैं:खंडित घृतबिंदू मिसेंइँ,
रे मडका मत रोइ । नारी कउण न खंडिया, मुंज इलापति जोइ ॥ ७ ॥ मिसिन अन्न तूं वाफ के, अर्गानि आंचि मत रोइ । अगिनि विना हेउँ दासियइँ, भसम कियउ किन जोइ ॥ ११ ॥ सालि मुसलि तूं ताडियउ, तुस कपडा लिय छीनि । दासि कटाच्छहिं मारियउ, कीय हउँ सवहीन ॥ १२ ॥ इस ग्रन्थकी यह बात नोट करने लायक हैं। कि इसमें हिन्दीके दोहोंको ' प्राकृतभाषा दोहा ' लिखा है । मालूम होता है उस समय हिन्दी उसी तरह प्राकृत कहलाती होगी जिस तरह बम्बईकी ओर इस समय मराठी प्राकृत कहलाती है ।
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इस ग्रन्थ में बहुतसे इलोक ' उक्तं च ' कहकर लिखे गये हैं, जिनमें बहुतों की भाषा अपभ्रंशसे बहुत कुछ मिलती हुई है । यथा:
दुज्जण जण बंबूलवण, जर सिंचइ अमिरण । तो सु कांटा बींधणा, जातडि तणइ गुणेण ॥ इसमें बहुतसे पदों की ढालें लिखी हुई हैं, जैसे ' मृगांकलेखा चउप ढाल' । दोनों बातोंसे यह अनुमान होता है कि इस ग्रन्थसे पहले पुरानी हिन्दी के अनेक ग्रन्थ रहे होंगे जिनसे उक्त ' उक्तं च ' लिये गये हैं और
१ मिषसे । २ मटका - मिट्टीका वर्तन । ३ मुझे ।
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हिन्दी - जैनसाहित्यका इतिहास ।
जिनकी ढालोंका अनुकरण किया गया है | मृगांकलेखाकी कथा श्वेताम्बर सम्प्रदाय में बहुत प्रसिद्ध है । अतएव ' मृगांक लेखा की च उपईं ' कोई जैन ग्रन्थ ही था ।
४ हेमविजय | ये अच्छे विद्वान और कवि थे । सुप्रसिद्ध आचार्य हीरविजयसूरिके शिष्यों मे से थे । इन्होंने विजयप्रशस्ति महाकाव्य और कथारत्नाकर आदि अनेक संस्कृत ग्रंथोंकी रचना की है । हिन्दी में भी इनकी छोटी छोटी रचनायें मिलती हैं । ये आगरा और दिल्ली तरफ बहुत समय तक विचरण करते रहे थे, इस लिए इन्हें हिन्दीका परिचय होना स्वाभाविक है । इन्होंने हीरविजयसूरि और विजयसेनसूरि आदि की स्तुति में छोटे छोटे बहुत से हिन्दी पद्य बनाये हैं । तीर्थकरों की स्तवनाके भी कुछ पद रचे हुए मिलते हैं । नमूने के तौर पर नेमिनाथ तीर्थकर के स्तुतिपयको देखिए ।
घनघोर घटा उनयी जु नई, इततैं उततैं चमकी बिजली । पियरे पियरे पपिहा बिललाति जु, मोर किंगार ( ? ) करंति मिली । बिच बिंदु परं दृग आँसु झरें, 'दुनि धार अपार इसी निकली । मुनि हेमके साहिब देखनकू, उग्रसेन लली सु अकेली चली । कहि राजिमती सुमती सखियानकं, एक खिनक खरी रहुरे । सखिरी सगरी अंगुरी मुही बाहि करति (?) बहुत (?) इसे निहुरे । अबही तबही कही जबही, यदुरायकूं जाय इसी कहुरे । मुनि हेमके साहिब नेमजी हो, अब तोरनतें तुम्ह क्यूं बहुरे ।
५ रूपचन्द | ये कविवर बनारसीदासजीके समय आग में हुए हैं । बनारसादासजीने अपने
आत्मचरितमें और नाटक समयसारमें इनका उल्लेख किया है और इन्हें बहुत बड़ा विद्वान् बतलाया है । ये जैनधर्मके अच्छे मर्मज्ञ थे । आध्यात्मिक पाण्डित्य भी इनमें अच्छा था, यह बात इनके
परमार्थी दोहाशतक ' और पदोंके देखनेसे जान पड़ती है । परमार्थी दोहा शतक को हमने पाँच छह वर्ष पहले जैनहितैषी में प्रकाशित किया था। बड़े ही अच्छे दोहे हैं। उदाहरण:--
चेतन चित् परिचय बिना, जप तप सबै निरत्थ । कन बिन तुस जिभि फटकतें, आवै कछू न हत्थ । चेतनसौं परिचय नहीं, कहा भये व्रतधारि । सालि बिहूनें खेतकी, वृथा बनावत वारि ॥ बिना तत्त्वपरिचय लगत, अपरभाव अभिराम । ताम और रस रुचत हैं, अमृत न चाख्यौ जाम ॥ भ्रमतैं भूल्यौ अपनपौ, खोजत किन घटमाहि । विसरी वस्तु न कर चढ़े, जो देख घर चाहि । घट भीतर सो आपु है, तुम नहीं कछु यादि । वस्तु मुठा मैं भूलिकै, इत उत देखत वादि ॥
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प्रत्येक दोहे के पूर्वार्धमें एक बात कही गई है और उत्तरार्ध में वह उदाहरणसे पुष्ट की गई है। सबके सब दोहे इसी प्रकारके हैं। इनमें परमार्थका या आत्माका तत्त्व बड़ी ही सुंदरतासे समझाया गया है।
' गीत परमार्थी' नामका ग्रन्थ भी आपका बना हुआ है, जो अभी तक उपलब्ध नहीं है । हमने एक 'परमार्थ जकड़सिंग्रह ' नामकी पुस्तक
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छपाई है, उसमें आपके बनाये हुए छह पद संग्रहीत हैं । जान पड़ता है, ये उसी 'गीतपरमाथीं' के गीत या पद होंगे। इनमें भी परमार्थ तत्त्वका कथन है । एक गीतका पहला पद सुनिए: -
चेतन, अचरज भारी, यह मेरे जिय आवै । अमृतवचन हितकारी, सदगुरु तुमाह पढ़ावै ॥ सदगुरु तुमहिं पढ़ावै चित है, अरु तुमहू हौ ज्ञानी । तब तुमहिन क्योहू आवै, चेतनतत्व कहानी ॥ विषयनिकी चतुराई कहिए, को सरि करे तुम्हारी । विन गुरु फुरत कुविद्या कैसे, चेतन अचरज भारी ॥
जैनहितैषी -
आपका एक छोटासा काव्य ' मंगलगीत - प्रबन्ध' जैनसमाज में बहुत ही प्रचलित है । ' पंचमंगल' के नामसे यह पाँच छह बार छप चुका है। इसमें तीर्थंकर भगवान के जन्म, ज्ञान, निर्वाण आदिके समय जो उत्सवादि होते हैं उनका साम्प्रदायिक मानताओं के अनुसार वर्णन है | रचना साधारण है ।
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६ रायमल्ल | ये भट्टारक अनन्तकीर्तिके शिष्य थे। इनका बनाया हुआ एक 'हनुमच्चरित्र नामका पयग्रन्थ है । यह विक्रम संवत् १६१६ में बनाया गया है । यह ग्रन्थ हमें मिल नहीं सका, इस लिए इसकी रचना किस दर्जे की है, यह हम नहीं कह सकते । हमारे एक मित्रने इसकी कविताको साधारण बतलाया है । कविवर बनारसीदासजी ने जिन रायमल्लजीका उल्लेख किया है, मालूम नहीं वे ये ही थे अथवा इनसे भिन्न । बनारसीदासजी ने लिखा है कि पाण्डे " रायमल्लजी समयसार नाटक के मर्मज्ञ थे, उन्होंने समयसारकी बालावबोधिनी भाषा टीका बनाई जिसके कारण समयसारका बोध घर घर फैल गया।" यह
बालावबोध टीका अभी तक उपलब्ध नहीं हुई है। मालूम होता है यह बनारसीदासजी के बहुत पहले बन चुकी थी । उनके समय इसका खासा प्रचार था । अवश्य ही यह पंद्रहवीं शताब्दीकी रचना होगी और भाषा की दृष्टिसे एक महत्त्वक वस्तु होगी ।
एक और रायमल्ल ब्रह्मचारी हुए हैं जिन्होंने संवत् १६६७ में ' भक्तामरकथा ' नामका संस्कृत ग्रन्थ बनाया है । ये सकलचन्द्र भट्टारकके शिष्य थे और हूमड़जाति के थे । मालूम होता है भविष्यदत्तचरित्र ( छन्दोबद्ध ) और सीता चरित्र ( छन्दोबद्ध ) नामक ग्रन्थ भी इन्हीं बनाये हुए हैं। इनमें से पहला ग्रन्थ सं० १६६३ में बना है, ऐसा ज्ञानचन्दजीकी सूची - से मालूम होता है ।
७ कुँवरपाल | ये बनारसीदासजी के एक मित्र थे । युक्तिप्रबोधमें लिखा है कि बनारसीदासजी अपनी सैलीका उत्तराधिकारत्व इन्हींको सोंप गये थे । प्रवचनसारकी टीकामें पाँड़े हेमराजजीने इनको अच्छा ज्ञाता बतलाया है । ये कवि भी अच्छे जान पड़ते हैं। इनका कोई स्वतंत्र ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है; परन्तु बनारसीदासकृत सूक्तमुक्तावीमें इनके बनाये हुए कुछ पद्य मिलते हैं ! लोभकी निन्दाका एक उदाहरण:
परम धरम वन द है, दुरित अंबर गति धारहि । कुयश धूम उदगरै, भूरि भय भस्म विधारहि ॥ दुख फुलिंग फुंकरै, तरल तृष्णा कल काढ़हि ॥ धन ईंधन आगम सँजोग दिन दिन अति बाढ़ हि ॥ लहलहै लोभ-पावक प्रबल, पवन मोह उद्धत है ॥ दज्झहि उदारता आदि बहु, गुण पतंग 'कँवरा' कहै ॥ ५९ ॥
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( अपूर्ण । )
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AE
ARDPSNAHATEa AME IPATRANEPA
HIEVA
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सभापतिका व्याख्यान ।
[ लखनऊमें गत २७ दिसम्बरको भारत-जैन-महामण्डलके सभापति श्रीयुत बाबू माणिक्यचन्द्र
जैन बी. ए. एल एल. बी. वकील, खण्डवाका जो महत्त्वपूर्ण
व्याख्यान हुआ उसका सार भाग । अवश्य पठनीय ।। प्रिय प्रतिनिधिगण महिलाओ तथा महाशयो, हासिक प्राचीनता ही नहीं वरन् उसके सिद्धान्तोंकी
आपने मुझे इस बड़ीभारी कान्फरन्सका-ऐसी सत्यता संसारके विचारवान् पुरुष स्वीकृत करते जा कान्फरन्सका-जो किसी जाति अथवा संप्रदायविशे- रहे हैं । जैनधर्मके लिए यह गौरवकी बात है कि षकी न होते हुए एक उस समग्र कौमकी कान्फरंस यह एक ऐसा धर्म है कि जिसके सिद्धांत विज्ञानकी है, जो कौम संसारके इतिहासमें एक विशाल तथा नईसे नई शोधोंसे मिलते जुलते हैं । वनस्पतियों में प्रशस्त भाग लेनेवाले धर्मकी तथा जो मनुष्यजा- मनोवृत्तियां, चेतना तथा भावोंका होना जो आज तिको भविष्यमें सदा सुखका देनेवाला रहेगा ऐसे. अ
, अध्यापक बोस सिद्ध कर रहे हैं उसकी शोध
हमारे आचार्योंने सदियों पहले कर ली थी, जब धर्मकी-धारण करनेवाली है, ऐसी संपूर्ण कामका अर्वाचीन विज्ञानका जन्म भी नहीं हुआ था। यह इस कान्फरन्सका सभापति चुनकर आपने मुझको उचित कहा गया है कि जैनधर्म ही एक ऐसा धर्म बड़ा सम्मान प्रदान किया है, इसके लिए मैं आपको है जिसमें व्यावहारिक नीतिका दार्शनिक वितर्कोंके अंतःकरणसे धन्यवाद देता हूं।
साथ गूढ़ सम्बन्ध किया गया है। अर्थात् जिसमें ___ ++प्रिय प्रतिनिधिगण, संसारके धार्मिक इतिहा- ज्ञान और चारित्रका ऐक्य किया गया है ।* समें हमारे धर्महीने नहीं, हमारी कौमने भी जातियोंके स्टोइजिजम ( Stoicism )के विषयमें कहा जाता इतिहासमें बहुत बड़ा भाग लिया है । इतिहास हमारे है कि उसकी श्रेष्ठता उसके चारित्रके नियमोंमें नहीं पूर्व. गौरवकी साक्षी दे रहा है । प्राचीनकालमें हमारी परन्तु विकारोंको दमन करनेके उसके सिद्धांतमें कौममें बडे बडे नृपति, मंत्री तथा सेनापति,विशाल विद्यमान थी, किन्तु जैनधर्मके विषयमें हम कह संपत्ति के स्वामी, बड़े बड़े कवि, लेखक तथा धुरं- सकते हैं कि उसकी श्रेष्ठता दोनोंमें विद्यमान है। घर विद्वान् होगये हैं, जिन्होंने संसारभरमें जैनधर्म इसीलिए तो देखने में आता है कि चारित्रमें जैनी
अन्य धर्मों की धारक कौमोंसे प्रायः श्रेष्ठ होते हैं। तथा जनजातिके महत्त्वको स्थापित किया था।
जैनधर्मके लिए यह गौरवकी बात है कि यद्यपि हमको पश्चिमके विद्वानोंका कृतज्ञ होना चाहिए कि
और धर्मों के समान उसके अनुयायियों को भी जुल्म जिनके निःस्वार्थ उद्योगसे हमारा प्राचीन गौरव सिद्ध सहन करना पड़ा है, परन्तु और धर्मोंके समान होता जाता है। कुछ समय पहले यह माना जाता उसके अनुयायियोंने बदला लेनेकी इच्छासे किसी था कि जैनधर्म बौद्धधर्मकी एक शाखा है तथा अन्य धर्मकी धारक कौमके साथ जुल्म नहीं किया। ईसाके बाद अनुमान छठवीं सदीमें इसकी उत्पत्ति यह उसके ऊँचे सिद्धान्तोंका परिणाम है और हुई है, किन्तु जैकोबी तथा बूलरके समान पुरा- इसका उसे उचित गर्व है । एक लेखककाई कथन तत्त्वके पाश्चात्य शोधकोंके परिश्रमसे यह मत * Mrs. Sinclair Stevenson. असत्य सिद्ध हो गया है। जैनधर्मकी केवल ऐति- $ Mr. Bernard Bosanquet.
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है कि, 'यह कोई आश्वर्यकी बात नहीं कि मुस - लमानों के जुल्मसे जैनियों के मंदिर बच गये, परन्तु आश्चर्य तो इस बात का है कि जिस तूफानने बौद्धधर्मको भारतवर्षसे एकदम बाहर कर दिया उस तूफानसे जैनधर्म नष्ट होने से कैसे बच गया ।' महाशयो, यह हमारे धर्मकी दृढ़ताका प्रमाण तथा परिणाम है । जैनधर्म ईश्वरप्रणीत होनेका दावा नहीं करता, न वह आज्ञा-प्रधान धर्म है; वह बुद्धिकी प्रधानता स्वीकार करता है तथा उसके सिद्धान्तों की सत्यता ही उसके दावेका आधार है जैनधर्महीने पहले पहल संसारको समस्त जीवोंके प्रति दया करने तथा विश्वबंधुत्व व सार्वभौमप्रेमका उपदेश किया था । एक प्रसिद्ध अँगरेज़का + कथन है कि विश्व दया ( Universal Hu - manity )का विचार अर्वाचीन है, परन्तु वास्तव में इस धर्मका उपदेश जैनधर्मने सदियों पहले किया था । हमारे आचार्योंने उपदेश किया है कि :-- एक्कु करे मण विष्णु करि, मां करि वणविसे । इक्कई देवई जि वसई, 8 तिहु हु असेसु ॥ महाशयगण, प्रसिद्ध लेखक लेकीका कथन है कि प्लूटार्कहीने पहले पहल पशुओं के प्रति दया करनेका उपदेश–पाइथेगोरसके पुनर्जन्म के सिद्धांतके आधार पर नहीं, किन्तु विश्व-बन्धुत्व के विस्तृत आधारपर -- किया था; परन्तु लेकीको यह विदित नहीं कि हमारे तीर्थकरोंने प्लूटार्कसे सदियों पहले यही उपदेश मनुष्यजातिको दिया था। जैनधर्मका उद्देश ही समस्त जीवोंकी मुक्ति कराने का है। परन्तु, महाशयो, इतना होते हुए भी कुछ लोगोंका कथन है कि, “ जैनधर्म अहिंसा तत्त्वकी एक हा स्यरूप अतिशयोक्तिका उपदेशक है । "* कुछ
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8 परमात्मप्रकाश, गाथा २३४. * Mrs. Sinclair Stevenson.
जैनहितैषी -
लोग हमें इस बातका दोष देते हैं कि हमने हिंसा परमो धर्मः " के तत्त्वका दुरुपयोग करके उसकी अति कर डाली है जिसका यह परिणाम है कि हम विषयोन्मत्त ( Monomaniacs ) तथा डरपोक हो गये हैं, व दांभिकता (hypocrisy ) अर्थात् म, अपौरुषता व निर्दयताका जीवन व्यतीत करते हैं । " कुछ लोग कहते हैं कि महावीर स्वामीके जीवनकी घटनायें हमने बुद्धके चरिचुरा ली हैं । इतना ही नहीं बरन् हमही में कुछ लोग ऐसे विद्यमान हैं जो कहते हैं कि जैन - धर्मका ध्येय भौतिक उन्नतिका बाधक है तथा जैनधर्म ही भारतकी वर्तमान अधोगतिका कारण है
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उतना
। महाशयो, मेरे पास समय नहीं है कि इस अवसर पर मैं इन सब आक्षेपोंका उत्तर दूं । मैं केवल इतना ही कहूंगा कि वे जैनधर्मके संबंध में ज्ञान रखते हैं जितना कि मेंडक कुएके बाहर की दुनियांका रखता है, अन्यथा ऐसे विचार कदापि प्रकट नहीं करते। जिस लेखिकाका यह कथन है कि जैनधर्मका हृदय शून्य है तथा जिसे वह ईसाई धर्म के रक्त से भरके उसमें जीवन लानेकी सम्मति देती है उससे मैं यही कहूंगा कि जिसे वह जैनधर्मका हृदय समझती है वह जैनधर्मका हृदय नहीं, किन्तु उसका मृतप्राय शरीर है । जैनधर्मका हृदय उसकी 'वर्तमान स्थिति तथा वर्तमान व्यवहारों में नहीं है किन्तु वह उसकी ऊँची फिलासफी तथा नीतिमें विद्यमान है । स्वर्गवासी गांधीने ठीक कहा है कि, “ The abuses existing in our society are not from our religion but in spite of our religion,"अर्थात् जैन जातिमें जो वर्तमान कालमें बुराइयां देखने में आती हैं उनका कारण जैनधर्म नहीं है, परन्तु वे जैनधर्म के विपरीत हैं । ईसाई धर्म के लिए वर्तमान युद्धकी ओर तथा उसके नित्य - नरकके सिद्धांत की ओर संकेत कर देना पर्याप्त होगा ।
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सभापतिका व्याख्यान ।
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एक विचार-शील लेखकने उचित कहा है कि समान वृणित कार्योंके साथ हो सकता है ? उनका " यदि ईसाई धर्म पूर्ण नैतिक शुद्धताका मत है. जीवन धार्मिक था, तथा शिक्षा व धर्मप्रचार उनके तो फिर इसका क्या कारण है कि उसका अधि. कार्यक्षेत्र थे । ऐसे व्यक्तिको केवल संदेहके कारण कता तथा गुरुताके साथ इस प्रकार मिथ्या अर्थ विना जाँच किये दंड देना सर्वथा अनुचित है। समझा गया है कि उसके अनुयायियोंमें उसके लिए अनुमान ढाई तीन वर्षसे वे कारावासका दण्ड भोग जो उत्साह है उसीने उन नैतिक सिद्धान्तोंका रहे हैं । इस प्रकारका जो वर्ताव उनके साथमें जिनका वह उपदेश करता है. नाश किया है । किया गया है उसके प्रति जैन कौममें भारी क्रोध इतिहासके पढ़ते समय धार्मिक हठ तथा जुल्मका तथा तिरस्कारका भाव पैदा हो गया है और यह भाव जिसका आधार प्रायः शुद्धांतःकरणसे ईश्वरीय स्वाभाविक ही है। प्रिय प्रतिनिधिगण, इसमें कोई आज्ञा बताया जाता है उसे देख प्रायः उलझनमें आश्चर्य नहीं कि अर्जुनलालजीके तथा उनकी पड़ना पड़ता है ।” अतएव महाशयगण, हमारे निरपराध स्त्री तथा पुत्रके दुःखको देख हमको धर्मके ऊपर जो आक्षेप किये जाते हैं वे प्रायः हार्दिक दुःख हो । माना कि प्रत्येक महापुरुषको मिथ्या हैं, और हमें उनके प्रति आधिक ध्यान दुःख भोगना पड़ता है, और दुःख सहना ही देनेकी आवश्यकता नहीं । याद अब भी हमारे महापुरुषका लक्षण है; माना कि सार्वजनिक जीवनके धर्मकी पच्चीस सौ वर्ष पहलेकी विद्यमानता स्वीकृत माने ही स्वार्थत्यागके हैं, अतएव हमको अधिक नहीं की जाती तो न सही । प्राचीन होनेसे ही कोई उदासीन न होना चाहिए; माना कि सेठीजी अपने धर्म श्रेष्ठ नहीं होजाता । स्वामी रामतीर्थने उचित दुःखको सहर्ष सहन कर रहे होंगे; तो भी मैं पूछता कहा है कि, "किसी धर्मको प्राचीन होनेहीके हूं कि क्या इसलिए उनके दुखको दूर करानेका कारण ग्रहण मत करो। प्राचीनता उसकी सत्य. हमारा जो कर्तव्य है उसका हमें पालन न करना ताको कोई प्रमाण नहीं । कभी कभी पुरानेसे पुराने चाहिए ? आप मुझे क्षमा कीजिए-कर्तव्यके मकान भी गिराने पड़ते हैं तथा पुराने कपड़े बद- अनुरोधसे मुझे कहना पड़ता है कि सेठीजीकी लने ही चाहिए । नयेसे नया परिवर्तन भी यदि आपत्तिका मुझे इतना खेद नहीं है जितना इस वह बुद्धिकी परीक्षामें सफल हो सकता है तो वह बातका है कि जैनजातिने, जिसकी सेवाके लिए उतना ही अच्छा है जितना कि चमकते हुए ओससे उन्होंने अपना जीवन अर्पण किया था, उनके सुशोभित गुलाबका फूल," अतएव, महाशयो, दुःखको दूर करनेके लिए उचित प्रयल न हमें इस प्रकारके आक्षेपोंकी ओर अधिक ध्यान किया। मेरे कहनेका अर्थ, महाशयो, आप यह न देकर हमें अपनी शक्तिको अपनी कौमके न समझें कि जैन कौमने कुछ न किया । उद्योग उत्थान तथा अपने धर्मके प्रचार की ओर लगाना तो अवश्य किया, परन्तु वह उद्योग व्यवस्थित चाहिए । + + महाशयो, जयपूर निवासी (organised ) न होनेके कारण तथा जातिके पंडित अर्जुनलालजी सेठीने हमारी जातिकी सेवाके अधिकांश नेताओंके उसमें उचित भाग न लेनेके लिए अपना जीवन तक अर्पण कर दिया था, कारण सफल न हुआ । मुझे यह जानकर बहुत
और उन्होंने कौमकी जो सेवा की है वह सब दुःख हुआ कि एक दिगंबर सामायिक पत्रके पर प्रकट है । उसको जानते हुए कौन कह सकेगा सेठी के विचारोंके प्रति विना अवसरके लेखले कि उनका संबन्ध चोरी, लूट तथा खून खराबीके दिगंबर समाजका भाव उनके बहुत कुछ विपरीत
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जैनहितैषीmmmmmmmm
कर दिया। इस पत्रने जान बूझकर अथवा बिना कि हमको क्या करना चाहिए ? इसका संक्षिप्त जाने अर्जुनलालजीके मतका खंडन करनेके बहाने उत्तर एक ही शब्दमें यह है कि 'आन्दोहमारे दिगंबरी भाइयोंके मनमें उनके प्रति बहुत लन'-नियमबद्ध आंदोलन । इस कथनकी कुछ विष भर दिया । एक ऐसी संस्थामें शिक्षा सत्यतामें सन्देह नहीं कि-" आन्दोलन ही पाये हुए-जो आदर्श शिक्षा देनेका दम भरती इंग्लिस्तानके सामाजिक, राजनैतिक तथा औद्योगिक . है-इस पत्रके संपादकको इतना विचार तक न इतिहासकी आत्मा है । आन्दोलनहीके सहारे हुआ कि ऐसे अवसरमें इस प्रकारके लेखोंका बुरा अँगरेज़ोंने अपना अभ्युदय अपनी स्वतंत्रता तथा प्रभाव होगा और सेठीजीके प्रति 'करुणा भाव' संसारकी जातियों में पहला स्थान इत्यादि बड़े बड़े केवल नामके लिए रह जायगा । परन्त भाडयो, कार्योका संपादन किया है।" इसलिए हमें सेठीहमें अब यह विचार करना चाहिए कि सेठीजीको
' जीके लिए न्याय दिलानेके अर्थ पुनः आंदोलन किस प्रकार न्याय मिले । जैन कौम यह नहीं
करना चाहिए । परन्तु, महाशयो, यह कहा जा कहती कि पंडित अर्जुनलालजी अपराधी हैं अथवा
सकता है कि ऐसे युद्धके समयमें एक ऐसे विषयके निरपराधी; वह यही कहती है कि किसी भी व्यक्ति.
लिए जिसका संबन्ध गवर्नमेंट और देशी रियासको बिना जाँचके दण्ड देना अन्याय है-किसी ।
तोंके रिश्तेके साथ है आंदोलन करना गवर्नमेंटको भी व्याक्तको अपना बचाव न्यायालयमें करने का आपत्तिकारक ( Embarrasing ) होगा । अवसर न देना अन्याय है। हम सेठीजीके लिए तब क्या हमें युद्धका अंत होने तक कुछ न करना गवर्नमेंटसे दयाकी भिक्षा नहीं माँगते. हम उनके चाहिए तथा सेठीजीको कष्ट भोगते हुए अपना लिए न्यायका दावा करते हैं । बटिशजातिकी लाभकारी जीवन कारावासमें बिताने देना चाहिए ? न्यायबुद्धिमें भारतवासियोंका जो विश्वास है वह यह
यह कौन कह सकता है कि युद्धका अंत कब भारतमें बृटिश शासनका एक आधार है। कोई होगा। मेरी सम्मतिमें हमको सबसे पहले समग्र जैन भी कार्य ऐसा करना कि जिससे यह आधार कम
कौमके प्रधान प्रधान नेताओंका, यदि वे स्वीकार जोर हो जावे अथवा उपयोगिता (Expediency) .
करें तो, एक प्रभावशाली डेप्युटेशन पुनः नियुक्त के निमित्त उस विश्वासकी आहुति दे देना एक .
करना चाहिए जो बड़े लाटसाहबकी सेवामें तथा
महाराजा जयपुरकी सेवामें उपस्थित होकर सेठीप्रकारसे बृटिशराज्यको हानि पहुँचाना है, अतएव
जीके लिए न्यायकी प्रार्थना करे । यदि हमें हमारे शासकोंको उचित है कि वे शीघ्र ही ,
संतोषदायक उत्तर मिला तो ठीक है, नहीं तो फिर सेठीजीको न्याय प्राप्त करावें । परन्तु जान पड़ता
लाचार हमें आंदोलन करना होगा । तब है कि हमारे शासक इन बातोंकी ओर जरा भी ,
यदि वह आंदोलन गवर्नमेंटको आपत्तिकारक ध्यान दिया नहीं चाहते । ऐसी दशामें हमको (Embarrasing ) हो तो उसके दोषी हम नहीं । क्या करना चाहिए ? सभायें करना, विरोध- यह कहनेकी आवश्यकता नहीं कि वह आंदोलन प्रदर्शक सभायें करना, तार देना, प्रार्थनापत्र मझे विश्वास है कि नियमबद्ध होगा। सभायें करना, भेजना-ये काम हमने थोड़े बहुत किये । हमने अप्रसन्नता प्रकट करना, तार देना, प्रार्थनापत्र बड़े लाटकी सेवामें डेप्युटेशन भेजनेकी योजना भेजना इत्यादि काम यदि व्यवस्थापूर्वक तथा की थी, पर उन्होंने डेप्युटेशनसे मिलना ही स्वीकृत प्रबलताके साथ सतत किये जायँ तो मुझे विश्वास न किया। तब ऐसी दशामें प्रश्न यह होता है है कि सफलता अवश्य प्राप्त होगी।
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सभापतिका व्याख्यान ।
प्रिय प्रतिनिधिगण, + + पहले हमें यह निश्चित कर लेना चाहिए कि हमारे उद्योग का - हमारे कार्यों का
- आदर्श क्या है। + + हमारा आदर्श यही है कि जैनधर्मको उसकी आदिम शुद्धता, उदात्तता तथा उपयोगिता प्रदान कर उसे संसारके बड़े बड़े धर्मो के समान जीवित धर्म बनाना तथा जैनजातिको उसकी वर्तमान अवनत दशासे उठाकर संसारकी बड़ी बड़ी जातियोंकी बराबरीमें बिठलाना । + + समय नित्य पलटता जा रहा है, नित्य नई दशायें पैदा होती जाती हैं; नवीन आवश्यकताएं प्रतिदिन उत्पन्न होती जा रहीं हैं—और इन्हें रोकना हमारी शक्तिके बाहर है । हमें एक ऐसी सृष्टिमें रहना है जिसमें नाना प्रकारकी जातियां रहती हैं और जिनकी तरह तरहकी सभ्यताओं के साथ हमें मिलकर रहना पड़ता है। यदि यह कहा जाय कि ऐसी दशा में हमें चाहिए कि अपने पूर्वकालको भूलकर हमें अपनी आवश्यकताओंके अनुसार नवीन संस्थाएं स्थापितकर नये ढँगसे समाजकी रचना करनी चाहिए, तो इसका अर्थ यही होगा कि समाज उत्तर कोई मशीन नहीं है जो अपनी इच्छा के अनुसार चाहे जिस समय चाहे जैसी बना ली जाय । मनुष्य-समाज एक जीवित वस्तुके समान है, और उसी के समान विकासके नियमोंके अनुसार ही उसका परिवर्तन हो सकता है । अतएव एकदम नवीन समाजकी रचना करना असंभव है । अतएव महाशयो, हमें दोनों कार्य करने चाहिए - हमें पुनरुत्थान ( Revival ) भी करना चाहिए और नवीन रचना भी करनी चाहिए, अथवा, दूसरे शब्दों में, हमें ' सुधार – Reform के राजमार्गको ग्रहण करना चाहिए ।
प्रिय प्रतिनिधिगण, इस सुधारके कार्य में हमें दो 'एक बातोंका अवश्य ध्यान रखना चाहिए । + + एक तो यह कि जो कुछ पुराना है वह सब ही उत्तम तथा प्रत्येक अवस्थामें लाभदायक नहीं है ।
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साथ ही हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि जो कुछ पुराना है वह सब ही बुरा भी नहीं है । कई पुरानी वस्तुएं भी बड़े काम की निकलती हैं । साथ ही हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि जो नया है वह सब ही अच्छा नहीं है । पश्चिमकी सामाजिक रीतियों में मेरी सम्मतिमें तो अनेकांश हानिकारक हैं। मनुष्यसमाजका सुधार तो पूर्व तथा पश्चिम दोनों के सामाजिक सिद्धान्तोंकी योजनाहीसे उचित रीति से हो सकता है । हमें यह भी न भूल जाना चाहिए कि पश्चिममें अनेक बातें लाभदायक हैं तथा उन्हें ग्रहण करने के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। दूसरी जिस बात का हमें स्मरण रखना चाहिए वह यह है कि जैन जातिकी वर्तमान पतित दशासे निराश हो उससे पृथक् हो स्वयं अपना सुधार करनेका विचार कदापि जीमें न लाना चाहिए । यदि हमें अपनी समाजका सुधार करना है तो उसमें मिलकर ही करना चाहिएं। चाहे हमें वास्तविक फल न दिखलाई पड़े तो भी यदि हम अपने भाइयोंके विचारोंमें परिवर्तन कर सकें तो समझना चाहिए कि हमारे कार्यका बड़ा हिस्सा हम संपादित कर चुके । तीसरी बात, महाशयो, जिसका, मेरी सम्मतिमें, हमें सदा ध्यान रखना चाहिए वह यह है कि जाति- उन्नति के इस महान् कार्य में हमें सदा ८ एकता व उन्नति ' इन दो शब्दों को सन्मुख रखने चाहिए । हमें सम जैनसमाजकी उन्नति करनी है— हमें जैनधर्मका प्रचार करना है । मेरा विश्वास है कि पृथक् पृथक् संप्रदायोंकी उन्नति करनेसे हम समग्र जैन जातिकी उन्नति कर लेंगे, ऐसा समझना भ्रम है। जहांतक मैं जानता हूं इस ऑल इंडिया जैन एसोसिएशन, अथवा यदि यह नाम आपको प्रिय न हो तो — इस भारत जैनमहामंडल - का उद्देश पहलेही से सांप्रदायिक भेदको एक ओर रख समग्र जैन जातिकी उन्नति करना, सारे जैनियों में एकता
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जैनहितैषी -
तथा मैत्री भावका प्रचार करना, तथा जैनधर्मका प्रसार करना, रहा है । + + इसमें सन्देह नहीं कि सांप्रदायिकत्व भारतकी एकताका शत्रु है । एकता ही हमारी उन्नतिका महामंत्र है। हमारे सामने इंडियन नेशनल काँग्रेसका उदाहरण विद्यमान है । क्या हिन्दू तथा मुसलमानोंमें जो भेद है उससे श्वेतांबरी व दिगंबरियों में ज्यादा भेद है ? अथवा क्या श्वेतांबरी या दिगंबरियोंमें और हिंदू अथवा मुसलमानों में जो भेद है उससे दिगंबरी श्वेतांवरियों में ज्यादा भेद है ? फिर क्यों हम मिलकर कार्य नहीं कर सकते ? + +
परन्तु हमारी भिन्न भिन्न संप्रदायों में इस एकता व सदुद्योग स्थापित करनेके हमारे पवित्र कार्य के मार्ग में कुछ कारण ऐसे हैं जो सदा बाधाओंके रूपमें उपस्थित रहते हैं और जिनमें हमारे तीर्थक्षेत्रों के संबन्धके झगड़े ये एक प्रधान कारण हैं । प्यारे भाइयो, क्या आप इस बातको स्वीकार नहीं केरगें कि हमारे पवित्र तीर्थक्षेत्रोंके संबन्ध में तीर्थंकर भगवान के हम सब अनुयायियों को इस प्रकार लड़ते रहना हमारे लिए बहुत भारी लज्जाका कारण है ? इन झगड़ों को लेकर हम न्यायालयोंमें अभियोग उपस्थित कर अपने द्रव्यका तथा अपनी शक्तिका जो नाश करते हैं क्या हमारे समान शांतिप्रिय जातिके लिए यह शोभाका कारण हो है ? क्या इन झगड़ोंसे हमारे बीच में परस्पर वैमनस्य बढ़कर हमारे सार्वजनिक सदाचारको हानि नहीं पहुँचती ?
सकता
अभियोग या मुकद्दमा लड़नेको व्यक्तियोंका युद्ध जो कहा गया है यह बिलकुल ठीक है । इस प्रकार आपस में लड़ना, तीर्थक्षेत्रोंके संबन्ध में कल्पित सत्त्वों का निष्पादन अथवा उनकी रक्षाके करने के भ्रम में अपनी शक्तिका नाश करना, यह हमारे सभ्य होने में निश्वयमेव सन्देह पैदा करता है । यदि हम सभ्य होने का दावा रखते हैं तो हमें चाहिए कि
हम अन्य उचित मार्गों द्वारा अपने झगड़ोंका निपटारा करें। महाशयगण, मेरे कथनका अर्थ आप यह कदापि न समझें कि वास्तविक सत्त्वोंकी रक्षा करनेके लिए भी, सच्चे हकोंका पालन करने के लिए भी, हमें कुछ न करना चाहिए। अपने उचित सत्त्वोंकी रक्षा के लिए लड़ना मैं उचित ही नहीं बरन आवश्यक भी समझता हूं, परन्तु साथही मेरा यह भी निवेदन है कि सत्त्वसंबन्धी झगड़ोंका निर्णय न्यायालय में जानेकी अपेक्षा अन्य उपायसे यदि हो सके तो उस उपाय से काम न लेकर एकदम सीधे न्यायालयका मार्ग धारण करना सर्वथा अनुचित है । + + किसी भी संप्रदाय का यह उद्योग करना कि दूसरी संप्रदायवाले उसकी अनुमतिसे ही तीर्थराज पर पूजा कर सकें कौमकी उन्नतिका बहुत बड़ा बाधक है, अतएव इस प्रकारके भावोंको दूर कर इस झगड़े को हमें तय करना चाहिए । हालही में नीचेकी अदालतने जो फैसला कर दिया है संभव है कि उसके विपरीत दोनों ओरसे अपीलें की जाँय इसलिए इसी अवसर पर हमें प्रयत्न करना चाहिए कि ऐसा न किया जावे ! + + यह जान कर संतोष होता है कि इस प्रकारके प्रयत्नका आरंभ कर दिया गया है । इस प्रयत्न करनेवालोंको - विशेष कर हमारे प्रसिद्ध धर्मबंधु श्रीयुत वाडीलाल मोतीलाल शाहको -जितना हम धन्यवाद दें कम है, परन्तु ऐसा न करके कुछ सज्जन पुरुषोंने उनका उद्योग निष्फल करनेकी चेष्टा की है, व उन्हें बुरी इच्छासे यह उद्योग करनेका अपवाद लगाया है । श्रीयुत वाडीलालजीने इन अभियोगोंको तय करानेके लिए जो उपाय बताया है संभव है कि हमें वह उचित न जान पड़े, परन्तु अपना मत-भेद प्रकट करने के लिए यह आवश्यक नहीं था कि उन्हें मिथ्या अपवाद लगाया जाय, तथा उन्हें व उनके सहायकों के प्रति कुशब्दों का प्रयोग किया जाय। उन लोगोंको
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CHRIMAMAIMIMILAIMIMILAIMIMIRI सभापतिका व्याख्यान ।
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छोड़कर जिनको इन अभियोगोंसे प्रकट अथवा मेरी समझसे इन झगड़ोंका निपटारा होनेकी बहुत अप्रकट रूपसे लाभ पहुँचता हो+क्या कोई यह कुछ आशा है ।+x कहनेको तैयार है कि यदि अन्य किसी उपायसे
प्रियबन्धुओ, हमारे लिए सबसे अधिक महत्त्वका इन अभियोगोंका अंत किया जासके जो दोनों
__प्रश्न जिसकी ओर हमें विशेष ध्यान देना चाहिए पक्षवालोंको स्वीकृत हो तो वह हमारे लिए अभि
वह हमारी संख्याके ह्रासका-हमारी संख्यामें नन्दनीय न होगा ? तब फिर क्या यह उचित था जो प्रतिदिन अधिकाधिक घटी होती जा रही कि इसके लिए जो उद्योग किया गया उसका इस है उसका है। यह बहुत बड़े खेदका विषय प्रकार विरोध किया जाय ? प्रिय प्रतिनिधिगण, है दःखकी बात है कि गत बीस वर्षों में क्षमा कीजिए । मेरी सम्मतिमें भी श्रीयुत वाडीला- हमारी संख्या में बहुत बडी कमी हुई है । लजीने जो उपाय बताया है वह उचित नहीं जान
जान मनुष्यगणनाकी रिपोर्टोसे विदित हो चुका है
ने पड़ता । मेरा अनुभव है कि अभियोग लड़नेवालोंको कि सन् १८९१ में हमारी संख्या १४,१६,६३८ धर्म व नीतिका उपदेश करनेसे—Councels of थी। बादमें यही संख्या घट कर सन् १९०१ perfection देनेसे-वे लड़ना नहीं छोड़ते । मैं में १३.३४.१४० हो गई और सन् १९११ में यह माननेके लिए तैयार नहीं हूं कि प्रत्येक दशामें केवल १२,४८,१८२ रह गई । अर्थात् सन् न्यायालयद्वारा निर्णय करानेकी अपेक्षा मध्यस्थों १८९१ से १९११ तक हमारी संख्यामें अनुमान द्वारा निर्णय कराना उत्तम है, और मेरे विचारमें प्रति सैकडा ११ की कमी हुई है; और इस शिखरजी संबन्धी इन अभियोगोंका निर्णय न्याया- घटीका परिमाण प्रतिदिन बढ़ता ही जाता है, लयद्वारा अथवा मध्यस्थोंद्वारा करानेमें अधिक क्योंकि १९०१ में इस घटीका परिमाण ५.८ अंतर नहीं । परन्तु इसका अर्थ आप यह न समझें था, परन्तु सन् १९११ में यह बढ़कर ६.४ हो कि मैं न्यायालयमें प्रिवीकौंसिल तक लड़ते रहनेकी गया । प्रिय महाशयो, इस हिसाबसे याद हमारी सम्मति दे रहा हूं। मेरे विचारमें इन अभियो- संख्या आगे भी घटती गई तो अनुमान आगामी गाका निर्णय करनेका सबसे उत्तम उपाय यह होगा एक सौ दशवर्षों में पृथ्वीपर हमारी कौमका नाम कि इनका आपसहीमें निर्णयद्वारा- Amicable भी न रहने पावेगा। निःसन्देह हमारे लिए यह एक settlement द्वारा--अंत किया जाय । इस बहत बडे दःखकी बात है कि भारतकी अन्य प्रकारका निर्णय दोनों बाजुओंकी सम्मति के साथ कौमोंकी संख्यामें तो वृद्धि होती जाय और हानेके कारण दोनोंको संतोषदायक होगा । इसके हमारी संख्याका क्षय होता जाय । सन् १८९१ लिए यह आवश्यक है कि दोनों ओरकी सम्मति- से १९०१ के दरमियान बौद्धोंकी संख्या ३२.९, योंका परस्परमें परिवर्तन कराया जाय। हमें चाहिए ईसाइयोंकी संख्या २८, सिक्खोंकी संख्यामें कि हम एक ऐसी प्रभावशाली कमेटी नियुक्त करें १५.१, मुसलमानोंकी संख्या में ८.९, और पारजिसके कुछ सभासद दोनों संप्रदायोंके निष्पक्ष सियोंकी संख्या ४.७, प्रति सैकड़ा वृद्धि हुई है, व्यक्ति हों तथा विश्वसनीय अन्यमती भी सभासद परन्तु हिन्दुओंमें '३ की व हमारी कौमकी संख्यामें हों। यह कमेटी दोनों पक्षोंके मुखियाओंके साथ ५.२ प्रति सैकड़ा कमी हुई । सन् १९०१ से सन् परामर्श करके उनकी सम्मतियां जानकर तस्फियेकी १९११ के दरमियान् जैनियोंको छोड़कर सब शर्ते निश्चित करावे । यदि ऐसा किया जायगा तो कौमोंकी संख्यामें वृद्धि हुई । बौद्धोंमें १३,१,
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CHALALIBALLABALBARILABOLI
जैनहितैषीWITHUTERTAmirmamRIYAR
ईसाइयोंमें ३२.६, सिक्खोंमें ६.३३, मुसलमानोंमें माणकी इस अल्पताका कारण क्या है । महाशय६.७, पारसियोंमें ६.३ तथा हिंदुओंमें १५.०४ गण, प्रत्येक जातिमें जन्मका परिमाण चार कारणों प्रति सैकडा वद्धि हुई. परन्तु हम जैनियाँमें पुनः पर अवलंबित रहता है-प्रथम Racial char६.४ की घटती हुई । सन् १८९१ में दश acteristics अथवा जातीय लक्षण, दूसरा Social हजार भारतवासियोंमें ४९ जैनी थे; सन् १९०१ practices अथवा सामाजिक व्यवहार, तीसरा में ४५ और सन् १९११ में ४० ही रह गये। Material well-being अथवा भौतिक ऐश्वर्य इससे स्पष्ट होता है कि यदि हमने अपनी संख्याके और चौथा Public health अथवा सार्वजनिक इस क्षयके वेगको रोकनेका उद्योग न किया तो स्वास्थ्य । अब विचार करनेसे विदित होगा कि शीघ्र ही हमारे अंतका समय आ जायगा । संतो हम जैनियोंके जातीय लक्षण, भौतिक ऐश्वर्य तथा षका विषय है कि इसकी चर्चा तथा इस विषयपर सार्वजनिक स्वास्थ्य अधिकांशमें भारतकी अन्य विचार हमारे समाचारपत्रोमें होनेका आरंभ होगया कौमोंके समान ही हैं-अतएव यह स्पष्ट है कि है, परन्तु मेरी सम्मतिमें इसकी ओर और भी हमारे अल्पजन्म-परिमाणका कारण हमें हमारे अधिक ध्यान देनेकी आवश्यकता है । हमको सामाजिक व्यवहारोंहीमें ढूँढना चाहिए, और हमें विचार करना चाहिए कि हमारे इस -हासका इस बातका उद्योग करना चाहिए कि जो सामाकारण क्या है । महाशयो, दो कारणोंसे कौमोंकी जिक व्यवहार हमारी संख्याका हास कर रहे हैं वे संख्या वृद्धि अथवा क्षय होता रहता है-अर्थात् दूर किये जायँ । महाशयो, जहां तक मैं जानता एक तो निवासस्थान-परिवर्तन ( Migration ) हूं, हमारी समाजमें इसके संबन्धमें तीन प्रकारकी और दूसरा मत्यु और जन्मके परिमाणका मान सम्मतियां दृष्टिगोचर होती हैं । पहली सम्मति यह Relation between birth and death है कि बालविवाह तथा वृद्धविवाह हमारी इस rates )। अब इनमेंसे पहला जो कारण है वह क्षतिके कारण हैं और इन्हें हमें रोकने चाहिए। हमारी क्षतिका मूल नहीं होसकता, क्योंकि हमारी दूसरी सम्मति यह जान पड़ती है कि केवल बालकौममें न तो भारतवर्षसे देशान्तरगमन न अन्य विवाह आदिको रोकनेसे काम नहीं चलेगा, परन्तु देशोंसे इस देशमें आगमन कोई उल्लेखके योग्य हमारी क्षतिका कारण हमारा जातिभेद, है अतएव हुआ है । दूसरे कारणको जाननेके लिए यद्यपि हमें उचित है कि साथ ही हम समग्र जैन कौममें सरकारी रिपोर्टों ( Vital Statistics) से यह सह-भोज तथा परस्परविवाहका प्रचार करें । तीसरी नहीं पता लग सकता कि हमारी कौममें मृत्युका सम्मति यह जान पड़ती है-यद्यपि यह आवाज़ परिमाण क्या है तो भी अनुभवसे यह बिना संकोच बहुत दब कर निकल रही है कि केवल इन दो कहा जा सकता है कि ऐसा अनुमान करनेके लिए सुधारोंसे काम न चलेगा और यदि हमें अपनी कोई कारण नहीं है कि भारतकी अन्य जातियोंकी क्षतिको रोकना है तो हमें हमारी कौममें विधवाअपेक्षा जैनियोंमें मृत्युका परिमाण अधिक है, विवाहका प्रचार करना चाहिए । एक चौथी अतएव यदि हमारी क्षतिका कोई कारण हो सम्मति यह भी सुनाई पड़ती है कि पहले हमें सकता है तो वह हमारे जन्मके परिमाणकी अल्पता बालविवाहको रोककर देखना चाहिए, और इससे ही होना चाहिए और हमें इस बातका विचार यदि यथेष्ट लाभ न हुआ तो बादमें परस्पर-विवाकरना चाहिए कि हमारी समाजमें जन्मके परि- हका प्रचार करना चाहिए, और उससे भी यदि
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सभापतिका व्याख्यान ।
बास्तविक लाभ न हो तब हमें विधवाविवाहका प्रचार करना चाहिए । प्रिय प्रतिनिधिगण, मेरी अल्प सम्मतिमें तो इन सब सम्मतियोंमें सत्यका अंश है, परन्तु सर्वथा सत्य इनमें से एक भी सम्मति निश्चित रूपसे नहीं कही जासकती, अतएव इन पर विचार करनेकी आवश्यकता है ।
महाशयो, इसमें सन्देह नहीं कि बालविवाह भी हमारी क्षतिका एक कारण है, परन्तु मैं समझता हूं कि केवल इसीको रोकनेका उद्योग करनेसे हमारा -हास न रुकेगा । मनुष्यगणनाकी रिपोर्ट इस कथनकी सत्यता सिद्ध करती है । यदि हम मान लें कि बालकों का विवाह २० वर्षकी अवस्थाके पहले न होना चाहिए तो रिपोर्टोंसे विदित होता है कि २० वर्षसे कम आयुके विवाहित पुरुषोंकी संख्या सन् १८९१ में प्रति सैकड़ा अनुमान १३, सन् १९०१ में अनुमान १४, तथा सन् १९११ अनुमान १० थी । इसी प्रकार यदि लड़कियोंके लिए विवाहयोग्य अवस्था १५ वर्षकी मान ली जाय तो इस अवस्था से कमकी विवाहिता लड़कियोंकी संख्या प्रति सैकड़ा सन् १८९१ में १७३, सन् १९०१ में भी १७३ और १९११ मेँ १३३ थी । इससे सिद्ध होता है कि गत दश दह वर्षों में हमारी कौम में बाल विवाह कम होते जा रहे हैं, परन्तु तिसपर भी हमारी संख्या में ह्रास होता जा रहा है, अतएव केवल बालविवाह बंद कर देनेसे हमारी क्षतिका वेग न रुक सकेगा, यह स्पष्ट जान पड़ता है ।
• भाइयो, दूसरा कारण जो जातिभेदका बताया जाता है उस पर भी हमें विचार करना चाहिए । • हम देखते हैं कि प्रथम तो हमारी कौममें स्त्रियोंकी अपेक्षा पुरुषों की संख्या अधिक है, परन्तु इन - संख्याओं में अधिक अन्तर न होनेसे यदि हम उसपर अधिक ध्यान दें तो अनुचित न होगा । अब सन् ११ की मनुष्यगणनाके अनुसार हमारी कौममें
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६, ४३, ५५३, पुरुष थे जिनमेंसे ३,१७,११७ कुआँरे थे । इसी प्रकार ६,०४, ६२९ स्त्रियोंमेंसे १,८१,७०५ स्त्रियां कुआँरी थीं। इतने कुआँरे कुआँरियोंका समाज में विद्यमान होना निःसंदेह हमारे जन्मके अल्पपरिमाणका एक कारण होना हम सबको स्वीकार करना पड़ेगा । कुआँरे कुआँरियोंकी इन संख्याओंमेंसे यदि हम ऐसोंकी संख्या निकाल दें जो संतान पैदा करनेके योग्य साधारणतया नहीं, अर्थात् जो पुरुष २० वर्षसे कम और ४५ वर्षसे अधिक अवस्थाके हैं तथा वे स्त्रियाँ जो १५ वर्षसे कम तथा ४० वर्षसे अधिक अवस्था की हैं, तौ भी हमें यह देखकर दुःख होना चाहिए, महान् खेद होना चाहिए, कि २० बर्षसे ४५ वर्ष तककी आयुके २,३३,०३५ पुरुषोंमेंसे ५९,९१२ कुआँरे, तथा १५ से ४० वर्षतककी आयुकी २,५३,८५४ स्त्रियांमेंसे ५,९२८ स्त्रियाँ कुआँरी, अर्थात् प्रति सैकड़ा पुरुषोंमें २५.७ तथा स्त्रियों में २.३ कुआँरे कुआँरियां हमारी कौममें विद्यमान हैं । महाशयो, विचार कीजिए कि यदि इन ५,९९१२ कुआँरोंके तथा ५,९२८ कुआँरी स्त्रियोंके विवाह हो गये होते तो इनके द्वारा हमारी संख्या में प्रतिवर्ष कितनी वृद्धि होती । इनके कुआँरे रहनेका कारण भला इसके सिवाय क्या हो सकता है कि हमारी समाजमें अल्पसंख्यक अनेक जातियाँ विद्यमान हैं ? दिगम्बर जैन डाइरेक्टरीके देखनेसे विदित होता है कि केवल दिगम्बर संप्रदाय में ४१ जातियां ऐसी हैं जिनकी मनुष्य संख्या ५०० से कम है, १२ जातियों में ५०० से १००० तककी मनुष्य संख्या है, १००० से ५००० तक मनुष्यसंख्याकी जातियां केवल २० हैं, और जिनकी मनुष्यसंख्या ५००० से अधिक है ऐसी केवल १५ जातियां है । कोई कोई जातियोंकी दो, तीन, चार, आठ, सोलह, बीस आदि अल्प मनुष्यसंख्यायें रह गई हैं। मुझे स्मरण
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CHRIMUMBALLIATLABILIRITUABALLIANIMAL
जैनहितैषी
पड़ता है कि मैंने कहीं पढ़ा था कि मनुष्यगण- अधिकांश ही, सब इसलिए नहीं कि मैंने आपको नाकी सरकारी रिपोर्ट के अनुसार हमारी कौममें ५५ अभी बतलाया कि १५ से ४० वर्षकी आयुकी जातियोंकी मनुष्यसंख्या १०० से भी कम है, तथा कुआरी स्त्रियोंकी संख्या ५,९२८ है, अतएव यदि १७ जातियां ऐसी हैं जिनकी मनुष्यसंख्या बराबर इनके साथ २० से ४५ तककी आयुके कुआरोंका घट रही है । गत वर्ष मैंने अपनी जाँगडा पोरवाड़ विवाह कर दिया जाय तो भी ५९,९१२ मेंसे जातिकी एक उपजातिकी मनुष्यगणना कराई थी केवल ५,९२८ कुआरे विवाह कर सकेंगे, और तो जान पड़ा कि उसमें केवल २७७ पुरुष तथा ५३,९८४ पुरुष फिर भी कुआरे रह जायेंगे जो २९२ स्त्रियां थीं । महाशयो, क्या यह बतानेकी संतान उत्पन्न करनेके योग्य होते हुए भी अविवाआवश्यकता है कि हमारी कौममें इस प्रकारकी हित रहनेके कारण ऐसा नहीं कर सकेंगे । ऐसी अल्पसंख्यक अनेक जातियोंका होना यह भी इसका अवस्थामें हमें क्या करना चाहिए, इस पर विचार कारण है कि हमारे यहां कुऑरे कुँआरियोंकी करनेकी कितनी आवश्यकता है उसका, महाशयसंख्या इस प्रकार अधिक है, और यदि हमें इनकी गण, आप ही अनुमान करें । इस विचारके लिए संख्या घटानेकी इच्छा है-यदि हम अपनेमें हमें एक बात और भी जाननी चाहिए और वह जन्म-परिमाणको बढ़ाया चाहते हैं---यदि हम यह है कि हमारी कौममें विधवाओंकी संख्या बहुत अपनी संख्याके -हासको रोकना चाहते हैं तो ही अधिक है-अन्य कौमोंसे भी अधिक हैहमें इस अनावश्यक, कृत्रिम तथा हानिकारक तथा अन्य कौमोंमें वह संख्या घटती जा रही है जातिभेदको उठाकर परस्पर खानपान तथा पर- परन्तु हमारी कौममें बढ़ती जा रही है । सन् ११ स्पर विवाहका प्रचार करनेका उद्योग करना चाहिए। की मनुष्यगणनाके अनुसार हमारी कौममें ६,०४, प्रिय बन्धुओ, हमको यह उद्योग अवश्य करना ६२९ स्त्रियोंमेंसे १,५३,२९७ अर्थात् प्रतिसेकड़ा होगा। हमारी कौममें जो जातिभेद है वह परं- २५.३ स्त्रियां विधवा हैं-दूसरे शब्दोंमें चार परागत व्यवसाय-भेदके ऊपर हिंदुओंके जातिभेद- स्त्रियोंमें तीन स्त्रियां सधवा और एक स्त्री विधवा के समान अवलांबत नहीं है, न हमारे यहां जाति- है। बौद्धोंमें सन् ९१ में ११.६, सन् ०१ में योंमें ऊंच नीचका कोई अनुक्रम है । अतएव ११, तथा सन् ११ में १०.५ प्रति सैकड़ा स्त्रियां भारतमें बढ़ती हुई व्यवसाय-चुननेकी स्वतंत्रतासे विधवा थीं; ईसाइयोंमें सन् ९१ में १२.६, सन् जातिभेद दूर होनेका जो स्वाभाविक क्रम चल रहा ०१ में १२.६ तथा सन् ११ में ११.८ प्रति है उसके ऊपर हम अपनी जातियोंको एक कर- सैकड़ा स्त्रियां विधवा थीं; पारसियोंमें सन् ९१ में नेका कार्य नहीं छोड़ सकते-हमें इसके लिए मानवी १३.८, सन् ०१ में १४.२ तथा सन् ११ में उद्योग करना होगा। महाशयो, अब हमें तीसरी १३.५ प्रति सैकड़ा स्त्रियां विधवा थीं; मुसलमानोंमें सम्मति पर विचार करना चाहिए। मान लीजिए सन् ९१ में १५, सन् ०१ में १५.१ तथा सन् कि हमने हमारी कौममेंसे जातिभेदको उठा दिया ११ में १४.६ प्रति सैकड़ा स्त्रियां विधवा थीं; तथा परस्पर-विवाहका प्रचार कर दिया । निःस- सिक्खोंमें सन् ९१ में १५, सन् ०१ में १३.८ न्देह इसका परिणाम यह होगा कि हमारी जातिमें तथा सन् ११ में १५ प्रति सैकड़ा स्त्रियां विधवा संतान-उत्पन्न करने योग्य जो पुरुष कुआरे हैं थीं; हिन्दुओंमें सन् ९१ में. १७, सन् ०१ में उनमेंसे अधिकांश विवाह कर सकेंगे-केवल १९३, तथा सन् ११ में १८.७ प्रति सैकल
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CTATIHARMATHAMALAMMARILLERALIAMAMALAHAMALITAL
सभापतिका व्याख्यान ।
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स्त्रियां विधवा थीं; परन्तु हमारी जैन कौममें सन् प्रयत्न करना कौमके लिए हानिकारक होगा। यदि ९१ में १३.२, सन् ०१ में २३.१ तथा सन् विधवा-विवाह धर्म तथा नीतिके विरुद्ध और ११ में २५.३ प्रति सैकड़ा स्त्रियां विधवा थीं। हानिकारक है तो क्या यह आवश्यक नहीं है कि सन् १९११ की हमारी विधवाओंकी संख्या जो इसकी चर्चा करके यह सिद्ध कर दिया जाय ? मैंने आपको बताई उसमें से यदि हम केवल २० क्या इसकी चर्चाको रोकनेका परिणाम यह नहीं से ४० वर्ष तककी ही आयुकी स्त्रियोंका लेखा होगा कि जिनकी सम्मतिमें यह हानिकारक नहीं है लगावें तो विदित होता है कि २० से ४० वर्ष वे उसके पक्षकार रहकर उसके प्रचारका उद्योग तककी आयुकी २,०४,७०५ स्त्रियोंमें से ४८, करते रहेंगे ? और यदि यह हानिकारक नहीं है न ४६६ अर्थात् २३३ प्रतिसैकड़ा स्त्रियां विधवा बुरा है, अथवा बुरा होकर भी आवश्यक है, तो क्या थीं जो यदि सधवा होती अथवा हों तो सन्तान इसकी चर्चाको रोकना अपने आपको नुकसान उत्पादन कर सकी होती या कर सकें । महाशयो, पहुंचाना नहीं है ? मैं तो समझता हूं कि इस विषयकी इन्हीं बातोंका विचार कर यह सम्मति दी जारही चर्चा अवश्य होकर हमें देखना चाहिए कि यह है कि हमें विधवाविवाहका प्रचार कर हमारी कौ- हमारे लिए आवश्यक है या नहीं।
ही नो क्रमको रोकना चाहिए । मेरी सम्मात- महाशयो इस विषयपर जरा दृढ होकर हमें में इनके साथ हमें ऐसा मत निश्चित् करनेके लिए विचार करना चाहिए, और केवल अपनी
और भी अनेक बातें हैं जिनपर विचार करना कोमलहृदयताहीसे काम न लेना चाहिए। इसस होगा । माना कि यदि हम विधवा विवाहको न
। विवाहका उद्देश भंग होता है-प्रेमका आदर्श मारा रोकें तो २० से ४५ वर्षकी आयुके ५३,९८४
जाता है-इत्यादि इसी प्रकारकी अपेक्षाओंसे इसका पुरुष जो अविवाहित बच जाते हैं उनके लिए
विचार करना पर्याप्त न होगा; हमें हमारी कौमकी १५ से ३५ वर्षकी आयुकी ३४,४११ विधवायें ।
! सख्यामें बढ़ती हुई क्षतिकी अपेक्षासे भी इसपर मिल सकती हैं, परन्तु साथहीमें अन्य बातोपर
' विचार करना होगा । व्यक्ति विशेष इसे भले ही बुरा विचार करना भी आवश्यक होगा।
समझें-हमारी सम्मतिमें स्त्रियोंका तो क्या पुरुषोंका प्रिय प्रतिनिधिगण, हमें स्मरण रखना होगा भी स्वेच्छापूर्वक विधवा अथवा विधुर रहना भले ही कि विधवा-विवाहकी चर्चा मात्रके विरुद्ध हमारी श्रेष्ठ हो-बलात् वैधव्यको कोई कोई भले ही अच्छा कौममें एक प्रबल भाव विद्यमान है। जैन कौम समझते हों-परन्तु हमको जानना होगा कि हमार । इस विषयकी चर्चा तक करना महापाप समझती जीवन केवल हमारा नहीं है-वह केवल हमारी संपत्ति है, तथा इस विषयपर विवेचन तक करना हमारी नहीं है, जिस समाजमें हमने जन्म धारण किया है कौमके धार्मिक भावके लिए घृणोत्पादक है। उसका भी हमारे जीवनपर अधिकार है । जातियोंके हमारे जैनी भाई इसे महा निंद्यकर्म मानते हैं तथा जीवनमें ऐसे अवसर भी आते हैं जब उस जाति के ऐसा जान पड़ता है कि किसी भी दशामें उन्हें मनुष्योंको उसके लाभके लिए उसकी रक्षाके लिएइसका विचार स्वीकृत न होगा। यद्यपि महाशयो, अपने व्यक्तिगत सिद्धान्तोंकी बलि देना पड़ती है। मैं इस समय इस विषयके गुण दोषोंकी चर्चा नहीं जिस जातिके मेंबर ऐसा करनेके लिए तत्पर रहते किया चाहता, परन्तु यह कहना अपना कर्तव्य हैं वही जाति सदा जीवित रहती है। संसारका समझता हूं कि इसकी चर्चा तकको रोकनेका इतिहास यही बात बताता है कि अपनी रक्षा के
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जैनहितैषी -
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लिए - अपने आपको सर्वनाशसे बचाने के लिए-जन समाजोंको अनीप्सित साधनों का प्रयोग करना पड़ता है । स्पार्टन लोगोंका इतिहास - लाइकरगसके नियम --- इस बातकी साक्षी दे रहे हैं । यदि मान लिया जाय कि हमारे लिए केवल दो ही बातें हैं - अर्थात् एक तो हमारी कौमका अंत और दूसरे विधवाविवाहके समान अनीप्सित साधनों का प्रयोग - तो ऐसी दशा में हमारा कर्तव्य क्या है, इसका हमें अच्छी तरह विचार करना चाहिए । अतएव यह आवश्यक सिद्ध होता है कि इस विषयकी चर्चाको न रोका जाय । मिथ्यात्वका खंडन करते समय हमारे आचार्योंने मिथ्यात्वकी चर्चा की है तब हमें इसकी चर्चा मात्र में पाप मानना उचित नहीं । x +
बालविवाह किस प्रकार हमारी जातिके मनुष्यत्वका नाश कर रहा है उससे शायद ही कोई ऐसा निकले जो परिचित न हो। + ÷ अब भी हमारी कौममें चौदह २ पंद्रह २ वर्षके भीतर ही बालकोंके तथा ग्यारह २ बारह २ वर्षके अंदर ही बालिका - ओंके विवाह किये जाते हैं । सन् १९११ की मनुष्य-गणना प्रकट करती है कि हमारी कौममें २० वर्ष तककी अवस्थाके २५,७४३ पुरुष तथा १५ वर्ष तककी अवस्थाकी २७,५५६ स्त्रियोंके विवाह हो चुके थे । निःसन्देह यह दुःखकी बात है, परन्तु यह जानकर और भी हमें दुःख होना चाहिए कि १५ वर्ष तककी आयुकी १,२५९ लड़कियां हमारी कौममें विधवायें थीं जिनमें से ९२ विधवायें तो पांच वर्ष से भी कम अवस्था की थीं। भारत की अन्य कौमोंमें बालविधवाओंकी इतनी संख्या देखने में नहीं आती । पंद्रह वर्ष तककी आयुकी प्रति १०,००० स्त्रियोंमें बौद्धों में एकसे भी कम ईसाइयों में १२, पारसियों में १४, सिक्खों में ३०, मुसलमानोंमें ४०, जैनियों में ६२ तथा हिन्दुओंमें ६९ विधवायें हैं । इस परसे आप विचार कर सकतें हैं कि हमारी समाज में बालविवाहका कितना प्रचार
है । महाशयो, यह बालविवाह हमारे जीवन रक्तको पीता जारहा है, हमारे युवकों के स्वास्थ्यका नाश कर रहा है; विवाहके उद्देशपर पानी फेर रहा है; दाम्पत्य - प्रेमको हवा करता जारहा है; बालकों के चरित्रको बिगाड़ रहा है; तथा बिना प्रेम उत्पन्न करके समाजको अवनतिके गढ़े लिये जारहा है। इसी प्रकार वृद्ध पुरुषोंके साथ अल्पवयस्क बालिकाओंका विवाह भी हमारी जाति में बालविधवाओंकी संख्याकी वृद्धि कर रहा तथा समाजमें दुराचारका प्रचार किये जारहा है ! विवाह के अवसरपर नाच करानेकी रीति हमारे युवकों के चरित्रको बिगाड़ती हुई हमारी कौम की भावी संतानको सदा अकर्मण्य बनाती जारही है । विवाह तथा मृत्यु आदि संस्कारोंके समय पंगतों आदि व्यर्थ व्यय करना हमारी आर्थिक दशाको खराब करता जारहा है । अनेक व्यर्थ रीतियां हमारे बहुमूल्य समयका सदा नाश करती जारही हैं । इन सब कुरीतियों को बंद करना हमारे लिए बहुतही आवश्यक है । + + कुरीतियोंको बंद करने की आवश्यकता तो सब कोई स्वीकार करते हैं, परन्त अपने मतका पालन करनेवाले व्यवहारमें बहुत कम दिखलाई पड़ते हैं - यहां तक कि जो स्वयं इन बातोंका उपदेश देते हैं वे भी कार्यका जब समय आता है तब अपने ही मत के विरुद्ध कार्य करते हैं। इसका कारण मनुष्यकी स्वाभाविक प्राचीन प्रियता के सिवाय क्या हो सकता है ? मनुष्य सामाजिक जीव होनेके कारण जिस समाजमें रहता है उसकी स्वीकृति, उसकी Sanction, के बिना वह किसी भी रीतिका पालन अथवा उल्लंघन करना नहीं चाहता । तब यह प्रश्न पैदा होता है कि क्या जाति-पंचायतों द्वारा हमें जातिसुधारका प्रचार करना चाहिए ? महाशयो, मेरी सम्मतिमें इससे भी कुछ लाभ न होगा, बरन् .. फूट पैदा होकर लाभके पलटे हानि होगी, क्योंकि हमारी
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Auru
BABAALBUMAOBABILIARI
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जाति-पंचायतें इतनी गिरी दशामें हैं कि उन्हें अज्ञानकी कमी होती जारही है । हिन्दुओंमें प्रति सुधारनेके उद्योगमें जो काल लगेगा तबतकसंभव सहस्रमेंसे सन् १८९१ में ८३, सन् ०१ में ९४ है कि इनका अस्तित्व ही न रहे । तब क्या हमें तथा सन् ११ में १०१, सिक्खोंमें प्रति सहस्रमेंसे निराश होकर सामाजिक-सुधारका कार्य ही छोड़ सन् ९१ में ८३, सन् ०१ में ९८ तथा सन् ११ देना चाहिए, और यदि नहीं तो फिर हमारी में १०६; बौद्धोंमें प्रति सहस्र सन् ९१ में ४११, आशाका आधार क्या होना चाहिए ? मैं तो यही सन् ०१ में ४०२ तथा सन् ११ में ४०४; पारसिकहूंगा कि हमें निराश न होना चाहिए, तथा हमारी योंमें प्रति सहस्रमेंसे सन् ९१ में ५८३, सन् ०१. आशाका आधार होना चाहिए हमारी भावी संतान में ७५६ तथा सन् ११ में ७८२; मुसलमानोंमें -हमारे होनहार युवा । महाशयो, यह आशा प्रति सहस्रमेंसे सन् ९१ में ५४, सन् ०१ में ६० करना कि जो पुरुष जीवनभर अफीम खाता आया तथा सन् ११ में ६९; ईसाइयोंमें प्रति सहस्रमेंस हो वह अफीम खाना वृद्धावस्थामें छोड़ दे यह सन् ९१ में २७३, सन् ०१ में २९१ तथा सन् निरर्थक है; नवीन पौधोंको. झुकाना सहज है, ११ में २९३ पुरुष पढ़ना लिखना जानते थे । परन्तु एक बढ़े हुए वृक्षको झुकानेकी आशा इससे स्पष्ट है कि शिक्षाके क्षेत्रमें हम अन्य कौमोंके करना व्यर्थ है । x x इसीलिए, महाशयो, पीछे नहीं हैं, तथा पारसियोंके पश्चात् हमारा ही सामाजिकसुधारकी आशा इन जातिमुखियाओंसे नंबर है । इसी प्रकार अँगेरेजी पढ़े लिखोंकी संख्या न कर मैं अपनी आगामी पीढीसे करता हूं। हमारी कौममें भी अन्य कौमोंके मुकाबलेमें ठीक मैं अनुमान करता हूं कि ऐसे ही विचारोंसे ही है। प्रति दशसहस्रमेंसे अँगरेजी पढ़ना लिखना इस महामंडलके संस्थापकोंने इसका नाम आदिमें जाननेवाले पुरुषोंकी संख्या प्रत्येक कौममें इस जैन यंगमेन्स एसोसिएशन रक्खा होगा। यदि हम प्रकार थी:अपनी संतानको-अपने बालक बालिकाओंको- सन् १९०१ में सन् १९११ में उचितरीतिसे शिक्षा देवें तो मुझे विश्वास है कि ये हिन्दुओंमें- .... ६४ ... ही लोग बड़े होनेपर समाजसुधारका प्रचार करेंगे। सिक्खों में- ... ५२ ... ६६ अतएव इस कार्य के लिए जो उद्योग हम अबतक जैनियों में- ... १३४ ... २०२ करते आ रहे हैं उसे जारी रखते हुए अपनी बौद्धोंमें- .... २४ .... ४१ आशाके भावी आधार, अपनी संतानकी उचित पारसियोंमें- ... ४,०७५ ... ४,९५६ शिक्षाकी ओर हमें ध्यान देना चाहिए, और यह मुसलमानोंमें- ... ३२ ... ५१ मुझे हमारी कौममें शिक्षाकी अवस्थाका स्मरण ईसाइयों में- ... १,२८९ ... १,२५६ दिलाता है।
इससे यह जान पड़ता है कि जैनियोंकी अपेक्षा प्रिय प्रतिनिधिगण, हमारे लिए शिक्षाका प्रश्न भी हिन्दुओंमें शिक्षाका प्रचार कम है । इसका कारण बहुत बड़े महत्त्वका है x: मनुष्य-गणनाकी रिपोर्टोसे यह है कि हिन्दुओंमें अनेक पिछड़ी हुई जातियां आपको ज्ञात ही होगा कि हमारी कौममें प्रति सम्मिलित हैं जो पूर्णतया अशिक्षित हैं, किन्तु सहस्रमेंसे सन् १८९१ में ४४१, सन् १९०१ में आर्यसमाजियोंमें प्रति सहस्र ३९४ पुरुष पढ़े लिखे ४७० तथा सन् १९११ में ४९५ पुरुष पढ़ना तथा प्रति दश सहस्र ७१९ पुरुष अंग्रेजी पढ़े लिखे लिखना जानते थे, अर्थात् हमारी कोममें प्रतिदिन और ब्रह्मसमाजियोंमें प्रति सहस्र ७३९ पुरुष पढ़े
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लिखे तथा प्रति दशसहस्र ५,८१६ पुरुष अँगरेजी पढ़े लिखे हैं । पढ़न। लिखना तथा अँगरेज़ी जान"नेवाली स्त्रियोंका लेखा इस प्रकार है:
प्रति सहस्र पढ़ना लिखना जाननेवाली स्त्रियोंकी संख्या:
सन् १८९१
३
३
९
२२
सन् १९०१
१
हिन्दुओं में
सिक्खों में -
जैनियों में -
बौद्धों में
३९८....
६३७
इसके साथ में हमें यह भी विचार करना
पारसियोंमेंमुसलमानों में- २ ३ ईसाइयोंमें
४
९७
१२५...
१३५
चाहिए कि हमारी शिक्षाकी पद्धति कैसी हो । x + प्रथम हमें बालकोंकी प्राथमिक शिक्षाको लेना प्रति दशसहस्र अँग्रेज़ी पढ़ना लिखना जानने चाहिए । इस बात को हम सबको मानना पड़ेगा कि बाली स्त्रियोंकी संख्याः
सरकारी प्राथमिक पाठशालाओं में हमारे बालकों को जो शिक्षा मिलती है वह किसी २ अंशमें हमारे २ लिए अत्यंत हानिकारक है । उससे होनेवाली २ हानियों को देखते हुए हम अपने बालकों को सर
३ कारी पाठशालाओंके भरोसे नहीं छोड़ सकते । × ÷
२
१,७०४
।
परंतु इसके लिए पृथक् पाठशालायें खोलना ठीक नहीं । यह हमारी शक्तिके भी बाहर है । इसके लिए हिसा करने से हमें कमसे कम ४० लाख रुपये आरंभिक व्ययके लिए तथा ३० लाख रुपये वार्षिक व्ययके लिए आवश्यक होंगे । और यदि यह साध्य भी हो तो भी मेरी सम्मतिमें तो ऐसा करना सर्वांश में वांछनीय नहीं है । हमारे परम प्रिय सम्राट् महाराजा पंचम जॉर्जने चार वर्ष हुए तब दिलोबरके समय अपनी यह इच्छा प्रकट की थी कि इस सारे देश भर में पाठशालाओं तथा कॉलेजों की जाल फैला दी जाय, यह हम भूले नहीं हैं । महाराजा जॉर्जकी इस इच्छा को किसी अंशमें पूर्ण करनेके अभिप्रायसे भारत गवर्नमेंटने वर्तमान समयमें बालकोंके लिए जो अनुमान एक लाख आरंभिक पाठशालायें हैं उनके सिवा थोड़े ही दिनों में
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सन् १९०१ सन् १९११
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७
...
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१
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जैनहितैषी -
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हिन्दुओं में
सिक्खोंमें
जैनियोंमें
बौद्धों में
पारसियों में
- मुसलमानों में
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ईसाइयों में
६१५...
६०४ महाशयो, इसपरसे हमारी कौमकी शिक्षासंबंधी - दशा संतोषदायक जान पड़ती है, परन्तु हमें जानना चाहिए कि केवल पढ़लिखलेना शिक्षित होना नहीं कहा जासकता । शिक्षाका अर्थ इससे बहुत बडा है । खेद की बात है कि सरकारकी शिक्षासंबंधी रिपोर्टों में जैनजाति हिन्दुओंमें सम्मिलित - रहती है, अतएव हम यह नहीं जान सकते कि हमारी कौममें उच्च शिक्षा, अथवा माध्यमिक शिक्षा या कमसे कम प्राथमिक शिक्षाकी क्या दशा है, तो भी अनुभव से हम यह कह सकते हैं कि हमारी जातिमें उच्च शिक्षितोंकी अथवा माध्यमिक शिक्षा
८
१४
४०
५८
सन् १९११
प्राप्तोंकी संख्या बहुत ही अल्प है, और स्त्रियों में तो इनकी संख्या और भी अल्प होगी । यदि पढ़ना लिखना जाननेवाले पुरुष तथा स्त्रियाँ दोनोंको मिलाकर देखा जावे तो प्रति सैकड़ा २७ पुरुष स्त्रियाँ लिखना पढ़ना जानते हैं, अर्थात् १०० मेंसे ७३ मनुष्य निरक्षर हैं । इंग्लैंड, जर्मनी तथा जापान आदि देशों में पढ़े लिखोंकी संख्या प्रति सैकड़ा ९९,९८ तथा ९७, इस प्रकारकी है । ऐसी दशा में, महाशयो, आप विचार कीजिए कि जैन जातिमें शिक्षाप्रचारकी कितनी बड़ी आवश्यकता है।
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सभापतिका व्याख्यान ।
अवसर
अनुमान ९१००० पाठशालाएं और स्थापित कर प्रारंभिक शिक्षाको फैलानेका निश्चय किया है । यद्यपि युद्ध के कारण इस निश्चयके अनुसार कार्य नहीं हो सका है तो भी हमें विश्वास रखना चाहिए कि गवर्नमेंट अपने कथनके अनुसार मिलनेपर अवश्य कार्य करेगी । ऐसी दशामें महाशयो, क्या हमारे लिए यह बुद्धिमानीका कार्य होगा कि सरकार की इन पाठशालाओंसे हम पृथक् रहकर कुछ भी लाभ न उठावें ? हम लोग भी तो सरकारको टेक्स देते हैं । फिर अन्य कौमें तो सरकारकी आयसे Government revenues से शिक्षासंबन्धी लाभ लें और हम अपने को उससे अलग रक्खें क्या यह हमारे लिए अनुचित न होगा? क्या यह श्रेष्ठ न होगा कि हम सरकारसे इस बातकी प्रार्थना करें कि जिन २ बातोंमें इन पाठशालाओंकी शिक्षा हमारे लिए हानिकारक है उन २ बातोंमें उसका सुधार कर उस शिक्षाको अपने उपयुक्त बनावें ? हमारे मुसलमान भाइयोंने इसी नीतिका अवलंबन कर बहुत कुछ सफलता प्राप्त की है, और हम लोग इस नीतिका त्यागकर अपनी पृथक् पाठशालायें स्थापित करते जारहे हैं । हमें स्मरण रखना चाहिए कि अन्यको कौमोंके समान हमें भी स्वत्त्व है कि गवर्नमेंट हमारे उपयुक्त शिक्षा हमारे बालकों को देनेका प्रबंध करे ।
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महाशयो, हमें इस बातका और भी स्मरण रखना चाहिए कि आजकल सरकारी पाठशालाओंमें जितना पढ़ाया जाता है उतना ही बालकोंकी शक्तिके बाहर होनेसे उसका उनके स्वास्थ्यपर बुरा असर होता है, क्रिन्तु हम लोग धार्मिक शिक्षाके लिए पृथक् पाठशालाएं स्थापित कर बालकोंके सिरपर अभ्यासका बोझा डाल उनका स्वास्थ्य और भी खराब करनेकी मानो योजना करते हैं। क्या यह श्रेष्ठ न होगा कि हम गवर्नमेंटसे इस बात की प्रार्थना करें कि हमारे बालकोंको
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धार्मिक शिक्षा सरकारी पाठशालाओंही में पठनकालके भीतर ही देनेका प्रबंध सरकार हमारी सहायतासे करे | यह सच है कि इस विषय में गवर्नमेंट की वर्तमान नीति हमारी इस इच्छा के अनुकूल नहीं है 1 + + धार्मिक शिक्षाके संबन्ध में गवर्नमेंट स्वयं कुछ नहीं किया चाहती, तौ भी मुझे तो आशा है कि यदि हम उचित उद्योग इस बात के लिए करें कि सरकारी पाठशालाओं मैं पठन समयके अंदर ही - Within the school hours — हमारी कौमके बालकोंको धार्मिक शिक्षा देनेका प्रबंध करनेके लिए हमें अनुमति दी जाय तो हमारा उद्योग अवश्य सफल होगा। साथही में मेरी सम्मतिमें खास २ स्थानों में, जहां हमारे बालकों की संख्या अधिक हो वहां हमें एडेड प्रारंभिक स्कूलें खोलनी चाहिए जिनके लिए हम गवर्नमेंटसे आर्थिक सहायता भी पा सकते हैं क्यों कि ऐसा करनेकी इच्छा गवर्नमेंटने प्रकट की है । यदि हम इस नीतिका अनुसरण करेंगे तो निश्चयमेव कुव्यवस्थित पृथक् पाठशालायें स्थापित करनेकी अपेक्षा हमको अधिक लाभ होगा । सरकारी शिक्षापद्धति में धार्मिक शिक्षाका जो अभाव है मैं समझता हूँ कि उसे हमें इसी नीतिसे दूर करना चाहिए । नैतिक शिक्षा के अभावको दूर करनेका सरकारी प्रयत्न आरंभ है । इस प्रकार सरकारी शिक्षापद्धतिमेंसे हमें अन्यान्य दोषों को भी दूर करनेका उद्योग करना चाहिए । परन्तु प्रियप्रतिनिधिगण, मेरे बताये हुए इस मार्ग में यह आपत्ति की जायगी कि इस प्रकारकी अल्पकालिक धार्मिक शिक्षा कदापि यथेष्ट नहीं हो सकती है, और इसलिए उससे अधिक लाभ न होगा । मैं इस प्रकारकी आपत्ति करनेवालोंसे प्रश्न करता हूं कि धार्मिक शिक्षाका अर्थ क्या है ? हमारे धर्ममें तो सब हीं विषय गर्भित हैं - यथा दर्शनशास्त्र, आत्मविया, नीतिविद्या, भूगोलविद्या, न्यायविद्या, इतिहास, नाटक, कथा इत्यादि । क्या हमारे बालकों को आरंभ
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MATLATIMILIGIBILITALD
जैनहितैषीimmifinitiinfmin
कालहीसे इन सब विद्याओंका अध्ययन करना धर्मकी शिक्षाका प्रबंध करनेका तथा कुछ स्थानों में चाहिए ? अथवा क्या यह आवश्यक है कि प्रत्येक हाइ स्कूलोंके खोलनेका उद्योग हमें करना चाहिए। जैनको इन सब विषयों में विशारद ही होना चाहिए, उच्चशिक्षाके लिए कालेजोंके साथम बोडिंग हाउस
और क्या यह संभव है ? क्या प्रत्येक व्यक्तिके खोलकर हमें धार्मिक शिक्षाको व्यवस्था करना चाहिए लिए उचित विषयका निश्चय करनेमें व्यक्तिगत तथा हमारे प्रसिद्ध नेता सेठ मानकचंद हीराचंदके रुचिकी ओर बिलकुल ध्यान न देना चाहिए ? बताये हुए मार्गको हमें न छोड़ना चाहिए परन्तु, क्या हमें Jack of all-master of none महाशयो, इसीके साथ में हमें एक · सेंट्रल जैन विद्वान् पैदा करने चाहिए ? महाशयो, आप यह कॉलेज ' खोलनेके लिए भी उद्योग अवश्य करना कदापि न समझें कि मैं धार्मिक शिक्षाका विरोधी चाहिए । जैन कॉलेजका प्रश्न एसोसिएशनकी ही हूं, किन्तु मैं यह अवश्य कहूंगा कि धार्मिकशिक्षाके आयुका है, परन्तु खेद इस बातका है कि इसकी केवल नाम पर ही मोहित होकर हमारे युवकोंको चर्चा तो हम बराबर करते जाते हैं, परन्तु इसके हमें निरर्थक नहीं बनाने चाहिए । इसमें कोई सन्देह लिए कार्य हमने अबतक कुछ भी नहीं किया । नहीं कि लौकिक तथा उदारSecular and liberal मेरी सम्मतिमें हमें उचित है कि हम एक कमेटी शिक्षाने भी संसारको बहुत कुछ लाभ पहुँचाया है। नियुक्त करें जो इस प्रश्नपर सलाह करके हमें इस उसमें एक गुण यह है कि वह हृदयको सत्य ग्रहण बातकी सम्मति दे कि किस स्थानपर हमें यह कॉलेज करनेके योग्य बनाती हुई उसे सत्यके लिए सदा स्थापित करना चाहिए, इसके प्रबंधके लिए क्या खुला रखती है । स्वामी विवेकानंद तथा रामतीर्थक योजना करनी चाहिए तथा इसके लिए द्रव्य कितना समान अनेक उदाहरणोंके रहते मैं यह माननेको तथा किस प्रकारसे हमें एकत्रित करना चाहिए तैयार नहीं हूं कि स्कूलों व कालेजोंकी शिक्षा हमें और इसका संबन्ध सरकारी विश्वविद्यालयोंसे रखना निरे भौतिक-वादी बनाती है। यदि जैनधर्म सत्य चाहिए अथवा यह नवीन हिन्दू विश्वविद्यालयका है तो उसे कोई भी डर नहीं है । मैंने स्कूलमें गर्भित अथवा Constituent कॉलेज होना चाहिए। सीखा था कि, ' मनुष्य मकान बना सकता है, पर भाइयो, यह जो मैंने निवेदन किया वह साधारण क्या वह पत्थर बना सकता है ? तब पत्थर किसने शिक्षाके संबन्धमें है। विशेष-शिक्षाके लिए हमें बनाये ? परमात्माने-परमात्मा इस सृष्टिका कर्ता है। विशेष संस्थायें स्थापित करनी चाहिए । वह शिक्षा जैनधर्म बौद्धधर्मकी शाखा है, और वह उसीके बाद कोई शिक्षा नहीं जो कौमकी आवश्यकताओंको छठवीं सदीमें निकला ।' मैंने कॉलेजमें बाइबल ही पूर्ण न करे । जैनधर्म जो वैश्योंका धर्म कहा जाता पढ़ी । परन्तु न तो मैं सृष्टिकर्तावादी हूं न ईसाई है यह ठीक है क्योंक हमसेंसे अधिक व्यापारी होगया हूं, इसलिए इस बातका बहुत बड़ा भय वर्गके हैं। मध्यभारत एजेंसीमें सन् ११ में जैनियोंकी रखनेकी कोई आवश्यकता नहीं कि निरी लौकिक संख्या ८७,४७५ थी, उनमें से ६३,३८९ का शिक्षा बालकोंको धर्म-भ्रष्ट कर देगी । 'जैनधर्मसे व्यवसाय व्यापार था । अन्य स्थानोंका हाल मुझे
अविरुद्ध ' शिक्षा पर इतना जोर दिया जाता देख विदित नहीं, परन्तु मैं कह सकता हूं कि अन्य मैंने ये विचार प्रगट करनेकी आवश्यकता समझी। स्थानों में हमारे व्यापार-व्यवसायी भाइयोंका परिमाण,
इसी प्रकार महाशयो, माध्यमिक शिक्षाके लिए और भी अधिक होगा । इसीसे हमें यह सम्मति दी भी सरकारी माध्यमिक पाठशालाओंमें हमें अपने जाती है कि हमारी पाठशालाओंमें केवल धार्मिक
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SARALLULABULLETIMARATIBE पनि सभापतिका व्याख्यान।
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तथा व्यापारिक जैसे मुनीमी इत्यादिकी शिक्षा देनी “प्राकृत प्राचीन-प्रियता यह मानवी हृदयकी चाहिए । प्रश्न यह है कि जैनधर्म क्या केवल बनि- स्वाभाविक प्रवृत्ति है । मनुष्यका स्वभाव परिवर्तनके योंका-व्यापारी-मुनीमोंका-धर्म रहनेसे संतुष्ट होगा ? प्रतिकूल ही होता है, और इसके दो कारण हैं-- वह कौम कौम नहीं जिसमें सब प्रकारके व्यक्ति न एक तो अज्ञातका अविश्वास तथा काल्पनिक हों-व्यापारी, कलाकौशलके जाननेवाले, राज्यकर्ता, विवेचनकी अपेक्षा अनुभव पर अधिक अवलंबन कानूनके जाननेवाले, लेखक, कवि, डॉक्टर, न्याया- और दूसरा मनुष्यका वह स्वभाव जिसके कारण वह धीश, सैनिक, धर्मप्रचारक, कृषक, परिश्रम करनेवाले, अपनी परिस्थितिके अनुकूल अपनेको बना लेता इत्यादि । क्या पृथक् पाठशालायें खोलकर हम है जिससे अपरिचितकी अपेक्षा परिचित उसे अपनी इस बड़ी आवश्यकताको पूर्ण कर सकते अधिक स्वीकृत तथा सह्य होता है । ” यद्यपि यह हैं ? महाशयो, निःसन्देह इसके लिए हमें सरकारी सत्य है तो भी हमें स्मरण रखना चाहिए कि एक विद्यालयोंका सहारा लेना पड़ेगा-हमारे युवकोंको जीवित वस्तुके लिए--living organism के विदेशोंमें भेजना पड़ेगा । साथहीमें हमारे धर्मके लिए-परिवर्तन अपरित्याज्य है। “ प्रत्येक वस्तु प्रचारके लिए हमें अनेक व्यक्ति ऐसे तैयार करने सतत परिवर्तनहीसे विद्यमान रहती है, " यह एक होंगे जो हमारे धर्मके पूर्ण ज्ञाता हों तथा जिन्हें अन्य प्राचीन ग्रीकका कथन है । लॉर्ड रोज़बरीके इस धर्मोंका-समस्त विद्याओंका-पाश्चात्य साइंस,
2 कथनकी सत्यता हमें माननी ही होगी कि,
- दर्शन, न्याय, साहित्य तथा इतिहास आदिका-भी पर्याप्त ज्ञान हो। परन्तु मैं अपना यह मत पलटनेकी
“ The effigies and splendours of
*** tradition are not meant to cramp the आवश्यकता नहीं देखता कि इस प्रकारकी अनेक
energies or the development of a छोटी छोटी संस्थाओंकी अपेक्षा एक विशाल तथा
rigorous and various nation." क्या यह सुव्यवस्थित संस्था अधिक लाभदायक होगी। आप -
कहना सत्य नहीं है कि,"नियम व संस्थायें मनुष्यके क्षमा करें, मेरी सम्मतिमें काशी, मथुरा तथा मुरैनाके लिए हैं, न कि मनुष्य नियम व संस्थाओंके विद्यालय हमारी इस आवश्यकताको पूर्ण नहीं कर
लिए।"या तो परिवर्तनया अंत । यही प्रकृ. सकते, और इसके लिए यदि इन तीनों संस्थाओंको
तिका नियम है। मिलाकर एक विशाल संस्था बनाई जाय तो मैं समझता हूं कि अधिक लाभ होगा। * *
___" है बदलता रहता समय उसकी सभी घातें नई, प्रिय प्रतिनिधिगण, सामाजिक सुधार तथा
.. कल काममें आती नहीं हैं आजकी बातें कई ! शिक्षाप्रचारके कार्यके लिए जिस मार्गका अवलंबन
है सिद्धि-मूल यही कि जब जैसा प्रकृतिका रङ्ग होकरनेकी सम्मति मैंने प्रकट की है उसको धारण
तब ठीक वैसा ही हमारी कार्य-कृतिका ढङ्ग हो । करने के लिए आपको यह स्पष्ट जान पड़ता होगा
प्राचीन हों कि नवीन छोड़ो रूढ़ियां जो हों बुरी, कि सबसे पहले हमें अपनी कौमको इस बातके बनकर विवेकी तुम दिखाओ हंस जैसी चातुरी । लिए तैयार करना होगा कि वह परिवर्तन अथवा प्राचीन बातें ही भली हैं यह विचार अलीक है, change ग्रहण क नेको तत्पर हो । यह बात जैसी अवस्था हो जहाँ वैसी व्यवस्था ठीक है ॥" हमें मानना पड़ेगी कि हमारी जैन जाति अभी अतएव महाशयो, यदि जैनधर्म व जैन कौमको परिवर्तनके लिए, भारी परिवर्तनके लिए, तत्पर जीवित रहना है, यदि जैनधर्मको हम सब देशोंमें नहीं है। एक प्रसिद्ध अँगरेज लेखक का यह तथा सब प्रकारके लोगोंमें प्रसारित देखना चाहते कथन सर्वथा ठीक है कि
हैं, यदि हमें अपना अंत स्वीकृत नहीं है तो हमें
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MALAITICILLAImmmmmmm
जैनहितैषीRETIRTHERNImmITANTRIEI
केवल अपनी सामाजिक रूढ़ियोंको ही नहीं परन्तु हानिरहित अल्प आमोद प्रमोदके लिए भी कुछ अपने धार्मिक व्यवहारोंमें भी परिवर्तन करनेके लिए सामग्री हमें अपने भाइयों के लिए छोड़ देनमें कोई तत्पर होना चाहिए । हमारे आचारके नियम सर्वत्र हर्ज नहीं। इस संबन्धमें यह जान कर किसे प्रसएकसे नहीं हो सकते । यह मैं नहीं कह रहा हूं कि नता न होगी कि हमारी समाजमेंसे पंडित और हमें आचार्योंके सिद्धान्तोंका पालन नहीं करना बाबू, इत्यादि प्राचीन भेद उठते जा रहे हैं । हमारे चाहिए । कहनेका अर्थ यही है कि उन सिद्धान्तों- विद्वान पंडितोंके विचारोंमें धीरे धीरे परिवर्तन होता के भावका-उनके spiritका-न कि उनके अक्ष- जा रहा है । अँगरेजी पढ़े लिरेव युवक भी अब रोंका-हमें पालन करना होगा । धार्मिक सुधारके पश्चिमको अपनी उन्नतिका आदर्श मानना तथा नामहीसे हमारे जो मित्र घबड़ाने लगते हैं उन्हें पंडितोंकी ओर अनादरकी दृष्टि से देखना छोड़ते जानना होगा कि आजकल तर्कका ज़माना है । हमें जा रहे हैं । निःसन्देह हमारी उन्नतिके लिए ये सब अपने सिद्धान्तोंका अर्थ समयके भावके अनुकूल करना सुचिह्न हैं, तो भी, अब भी हमारा भावी कार्य बहुत होगा, तभी हमारा धर्म सार्वभौम धर्म हो सकेगा। बड़ा है । हमें मूढविश्वास तथा कुरीतियोंकी चट्टानें हमारा सामाजिक संगठनका धार्मिक व्यवहारके साथ तोड़ना है । जैन जातिको उठानेका कार्य हमें दृढ संबन्ध होनेके कारण दूसरेमें परिवर्तन किये कदापि आशारहित न मानना चाहिए। मैं नहीं बना हम एक भा सुधार नहा कर सकत, अतएव, समझता कि यह हमारे योग्य होगा कि हम निराश महाशयो. जैसे जैसे समय पलटता जायगा तैसे होकर जैन कौमके सुधार व उसकी उन्नतिके तैसे हमें अपने धार्मिक व्यवहारोंकी प्रणालीमें भी कार्यको छोड दें, तथा अन्य जनसमाजमें जैनधर्मका परिवर्तन करते जाना पड़ेगा। नियमोंका पालन प्रचार कर उसीके द्वारा जैनधर्मकी उन्नति करनेका कर सिद्धांतका नाश करना उचित नहीं कहा उद्योग करें । वर्तमान जैनजाति ही जैनधर्मका जासकता। हमें यह न भूलना चाहिए कि धर्मका प्रसार कर सकेगी यह हमें अवश्य मानना होगा। एक बडा उद्देश उपयोग है । वह धर्म नहीं जो कोई भी व्यक्ति जैनधर्मको ग्रहण करने के पहले यही मानव समाजको उपयोगी नहीं। जिस समय धर्म पछेगा कि जैनधर्मने भारतमें एक जनसमाजका क्या समाजको उपयोगी नहीं रहता उसी समय उसका उपकार किया है। कहा जा सकता है कि सुधा अंत समझना चाहिए । इसलिए धर्मको उपयोगी बनाये रखनेके लिए यह आवश्यक है कि समय समय
रकी चर्चा करनेवाले पापका बंध करके अपने लिए पर उसके आचार-नियमोंमें परिवर्तन किया जाय- नरकका मागे बनाते हैं परन्तु क्या इसका यह कौमकी रुढ़ियोंका सुधार किया जाय । परन्तु ,
a उत्तर उचित न होगा कि हमें नरक जाना स्वीकार भाइयो, इसीके साथ हमें यह भी स्मरण रखना है, परन्तु कौम तथा धर्मका अंत स्वीकार नहीं ? चाहिए कि इस परिवर्तनके कार्यमें हमें सावधानीसे अतएव, इस सुधारके कार्यके लिए हमें परिवर्तित काम लेना चाहिए । सामाजिक रूढियोंके बनमें कई होनेके लिए अवश्य तत्पर होना चाहिए । हम पौधे ऐसे भी हैं जिनकी यदि सम्हाल की जाय तो औरोंको जैनी बनानेका उद्योग कर रहे हैं । मैं वे सुगंधित पुष्प पैदा कर सकते हैं; सुधारके पूछता हूं कि क्या हमारी सामाजिक रीतियां तथा आवेगमें हमें इन पौधोंको भी उखाड़ कर न फेंक हमारे धार्मिक व्यवहारोंकी प्रणालीको परिवर्तित किये देने चाहिए । कौममें कई रीतियां ऐसी भी हैं जो बिना हम इस कार्य में सफलता पा सकते हैं ? हम आवश्यक नहीं तो हानिकारक भी नहीं हैं। एक ओर तो औरोंको जैनी बनानेका उद्योग करते
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को
AAI TIMILARAMBHARA
सभापतिका व्याख्यान । auntimate in IDIITCHITRITITITTER
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हैं तथा दूसरी ओर कहते हैं कि दस्सोंको जिनपूजा- जितनी सराहना की जाय उतनी ही कम है । स्वयं धिकार नहीं है । महाशयो, भारतमें धर्म व समा- उन्होंने जो ग्रन्थोंके अनुवाद इत्यादि किये हैं तथा जका घनिष्ट सम्बन्ध है । मनुष्य सामाजिक जीव मूल पुस्तकें व लेख लिखे हैं उनसे जिनवाणीके होने के कारण जनसमाजसे पृथक् नहीं रह सकता। प्रचारमें बहुत बड़ी सहायता मिली है। अन्य सज्जन यदि हम औरोंको जैनी बनाना चाहते हैं तो भी इसी प्रकार उद्योग कर रहे हैं जो प्रशंसनीय है, क्या यह आवश्यक नहीं है कि हम उन्हें अपनी परन्तु हमें संसारकी प्रायः खास खास भाषाओंमें -समाजमें भी साम्मालत करें ? क्या यह आवश्यक हमारे शास्त्र तथा जैनमत पर मूल पुस्तकें प्रकाशित नहीं है कि हम उन्हें भी अपने ही समान धार्मिक करनी होगी। आराके जैनसिद्धांतभवनको हमें एक अधिकार प्रदान करें ? परन्तु क्या आप बतायेंगे वास्तविक सेंट्रल जैन लायब्रेरी व म्यूजियम बनाना कि हमारी कौममें कितने ऐसे जन विद्यमान हैं जो होगा । स्कूलों व कॉलेजोंमें पढ़नेवाले हमारे विद्यार्थियह कहनेको तैयार हों कि
योंके लिए हमें स्वतंत्र पुस्तकें लिखकर प्रकट करनी " जो चाहता है अपना कल्याण मित्र करना,
होंगी जिससे कि वे सुगमतासे जैनसिद्धान्तोंका
साधारण ज्ञान प्राप्त कर सकें। क्या ही उत्तम हो जगदेकबंधु जिनकी पूजा पवित्र करना।
याद हम इसके लिए एक ऐसा कोर्स बनानेका दिल खोल करके उसको करने दो कोइ भी हो,
भा हा, उद्योग करें जो आरंभिक पाठशालाओंसे लेकर कलते हैं भाव सबके कुल जाति कोई भी हो ॥” कॉलेजों तकमें पढाया जा सके। क्या हम नवीन जैनियों के साथ परस्पर सामा
____ महाशयो, धार्मिक तथा सामाजिक स्थितिहीके जिक संबन्ध करनेके लिए तैयार हैं ? यदि नहीं,
नहा, समान हमें अपनी राजनैतिक स्थितिका भी अवतो क्या हमारा औरोंको जैनी बनानेका उद्योग
लोकन कर अपनी आवश्यकताओं पर विचार निष्फल न होगा ? महाशयो, मेरी सम्मतिमें तो हमें
करना चाहिए । मुझे सदा यह शिकायत रहती है इन सब परिवर्तनोंको ग्रहण करनेके लिए तत्पर
कि हमारे भाई सार्वजनिक कार्यों में बहुत ही कम होना चाहिए तब ही कौमकी उन्नति व धर्मका
भाग लेते हैं; इसी कारण हम राजनैतिक क्षेत्रमें प्रचार होगा।
भारतकी अन्य कौमोंसे पिछड़े हुए हैं । हमारे कुछ अपने धर्मके प्रचारके लिए जैनशास्त्रोंका प्रकाशित मित्र मेरे इस कथनकी सत्यता स्वीकार नहीं करना यह हमारा एक पवित्र कर्तव्य है । यह करते । मैं उनसे प्रार्थना करता हूं कि कृपया वे मुझे प्रसन्नताकी बात है कि हमारा ध्यान इस ओर बतादें कि इस समय हमारी प्रान्तिक कौसिलोंमें अधिकाधिक खिंचता जा रहा है--तौ भी कार्यके अथवा इंपीरियल कौंसिलके सभासदोंमें जैनी कितने विस्तारके आगे इसके लिए हमने जो उद्योग हैं । भारतकी अन्य जातियों के प्रधान प्रधान नेता अबतक किया है व अब कर रहे हैं वह कुछ भी इस बातपर विचार कर रहे हैं कि युद्धके बाद नहीं है। मेरे परममित्र बाबू जगमंदरलालजीके भारतकी शासन-प्रणालीमें क्या क्या सुधार किये उद्योगसे जो जैन लिटरेचर सोसायटी लंडनमें जावें । क्या आप बतायेंगे कि इनमें कितने जैनी स्थापित हुई है उससे बहुत कुछ आशा है, अतएव सम्मिलित हैं ! इसी शहरमें आजकल भारतकी हमें उसे उचित सहायता प्रदान करनी चाहिए। प्रधान राजनैतिक सभा.. इस संबन्धमें बाबू जगमंदरलालजीके परिश्रमकी का आधेवेशन हो रहा है । आप ही बताइए कि
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जैनहितैषी -
उसके प्रतिनिधियों में कितने जैनी हैं ? माना कि म्युनिसिपल कमेटियों के तथा लोकलबोडों के जैनी भाई सभासद हैं, परन्तु बताइए कि इनकी संख्या कितनी है, तथा इनमें उच्चशिक्षाप्राप्त कितने हैं? और क्या हमें यहीं तक जाकर ठहर जाना चाहिए ? मेरी सम्मति में कदापि नहीं । हमें कौंसिलों में प्रवेश करना चाहिए | परन्तु प्रश्न यह होता है कि किस प्रकार यह कार्य किया जाय । हमारे कतिपय भाइयोंकी सम्मति यह जान पड़ती है कि विशेष प्रतिनिधित्व अथवा Special representation के द्वारा हमें भी हमारे मुसलमान भाइयोंके समान कौंसिलोंमें प्रवेश करना चाहिए । महाशयगण, मेरी सम्मति इसके प्रतिकूल है । क्या आप कोई ऐसा उदाहरण दे सकते हैं कि कोई भी योग्य जैनी अथवा कोई भी जैनी कौसिलों के लिए उम्मेदवार हुआ और वह जैनी होने के कारण न चुना गया ' याद नहीं तो फिर जनरल इलेक्टोरेटके ऊपर अविश्वास प्रकट कर विशेष प्रतिनिधित्वका सत्त्व माँगनेके लिए हमारे पास क्या कारण है ? मेरी सम्मतिमें हमें कौंसिलोंमें योग्यता के राजद्दारहीसे, नार्क विशेष प्रतिनिधित्वके बगल के द्वारसे, प्रवेश करना चाहिए ।
प्यारे प्रतिनिधियों, हमें और भी दो एक कामोंको हाथमें लेना चाहिए । हमारे कुछ त्योहारों पर आम छुट्टी कराने का प्रयत्न मैं समझता हूं हमारी एसोसिएशनको करना चाहिए, क्या कि इस कार्य में तीनों संप्रदाय के सहोयोग की आवश्यकता है । हमारी एसोसिएशनको उपदेशकों द्वारा समाजसुधारके विचारोंका प्रचार करनेका अधिक उद्योग करना चाहिए । हमारे युवकोंको अन्य देशों में भेजकर उच्च औद्योगिक तथा साधारण व व्यवसायी शिक्षा दिलाने की योजना करनी चाहिए । हमारे मंदिरोंके कोषमें बहुत वन पड़ा हुआ है, उसे निकालकर शिक्षा तथा कलाकौशल के प्रचार के लिए
उसका प्रयोग करानेका प्रयत्न हमें करना चाहिए हमारी सार्वजनिक संस्थाओंका कुप्रबन्ध दूर कराकर उनका प्रबंध सुधारनेका उद्योग भी हमें अवश्य करना चाहिए, क्यों कि सार्वजनिक संस्थाओंका प्रबंध ठीक न होना बहुत हानिकारक है । हमारी एसोसिएशनकी नियमावलीका परिवर्तन कर हमें उसका संगठन ऐसा करना चाहिए जिससे एसोसिएशन तीन दिनकी लेकचरबाज़ी छोड़कर साल भर तक वास्तविक कार्य करने के योग्य हो जाय ।
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प्रिय महारायो, आपसे, विशेष कर हमारे अँगरेजीदां भाइयोंसे, मैं एक प्रार्थना और करना चाहता हूं । मैं उनका ध्यान हिंदी भाषाकी ओर - हिंदी साहित्य की ओर -- खींचना चाहता हूं। मुझे यह देखकर बहुत दुःख होता है कि हमारे अँगरेजी पढ़े लिखे भाई हिन्दीभाषा के प्रचारके कार्य में उतना उत्साह नहीं दिखलाते जितना कि उन्हें दिखलाना चाहिए । कतिपय सज्जनों को छोड़कर बाकी इस कार्य से प्रेम प्रकट नहीं करते । हिंदी जातिकी भाषा है | हिंदीका प्रचार अन्य प्रान्तोंके जैनी भाइयों में करनेसे केवल हिंदीहीकी उन्नति न होगी किन्तु हमारी जैन जाति में एकताका भी प्रचार होगा । अतएव हमें चाहिए कि हम हिंदी से प्रेम करें, हिंदी भाषा में लेख तथा पुस्तके लिखें, अपने समस्त निजी तथा सार्वजनिक कार्य हिंदी भाषामें करें, और हिंदी के प्रचार के लिए उद्योग करें ।
एसोसिएशनके सभासदगण, इस भाषणको समाप्त करनेके पहले आपसे मैं यह निवेदन करनेकी आज्ञा चाहता हूं कि जैन कौमकी उन्नति करना तथा जैनधर्मका प्रचार करना यह हमारा एक परम पवित्र कर्तव्य है । जिसने मनुष्य जन्म धारण करके अपने कुल, अपनी जाति, अपने देश, अपने धर्मकी उन्नति के लिए उद्योग नहीं किया उसने कुछ न किया । मेरे विचार में जनसमाजकी सेवा करनेमनुष्यजातिका दुःख दूर करने की अपेक्षा आत्मकल्याणका अच्छा साधन नहीं है । वही सबसे
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AmmammummomORY
लड़ना धर्म है या क्षमाभाव रखना? Chamamminimuinintinimummy
महापुरुष है जो पाप और दुःखसे लड़ता है, लडना धर्म है या क्षमाभाव जो दरिद्रता व अपराध पर विजय प्राप्त करता है-जो परोपकार करता हुआ आत्म कल्याण कर
रखना ? निर्वाण प्राप्त करता है । हमारी जाति तथा हमारे (ले०. श्रीयुत वाडीलाल मोतीलाल शाह ।) धर्मकी ओर हमारी उदासीनता हमारे लिए लज्जाकी
____ सम्पादक महाशय, मुझे आशा है कि जात है। हमें स्वतंत्रताके साथ अपने विचारोंको प्रकट करते हुए जाति तथा धर्मसेवाका कार्य करना ।
- आपकी तथा आपके अन्य स्वधर्मी भाइयोंकी चाहिए । यद्यपि हमारी संख्या थोडी है और हमारा रिसे शर्षिकके प्रश्नका यही उत्तर कार्य महान है तथापि हमें स्वर्गवासी रानडेके ये मिलेगा कि 'क्षमाभाव रखना धर्म है ।। शब्द सदा याद रखने चाहिए-अर्थात्, यद्यपि क्योंकि शास्त्र हमेशा यही उपदेश देते हैं । संख्याकी शक्ति हमारे पास नहीं तथापि हमारे कि क्रोध मान माया आदिको जैसे बने तैसे उद्देशके लिए हमारे सच्चे कार्यकर्ताओंके विश्वासका कम करो। आप भी यही कहेंगे कि धर्म तो उत्साह, भक्तिकी एकाग्रता तथा स्वार्थत्याग कर- निरुपद्रवी-किसीको जरा भी चोट न पहुँचावे, नेके लिए तत्परताकी शक्ति हमारे पास है कार्य- किसीको भी और मनसे भी दु:ख न पहुँचावे, कर्ता चाहे कम हों, परन्तु अंतमें विरोधके ऊपर ऐसा है । परन्तु धर्मकी यह पवित्र व्याख्या उन्हें जय अवश्य प्राप्त होगी।" अतएव, महाशयो, करते समय आपका हृदय तो यही कहता होगा हमें अपने उद्योगके फलकी अल्पताको देख कि 'निरुपद्रव धर्मकी रक्षाके लिए तो उपद्रवका निराश नहीं होना चाहिए । यद्यपि हम वास्तविक ही हथियार आवश्यक है।" अभिप्राय यह कि कार्य अधिक नहीं कर सके हैं तथापि हमारे उत्साहा जोयह मानते हैं कि 'धर्म स्वयं निरुपद्रव है, वे प्रधान-मंत्रीके शब्दोंमें एसोसिएशनके कामका अधिक भाग उन परिवर्तनोंमें है जो उसने हमारी समाजके
लोक भी उस धर्मकी रक्षा-आस्तित्वके लिए विचारोंमें पैदा किया है । हमें अपनी कौम तथा उपद्रव (क्रोध, द्वेष, कुटिलता, आदि अनिष्ट धर्मके भविष्यमें अटल विश्वास रखना चाहिए। कार्य ) का उपयोग करते हैं । ऐसी दशामें या यद्यपि इतिहास बताता है कि
तो आपको धर्मकी व्याख्या बदलनी पड़ेगी और “ संसारमें किसका समय है एकसा रहता सदा. उसके निर्दोष निरुपद्रव स्वरूपके बदले कोई हैं निशि दिवासी घूमती सर्वत्र विपदा संपदा । और ही प्रकारका स्वरूप मानना पड़ेगा, या जो आज राजा बन रहा है रंक कल होता वही। अपने निरुपद्रव धर्मकी रक्षाके लिए आपलोग जो आज उत्सवमग्न है कल शोकसे रोता वही ॥" जिन उपद्रवी अस्त्र शस्त्रोंको काममें लाते हैं वे परन्तु साथहीमें इतिहास यह भी बताता है कि- फेंक देना पडेंगे । दोमेंसे एक अवश्य ही " होता समुन्नतिके अनंतर सोच अवनतिका नहीं, करना पड़ेगा। हाँ सोच तो है जो किसीकी फिर न हो उन्नति कहीं। आप पठेंगे कि हम धर्मको निरुपद्रव तो चिन्ता नहीं जो व्योमविस्तृत चन्द्रिकाका ह्रास हो, .
, आवश्य मानते हैं; परन्तु उसकी रक्षाके लिए चिन्ता तभी है जब न उसका फिर नवीन विकास हो॥" महाशयो इतिहासका यह उपदेश हमें स्मरण
उपद्रवी अस्त्र शस्त्रोंका उपयोग कहाँ करते हैं ? रख अपनी कौम व धर्मकी उन्नतिके लिए सतत महाशय, मुझ माफ काजए आर कहन उद्योग करना चाहिए ।
दीजिए कि आप उनका उपयोग करते हैं; और केवल आपके ही विषयमें नहीं किन्तु सारे ही
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CHOOLammmmmORILD
जैनहितैषी
धर्मोंके अनुयायीजनोंके विषयमें भी लगभग है वे भी एक पुत्रके उत्पन्न हो जानेपर एक दूस यही बात कही जा सकती है । अपने धर्मकी रेके गरजू या चाहक बन जाते हैं और इस तरह सत्यता दूसरोंसे मनवानेके लिए उन दूसरोंके वह पुत्र इन दो व्यक्तियोंको परस्पर जोड़नेवाला धर्मोंकी निन्दा करनेके प्रयत्न क्या संसारमें थोड़े सूत्र बन जाता है । इसी तरह हिन्दू-मुसलमाहुए हैं ?-इसका कारण यही है कि अपने धर्मका नोंके रितिरिवाज, वेषभूषा, धर्म आदि बातें अस्तित्व इसके बिना रह नहीं सकेगा, ऐसा इन भिन्न होने पर भी जबसे भारतमें ' भारतीय प्रत्येक धर्मके लोगोंका हृदय मानता है ( मुँह राष्ट्र की भावना मूर्तिमान होने लगी है तबसे नहीं; मुँह तो शान्तिकी, क्षमाकी दयाकी और मुसलमान भी हिन्दुओंके साथ प्रेमकी संकलसे नम्रताकी ही बातें किया करता है!)। इसी प्रकार बँधने लगे है-एक दूसरेसे गले मिलने लगे हैं जिस देवको शान्ति, क्षमा, दया आदि सात्विक और एक साथ एकप्राण होकर काम करने गुणोंका भण्डार माना जाता है उस देवकी लगे हैं । मुस्लीमलीगका कांग्रेसके साथ एक मत स्थापना जिन मूर्तियों में की जाती है उन मूर्ति हो जाना इस बातका प्रत्यक्ष प्रमाण है । इन योंके लिए भी क्या इस दुनियामें थोड़े लोग दो भिन्न प्रकृतियों को भी इतनी निकटवर्तिनी आपसमें लड़ते झगड़ते दिखलाई देते हैं ? कर देनेवाली, मित्र बना देनेवाली बात और
अब कहिए महाशय, कहाँ तो भगवानको कोई नहीं, केवल ' भारतीय राष्ट्र' की भावनाक्षमासागर और क्षमाके उपदेष्टा मानना और हम दोनों एक माताके पुत्र हैं यह भावना-ही कहाँ उन भगवानके नामसे आपसमें लड़ना- है; केवल इसीने यह आश्चर्यजनक शक्ति झगड़ना-मुकद्दमेवाजी करना । बतलाइए तो उत्पन्न की है। सही कि ये दिगम्बर और श्वेताम्बरोंके बीचमें, परन्तु यह बात मेरी समझमें नहीं आती है सम्मेदशिखर आदि तीर्थस्थानोंसम्बन्धी, लाखों कि जब परस्पर अनबन रखनेवाले दम्पतीको रुपयोंका स्वाहा करनेवाले युद्ध, कैसे और क्यों प्रेमसूत्रसे जोड़ देनेवाले पुत्र और भिन्नप्रकृति होने लगे ? क्या धर्म अपनी रक्षाके लिए अपने हिन्दू-मुसलमानोंको मित्र.बनानेवाली ' भारतीभक्तोंकी इस प्रकारकी सहायताकी अपेक्षा यता' की भावना, इन दोनोंसे ही अधिक शक्तिरखता है ? क्या हमारी-आपकी सहायताके शाली एकताका तत्त्व हमारे समग्र जनसमाजमें बिना अपने पैरों आप खड़े होनेकी शक्ति हमारे मौजूद है, तब हमारे बीचमें इस एकता-इस प्रेमधर्ममें नहीं है ? क्या जब हम सब उसके इस मेल मिलाप के बदले पारस्परिक द्वेष और वैर लिए आपसमें कट मरेंगे और अपना बलिदान भाव कहाँसे आता है। सबके एक ही देव, सबकी कर डालेंगे तभी धर्म टिक सकेगा, और किसी एक ही कर्म फिलासफी, सबका एक ही स्याद्वाद. तरह नहीं ?
सबकी एक ही दयामय नीति, सबका एक ही देश, ___ इम झगड़ोंको देखकर इच्छा होती है कि मैं सबकी एक ही भाषा, सबके एकहीसे रीतिरिवाज जैनसमाजकी धर्मविषयक व्याख्याओं, मानताओं और सबके एकही प्रकारके स्वार्थ-इस तरह प्राय और कार्योंकी जाँच करूँ और जाँचके अन्तमें सभी बातोंमें समानता होने पर भी हममें पारखूब हसू-और खूब रोऊँ । मैंने देखा है कि जिस स्परिक एकता नहीं है, इसका क्या कारण है ? पतिपत्नकि जोड़ेमें आपसमें अनबन रहती नहीं मैं आपसे और अन्य विद्वान् सज्जनोंसे पूछता हूँ
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लड़ना धर्म है या क्षमा भाव रखना ?
कि क्या मनुष्यों में क्षमा, शान्ति आदि सात्विक गुण उत्पन्न करने और उन गुणों को पुष्ट करने के आशयसे ही जैनधर्ममें 'देवपूजा ' नहीं मानी गई है ? यदि यह सच है तो कृपा करके इस पवित्र आशयको निर्मल निष्कलङ्क रहने दो और इन गुणों का आरोपण जिनमें किया गया है उन मूर्तियों के निमित्तसे क्लेश, वैर, क्रोध, आदि तामसिक भावोंको आमंत्रित करनेवाली प्रवृत्ति को रोको–कृपा करके रोको, और किसीके लिए नहीं तो इस आशयकी पवित्रता बनाये रखनेके ही लिए - रोको ।
यदि धर्मकी भावना, भिन्न भिन्न स्वभावों के एकीकरणके लिए, यत्र तत्र एक दूसरेसे डर कर अलग अलग पड़े हुए मनुष्यों को एक 'समाजके' रूपमें संगठित करने के लिए, एक दूसरेसे डरनके बदले एक दूसरेके सहायक बनना सिखाने और एक दूसरे के सुख दुःखमें सहानुभूति रखनेकी शिक्षा देनेके लिए आवश्यक है, तो कृपाकरके इस भावनाको, एक दूसरे के विरुद्ध चलाया जानेवाला हथियार मत बनाओ, एक दूसरेको जुदा करनेवाली खाई मत बनाओ, एक दूसरेको शत्रु मानकर असभ्यता के युगके समान अपनी अपनी दो दो बालिश्तोंकी वृक्षकोटरों में घुस कर रहने की प्रेरणा करनेवाला भयानक साधन मत बनाओ।
क्या आपने 'सबवोंको करूँ शासनरसिक' इस प्रकार की भावना एक 'शासन' (किंगडम्--- समाज - राज्य ) स्थापित करने की इच्छासे नहीं की थी ? तब फिर यदि आप अपने 'शासन' से बाहरके मनुष्यों को अपने शासन के भीतर आकर्षित करके अपना राज्य बलिष्ठ और विस्तृत नहीं बना सकते हैं तो न सही; पर जो आपके ' में हैं, उनको तो बने रहने दो, उनको तो लड़ा झगड़ाकर अलग मत कर दो, अ
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शासन
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लग करने की प्रवृत्तिसे तो वाज आओ, कमसे कम इस शासन के स्थापक महागुरु महावीर भगवा - नके पवित्र नाम के लिहाज से ही इसे छोड़ दो ।
सम्पादक महाशय, शायद आप मेरे प्रश्नोंके मारे तंग आ गये होंगे; परन्तु मुझे खेद है कि मैं आपको अब भी छुट्टी नहीं दे सकता । तंग आगये ? नहीं, इस बातको मैं नहीं मान सकता कि आप मेरे प्रश्नोंके मारे तंग आगये होंगे । अपने भाइयोंके साथ तो आप वर्षों तक लड़ते रहने पर भी तंग न आये और मेरे दो चार प्रश्नोंसे ही तंग आ गये ? यदि आप इतने भले होते कि ऐसे मौकोंपर तंग आजाते- ऊब उठते, तो सचमुच ही बहुत अच्छा होता । जो हृदय आपसी लड़ाइयोंसे कठिन पत्थर बन गये हैं वे प्रश्नोंके दो चार बाणों से कभी नहीं छिद सकते । इधर मुझे भी आपकी चलती हुई लड़ाइयाँ देख देखकर बा चलानेका खब्त सबार हो गया है और इससे मैं अभी कुछ और भी प्रश्नबाण छोड़ने के लालचको नहीं रोक सकता ।
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मैं आपसे पूछता हूँ कि क्या आप इन मुकद्दमोंमें व्यवहार धर्म की रक्षाके लिए देशहितकी बलि नहीं दे रहे हैं ? क्या आप 6: व्यवहार धर्म की रक्षाके लिए समाजबलकी हत्या नहीं कर रहे हैं ? क्या आप ' व्यवहार धर्म' की रक्षा के लिए सदाचारके गले पर छुरी नहीं चला रहे हैं ? और क्या आप " निश्चय ' को लक्ष्यबिन्दु मानकर 'व्यवहार' की पालना करनी चाहिए, " इस शास्त्राज्ञाका दुरुपयोग नहीं कर रहे हैं ?
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क्या आप इस धर्मात्मापनके दिखाने में ही धर्मात्मापनकी अनुपस्थितिको सिद्ध नहीं करते हैं ? क्या आप अपनी बलिष्ठता दिखलाने के लिए किये जानेवाले इन युद्धों द्वारा ही अपनी धामिर्क निर्बलताको प्रकट नहीं कर रहे हैं ?
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SHAMEDHARAMBHARTICLECRUILLABUALTD
जैनहितैषी
कृपाकरके थोड़ी देरके लिए इस दुखिया को छोड़ कर सारे देशको मिथ्याती मानकर और अभामे भारतवर्षकी ओर देखो । आपके उनसे दूर रहनेका उपदेश दे रहे हैं और समग्र शास्त्रों में जिस आर्यदेशको अध्यात्मज्ञानका देशके सुखदुखकी बातोंको जुदा रख कर रातदिन भाण्डार, लक्ष्मीदेवीका निवास, क्षात्रतेजकी एक शाखाकी, नहीं नहीं उस शाखाकी भी जन्मभूमि, पृथ्वी जल और आकाश पर विजय शाखा-प्रशाखा-की ही बातोंमें मस्त हो रहे हैं; प्राप्त करनेवाली विद्याओंका जनक और स्वत- ऐसी दशामें बतलाइए, भारतमाताके उद्धारकी न्त्रता देवीका क्रीडास्थल बतलाया है, उस देश- चिन्ता करनेवाले उक्त देवगण आपके विषयमें की-उस आर्यावर्तकी-वर्तमान दशाका वर्णन क्या सोचेगें । क्या आपने कभी श्रीमान् दादाभाई नौरोजी या इस बातको तो आप स्वीकार करते हैं कि या श्रीमती एनी बीसेंट के मुखसे या कलमसे पूजन व्यवहार धर्म है, निश्चय धर्म नहीं है । तो निकला हुआ सुना या बाँचा है ? इसकी दिलको भी किसी एक प्रकारकी पूजाके लिए, उससे दहला देनेवाली भयंकर दरिद्रता, दुर्बलता, विभिन्न प्रकारकी पूजा करनेवालोंके साथ लड़बीमारी, बुद्धिमन्दता, जडता, सत्वहीनता, नेमें आप अपने बहमल्य समयका और देशको उत्पादक शक्तियों और उत्पादक साधनोंका विज्ञानादिमें आगे बढ़ाने के लिए जिसकी आवक्षय, आदि बातोंको क्या आप देख नहीं सकते श्यकता है उस लक्ष्मीका व्यय कर रहे हैं। हैं ? करोड़ों मनुष्यों पर चढ़े हुए इन भयंकर पूजन करो, आनन्द और उत्साहसे आप अपनी भूतोंको दूर करने के लिए देशके कितने ही ही पद्धतिके अनुसार पूजा करो और उस पूज'देवों ' ने जो महान् प्रयत्न करना शुरू किया नमेंसे पूज्य देवका बल, ज्ञान और चारित्र है, उससे क्या आप सर्वथा ही अज्ञात हैं ? सम्पादन करके बलवान् बनो; परन्तु पूजाभारत माताको फिर से सुजला सुफला सुख- पद्धतिको पारस्परिक बलका बलिदान करानेसम्पन्ना बनाने के लिए ये 'देवगण' जी तोड़ परि- वाला तत्त्व मत बनाओ, यही मेरी प्रार्थना है। श्रम कर रहे हैं, उसमें शामिल होनेके लिए श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनोंकी पूजनपद्धति आपको, मुझे और सबको पुकार रहे हैं, तो बनी रहे और दोनों अपनी अपनी पद्धतिसे भी क्या आप उस पुकारकी ओर बहरे कान अपने इष्ट देवकी पूजा कर सकें, क्या इस प्रकाकिये रहेंगे ? वे पुकार पुकार कर कह रहे हैं रका प्रबन्ध आप सारे पवित्र तीर्थक्षेत्रों पर नहीं कि अपने प्यारे देशकी दशा सुधारनेके लिए कर सकते हैं ? किसी स्थलपर दोनों एक ही मन्दिसबसे पहले ऐक्यकी आवश्यकता है और फिर रमें पूजनपाठ करें, किसी स्थलपर दोनोंके लिए इस ऐक्यबलसे हमें निरुद्योगिता और अज्ञान- अलग अलग मन्दिरोंकी व्यवस्था कर दी जाय और ताको इस देशसे निकाल कर अलग कर देना किसी स्थलपर कोई और प्रबन्ध दोनों सम्प्रदायहै । हाय ! इन देवोंकी अपील-प्रार्थना-सुनने- की सलाहसे कर लिया जाय, इस तरह क्या आपके लिए तो आप अभी तक भी तैयार नहीं हुए समें विश्वास प्रेम और ऐक्य उत्पन्न नहीं किया हैं और पूजनविधिके एक तुच्छ भेदके कारण जा सकता ? यदि आप इसके लिए इस प्रकारलड़ने झगड़नेके लिए कमर कसे हुए हैं, मिथ्या- का कोई अच्छा निरुपद्रव मार्ग तजवीज नहीं त्वकी विचित्र व्याख्याओं के अनुसार अपनेकर सकते हैं तो क्या इसका अर्थ यह नहीं
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होता है कि जिस देशको, इस समय एकताकी सबसे अधिक आवश्यकता है उस देश के हितकी हत्या करके ही आपके दोनों सम्प्रदाय अपने अपने व्यवहार-धर्म की रक्षा करना चाहते हैं ? और आपके इस वर्ताव से क्या प्रचालित नीति या सदाचारका भङ्ग नहीं होता है ? आपमें से बहुतों को सच्चे झूठे प्रमाण खड़े करने पड़ते होंगे, दूसरे अनेक अन्याय करने पड़ते होंगे, धर्मके नामसे झगड़ेका काम करने के लिए चन्दा करनेका पाप कमाना पड़ता होगा, एक दूसरेके अमंगलकी भावना करनी पड़ती होगी और उससे जैनधर्म की नीवतुल्य चार भावनाओंकी हत्या होती होगी; ये सब बातें क्या नीति, धर्म, समाज, नेशन आदि के लिए बाधक नहीं हैं ?
लड़ना धर्म है या क्षमाभाव रखना ?
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जिस समय यूरोपका महायुद्ध शुरू हुआ था उस समय, मुझे स्मरण है कि आपमें से बहुतोंने सभायें करके भगवानसे इस प्रकारकी प्रार्थनायें की थीं कि यह युद्ध बन्द हो जाय और पुनः शान्तिका प्रसार हो | जिसके संचालक सूत्रों तक किसी तरह हमारा हाथ ही नहीं पहुँच सकता है उस दूरके युद्ध की शान्तिकी इच्छा करने के लिए तो आप एकत्र हुए; परन्तु मुझे नहीं मालूम है कि आप लोगोंने अपने इस घरू युद्धकी आग बुझाने के लिए एक दिन भी एकत्रित होकर प्रार्थना की हो, या आपस में मिलकर सलाह ही की हो । मालूम नहीं आपका यह कैसा व्यवहार है और आपके धर्मकी व्याख्या है । या तो यह स्वीकार कीजिए कि युद्ध अच्छा कार्य है, इससे शक्तियोंका विकास होता है और युद्ध करनेके लिए जिस बलकी आवश्यकता है उसका सम्पादन कीजिए, या युद्ध बुरा है, पाप . है, यह मानकर उससे दूर रहिए । यदि आप ऐसा नहीं करते हैं, दूसरोंके युद्धको पाप मान • कर अपने युद्धको पुण्य समझते हैं तो आपकी
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इस मानताको 'मनमानी घरजानी ' के सिवाय और क्या कह सकते हैं ?
बाल्यविवाहादिसे हमारा बल घट गया है, यह बात रोज ही गला फाड़ फाड़ कर कही जाती है; परन्तु जब तक कन्याव्यवहारका क्षेत्र विस्तृत न होगा तब तक बाल्यविवाह, बे-मेल- विवाह, कन्याविक्रय आदि अधर्म कदापि दूर नहीं हो सकते । कन्याव्यवहारका क्षेत्र बढ़ाने में जातियों के सैकड़ों भेद उपभेद सबसे बड़े बाधक हैं । जबतक समग्र जैनसमाज अपने अपने क्रियाकाण्डों को - आचार विचारोंको पालते रहने पर भी दूसरोंके क्रियाकाण्डों तथा आचार विचारोंके प्रति सहिष्णुता रखनेवाला न बनेगा और परस्पर प्रेमभाव, ऐक्य, कन्याव्यवहार और कोआपरेशन न बढ़ायगा, तब तक सामाजिक कुरीतियाँ, निर्बलता और अज्ञानता आदि दोष कदापि दूर न हो सकेंगे । जब तक मूल बना हुआ है तब तक शाखा प्रशाखाओंके नाश होनेकी आशा रखना व्यर्थ है । समाजबलका सारा आधार एकता पर है और यह एकता दिगम्बर श्वेताम्बर के ' निश्चय ' धर्मको तो सर्वथा ही बाधक नहीं है, रहा 'व्यवहार' सो उसमें भी यदि पर- मतसहिष्णुता रखना सिखाया जाय, तो एकता बाधक नहीं हो सकती ।
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सम्पादक महाशय, ये सारी दलीलें, प्रश्न और सूचनायें केवल आपके प्रति या श्वेताम्बर समाजके प्रति ही नहीं हैं; किन्तु समग्र जैनसमाजके प्रति हैं । इन सबका तात्पर्य केवल इतना ही है कि इस समय पवित्र जैनधर्मकी कीर्तिके लिए, जैनसमाजके बल के लिए और भारत के हित के लिए जैनोंके तमाम झगड़े मिटाकर एकताका बल बढ़ानेकी ओर सबसे अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए । इस समय इस प्रार्थनाके
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जैनहितैषी
आग्रहपूर्वक करनेका कारण यह है कि मैंने जो दिगम्बर श्वेताम्बरोंके तीर्थक्षेत्रसम्बन्धी झगड़े आपसमें तय करनेका मिशन खड़ा किया हैं, उसे मैं समग्र जैनसमाज के सम्मुख रखना चाहता हूँ । इसका सबसे अच्छा मार्ग तो यह है कि किसीको भी बीच में डाले बिना वादी प्रति वादी और उनके सधमभाई स्वयं ही आपस में मिलकर प्रयत्न करें; परन्तु ऐसा होना कटिन जान पड़ता है इस लिए मेरी सूचना यह है कि देशके माननीय और कायदे कानूनों के ज्ञाता अगुओंमेंसे एक या इससे अधिक अगुए दोनों ओरसे पसन्द कर लिये जायँ और उनसे न्याय करा लिया जाय ।
मेरे इस आन्दोलन के प्रति श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों ही पक्षके बड़े बड़े धनवानों और उच्चणीकी शिक्षा पाये हुए विद्वानोंने सम्मतियाँ देकर, प्रसन्नता प्रकट करके और सहियाँ देकर सहानुभूति प्रकट की है जिसके लिए मैं उक्त सब सज्जनोंका आभार मानता हूँ और अन्य धनियों तथा शिक्षितों से प्रार्थना करता हूँ कि वे भी अपनी सम्मतियाँ भेजने की कृपा करें। इस प्रकार के विचारोंको फैलाने के लिए हजारों व्यक्तियोंकी सम्मतियाँ चाहिए ।
केवल सहियाँ लेकर बैठ रहना मुझे पसन्द नहीं है, दोनों पक्षके अगुओं तथा मुकदमों में आर्थिक सहायता देनेवाले सज्जनोंसे प्राइवेट मिलने और उनको यह बात समझानेका प्रयत्न भी जारी है । इस काम में मुझे जो सफलतायें प्राप्त हुई हैं उनकी मुझे कल्पना भी न थी; परन्तु अभी उनके प्रकाशित करने - का समय नहीं आया है । इसका परिणाम चाहे जो हो, मुझे चिन्ता नहीं है । आन्दोलन सफल हुआ तो ठीक ही है, नहीं तो निष्फल
भी इतना लाभ तो हुए बिना रहेगा ही नहीं कि किसी न किसी अंशमें लोकमत तैयार होगा,
एकताके विचार फैलेंगे और उनका अच्छा परि णाम कभी न कभी अवश्य होगा । यदि निष्फलता होगी तो इसका अर्थ यही होगा कि हमारे शिक्षित समुदायने इस आवश्यक देशहित और समाजहित के काम में अपना पूरापूरा बल नहीं लगाया, इसीसे सफलता नहीं हुई । इसमें आन्दोलन' का दोष नहीं है और ' अन्दोलन उठानेवाले' ' का भी अपराध नहीं है; परन्तु
आन्दोलन' के लिए आवश्यक बल लगानेवाले दोष लोगोंकी दृष्टिके आगे आयगा और तब लोग अपने कर्तव्यपालन से विमुख रहे, यही आगे के प्रत्येक आन्दोलनमें अधिक दूरदर्शिता और अधिक एकतासे काम करनेकी रीतिको लोग सीखेंगे ।
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अन्तिम प्रार्थना |
अन्य आवश्यक उपाय तो जो कुछ बन सकते हैं, किये ही जा रहे हैं, परन्तु इसके साथ लोकमत तैयार करने की भी अवश्यकता है, इस लिए प्रत्येक स्थानके अगुओं तथा शिक्षित सज्जनों मेरा प्रार्थना है कि
१ आप अपनी निजकी सम्मति पत्रद्वारा मुझे लिख भेजने की कृपा करें,
२ आप अपने अपने ग्राम और नगरोंमें अपने सम्प्रदायक सभायें करके उनमें यह प्रस्ताव पास करें कि ये तीर्थों के झगड़े आपस में तय किये जायँ और उस प्रस्तावकी नकल मेरे पास भेज दें,
३ जैनपत्रों तथा अन्य पत्रोंमें इस आन्दोलनको पुष्ट करनेवाले लेखादि लिखने की भी करें ।
कृपा
समस्त जैनसंघ में सहिष्णुता, भ्रातृभाव, ऐक्यबल, ज्ञानबल और शौर्य उत्पन्न हो और इन गुणोंसे सुशोभित जैनशासन सारी दुनिय पर जयवन्त हो, यही मेरी अन्तिम इच्छा है । *
यह लेख ' श्वेताम्बर जैनकान्फरेंस हेरल्ड ' से अनुवाद करके प्रकाशित किया जाता है ।
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स्याद्वाद महाविद्यालयकी भीतरी दशा ।
1000 1000 10th tintent
[ले० श्रीयुत प्रोफेसर निहालकरणजी सेठी एम् एस् सी., काशी। ]
जैनहितैषी पाठकगण • सार्वजनिक धनकी जिम्मेवारी' शीर्षक लेख सितम्बर अक्टूके अंक में पढ़ चुके हैं । उसके पढ़ने से उन्हें ज्ञात हो गया होगा कि जैनसमाजमें सार्वजनिक संस्थाओंके कार्यकर्ताओं को इस विषय के महत्त्वका कितना ज्ञान है और कितने संचालक अपनी इस बहुत बड़ी जिम्मेवारीको समझते हैं । कुछ साधारण रीति से उन्हें यह भी मालूम हो गया होगा कि ऐसी संस्थाओंके प्रबंधमें अवश्य कुछ गड़बड़ी है और अभी बहुत कुछ उन्नति करनेकी आवश्यकता भी हैं । किन्तु उन्हें अभी यह पता न हुआ होगा कि यह अंधेर यहाँतक बढ़ गया है कि समाज यदि वह अपना हित चाहता है और अपने गाढ़े पसीने की कमाईके द्रव्यका वास्तविक सदुपयोग करना अत्यन्त आवश्यक समझता है तो अब चुप नहीं बैठ सकता । अब ऐसा समय आगया है जब केवल यह सोचकर संतोष नहीं हो सकता कि अमुक संस्था तो अमुक सज्जनके हाथमें है उसमें गड़बड़ी नहीं हो सकती । संभव है कि बिना उन सज्जनके दोषके ही, उनकी अत्यधिक सज्जनताके कारण ही संस्थाकी दशा शोचनीय हो रही हो । इसके अतिरिक्त एक और बात ध्यान देने योग्य है । यह आवश्यक नहीं है कि कोई महाशय संस्थाका द्रव्य हड़प जायँ अथवा वह किसी ऊपरी टीम टामके कार्य में ही बहुतसा द्रव्य व्यय कर दें । इन बातोंके बिना भी समाजका धन व्यर्थ जा सकता है, इनके होते हुए भी संचालक -
गण सार्वजनिक धनके दुरुपयोग के लिए दोषी हो सकते हैं । आज ऐसी ही एक कथा सुनानेको मैं बाध्य हुआ हूँ ।
आप बाध्य होने का कारण पूछ सकते हैं । आप कह सकते हैं कि ऐसी कथा सुनाने में क्या कष्ट था जो बिना बाध्य हुए सुना देने की आवश्यकता न समझी गई । इसका संक्षिप्त उत्तर केवल यही है कि संचालकों को इस बातका डर था कि कहीं इस कुप्रबंधकी कथा समाजको मालूम हो जायगी तो समाज शायद इसके लिए चन्दा आदि देने में संकोच करने लगे । वे थे कि प्रबंध उचित नहीं है, किन्तु उनका विश्वास था कि इस कुप्रबंधसे समाजकी इतनी हानि नहीं जितनी कि संस्थाके लिए द्रव्य न मिलने से होगी। इस कारण उनका प्रयत्न यह रहता था कि समाजके सम्मुख कोई इस रहस्यको प्रगट न करे । और मैं समझता हूँ कि यह विचार किसी अंशमें ठीक भी था । किन्तु सौभाग्य से या दुर्भाग्य से मुझे हालही में इस विद्यालयको स्वयं देखनेका अवसर मिला । बहुत दिन तक मैं इसकी दशाका यथार्थ स्वरूप जानने का प्रयत्न करता रहा और इसके संचालकोंसे प्रार्थना भी करता रहा कि इसकी दशा शोचनीय है, इसका उचित प्रबंध होना चाहिए । किन्तु जब देखा कि वे लोग इस दशाको कुछ बुरी दशा नहीं समझते और इसके सुधारकी ओर उनका लक्ष्य भी नहीं है, तब मुझे समाजको यह सब कथा सुनाने के लिए प्रस्तुत होना पड़ा ।
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जैनहितैषी -
कदाचित् कोई मेरे आशय के समझने में भूल करे, इस विचारसे मैं आरम्भमें ही यह कह देना उचित समझता हूँ कि यह मैं जानता हूँ और मानता भी हूँ कि काशीके स्याद्वाद महाविद्यालय के स्थापित होनेके पहिले जैनसमाजमें जैनधर्म के अमूल्य शास्त्र - रत्नोंका अर्थ समझने और समझा सकनेवाले मनुष्यों की बहुत ही कमी थी और इस संस्थाने इस कमीको यत्किंचित् दूर भी किया है, पर समाजको इससे अन्य भी कोई लाभ हुआ है यह अवश्य ही विवादग्रस्त बात है । किन्तु यदि यह संस्था अपना यही कार्य उचित रीतिसे करती रहे तो भी हमें बहुत हर्ष होगा । परन्तु अब इस कार्य में भी बहुत कुछ गड़बड़ी हो रही है।
शायद समाजको यह ज्ञात होगा कि यहाँके विद्यार्थियों में हड़ताल कर देनेका, पढ़ना बन्द कर देनेका, एक अपूर्व गुण है । इस गुणका प्रकाश समाजने बहुधा देखा होगा । यदि न देखा हो तो उसमें न विद्यार्थियों का दोष है और न उनके गुणका | दोष है केवल संचालकोंका कि जिन्होंने उनके इस गुणको छुपा रखनेका प्रयत्न किया है । किन्तु जिन लोगों को इस संस्थाके समाचार जाननेका थोड़ा बहुत शौक होगा उन्हें अवश्य ज्ञात हुआ होगा कि आज विद्यार्थियोंने अमुक अधिष्ठाताको निकलवा दिया, आज अमुक सुपरिंटेंडेंट साहबको अपना बदना बोरिया सम्हाल कर चले जाना पड़ा । यहाँ तक कि यदि मुझे ठीक ज्ञात हुआ है तो अब तक इस विद्यालय में प्राय: बीससे ऊपर सुपरिण्टेण्डेंट काम कर चुके हैं । और अधिष्ठाता ओंकी संख्या भी जितनी समाजको मालूम है उससे कहीं अधिक हो चुकी है ।
प्रश्न हो सकता है कि यह गुण विद्यार्थियोंमें क्यों कर पैदा हुआ ? संस्कृत पढ़नेवाले विद्यार्थी
जिनकी गुरुके प्रति बहुत ही अधिक श्रद्धा प्रसिद्ध है, जो गुरुकी चरणसेवा करना ही अपना परम कर्त्तव्य सदासे मानते चले आये हैं उनमें यह अनादरका भाव, यह स्वच्छन्दता कहाँसे उत्पन्न हो गई ? इसका वास्तविक कारण क्या है यह मैं आगे चलकर बतलाऊँगा और वह आप लोगोंको स्वयं भी जरा विचार कर लेने पर ज्ञात हो जायगा । यहाँ पर यह बात अवश्य कहूँगा कि संचालकगण भी इसके उत्तरदायित्व - से मुक्त नहीं हो सकते। क्यों कि उन्होंने अवश्य ही विद्यार्थियोंकी इच्छानुसार कार्य करके, जिसको उन्होंने निकलवाना चाहा उसे निकाल करके, जिसको नियत करना चाहा उसे नियत करके और विद्यार्थियोंकी खुशामद करके, उन्हें उत्तेजित किया है । यह लिखते समय मैंने यह अवश्य ध्यानमें रक्खा है कि विद्यार्थियों का ऐसा व्यवहार कदापि उचित नहीं था । उन्होंने कभी ऐसी बातकी प्रार्थना नहीं की जो वास्तवमें आवश्यक थी, किन्तु द्वेषभाव से अथवा अन्य किसी कारणहीसे उन्होंने ऐसा किया था । यह जो महाशय चाहें मालूम कर सकते हैं ।
जब मैं विद्यालय में गया (शायद ४-५ अक्टू बरको ) तब देखा कि फिर वही रंग है । पाठ बंद है, सब अध्यापकों की रिपोर्ट है कि विद्यार्थियोंने पढ़नेसे इन्कार किया है। जब ऐसा दृश्य देखा तो स्वाभाविक था कि चित्तको कष्ट पहुँचता । किन्तु किससे क्या कहा जाता ? अधिष्ठातासे ? वे तो कभी यहाँ रहते ही नहीं । उपअधिष्ठातासे ? उनका भी बनारस में कोई पता नहीं । मंत्रीजीसे ? वे तो स्वयं छुट्टीका अवसर देख कर जौनपुरसे दो दिन के लिए यहाँ आये थे और खुद परेशान थे कि क्या किया किया। क्यों कि उन्होंने विद्यार्थियों से बहुत कुछ कहा सुना था किन्तु विद्यार्थीगण उनकी
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HIMALAAMRATAUTATIBHAIBIMALAIMOTIAMERAHMADI
स्याद्वादमहाविद्यालयकी भीतरी दशा।
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बात तो क्या सुनते उनका अनादर करनेको (यद्यपि सब सभासदोंके समक्ष नहीं ) स्वीकार उद्यत थे । क्या सभापतिसे कुछ कहता? उनके किया कि उन्हींने विद्यार्थियोंसे ऐसा करनेको विषयमें तो सना कि वे कभी पत्रका उत्तर भी कहा था और उसका कारण उन्होंने यह बत
देना उचित नहीं समझते । सुपरिंटेंडेंटसे ? लाया कि जबसे ये मंत्री महाशय नियत हुए हैं वाह, उनहीके विरुद्ध तो सारा प्रयत्न था, उनकी विद्यालयकी दशा बहुत खराब हो गई है और कौन सुन सकता था। जब अधिष्ठाता यहाँ नहीं जबतक इस प्रकार पाठ बंद न किया जायगा तब रहते, उपाधिष्ठाता यहाँ नहीं रहते, मंत्रीजी भी तक इसके कार्यकर्ता इस ओर ध्यान न देंगे । परदेशी हैं, सभापतिको पत्रका उत्तर देनेका भी पर उन्होंने प्रबन्धकारिणी सभाकी बैठकमें अवकाश नहीं होता तब आप समझ सकते हैं, कहा कि यह बात मिथ्या है और मुझपर विकि इस सबमें आश्चर्यकी बात ही क्या थी। द्यालयको हानि पहुँचानेकी नीयतसे यह झूठा
खैर, मंत्री महाशयने जिस तिस प्रकार प्रबंध- दोष लगाया गया है । यह देख मुझे गवाह कारिणी सभाके स्थानीय सभासदोंको एकत्रित पेश करना पड़े और उन्हें चुप हो जाना पड़ा। किया और उनसे प्रार्थना की कि ऐसी दशा है,इसका मैं यहाँपर यह विवेचना नहीं करना चाहता कि उचित प्रबंध हो जाना चाहिए। किन्तु भला मंत्री महाशयने विद्यालयको लाभ पहुँचाया या ऐसे कार्यका उत्तरदायित्व अपने सिर कौन ले ? हानि, किन्तु मैं समाजका ध्यान केवल इस बातकी यह निश्चय हुआ कि इसके कारणोंकी जाँच की ओर आकर्षित करना चाहता हूँ कि इस बातमें जाय और सभापति महाशय श्रीमान् सेठ हुक- उस वास्तविक कारणका पता लगता है कि मचंदजीसे तार द्वारा अनुमति ली जाय । कुछ जिसके कारण विद्यार्थी इतने उद्धत और सभासदोंने जाकर पूछताछ की तो ज्ञात हुआ स्वच्छन्द हो गये हैं। कि मुख्य कारण यह है कि धर्माध्यापक महा- स्थानीय सभासदोंको इतना ज्ञात हो जाने शयकी मंत्रीजी और सुपरिटेंडेंट महाशयसे पर भी वे कुछ कर नहीं सकते थे। करते भी नहीं बनती । वे चाहते हैं कि उक्त दोनों महा- कैसे ? उनको कोई अधिकार ही नहीं था। शय पृथक हो जायँ । यह बात सभा पहिलेसे सभापति होता, अधिष्ठाता होता, उपाधिष्ठाता जानती थी और मंत्रीजीका बहुत कुछ अपमान होता तो शायद कुछ करता भी । २८ अक्टूकरनेके कारण धर्माध्यापक पं० उमरावसिंहजीको बरको सभा करना निश्चय हुआ और सभा पहले ही एक मासके लिए पृथक् कर चुकी बाहरके सभासदोंके पास सूचना भेजी गई । थी। अब ज्ञात हुआ कि उक्त पंडितजीने ही उस दिन सभा हुई और बाहरसे तीन सज्जन विद्यार्थियोंको बहकाकर पाठ बंद करवा दिया आये भी । सौभाग्यसे अधिष्ठाता महाशय भी है । विद्यार्थियोंसे पूछने पर उनका उत्तर केवल पधारे । सब वृत्तान्त सुनाया गया; किन्तु सबको यही था कि सुपरिन्टेन्डेन्ट महाशय-जो साहित्यके यह विश्वास हो जाने पर भी कि धर्माध्यापक अध्यापक भी हैं-साहित्य ठीक नहीं पढ़ा सकते, महाशयका यह कार्य विद्यालयको बहुत हानि अतः जब तक उनके स्थान पर कोई अन्य महा- पहुँचानेवाला हुआ है और उनको इसके लिए शय नियत न किये जायेंगे वे पढ़ना उचित दंड भी मिलना चाहिए, यह उचित नहीं समझा नहीं समझते। किन्तु पंडित उमरावसिंहजीने गया कि उनसे कुछ कहा जाय । क्योंकि अन्य
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जैनहितैषीSCRITATEMEDurnituttitil
धर्माध्यापक मिलना जरा कठिन कार्य है। किन्तु रसे प्रबंधकारिणी सभाकी कार्यवाही की पुस्तक यह अवश्य हो गया कि धर्माध्यापक और भी गुम कर देने में विद्यालयमें रहनेवालोंको सुपरिन्टेन्डेन्ट महाशयके नहीं बनती है, इस संकोच नहीं होता, जहाँके आचार्य बननेवाले लिए सुपरिन्टेन्डेन्ट महाशय १०-१५ दिनमें विद्यार्थी जरा जरासे भोजनके घीके वास्ते लडपृथक् कर दिये जायँ। १०-१५ दिनमें भी इस नेको प्रस्तुत हो जाते हैं और जहाँके छात्रों और लिए कि शायद अभी ऐसा करनेसे विद्यार्थी सम- अध्यापकोंको संदिग्ध आचरणके कारण दंड झेंगें कि हमारी जय हुई। अधिष्ठाता महाशयने देनेकी भी आवश्यकता पड़ जाती है, वहाँके कृपा कर दो महीने यहीं ठहर जाना स्वीकार निकले हुए पंडितोंका चरित्र क्या उच्च होसकता किया।
है ? क्या वे धर्मोपदेशके आधिकारी हो सकते अब देखना यह है कि प्रायः २५ दिन विद्या- है ? क्या उनसे समाजको लाभ पहुँच सकता लयमें पढ़ाई बंद रही। छात्राश्रममें भोजन जो है ? क्या उन लोगों के लिए समाजको ५९०-- विद्यार्थियों को पढ़ने के लिए मुफ्त दिया जाता है ६०० रु० मासिक व्यय करना उचित है ? क्या बराबर दिया गया। भोजनके व्यतिरिक्त अन्य उनके लिए शिक्षा ही बिना फीस नहीं किन्त खर्च भी बराबर होता रहा । इन सबके अतिरिक्त भोजन, वस्त्र, मकान इत्यादि भी देना और उस जो हाथखर्चके लिए विद्यार्थियों को मासिक मिलता पर ४०० रु०मासिक केवल २७-२८ विद्यार्थिहै उसमें भी किसी प्रकारकी हानि नहीं हुई। यों पर खर्च करना समाजके सार्वजनिक धनका विद्यार्थियोंको अपराधका इसके अतिरिक्त कुछ सदुपयोग करना है ? इस पर भी क्या उन्हें हाथ इंड न मिला कि एक मासके लिए उनके खर्च के लिए रुपया देना सामाजिक धनका अपभोजनके घीकी मात्रा कछ कम कर दी गई। व्यय नहा है ! उनको बहकानेवाले पंडितजीका भी कछ मैं यह नहीं कहता कि संस्था बंद कर दी न बिगड़ा।
जाय. अथवा समाज इसमें चंदा न दे। मैं केवल विद्यालय में माय ५००-६०० रु० मासिक यही कहना चाहता हूँ कि समाजको अधिकार व्यय होता है, जिसमें अध्यापकोंका वेतन तो ही नहीं उसका यह कर्तव्य भी है कि वह देखे केवल १५०) से कममें ही हो जाता है। मकानके कि जा रुपया वह संस्थाको देती है उसका लिए कोई व्यय नहीं करना पड़ता प्रायः४००) सदुपयोग होता भी है या नहीं। वह पूछ सकती मासिक भोजन आदिमें व्यय होता है और केवल है कि क्यों विद्यालयमें कोई अधिष्ठाता भी नहीं २७-२८ विद्यार्थी शिक्षा पाते हैं। शिक्षा कैसी रहता ? क्यों उपाधिष्ठाता भी विद्यालयमें रहकर मिलती है और ये विद्यार्थी यहाँसे पंडित बनकर विद्यार्थियोंकी दशा सुधारनेका प्रयत्न नहीं समाजका कितना उपकार करेंगे यह उपर्युक्त करता ? क्यों प्रबंधकारिणी सभा व्याक्त विशेषकथासे प्रकट होता है। इसके अतिरिक्त जिस के हानिलाभ पर दृष्टि रखकर विद्यालयका विद्यालयमें यह भी ठीक ठीक नहीं मालूम कि उचित प्रबंध नहीं करती ? क्यों धार्मिक संस्था में कौन विद्यार्थी कब किस अध्यापकके पास उप- भी आचरण सुधारनेका प्रयत्न नहीं होता ? क्यों स्थित था और कब नहीं, जहाँ हाजिरीके रजि- विद्यार्थियोंको हाथ खर्च के लिए रुपया देकर स्टर भी ढूँढ निकालनेके लिए परिश्रम और विलासी और उद्धत बनाया जाता है ? क्यों धमकियोंकी आवश्यकता होती है, जहाँके दफ्त- संचालकगण समाजसे ऐसी ऐसी बातें छुपाया
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GARLIABHAIRAILERODURATIRAL
उन्माद। HymntrimmummITIES
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करते हैं ? २५ दिन विद्यालयमें हड़ताल रहे
और जैनसमाजके कान तक उसकी भनक भी न पहुँचे, क्या यही संचालकोंकी जिम्मेवारी है?
उन्माद । क्या किसीको समाजके इतने दृव्यके अपव्यय- CHANDANATHANISAPANISAPANA की कुछ चिन्ता है ? किन्तु केवल पूछकर भी चुपचाप बैठ जाना
. (ले०, श्रीयुत बाबु पदुमलाल बक्षी बी. ए.,) ठीक न होगा । यदि उचित प्रबंध न हो सके तो हरिनाथ बाबू खूब निपुण डाक्टर थे । समाजको अपनी ओरसे उचित प्रबंध करना अपने व्यवसायमें उन्हें यथेष्ट सफलता हुई थी। होगा। ऐसा करनेमें किसी व्यक्तिविशेषके हानि लोगोंको उन पर बड़ा विश्वास होगया था । तो लाभका विचार सर्वथा दूर कर देना होगा । भी लोग उनसे संतुष्ट नहीं थे । कुछ तो उन्हें जबतक समाज ऐसा करनेके लिए तैयार नहीं नर-पिशाच तक कहते थे। इसमें संदेह नहीं, होगी तबतक समझना होगा कि स्वयं समाज हरिनाथ बाबूमें थोड़ी भी दया नहीं थी। चाहे भी अपने हानि लाभको नहीं समझती । क्या कोई कैसी भी दशामें हो, विना फीस लिये ऐसे चरित्रके पंडितोंको तैय्यार करा कर समाज डाक्टर बाबू जाते नहीं थे। कितने ही असमर्थ अपने पैर में आप कुल्हाड़ी नहीं मारती ? क्या गृहस्थ उनके पास गये पर सबको हताश होकर स्वयं अपनी उन्नतिके पथमें कंटक नहीं लौट आना पड़ा । उनसे पहले कोई भी खड़े करती ?
दवा नहीं कराता था। पर जब रोग अन्य ___ अंतमें मैं यह प्रार्थना करता हूँ कि यदि डाक्टर और वैद्योंके लिए असाध्य हो जाता था कुछ कठोर शब्दोंका प्रयोग किया गया है तो तब हताश होकर लोग उन्हें ही बुलवाते थे। संचालकगण मुझे क्षमा करें । क्योक में उन्हें हरिनाथ बाबूके हाथमें केस आते ही असाध्य विश्वास दिलाता हूँ कि जो कुछ लिखा गया है रोग भी साध्य हो जाते थे। इसलिए नर-पिवह केवल समाजका ध्यान आकर्षित करनेके लिए शाच होकर भी हरिनाथ बाबूको कामका अभाव सत्य सत्य लिखा गया है। मेरा किसीसे द्वेष भाव न था। नहीं है। यह हो सकता है कि विद्यालयसम्बन्धी
एक बार मुझे भी उनके पास जाना पड़ा। उपर्युक्त बातें उन्हें या अन्य किसी सज्जनको
मिनीका ज्वर खूब बढ़ गया था। किसीकी कुछ बुरी न जान पड़ें, उन्हें विद्यालयमें कोई
चिकित्सासे कुछ लाभ नहीं हुआ। तब हरिनाथ दोष न दिखाई दे; किन्तु मुझे विश्वास है कि
। बाबू आये । न जाने उनमें ऐसी कौनसी शक्ति समाज अभी ऐसे मनुष्योंसे सर्वथा शून्य नहीं
नहा थी कि थोड़े ही दिनोंमें मिनी अच्छी होगई । हो गया है जो किसी बातपर स्वतंत्रतासे विचार कर सकें । ऐसे महाशयोंको अवश्य मानना'
. ५००) के नोट लेकर मैं उनसे अपनी कृतज्ञता पड़ेगा कि ये सब बहुत ही बुरी बातें हैं और
" प्रगट करनेके लिए गया । कार्ड भेज देनेपर मुझे दृढ़ विश्वास है कि वे शीघ्र ही अपना स्वर हरिनाथ बाबू स्वयं आकर मुझे अपने कमरेमें ले ऊँचा करके समाजको जगा देंगे और ऐसी बड़ी
गये। जब हम लोग बैठ गये तब मैंने ५००) के संस्थाका सुधार करनेको बाध्य करेंगे।
नोट निकाल कर कहा, “डाक्टर बाबू, आपने हम लोगोंको आजीवन के लिये अपने उपकार पाशसे
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जैन हितैषी
बद्ध कर लिया है। हम लोग आपको दे क्या सकते हैं । पर हम जन्मभर आपका उपकार मानते रहेंगे । " हरिनाथ बाबू नोट लेकर कुछ देर चुप रहे। मैंने देखा, उनके नेत्रों में आँसू भर आये थे । मैं सोचने लगा ' आज इस नृशंसमें कोमलता कैसी ?' इतने में हरिनाथबाबूने कहा:---
“ विनोदबाबू मैंने उपकार नहीं किया है। मैं उपकार करता भी नहीं हूँ | मैंने जो कुछ किया सब इन नोटोंके लिए। आपको आश्चर्य होता होगा । इतनी सम्पत्ति रहने पर भी मैं धनसंचय कर रहा हूँ। मेरी न तो कोई संतान है, न कोई बन्धु बान्धव ही है । मैं अकेला हूँ। मैं जानता हूँ यह मेरी वृद्धावस्था है | मैं जानता हूँ, मेरा मृत्युकाल सन्निकट है । धनसे मुझे कुछ लाभ नहीं है । तो भी में धनसंचय करूँगा, मृत्यु-काल तक संचय करता रहूँगा । "
।
।
।
यह कहते कहते हरिनाथ बाबू खड़े हो गये उनका शरीर काँपने लगा। उनकी यह दशा देख मैं डर गया | उन्हें शान्त करने के लिए मैं कुछ कहना ही चाहता था कि हरिनाथ बाबू फिर कहने लगे, " विनोदबाबू गुझे शान्ति नहीं चाहिए हृदयकी इस विषमज्वालाको लेकर मैं हो मरूँगा आज ३५ वर्षसे मैं यह ज्वाला हृदयमें रख रहा हूँ । बाबू मैं जानता हूँ आप लोग मुझे कैसा समझते हैं, पर मैंने जैसा कुछ अनुभव किया उसे मैं ही जानता हूँ । विनोद बाबू, आज तुम्हारी बातोंसे मुझे उस घटनाका स्मरण हो आया है जिसे इस धन-तृष्णाकी प्रबलज्वालामें पड़कर मैं भूल जाना चाहता था । मैं तुमसे अपनी जीवन कथा कह देता हूँ । विनोद बाबू, तब तुम जान सकोगे मैं ऐसा नर-पिशाच क्यों हो गया।
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'आज ४५ वर्ष हो गये मैं बी. एस. सी. पास कर घर लौटा था । मेरा घर हरिपुर में था । घरमें विधवा माता और वर्षभरकी बहिन थी । पिता की मृत्यु बहिन के जन्म होते ही हो गई थी, इस लिए मैंने अपनी बहिनका नाम अभागिनी रक्खा था । पिताकी मृत्यु हो जानेपर हम लोग वर्षभर बड़ी तकलीफमें रहें । माता के अनुरोधसे मुझे कालेज जाना पड़ा और दासीकी वृत्ति स्वीकार कर माता गाँव में रही। दो चार लड़कोंको पढ़ा कर मैं अपना खर्च निकाल लेता था । घर के लिए भी जो कुछ बचा करता भेज देता । इस प्रकार एक वर्ष व्यतीत कर मैं घर लौटा । उस समय माताकी दशा देखकर मुझे बड़ी वेदना हुई । गाँव में कई लोग ऐसे थे जो यदि च तो हमें सहायता दे सकते थे । पर किसीने कुछ हुई थी। मैं भी भविष्य सुखका स्वप्न देखने लगा नहीं किया । मेरे आनेपर माताको बड़ी प्रसन्नता था । इतनेमें मेरी माताको बुखार आने लगा । वर्षा काल आ गया था। घर खूब टूट फूट गया था । एक कमरेको छोड़ दूसरा कमरा भी नहीं था । वह भी ऐसा नहीं था कि उसमें मेरी ज्वरसे पीडित माता रह सके । मैंने पड़ोस के लोगोंसे एक कमरा देनेके लिए बड़ी प्रार्थना की । पर किसीने मेरी प्रार्थना नहीं सुनी। उन्हें विश्वास हो गया था कि मेरी माताको प्लेग हो गया है । एक दिन माताकी पीड़ा खूब बढ़ गई । मैंने पासके गाँवसे एक डाक्टर बुलाने का विचार किया । पर कोई भी जाने के लिए उद्यत नहीं हुआ । मैं स्वयं जानेके लिए प्रस्तुत हुआ, पर माता और अभागिनीको किसके आश्रय में छोडूं ? मैंने एकसे कहा, ' भाई घरमें स्थान भलेही मत दो; पर हमारे घर जाकर मेरी माता के पास दो घंटेके लिए बैठे रहो। मैं तब तक डाक्टरको बुला लेता हूँ ।' पर वह प्लेग के भय से नहीं
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उन्माद ।
आया । तब मैं जगदीश्वरका नाम ले अभागिनीको माताकी गोद में छोड़कर दौड़ता हुआ डाक्टरके यहाँ गया। डाक्टर बाबू घरमें विश्राम कर रहे थे । अपने विश्राममें बाधा होते देख क्रुद्ध हो हो उठे । उन्होंने चिल्ला कर कहा, 'निकाल बाहर करो । ' मैं हताश होकर लौट आया । घर आने पर देखा कि अभागिनी मृतमाताकी गोद में सो रही है । "
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डाक्टर हरिनाथ मित्र आगे कह नहीं सके, कुछ देर तक चुपचाप बैठे रहे । थोड़ी देरके बाद हृदयके उद्वेगको रोक कर फिर कहने लगे“विनोद बाबू, अधिक क्या कहूँ, किसी प्रकार, माताका अंतिम संस्कार कर मैं कलकत्ते चला आया । मातृ-पितृ-हीन अभागिनीको हृदयसे लगाकर मैंने कुछ दिनोंतक उसकी ज्वाला शान्त की । ढूँढ़ने पर मुझे ५० ) का एक ट्यूशन भी मिल गया । मैंने डाक्टर होना निश्चय कर कालेजमें नाम लिखा लिया । ५ वर्षके अविराम परिश्रमसे मैं डाक्टर हुआ । तब तक अभागिनी ६ वर्षकी हो गई । तब निश्चिन्त हो गया ।
कुछ
।
“मुझे अपने व्यवसायमें सफलता होने लगी संसारमें कुछ नाम कर जाने की इच्छासे मैं खूब परिश्रम किया करता था । अपने उद्योगमें संलग्न होने के कारण मैं कुछ ही दिनों में अभागिनीकी ओर कम ध्यान देने लगा । एक दिन मुझे विज्ञान-परिषद्की ओरसे निमंत्रण मिला । मुझे उक्त विद्वन्मण्डलीने क्षयरोग पर व्याख्यान देने के लिए कहा था। नाम करनेका ऐसा सुअवसर पाकर मैं खूब आनन्दित हुआ । घर आकर मैं अपने व्याख्यानका विषय देखने में लग गया । देखते देखते मुझे एक नवीन बात सूझी। मैं अपने आविष्कारसे अक्षय्य कीर्ति सम्पादन करनेकी इच्छाके वशीभूत हो उसकी परीक्षा करने लगा। इतने में अभागिनीने आकर कहा, ११-१२
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2 जा, भैय्यासे
'भैय्या' । मैंने रुष्ट होकर कहा, मैं अभी अपने काममें लगा हूँ । ” अपमानित होकर अभागिनी अपने कमरे में चली गई। रात भर मैं अपने आविष्कारमें लगा रहा, मुझे अपनी अभागिनीकी सुधि नहीं थी।
" दूसरे दिन मैं शीघ्र भोजन कर विना अभागिनीको देखे विज्ञानपरिषद् भवनमें अपने अपूर्व आविष्कार पर व्याख्यान देनेके लिए चला गया। कहना नहीं होगा, मेरे उक्त आविष्कारसे सर्वत्र मेरा नाम फैल गया । संसारके प्रतिष्ठित विद्वानोंमें मेरी गणना होने लगी । बड़े बड़े डाक्टरोंने आकर मुझे बधाई दी । अनेक लोगोंसे मुझे निमंत्रण मिला। मैं उल्लास पूर्ण हृदयसे घर लौटा । घर आते ही दासीने कहा 'अभागिनीको आज दिनभर से खूब ज्वर है ।" मेरा हृदय काँप उठा । मैं शीघ्रता से अभागिनी
के
कमरे में आया। उसे सुधि नहीं थी। तुरन्त ही उसे गोद में उठा लिया । देखा, उसका सब शरीरं ज्वर -तापसे जल रहा था । मैंने विदीर्ण" अभागिनी ! हृदयसे पुकारा, , अभागिनीने आँख खोल कर कहा, 'भैय्या, पानी । ' मैंने ही उसे पानी दिया । पानी पीकर अभातुरन्त गिनी कहने लगी, 'भैय्या, मुझे छोड़कर मत जाओ । मुझे डर लगता है।' मैंने रोका 'अभागिनी बहिन, मैं अब तुझे छोड़कर कभी नहीं जाऊँगा ।"
" मैं रातभर अभागिनीकी चिकित्सा करता रहा, पर कुछ लाभ नहीं हुआ। उसकी दशा खराब ही होती गई । अन्तमें उषः कालके समय, जब समस्त पृथ्वी में आलोक फैल रहा था, अभागिनीने मुझे सदाके लिए अन्धकारमें डालकर प्राण त्याग दिये। मैं उसके मृत देहको गोदमें लिये बैठा रह गया। लोक-सेवाका फल मुझे मिल गया ।
“विनोद बाबू, अब आपका अधिक समय नहीं लूँगा । अभागिनीकी मृत्यु होने पर मेरे हृदयकी प्रसुप्त ज्वाला जागृत हो उठी। संसार
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LATHLILABALIBABILIBAIDARBARARD
जैनहितैषी।
मुझे नर-पिशाच कहता है, कहे। मुझे लोका- LGDOGDS PROPOSAR पवादका भय नहीं है। संसारने मुझपर कौनसा विधवा-विवाह-विचार। उपकार किया है कि मैं उसकी सेवा करूँ ? सच *mom anamom 920000 तो यह है कि संसार रणभूमि है। दया-भिक्षासे ( कलकत्ता हाईकोर्टक भूतपूर्व जज सर गुरुदास प्राणोंकी रक्षा नहीं होती। उसके लिए युद्ध । करना पड़ता है। दया, प्रेम, सहानुभूति, भ्रम
बनर्जीके बंगला-लेखका अनुवाद ।) मात्र है। यहाँ केवल करता है। यदि जगदीश्वर दोमेंसे एकके मर जाने पर, विवाहबन्धनका है तो वह अत्यन्त क्रूर है। कदाचित् भगवती तोड़ देना उचित है या नहीं, यह विवाहजगदम्बाके साम्हने हजारों पशुओं का बलिदान सम्बन्धी अन्तिम प्रश्न है । मृत्यु हो जानेपर केवल इसी आभिप्रायसे किया जाता है कि निबल विवाहबन्धन टट जाता है, यह बात प्रायः सर्वत्र
और निस्सहायका नाश हो । जिसमें शक्ति नहीं है उसकी स्थितिसे लाभ ही क्या ? इस लिए
' ही मानी जाती है; केवल यूरोपका पोजिटिविस्ट ही भगवती चण्डिका पशओं का रक्त-पान करती सम्प्रदाय * और हिन्दू शास्त्र इसे नहीं मानते। है। वह संसार-रणभूमिमें निर्बल मनुष्यों का भी यद्यपि हिन्दू शास्त्रों के अनुसार पुरुष एक स्त्रीके संहार करती है । विनोद बाबू, कोई इसे माने मर जानेपर अन्य स्त्री ग्रहण कर सकता है; चाहे न माने, मैं मानता हूँ।
परन्तु इससे यह नहीं समझा जाता कि उसका ____“मैंने उपकार नहीं किया है। मैं उपकार पहली स्त्रीके साथ सम्बन्ध टूट गया । क्योंकि नहीं करूँगा। मैंने संसारको खूब देख लिया पहली स्त्रीके रहने पर भी हिन्द पति दूसरी स्त्री है; संसारने भी मुझे देख लिया। मुझे न तो अब आशा है, न भय है, न संकोच है। भविष्य
ग्रहण कर सकता है । परन्तु पुरुषों के लिए एकसे अंधकार-पूर्ण है। जो कुछ होगा मैं सह लँगा। अधिक विवाह करना, निषिद्ध न होने पर भी यदि मुझे नरककी विषम यंत्रणा सहनी पडे, हिन्दू शास्त्रां में समाहत नहीं है-वह आदरकी तो मैं उसके लिए प्रस्तुत हूँ।
" दृष्टिस नहीं देखा जाता X । आगस्ट कोम्टीका __“पर मुझे धनकी तृष्णा नहीं है । लोग सम- यह मत बहुत ही अच्छा है और विवाहके उच्च झते हैं मेरे पास अतल सम्पत्ति है। पर सब भल- आदर्शका अनुयायी है कि 'सीके लिए जिस में हैं। मैं धनकी लालसा नहीं रखता । मैं तरह पतिके वियोग होने पर दूसरा पति ग्रहण किसीको कुछ नहीं देता। पर जो कुछ पाता हूँ करना अनुचित है, पति के लिए भी उसी तरह नष्ट कर डालता हूँ!"
स्त्रीवियोग होनेपर अन्य स्त्री ग्रहण करना अनु__डाक्टर बाबू फिर कुछ न बोले । मेरी ओर स्थिर-दृष्टि से देखने लगे। इतनेमें टन टन कर चित है। परन्तु यह आशा अब भी नहीं की आठ बज गये। मैं घर जाने के लिए उनसे बिदा जाती कि इस आदर्शके अनुसार सर्व साधारण माँगने लगा । हरिनाथ बाबूने मुझसे हाथ मिला चल सकेंगे। प्रायः सभी देशों में इसके विपरीत कर कहा, 'जाइए । मैं अब इन नोटोंसे यज्ञ रीति प्रचलित है और हिन्दूसमाजमें यह उच्चादकरूँगा। मैं घर लौट आया।
की प्रथा जो थोड़ी बहुत प्रचलित भी है वह स्त्रीकी अमावस्याकी रात्रि थी। सर्वत्र अंधकार था। अपेक्षा पुरुषके लिए बहुत अनुकूल है । अतः पक्षमैंने खिड़की खोलकर देखा कि अन्धकारमें पडकर खद्योत अपनी अल्प ज्योतिको व्यर्थ नष्ट * कोम्टके 'सिस्टम आफ पाजिटिव पालिटी' के कर रहा है।
दूसरे वोल्यूमका अध्याय तीमरा और पृष्ट १५७ देखो।+ मनु, अध्याय ३ श्लोक १२-१३॥
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विधवा-विवाह-विचार।
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पातपूर्ण होनेके कारण अन्य समाजके लोगोंकी पातके ग्रहण करनेमें कोई दोष नहीं था, और दृष्टिमें और हिन्दूसमाजसुधारकोंकी दृष्टिमें यह सन्तान उत्पन्न होनेपर दूसरा पति ग्रहण करनेमें बुरी और अन्यायपूर्ण समझी जाती है। उस सन्तानके पालनमें विघ्न पड़ता, अतः उस
परन्तु यह बात ध्यानमें रखना चाहिए कि दशामें चिरवैधव्य केवल उच्चादर्श ही क्यों प्रयोयदि देशके आधे लोग ( स्त्रियाँ ) किसी उच्चा- जनीय होता । किन्तु विवाहके दूसरे उद्देश्यकी दर्शानुयायी प्रथाका पालन करते हों और दूसरे ओर दृष्टि रखनेसे इस विषयमें कोई सन्देह नहीं आधे ( पुरुष ) उसका पालन न करते हो, तो रहता कि चिरवैधव्यपालन ही उच्चादर्श है। इसमें उन लोगोंका ( पुरुषोंका ) दोष है-इससे जो पतिप्रेमका विकाश धीरे धीरे पत्नीकी वे लोग ही निन्दनीय समझे जायँगे-वह प्रथा स्वार्थपरताको नाश करनेका और आध्यात्मिक निन्दित नहीं हो सकती । जब चिरवैधव्य- उन्नति करनेका हेतु होगा, वहीं यदि पतिके पालन उच्च आदर्शकी प्रथा है तब केवल इसी अभावमें लप्त हो जाय और पत्नी अपने सखके लिए कि परुष पत्नीवियोग हो जाने पर अन्य स्त्री लिए उसे अन्य पतिमें न्यस्त कर दे, तो बतलाग्रहण कर लेते हैं, उसे मिटा डालना अच्छा इए इसमें स्वार्थपरताका नाश क्या हुआ? इसके नहीं हो सकता-कर्तव्य नहीं बन सकता , उत्तरमें कभी कभी विधवाविवाहके अनयायियों बल्कि जिस स उपायसे पुरुष भी उच्चादर्शके अनु. द्वारा यह कहा जाता है कि "जो लोग विधवायायी बन जावें, वही उपाय करना, समाज. विवाहका निषेध करते हैं वे विवाहको केवल सुधारकों का कर्तव्य है । अतएव मूल प्रश्न इन्द्रियतृप्तिके लिए ही आवश्यक समझते हैं और यह है कि-पुरुष कुछ भी करते हों, इससे मत- विवाहका उच्चादर्श भूल जाते हैं। वास्तव में लब नहीं-स्त्रियों का चिरवैधव्य पालन जीवनका विधवाका विवाह करना इसलिए कर्तव्य है कि उच्चादर्श है या नहीं । इस प्रश्नका वास्तविक उत्तर वह केवल इन्द्रियतृप्तिका कारण नहीं है, किन्तु पानेके लिए हमें विवाहके उद्देश्यकी ओर दृष्टि पतिप्रेम सन्तानस्नेहादि समस्त उच्चवृत्तियोंको डालनी होगी।
विकसित करता है । " परन्तु सुधारकोंकी यह अवश्य ही संयत भावसे इन्द्रियताप्तिसाधन, बात कुछ विचित्र मालूम होती है। देखना सन्तानोत्पादन और सन्तानपालन यह विवाह- चाहिए, यह कथन कहाँतक ठीक उतरता है कि का सबसे पहला उद्देश्य है; परन्तु विवाहका विधवाविवाहका निषेध विधवाकी आध्यात्मिक केवल यही एक और सबसे श्रेष्ठ उद्देश नहीं है। उन्नति के लिए बाधाजनक है और विधवाविवाहका द्वितीय और श्रेष्ठ उद्देश है दाम्पत्यप्रेम विवाहका विधान उस आध्यात्मिक उन्नति के साध( पति-पत्नी-प्रेम ), और सन्तानस्नेहसे धीरे नका उपाय है। धीरे चित्तकी सत्प्रवृत्तियों का विकाश होते जाना पतिप्रेम एक ही साथ सुखका आकर और और उनके द्वारा स्वार्थपरताका नाश, परार्थ- स्वार्थपरताके नाशका उपाय है । यदि वह केवल परताकी वृद्धि तथा आध्यात्मिक उन्नतिका सुखका आकर माना जायगा, अर्थात् ऐहिक प्राप्त होना । यदि पहला उद्देश्य ही विगहका भावसे ही अधिक आदूत होगा, तो उसके द्वारा एक मात्र उद्देश्य होता तो सन्तान उत्पन्न हो स्वार्थपरताके नाशकी अर्थात् आध्यात्मिक 'जानेके पहले पतिवियोग हो जाने पर दूसरे भावके विकाशकी संभावना बहुत ही कम रहगी।
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MARAATMAITHILMAITHIMIRAIMER
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यदि विधवा आध्यात्मिक भावसे पतिप्रेमका कर लेती हैं तो उन्हें 'मानवी' ही कहना अनुशीलन करना चाहती है तो उसके लिए चाहिए; परन्तु जो पवित्र भावसे चिरवैधव्यदूसरा पति ग्रहण करना निष्प्रयोजन है, साथ ही पालनमें समर्थ हैं उन्हें 'देवी' कहना चाहिए बाधाजनक भी है। क्योंकि उसने पहला पति और उनके जीवनको ही विधवाजीवनका उच्चाप्राप्त करनेके समय, उसीको पतिप्रेमका पूर्ण दर्श मानना चाहिए। आधार माना है और उसे ही आत्मसमर्पण बहुत लोग ऐसे भी हैं जो यह स्वीकार करते किया है। अतएव उसकी मृत्युके पश्चात् उसे हैं कि चिरवैधव्यपालन उच्च आदर्श है; परन्तु अपने हृदयमें धारणकीहुई उसकी मूर्तिको कहते हैं कि यह उच्चादर्श सर्वसाधारणके लिए जीवित रखना चाहिए और उसीके प्रति अविचल अनुसरण योग्य नहीं है। इसलिए सर्व साधाप्रेम रखना चाहिए; बस यही उसके लिए निः- रणके लिए विधवाविवाहका प्रचार होना उचित स्वार्थ प्रेम और आध्यात्मिक उन्नतिका साधन है। है । इस विषयमें जो युक्तियाँ दी जाती हैं यहाँ अवश्य ही वह उस प्रेमका प्रतिदान या बदला नहीं उनके विषयमें, आइए, थोड़ासा विचार कर लें। पायगी;परन्तु उच्चादर्शका प्रेम बदला नहीं चाहता। उक्त युक्तियोंकी आलोचना करने के पहले हम यदि वह (विधवा) दूसरा पात ग्रहण कर इसी विषयकी कछ बातोंका खुलासा कर देना लेगी, तो पतिप्रेमानुशीलन नहीं कर सकेगी- चाहते हैं । विधवाविवाहके सम्बन्धमें अभीतक जो उसके पतिप्रेममें बड़ी भारी बाधा आ पड़ेगी।
गा। कुछ कहा गया है वह हिन्दूशास्त्रोंका नहीं, किन्तु उसने जिस पहले पतिको पतिप्रेमका पूर्ण आधार
१ सामान्य युक्तियोंका कथन है, और आगे भी मानकर आत्मसमर्पण किया था उसे उसको
हम जो कुछ आलोचना करेंगे वह सब युक्ति. भूल जाना होगा, अपने हृदयमें अंकित की .
मूलक होगी, हिन्दूशास्त्रमूलक नहीं । अतएव हुई मूर्तिको पोंछ देना होगा और जो ,
। यहाँ यह प्रश्न नहीं है कि विधवाविवाह कभीप्रेम अर्पण किया था उसे वापस लेकर दूसरे किसी
। किसी अवस्थामें भी होना चाहिए या नहीं। पात्रमें अर्पण करना पड़ेगा । ये सब कार्य ऐसे -
एस प्रश्न है उच्चादर्शके सम्बन्ध में । चिरवैधव्य उच्चाहैं जो आध्यात्मिक उन्नतिके मागेम बड़ी भारा र्श होने पर भी यह नहीं समझा जाता कि उस बाधा डालते हैं और इस कारण उसके साधक आदर्श अनसार सब ही चल सकते हैं। यह अवश्य कभी नहीं हो सकते । यह ठीक है कि मृत
त स्वीकार करना पड़ेगा कि दुर्बलदेहधारिणी मानवी
बी पतिकी मूर्तिका ध्यान करते रहना और उसके पार
सक स्त्रीके लिए प्रथम अवस्थामें वैधव्य बहुत ही कष्टकर पति प्रेम और भक्ति अचल रखना बहुत ही काठन है। वह कष्ट कभी कभी-जैसे कि बालबंधव्यके कार्य है; परन्तु वह सर्वथा असाध्य और असुख
___ समय-बहुत ही मर्मविदारक होता है और विधहिन्द्रविधवाओंकं पवित्र जीवनम वाके कनमें सबका ही हृदय व्यथित होता है । इसके अनेक प्रमाण मिल सकते हैं । हम यह जो विधवायें आध्यात्मिक बलसे उस कष्टको
कहते कि सब ही स्त्रियाँ चिरवधव्य पालन धीरतासे सहन करके धर्मव्रतमें जीवन उत्सर्ग कर करनेमें समर्थ हैं । जो असमर्थ हैं-रँडापा नहीं सकती हैं उनका कार्य अवश्य ही प्रशंसनीय है; घर काट सकती हैं, उनके लिए हृदय अवश्य ही जो ऐसा नहीं कर सकती हैं-असमर्थ हैं, उनका व्यथित होता है और यदि वे दूसरा पति ग्रहण कार्य प्रशंसनीय नहीं है; परन्त साथ ही उस कार्य
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विधवाविवाह-विचार।
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की निन्दा करना भी उचित नहीं है। क्योंकि नहीं हुआ । तब इस समय पाश्चात्य देशोंकी मनुष्य अवस्थाके अधीन है, उसके दोष गुण स्त्रियाँ अपनी स्वाधीनता स्थापित करनेके लिए संसर्गसे उत्पन्न होते हैं । पितामाताके द्वारा जिस जिस प्रकार दृढव्रता और कटिबद्धा हुई हैं, उससे प्रकारके मन और शरीरकी प्राप्ति उसे होती है, जान पड़ता है कि धीरे धीरे, विधवा क्यों कुमारियाँ
और शिक्षा दृष्टान्त और आहार व्यवहारके द्वारा भी, विवाहबन्धनमें बँधनेके लिए अनिच्छुक होंगी उसका वह मन और शरीर जिस प्रकारसे गठित और यदि ऐसा हुआ तो शायद उनके उस दृढहोता है, उसीके ऊपर उसका कार्य अकार्य अवल- व्रतका यह भी एक फल हो कि पाश्चात्य देशोंमें म्बित रहता है । अतएव यदि कोई चिरवैधव्य भी पवित्र चिरवैधव्यका उच्चादर्श स्थापित हो पालन करनेके लिए असमर्थ होती है तो उसकी जाय। किन्तु ये सब बहुत दूरकी बातें हैं। उस असमर्थताका दायित्व (जिम्मेवारी ) केवल इस समय समीपकी बात यह है कि हिन्दूसमा- . उसी पर नहीं है; वह दायित्व उसके माता पिता जमें जो चिरवैधव्यकी प्रथा प्रचलित है उसे पर, शिक्षादाता पर और समाज पर भी जाता है। उठा देना उचित है या नहीं ? अतः यदि वह चाहे तो अवश्य ही विवाह कर इस प्रथाके विरुद्धमें जो सब बातें कही जाती सकती है। इसमें किसीको भी बाधा डालनेका हैं उनमेंसे पहली यह है कि इस प्रथाका फल स्त्री अधिकार नहीं है और वह विवाह, हिन्दूशास्त्र और पुरुषोंके लिए बहुत ही असमान है। इस चाहे जो कहें, सन् १८५६ के १५ वें आईनके बातका उल्लेख और कुछ आलोचना पहले हो चुका अनुसार जायज है । अतएव आवश्यकता है। पुरुष स्त्रीवियोगके बाद फिर विवाह कर लेते हैं; होने पर-प्रयोजन होनेपर-विधवाविवाह होना इसी लिए स्त्रियोंको भी पतिवियोगके बाद फिर उचित है या नहीं, यह प्रश्न, अन्य समाजोंकी तो दूसरा पति ग्रहण करलेना चाहिए, यह बड़ी ही बात ही क्या, हिन्दूसमाजमें भी अब उठ नहीं असंगत प्रतिहिंसा (बदला ) है। प्रकृति के नियमानुसकता । इस समय प्रश्न यह है कि विधवा- सार पुरुष और स्त्रीके आधिकारमें सदा ही विषमता विवाहका प्रचलित प्रथा हो जाना और चिर रहेगी । यह आनिवार्य है । प्रकृतिने स्वयं वैधव्यपालनको उच्चादर्श होनेपर भी उक्त ही सन्तानोत्पादन और सन्तानपालनका भार प्रथाका व्यतिक्रम ( अपवाद) बनाकर रखना पुरुषकी अपेक्षा स्त्री पर अधिक डाला है । भ्रूण उचित है, अथवा चिर वैधव्यपालनका ही प्रच- (बालक) का निवास माताके गर्भमें और लित प्रथा होना और विधवाविवाहका उसके शिशका आहार माताके वक्षमें रक्खा गया है। व्यतिक्रम स्वरूपमें रहना उचित है ? बस इसी यदि स्त्री गर्भवती है या उसका बच्चा शिशु है, प्रश्न पर यहाँ विचार होना है।
तो ऐसी अवस्थामें उसे पतिवियोग होने पर दूसरे "इस समय जिन सब देशोंमें विधवाविवाहकी पतिको ग्रहण करनेमें अवश्य ही विलम्ब करना प्रथा प्रचलित है यह संभव नहीं कि वहाँसे वह पड़ेगा। इसके बाद इन सब शारीरिक बातोंको कभी उठ जायगी । सुप्रसिद्ध पाश्चात्य पण्डित छोड़कर यदि हम मन और आत्माकी ओर कोमटी बहुत दिन पहले चिर वैधव्यका श्रेष्ठत्व ध्यान देंगे तो मालूम होगा कि स्त्री पुरुषों में प्रतिपादन कर गये हैं; परन्तु हम देखते हैं कि अधिकारकी विषमता अवश्य ही रहेगी और यह उनके कथनसे पाश्चात्य प्रथामें कोई परिवर्तन बात हम पुरुषोंका पक्ष लेकर नहीं किन्तु
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GIELITITICALCHODAI
जैनहितैषी
स्त्रियोंका पक्ष लेकर कह रहे हैं। पुरुषोंको इच्छा- प्रबल हैं। यह सच है कि देहरक्षाके लिए पूर्वक या इच्छा न रहने पर भी, जीवननिर्वाह- कितनी ही आवश्यकताओंकी पूर्ति अवश्य के लिए समय समय पर कठोर और निष्ठुर काम करनी चाहिए; परन्तु मन और आत्माके ऊपर करने पड़ते हैं आरै इस लिए उनका हृदय तथा देहका स्वामित्व रखनेकी अपेक्षा, देह पर मन मन निष्ठुर हो जाता है, जिससे कि उनके और. आत्माका स्वामित्व रखना अधिक वाञ्छआत्मोका पूर्ण विकाश होने में बाधा पड़ती है। नीय है और यदि देहका किञ्चित् कष्ट स्वीकार पर स्त्रियोंको ऐसे काम नहीं करने पड़ते । इस करनेसे मन और आत्माकी उन्नति होती हो, लिए उनके हृदय और मन कोमल रहते हैं। तो उस कष्टको कष्ट ही न गिनना चाहिए । इसके सिवाय स्वभावसे ( शायद सृष्टिरक्षाके पशुओंसे मनुष्य जाति इसी कारण तो श्रेष्ठ और लिए ) उनकी मति स्थितिशील और निवृत्ति- क्रमोन्नतिप्राप्त कहलाती है कि मनण्य देहका मार्गमुखी होती है और उनकी सहिष्णुता, कष्ट स्वीकार करके बुद्धिके द्वारा प्रवृत्तियोंपर स्वार्थत्याग करनेकी शक्ति और परार्थपरता या शासन करता है और भावी अधिक सुखके परोपकारवृत्ति पुरुषोंकी अपेक्षा बहुत अधिक उद्देश्यसे वर्तमान अल्पसखके लोभको रोक होती है । ऐसी दशामें उनके लिए स्वार्थत्यागके करके रखता है । पशु जब भरखा होता नियम यदि पुरुषसम्बधी नियमोंकी अपेक्षा है तब अपने परायेका विचार न करके अपने काठनतर हों तो समझना चाहिए कि वे उनके पाल- सामने जिस खाद्य पदार्थको पाता ह उसीको नेमें समर्थ हैं, इसी लिए वैसे बनाये गये हैं और यह खा जाता है । असभ्य और बर्बर मनुष्य भी नियमोंकी विषमता उनके गौरवकी ही चीज जरूरत होने पर अपने परायेका विचार न है लाघवकी नहीं। इसी लिए हमने यहाँ पर उन- करके जिस किसी जरूरी चीजको पाता है, की प्रतिहिंसाको असंगत कहा है । और जो ग्रहण कर लेता है; परन्तु सभ्य मनुष्य चाहे लोग उन्हें इस असंगत प्रतिहिंसाके लिए उत्ते- जितनी जरूरत क्यों न हो, दूसरेकी चीजको जित करते है, उन्हें उनके वास्तविक हितैषी नहीं लेता। इसी प्रकार विधवायें यदि कुछ मानने में हमें संकोच होता है।
देहिक कष्ट स्वीकार करके, चिरवैधव्यवत-पालदूसरी बात यह कही जाती है कि यह नेके द्वारा आत्मोन्नति करने आर परहितसाधन अतिशय निर्दय प्रथा, विधवाओंकी दुःसह वैधव्य- करने में समर्थ हो सकती हैं तो उनके उस यंत्रणाके प्रति आँख उठाकर भी नहीं देखती : कटको कष्ट ही न समझना चाहिए और इसलिए यदि विधवाओंकी शारीरिक अवस्थाके प्रति जो लोग उन्हें उस कष्टकं स्वीकार करनेकः हाष्ट दी जाय तो यह अवश्य स्वीकार करना उपदेश देते हैं वे उनके मित्र ही हैं-शत्रु नहीं! हागा कि यह आपत्ति बहुत ही प्रबल है। चिरबंधव्यव्रतका पालन करने के लिए विधवाऐसे दयाहीन हृदय बहुत ही थोड़े होंगे, जो ऑको और और सत्कर्मकि समान निमित्त, विधवाओंके देहिक दःखसे दुखी न हों। परन्त संयम और शिक्षाकी विशेष आवश्यकता है हम यह न भूल जाना चाहिए कि मनष्य विधवाका आहार व्यवहार संयत और ब्रह्मचर्योकेवल 'देही ' नहीं है, उसके मन और आत्मा पयोगी होना चाहिए । यदि शारीरिक वृत्तियों को देहकी अपेक्षा अधिक मूल्यवान् और अधिक उत्तेजित करनेवाले पुष्ट आहार और मानसिक
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विधवा-विवाह विचार |
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वृत्तियोंको जगानेवाले वस्त्र आभूषण विलास - विभ्रमादि व्यवहार त्याग न किये जायँगे, तो चिरवैधव्य पालन नहीं हो सकेगा । इसी लिए विधवाओंके हेतु ब्रह्मचर्यकी व्यवस्था की गई है ब्रह्मचर्य का पालन करने में यह ठीक है कि थोडेसे इन्द्रियतृप्तिकारक आहारविहारादि दैहिक सुखभोगोंका त्याग करना पड़ता है; परन्तु इसके बदले नीरोग, सुस्थ, सबल शरीर और तज्जनित मानसिक स्फूर्ति और सहिष्णुता, और इनके फलस्वरूप विशुद्ध स्थायी सुखकी प्राप्ति होती है | इसलिए ब्रह्मचर्य ऊपरसे कठोर जान पड़ नेपर भी सच्चे स्थायी सुखका आकर है । जो अदूरदर्शी हैं, अज्ञानी हैं वे ब्रह्मचर्यकी निन्दा करते हैं । इस अदूरदर्शिता और अज्ञानताके कारण ही भारत व्यवस्थापक सभाके एक सभ्यने विधवाविवाह के कानून बननेके समय हिन्दू विधवा के ब्रह्मचर्यको भयावह बतलाया था |
पाठक इसे कोई काल्पनिक चित्र नहीं समझें । इस शान्तिमय ज्योतिर्मय पवित्र चित्रने इस समय भी भारत के अनेक गृहों में उजेला कर रक्खा है । हमारी अयोग्य लेखनी उसका प्रकृत सौन्दर्य अंकित करनेमें असमर्थ है ! अव जिस प्रथाका फल विधवाओंके लिए और उनके परिवार के लिए, परिणाममें इतना शुभकर है उस की ऊपरी कठोरता देखकर उसे निर्दय कहना कदापि उचित नहीं है ।
चिरवैधव्य प्रथा विरुद्ध तीसरी बात यह कही जाती है कि इस प्रथा से गुप्त व्यभिचार, भ्रूणहत्या आदि अनेक कुफल फलते हैं; परन्तु यह अवश्य मानना होगा कि उनकी संख्या बहुत थोड़ी होती है । अतः कहीं कहीं ऐसा हो जाता है, केवल इसीसे यह प्रथा निन्दनीय नहीं होसकती । विधवाओं में ही क्यों सधवाओं में भी क्या व्यभिचार नहीं होता है ? परन्तु अब इस विषय में अधिक कहने की कोई जरूरत नहीं है । क्योंकि विधवाका विवाह अब कानूनसे जायज ठहर गया है, इस लिए जो चिरवैधव्य पालन में असमर्थ हैं वे इच्छा होते ही विवाह कर सकती हैं । उनके लिए इस प्रथाके परिवर्तन करने की तो कोई अवश्यकता नहीं दीखती ।
चिरवैधव्यव्रतसम्बन्धी एक कठिनाई और है | विधवा कन्या या पुत्रवधूको ब्रह्मचर्य पालन करानके लिए उसके माता-पिता या सास ससुर को भी आहार-व्यवहारमें उसीके समान ब्रह्मचर्य पालन करना पड़ता है । उनके लिए यद्यपि यह असुखकर है, तो भी परिणाममें शुभकर है और इसे हम उस कन्या या पुत्रवधूके चिरवैधव्यपालनजनित पुण्यका फल कह सकते हैं । ब्रह्मचर्य पालनमें दीक्षित होकर विधवायें अपने सुस्थ सबल शरीरसे अनेक सत्कर्म कर सकती हैंजसे, परिजनोंकी शुश्रूषा, परिवारके बालबच्चों का लालनपालन और रोगियोंकी सेवा, धर्मचर्चा, स्वयं शिक्षा प्राप्त करना और परिवारकी स्त्रियों को शिक्षा देना, इत्यादि । इस तरहसे तवि . किन्तु दुःखमिश्रित ऐहिक सुखमें न सही, पर प्रशान्त निर्मल आध्यात्मिक सुखमें विधवाओंका
चिरवैधव्य प्रथा विरुद्ध चौथी और सबसे पिछली बात यह कही जाती है कि यह प्रथा जबतक प्रचलित रहेगी, तबतक विधवायें इच्छानुसार विवाह करनेका और उनके मातापिता इच्छानुसार उनको ब्याह देनेका साहस नहीं कर सकेंगे । कारण, प्रचलित प्रथा के विरुद्ध काम करने के लिए सभी संकोच करते हैं और ऐसा काम जनसाधारणकी दृष्टिमें अतिशय निन्दित और तिरस्कृत समझा जाता है । अतएव समाजसुधारकोंका यह कर्तव्य होना चाहिए इस विषयमें आन्दोलन करें जिससे कि लोगों के परोपकार में लगा हुआ जीवन कट जाता है । विचार बदल जायँ और यह प्रथा उठ जाय ।
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जैनहितैषी -
जान पड़ता है इसी लिए, विधवाविवाह कानूनसे जायज हो गया है तो भी, और इसे रोकनेका किसी को कोई अधिकार नहीं है तो भी, विधवाविवाहके पक्षपाती चिरवैधव्य प्रथाको उठाके अर्थ इतने यत्नशील हो रहे हैं । यद्यपि वे अथवा उनमें से बहुत से लोग यह स्वीकार करते हैं कि अपनी इच्छासे प्रेरित होकर चिरवैधव्य पालन उच्चादर्श है, तथापि वे चाहते हैं कि यह उच्चादर्शपालन, प्रथा न होकर प्रथाके व्यतिक्रम स्वरूपमें या अपवाद रूपमें रहे और विधवाविवाह ही प्रचलित प्रथा बन जाय । परन्तु यह बात हमारी समझमें नहीं आती कि जब इच्छा होते ही विधवाओंका विवाह बेरोकटोक हो सकता है, तब वे जिसे उच्च/दर्शानुयायी प्रथा मानते हैं उसे उठा देकर विधवाविवाहकी प्रथा क्यों प्रचलित करना चाहते हैं। यह कैसी विचित्र बात है कि इधर तो वे चिरकौमार व्रतकी प्रशंसा करते हैं और उधर चिरैवैधव्य प्रथाको उठा देनेके लिए कटिबद्ध हो रहे हैं । यदि यह प्रथा विषय में बाधक होती कि कोई विधवा प्रयोजन होने पर या इच्छा होनेपर भी विवाह नहीं कर सकती, तो इसे उठा देने की चेष्टा करना ठीक भी होता । पर इस समय समाजबन्धन इतने शिथिल हैं और समाजकी शक्ति इतनी थोड़ी है कि समाजकी कोई भी प्रथा किसीकी भी इच्छाको रोक नहीं सकती । तब यह अवश्य स्वीकार करना होगा कि यद्यपि उक्त प्रथा विधवाकी विवाहेच्छा होनेपर उसमें बाधा नहीं डाल सकती है, किन्तु उस इच्छाकी उत्पत्तिको अवश्य रोकती है और यही कारण है जो आज विधवाविवाहके कानूनको बने हुए आधी सदीसे अधिक समय बीत गया है, तो भी अब तक हिन्दू विधवाओंकी विवाहसम्बन्धी अनिच्छा साधारणतः पहले के ही समान बनी हुई है उसमें परिवर्तन नहीं हुआ है । इससे तो
इस
यह जान पड़ा कि हिन्दू विधवाओंकी विवाहविषयक अनिच्छाको दूर करके उसके स्थान में इच्छा या प्रवृत्तिको जन्म देना ही समाजसुधारकोंका उद्देश्य है । परन्तु इस उद्देश्य के साधनका फल भी तो बतलाना चाहिए कि क्या होगा । इससे विधवाओंको थोड़ासा क्षणभंगुर ऐहिक सुख अवश्य प्राप्त हो सकेगा; परन्तु उसके द्वारा न तो उन्हें कोई स्थायी सुख मिलेगा और न समाजका कोई विशेष कल्याण होगा । इसके विरुद्ध, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, चिरवैधव्यसे उनको स्थायी निर्मल सुख मिलता है और समाजका बहुत कुछ कल्याण होता है। यह समझना कठिन है कि जब हम आत्मसंयम, स्वार्थत्याग, परार्थपरायणता आदि उच्च गुणांके विकाशको और और विषयोंमें मनुष्यकी *मोन्नतिका लक्षण मानते हैं, तब विधवा विवाह के विषयमें उससे उलटी प्रणालीका अवलम्बन क्यों करना चाहते हैं । अर्थात् विवाह नहीं करके यदि विधवायें आत्मसंयम करती हैं तो इसे हम मनुष्यकी क्रमोन्नतिका लक्षण क्यों नहीं मानते, बुरा क्यों समझते हैं।
लोगों का शायद यह खयाल होगा कि पाश्चात्य देशों में विधवाविवाहकी प्रथा प्रचालित है और उन्हीं सब देशोंकी साम्पत्तिक उन्नति बहुत अधिक हो गई है, अतएव इस देशमें भी इस प्रथा प्रचलित होनेसे उसी प्रकारकी उन्नति हो जायगी । किन्तु इस बात में कोई तथ्य नहीं है, कोई युक्ति नहीं है । बाल्यविवाह के साथ देशकी अवनतिका कार्य-कारण-सम्बन्ध तो हो भी सकता है, किन्तु चिरवैधव्यपालनके साथ इसका क्या सम्बन्ध है, यह समझ में नहीं आता । यदि यह बात ठीक होती कि हमारे समाज में स्त्रियोंकी अपेक्षा पुरुषोंकी संख्य और विधवाविवाह प्रचलित न होगा तो बहुत से पुरुषों को अविवाहित रहना पड़ेगा और इससे
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aummmmmHULIRITAILWARRIAL
विधवा-विवाह-विचार।
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देशकी जनसंख्याका ह्रास होगा तो अवश्य ही निवृत्तिमार्गका अनुसरण करती हैं । उस सुपथसे देशकी अवनतिसे इसका कोई सम्बन्ध है, यह लौटाकर उन्हें विपथगामी बनानेकी चेष्टा करना, बात मान ली जाती। किन्तु वास्तवमें स्त्रियोंकी न तो उनके लिए हितकर है और न साधारण अपेक्षा पुरुषोंकी संख्या कम है, अतएव विधवा
समाजके लिए । इसमें सन्देह नहीं कि हिन्दू
विधवाओंके दुःसह कष्टोंका विचार करनेसे हृदविवाह प्रचालित होनेसे सभी कुमारियोंको पति नहीं मिल सकेंगे, बहुतोंको आजन्म कुमारी .
यमें अतिशय वेदना होती है, किन्तु उनकी रहना पड़ेगा। ऐसी दशामें जब तक यह न '
" लोकोत्तर कष्टसहिष्णुता और उनके असाधारण मान लिया जाय कि पाश्चात्य देशोंकी सभी स्वार्थत्यागके प्रति दृष्टि डालनेसे मन एक ही रीति-नीतियाँ अनुकरणीय हैं तबतक विधवावि- साथ विस्मय और भक्तिसे भर जाता है। हिन्दू वाह प्रचालित करनेकी चेष्टा निष्कारण है। विधवायें ही संसारमें पतिप्रेमकी पराकाष्ठा दिखाशीतोष्णमय जडजगतमें वही 'सबल
. ती हैं। उनकी उज्ज्वल मूर्तियोंने इस समय शरीर,' कहलाता है जो बिना कष्टके गर्मी सर्दी- नाना
नाना दुःखरूपी अन्धकारसे भरे हुए हिन्दु. को सहन कर सकता है और रोगी नहीं होता। ऑक घरोको प्रकाशित कर रक्खा है । इसी तरह सुखदु:खमय संसारमें वही सबलमना
उनके प्रकाशमान दृष्टान्त हिन्दूनरनारियोंकी कहा जाता है जो समभावसे सुखदुःख भोग सकता
जीवनयात्राके पथप्रदर्शक बन रहे हैं। उनका
पवित्र जीवन पृथिवीका एक दुर्लभ पदार्थ है । है; दुःखमें जो व्याकुल नहीं होता है और सुखमें
1 हिन्दू विधवाओंकी चिरवैधव्य प्रथा हिन्दू विगतस्पह (इच्छारहित ) रहता है। निरवच्छिन्न (अखण्ड) सुख किसीको प्राप्त नहीं है, दुःखका भाग के अनेक स्थान हैं और सुधारकोंके लिए काम
समाजका देवीमन्दिर है। हिन्दू समाजमें सुधारसभीके हिस्सेमें आता है; ऐसी दशामें वही शिक्षा की कमी नहीं है: न जाने कितने स्थानोंको शिक्षा कही जा सकती है जिसके द्वारा शरीर और मनका ऐसा गठन हो जाय कि दुःखका बोझा ,
वर्तमान काल और अवस्थाके अनुकूल उपयोगी उठाने में कुछ भी कष्ट न हो । सुखाभिलाषा विनयके साथ प्रार्थना है कि वे विलासभवन
बनाना है। इस लिए उनसे हमारी बहुत ही होने पर उसी सुखकी कामना करनी चाहिए बनानेके लिए उक्त देवीमन्दिरको तोड़ फोड़ जिसका कभी ह्रास न हो और जिसमें दुःखकी डालनेकी कृपा न करें। कालिमा न मिली हो। एक पतिके मर जानप दूसरा पति तो मिल सकता है, परन्तु यदि कोई
इस लेखसे कोई सज्जन हमें समाजसुधारका पुत्र भर गया, तो वह कहाँसे आवेगा ? उसके
विरोधी न समझ लें । हम वास्तविक सुधारको अभावकी पूर्ति कैसे होगी? जिस मार्ग पर
बुरा नहीं समझते । हम जानते हैं कि समाज चलनेसे सारे अभावोंकी पूर्ति हो जाती है,
र परिवर्तनशील हैं, किसी समय भी वह स्थिर अर्थात् अभावका अभावरूपमें बोध नहीं होता है,
९, नहीं रह सकता । हमारा विश्वास है कि जगत् वही निवृत्तिमुखमार्ग, प्रेय ( प्रिय ) न होनेपर
' निरन्तर गतिशील है और वह गति, बीच बीचमें भी, श्रेय ( कल्याणकारी ) है। उसी मार्गपर व्यतिक्रम होते रहने पर भी, परिणाममें उन्नतिजो चलते हैं वे वास्तवमें स्वयं भी सखी होते हैं मुखी है । हम चाहते हैं कि समाजसुधार या और अपने उज्ज्वल दृष्टांत द्वारा औरोंके दुखोंका संस्कारका लक्ष्य वास्तविक उन्नति अर्थात् आध्याभार भी, सर्वथा नहीं तो बहुत कुछ, हल्का कर त्मिक उन्नतिकी ओर बराबर बना रहे और देते हैं । हिन्दूविधवायें अपने शरीर और मनको इसी लिए किसीको भलीं लगें या बुरीं, हमने ब्रह्मचर्य और संयमके द्वारा संशोधित करके उसी समाजसुधारक सज्जनोंसे इतनी बातें कह डाली।
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BHABHI
जैनहितैषी
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RIA
विविध प्रसङ्ग ।
REFERREETTEES ओंकी आर्थिक अवस्थाको धक्का लगेगा। यह
स्वीकार करना पड़ेगा कि उनका अभिप्राय
अच्छा है; परन्तु इसके साथ ही यह भी कहना PAKHREEKSHER पड़ेगा कि इस प्रकारकी 'चुप्पं कुरु चुप्पं कुरु'
की नीतिसे कोई स्थायी लाभ नहीं होता-संस्था१ स्याद्वादविद्यालयकी दशा।
ओंकी दशा कभी नहीं सुधर सकती । वह तभी अन्यत्र 'स्याद्वाद-महाविद्यालयकी भीतरी सुधरेगी जब लोग उनकी भीतरी दशासे समय दशा' शीर्षकका एक लेख प्रकाशित किया समय पर परिचित होते रहेंगे, कार्यकर्ताओंपर जाता है । इसके लेखक श्रीयुक्त बाबू निहाल- उनकी जानकारीका प्रभाव पड़ता रहेगा और करणजी सेठी एम. एस सी. हैं । आपको नव- कार्यकर्ता इस बातकी चिन्ता रक्खेंगे कि यदि स्थापित हिन्दू विश्वविद्यालयमें प्रोफेसरका कार्य हमारा कोई प्रमाद होगा तो लोग हमसे उत्तर माँगेगे। मिला है, इसलिए अब आप काशीमें ही रहते हैं। यह कितने आश्चर्यकी बात है कि जिस संस्थाम उपर्युक्त लेख आपने विद्यालयकी भीतरी दशाका ५०० ६०० रुपया मासिक खर्च होता है, उसके ज्ञान प्राप्त करके बहुत ही निष्पक्ष दृष्टि से लिखा सभापति, उपसभापति, अधिष्ठाता, उपधिष्ठाता है। हम आशा करते हैं कि जैनसमाज इसे यहाँतक कि मंत्री भी बाहर रहते हैं और एक ध्यानसे पढ़ेगा और देखेगा.कि जिन संस्थाओंका धर्माध्यापक महाशय उसके एक मात्र विधाता उसे अभिमान है, जिनके लिए वह अपनी गाढ़ी बन रहे हैं। चाहे जिसको नियत कराना ओर कमाईका धन खुले हाथों खर्च करता है और अलग करवाना उनके बायें हाथका खेल है । वे जिनकी सहायताके लिए उससे अपीलोंपर अपीलें मंत्रीका अपमान करते हैं, इसके कारण अलग की जाती हैं, उनकी भीतरी दशा कितनी कर दिये जाते हैं; पर अपनी 'चाणक्य-नीति' खराब है । वे खास खास आदमियोंके हाथोंकी से वे अपना बाल बाँका नहीं होने देते और कठपुतलियाँ हैं।
अपने विरोधीको अलग कराके छोड़ते हैं। प्रब__ यह बात केवल दिखाने भरके लिए है कि न्धकर्ता जान जाते हैं कि उनका अपराध है, उनका प्रबन्ध समाजकी इच्छानुसार होता है। पर डर जाते हैं और कुछ नहीं कर सकते हैं। हमारा विश्वास है कि एक 'स्यादादविद्यालय, उन्हें भय है कि और कोई धर्माध्यापक न ही नहीं, और भी कई जैनसंस्थाओंकी यही मिलेगा ! अच्छा होता यदि इसके साथ मंत्री हालत है; परन्त दुर्भाग्यकी बात यह है कि सब महाशय भी खारिज कर दिये जाते और इस जगह उक्त सेठीजी जैसे हितैषी और स्पष्टवक्ता तरह धर्माध्यापक महाशयकी विजय पर एक पुरुष नहीं जो जनसाधारणको इस प्रकार निष्पक्ष कलश और चढ़ा दिया जाता। होकर संस्थाओंकी भीतरी दशाका ज्ञान प्राप्त २ कार्यकर्ताओंका चुनाव । करानेकी आवश्यकता समझते हो । जहाँ देखिए वहीं संस्थाओंकी भीतरी हालत पर पर्दा डालनेके हमारी संस्थाओंकी अव्यवस्थाका एक बड़ा पक्षपाती ही दिखलाई देते हैं। उन्हें भय रहता भारी कारण यह है कि अधिकारियोंका चुनाव है कि भीतरी दशाके प्रकाशित होनेसे संस्था- योग्यताके खयालसे नहीं किया जाता । यह
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SARAMMDMINIMILITATILLIDIm
विविध प्रसंग। HTRIYERTIFITHHTM
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नहीं सोचा जाता कि जो महाशय चुने जाते हैं दिया होगा । फिर भी हम कहेंगे कि पण्डितवे उस कामको अच्छी तरह कर सकेंगे या नहीं, जीने यह भार लेकर अच्छा नहीं किया-ऐसे अथवा उनको काम करनेकी रुचि या अवकाश स्वच्छन्द छात्रों और धर्माध्यापकोंपर शासन भी है या नहीं। इस विषयमें संस्थाके लाभकी करके कीर्ति लाभ करना जरा टेढ़ी खीर है। अपेक्षा खुशामद और चापलूसीकी ओर अधिक या तो पण्डितजीको उनके इच्छानुवर्ती बनकर दृष्टि रक्खी जाती है और ऐसे मौकोंपर खुशा- रहना पड़ेगा, या हर समय स्वयं अलग हो मदा और चापलूसोंकी ही विजय होती है; जानेके लिए तैयार रहना पड़ेगा। मंत्री महाशउनकी ओरसे जिनका प्रस्ताव किया जाता है, यको हम जानते नहीं हैं; पर यह अवश्य कहना वे ही चुनलिये जाते हैं-निष्पक्ष सम्मति देनेवाले पड़ेगा कि मंत्रीका काम किसी काशीनिवासीके मुँह ताकते रह जाते हैं । केवल सभापतियोंके ही हाथमें रहना चाहिए, बाहर रहकर कोई चुनावमें ही यह बात नहीं होती है, अधिष्ठाता मंत्रीका काम अच्छी तरह नहीं कर सकता। मंत्री आदि काम करनेवाले पदोंका चुनाव भी ३ धर्माध्यापककी शक्ति । इसी ढंग पर होता है। सुनते हैं, आनकल विद्यालयके अधिष्ठाता
पं० उमरावसिंहजीके लिए पाठशालाके कामों से पं० गणेशप्रसादजी न्यायाचार्य हैं जो काशीमें कि
न्यायाचा जो किसीको निकलवाकर अलग कर देना बायें नहीं किन्तु सैकड़ों कोसकी दूरीपर सागर में रहते हाथका खेल है । इस विषयमें वे सिद्धहस्त हैं। हैं । हम उक्त पण्डितजीकी सज्जनता और न्याय- स्या
" स्याद्वादविद्यालयकी प्रबन्धकारिणी सभामें ब्र० व्याकरणसम्बन्धी योग्यताको बहुत ही आदरकी भगवानदीनजी और बाबू दयाचन्दजी गोयदृष्टि से देखते हैं, उनकी निस्वार्थ वृत्तिकी भी हम ला
लीय बी. ए., ये दो सज्जन बहुत ही योग्य थे; प्रशंसा करते हैं; परन्तु इस बातको माननेके परन्तु सुनते हैं आपने इनपर यह दोष लगालिए हम कदापि तैयार नहीं हैं कि उनमें किसी कर कि ये विधवाविवाहके पोषक हैं, सभासे अभी संस्थाको चलानेकी या अधिष्ठाता बननेकी भी कोई कुछ ही महीने पहले अलग करवा दिया है ! अच्छी योग्यता है । पण्डितजी इतने सीधे और बाबू निहालकरणजी सेठीकी भी यही दशा सज्जन हैं कि वे स्वयं भी किसीसे अपनी प्रबन्ध- हान
पर होनेवाली थी। ता० २८ अक्टूबरकी सभामें सम्बन्धी योग्यताका सर्टिफिकेट लेना पसन्द
- धर्माध्यायक महाशयने इनको भी अलग कर देनेके नहीं करेंगे । एक सागरकी पाठशाला ही उनके
लिए प्रस्ताव किया था और सुबूतमें जैनहितैद्वारा अच्छा तरह नहीं चल रही है जिसका
- पीके लेख पेश किये थे; परन्तु उस समय लगभग २५०-३०० रुपये मासिकका खर्च है,
आप स्वयं अपराधी थे इस कारण कुछ न कर पर जिसकी ६-७ वर्षों में एक भी रिपोर्ट प्रका
' सके और सभाने आपकी बात पर ध्यान न शित नहीं हुई है। ऐसी अवस्थामें हमें विश्वास दिया । सेठीजीको डर है कि अभी नहीं तो कि उन्होंने काशी पाठशालाके 'अधिष्ठातापने का आगे शीघ्र ही मैं अलग कर दिया जाऊँगा, इस भार अपनी इच्छानुसार कभी नहीं लिया होगा। लिए उन्होंने उपसभापति महाशयकी सेवामें एक अवश्य ही खुशामद और चापलूसी करने. इस्तीफा पेश कर दिया है (जिसकी नकल वालोंने उनके सिर जबर्दस्ती यह भार मढ़ आगे दी गई है)।
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जैनहितैषी ।
इस अभिनव उपायके निकालनेके कारण हम पं० उमराव सिंहजी के कौशलकी तारीफ किये बिना नहीं रह सकते । अन्यान्य संस्थाओंके एकहत्थी शासकों को भी इस युक्तिसे काम लेना चाहिए । ज्यों ही कोई स्वतंत्र खयालोंका आदमी दिखलाई दिया और उसने कोई बात अपनी सत्तामें हानि पहुँचानेवाली कही - और ऐसे लोग अक्सर कहते ही हैं तो उसके ललाटपर चटसे 'विधवाविवाह के पक्ष का तिलक लगा दिया ! बस काम बन गया । ' न रहेगा बाँस और न बजेगी बाँसुरी ।' बाबू लोगोंको भी अब इस नये यंत्रके आविष्कारकी खबर सुनकर चेत जाना चाहिए और अपने बोरिया बँधना सँभाल लेना चाहिए |
४ संस्कृतके विद्यार्थी ।
I
संस्कृतके पढ़नेवाले जैनविद्यार्थी कितने उद्धत हो जाते हैं, और वे आगे समाजका क्या उपकार करेंगे, इस विषयमें सेठीजीने जो वाक्य लिखे हैं उनपर पाठकोंको खास तौर से ध्यान देना चाहिए। संस्कृतके विद्यार्थियोंसे - जो निकटके भविष्यमें पण्डित बननेवाले हैं - जैनसमाजको बहुत बड़ी आशा है । इस समय जैनसमाज विद्याकी उन्नति के लिए जितना धन खर्च करता है उसका अधिकांश संस्कृतके लिए ही लगता है । समाजने सबसे अधिक आवश्यकता इसीकी समझी है । यदि इसीके विद्वानोंसे हमें इतना अधिक निराश होना पड़ा तो बड़े ही दुःखकी बात होगी । हमें इन्हें विनयवान्, सहनशील, निराभिमानी और सदाचारी बनानेकी ओर सबसे अधिक ध्यान देना चाहिए। ये हमारे धर्मोपदेशक बननेवाले हैं | यदि इन्हींका चरित्र अच्छा नहीं हुआ तो फिर हम अपनी भलाई की और क्या आशा रख सकते हैं ?
संस्कृत के विद्यार्थियों से अभी तक हमें जो कुछ परिचय रहा है, उससे हमें विश्वास हो गया है कि वे अच्छेसे अच्छे सदाचारी विनयशील और स्वार्थत्यागी बन सकते हैं; परन्तु प्रबन्धकर्त्ताओंका इस ओर जरा भी ध्यान नहीं रहता है । उनकी प्रबन्धप्रणाली ही ऐसी है कि वे अतिशय उच्छृंखल स्वार्थी और अभिमानी बन जाते हैं । प्रबन्धकर्ता उन्हें मनाकर खुशामद करके रखते हैं तब वे रहते हैं, नहीं तो अन्यत्र चले जाते हैं और वहाँ भी मजेसे छात्रवृत्ति प्राप्त कर लेते हैं। जितनी संस्थायें हैं, उनमें प्राय: परस्पर स्पर्धा रहती है, इस लिए एक संस्थाका अपराधी विद्यार्थी दूसरी संस्थामें मजेसे आदरपूर्वक ले लिया जाता है । अभिमानकी तो कुछ पूछिए ही नहीं, कोई छोटा मोटा व्याकरण या एकाध काव्य पढ़ पाया कि संस्कृतके छात्रोंका मस्तक आसमान पर पहुँच जाता है और उनकी इस अभिमानवृत्तिको उलटा उत्तेजन मिलता है, उसे दबाने की कोशिश नहीं की जाती । यदि संस्थाका प्रबन्ध किसी संस्कृत न जाननेवाले के हाथ में रहता है, तो छात्र उससे जरा भी नहीं दुबना चाहते। उन्हें पक्का विश्वास रहता है कि अँगरेजी आदिके विद्वान् विद्वान् ही नहीं हो सकते और उन्हें हम पर शासन करनेका कोई अधिकार ही नहीं है । हमने बहुत कम छात्र ऐसे देखे हैं जो छात्रवृत्ति देनेवाली संस्थाओंके या दाताओं के प्रति अपने हृदय में कृतज्ञताका भाव रखते हैं, या उस वृत्तिके बोझेसे अपने को कुछ दबा हुआ समझते हैं । उनकी समझमें दाताओंका कर्तव्य है कि वे उन्हें वृत्ति देवें, पर स्वयं उनका यह कर्तव्य नहीं कि अपनेको उस वृत्तिके बोझेसे हलके होनेकी भावना भी रक्खें । वे तो अपनी समझमें संस्थाओं पर एक प्रकारकी कृपा करते
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na
MOTIONARALIAR
विविध प्रसङ्ग ।
हैं जो उनमें रहकर पढ़ते हैं ! दो तीन वष ' २-इस समयकी घोर अशांतिका ठीक कारण पहले काशीके एक छात्रका पत्र यहाँकी एक ज्ञात हो जाने पर भी दोषीको सभा दंड देना संस्थाके सैक्रेटरीके पास आया था जिसमें स्पष्ट उचित नहीं समझती वरन् जिसका इस झगड़ेसे शब्दोंमें लिखा था कि " आपको स्काल
कोई सम्बंध नहीं उस निर्दोष व्यक्तिको पृथक शिप देना हो तो दीजिए, नहीं तो,
कर देनेके लिए प्रस्तुत है। हम कोई दूसरा प्रबन्ध कर लेंगे । " ३-सभाने मुझे अशांतिका कारण जानने और
उसका उचित प्रबंध करनेको नियत किया था। ये भाव हैं जिन्हें लेकर संस्कृतके छात्र बाहर निकलते हैं और जैनसमाजके धर्मशिक्षक बनते
कारण ज्ञात हो जानेपर सभाको मैंने वह ज्योंहैं ! हम ऐसे अनेक पण्डितोंके नाम जानते
का त्यों बतला दिया। ऐसा करनेमें मुझे जो अपहैं जो ३०-३५ से लेकर ५०-६० रुपये
राधी था उसका दिल दुखाना पड़ा था। किन्तु
: जब सभा अपनेको इतनी शक्तिहीन समझती हे मासिक तककी जीविका करते हैं; पर जिन
कि अपराधीको दंड देनेमें असमर्थ है और संस्थाओंसे चार चार छह छह और इससे भी
' उसहीके कहनेके अनुसार चलनेको और अपअधिक वर्षों तक छात्रवृत्तियाँ लेकर वे संस्कृतके.
राधीहीकी 'खुशामद' करनेको प्रस्तुत है तब पण्डित बने हैं, उनको कभी पाँच रुपयेकी भी
' मैं देखता हूँ कि मैं अपने आत्मसम्मानकी रक्षा सहायता करना अपना कर्तव्य नहीं समझते . हैं। दो चार पण्डित ऐसे भी हैं जिन्होंने '
" सभाका सदस्य रह कर नहीं कर सकता। रथप्रतिष्ठाओंकी दक्षिणाओंसे दश दश
४-व्यक्तिविशेषके लाभ और हानिपर दृष्टि बीस बीस हजार रुपये कमा लिये हैं; पर जिनकी
रखकर सभा विद्यालयके उचित प्रबंधकी ओर ओरसे कहीं किसी विद्यासंस्थामें दश बीस रुप
ध्यान नहीं देती; ऐसी दशामें समाजका
५००-६०० रु० मासिक व्यय होकर भी उसका योंका दान दिया गया भी नहीं सुना है; यद्यपि कोई लाभ नहीं हो सकता, इस लिए वे स्वयं दूसरोंकी सहायतासे पढ़े हैं ! कृतघ्नता
सभा समाजके प्रति दोषी है-मैं इस दोषका और स्वार्थसाधुताके इन भावोंको दूर करनेका
भागी नहीं बनना चाहता। जबतक हमारी संस्थायें प्रयत्न नहीं करेंगी,
५-मैं देखता हूँ कि विद्यालयके प्रबन्धमें तबतक यही दशा रहेगी।
इतनी गड़बड़ी है कि जिससे उसकी और समा५बाबू निहालकरणजीका इस्तीफा। जकी बहत हानि होती है और यह भी जानता
__“बनारस है कि यह सभा उसका उचित प्रबंध करनेमें
__३०-१०-१६ बहुत शिथिल है। अतः अब समय आगया है श्रीमान् उपसभापति महोदय
कि इसका यथार्थ चित्र समाजके सम्मुख रक्खा श्रीस्याद्वादमहाविद्यालय काशीकी सेवामें, जाय । समाजसे इसके कुप्रबंधकी कथा छुपानेसे निवेदन है कि निम्नलिखित कारण मुझे अब कोई लाभ नहीं हो सकता । इत्यादि। विवश करते हैं कि मैं विद्यालयकी प्रबंधकारिणी अतः आशा है कि आप कृपा कर मेरा इस्तीफा सभाका सभासद अब न रहूँ:-
स्वीकार करेंगे। १-ऐसा जान पड़ता है कि इस सभाको
भवदीय मेरी बातोंकी सत्यतापर विश्वास नहीं होता।
निहालकरणसेठी ।"
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६ संचालकोंका और समाजका कर्तव्य |
जैनहितैषी
विद्यालय के संचालकों को इस मामले की ओर पूरा पूरा ध्यान देना चाहिए और यह एक क्षण
के लिए भी न भूल जाना चाहिए कि समाज विद्यालयको जो कुछ द्रव्य देता है, वह हम लोगों के विश्वास पर देता है । समाजका भी यह कर्तव्य है कि वह तब तक शान्त न हो जब तक कि उसे भली भाँति यह न मालूम होजाय कि विद्यालयकी दशा अच्छी है, और हमारे धनका सदुपयोग हो रहा है। अधिकारियों का चुनाव बहुत कुछ सोच विचार कर किया जाना चाहिए । यह दशा बहुत ही असंतोषजनक है कि सभा पति, उपसभापति, अधिष्ठाता और मंत्री तक संस्थासे दूर रहते हैं और उनका संस्थाके साथ साक्षात् सम्बन्ध बहुत कम रहता है । कमसे कम अधिष्ठाता और मंत्री तो स्थानीय ही रहने चाहिए । हमें आशा है कि किसी भीतरी कार णसे यह मामला दवा न दिया जायगा ।
७ लार्ड बेकनकी सलाह | सुप्रसिद्ध विचारक लार्ड बेकन के नीचे लिखे विचार- जो उन्होंने एक ही धर्म के अनुयायियों के बीचकी शान्ति और क्लेशमय स्थिति के सम्बन्धमें प्रकट किये थे-जैनों के लिए अत्यन्त उपकारक समझकर उद्धृत किये जाते हैं: - " एक ही धर्म के माननेवालों के बीचमें गाली गलोज या मारपीट हो तो उसका दो प्रकारका प्रभाव पड़ता हैं । एक तो उस धर्म से बाहर के मनुष्यों पर पड़नेवाला प्रभाव और दूसरा उसी धर्म के अनुयायियों पर पड़नेवाला प्रभाव । ( १ ) एक ही धर्मके लोगों को एक दूसरे की निन्दा करते और एक दूसरेकी पूजन
विधियोंको असत्य ठहराते हुए देखकर, बाहरके लोगों के विचार उस धर्मके विषयमें अच्छे नहीं रहते और ( २ ) उस धर्म के माननेवालों के बीचमें निन्दा, झगड़ा आदि चलने से उनकी शान्ति प्रगति और बलकी हानि होती है । "
V. M. Shah.
८ विधवा-विवाहका प्रश्न | अन्यत्र प्रकाशित 'विधवाविवाह-विचार' शीर्षक लेखपर विधवाविवाहके अनुयायी और विरोधी दोनों को ही विचार करना चाहिए। लेख बहुत ही महत्त्वका है और बहुत ही विचारपूर्वक लिखा गया है । परन्तु यह ध्यान में रखना चाहिए कि यह मुख्यतः हिन्दूसमाजपर दृष्टि रख कर लिखा गया है । इस लिए इसकी सभी बातें जैनसमाजकी परिस्थिति के अनुकूल नहीं हो सकतीं । जैसे कि, इसमें यह माना गया है कि हिन्दुओं में स्त्रियोंकी संख्या अधिक है और पुरुषों की कम है, इसलिए यदि चिरवैधव्यकी प्रथा उठा दी जायगी तो फिर विधवाओंके बदले बहुतसी कुआँरियोंको अविवाहित रहना पड़ेगा | परन्तु जैन समाजकी परिस्थिति हिन्दुओंसे ठीक उलटी है । अन्यत्र प्रकाशित श्रीयुत बाबू माणिकचन्दजीके व्याख्यानमें दी हुई संख्याओं से मालूम होगा कि जैनसमाज में स्त्रियों की संख्या पुरुषोंसे बहुत ही कम हैं और इस कारण कुआँरों की संख्या बहुत ही भयंकर रूपसे बढ़ रही है । ऐसी दशा में इस बातका निर्णय होनेकी आवश्यकता है कि इस लेख में सिद्ध किये हुए उच्च आदर्शकी रक्षा करना अच्छा है; या विधवाविवाह जारी करके जैनसमाजकी घटती हुई संख्याको रोकना अच्छा है । यदि उच्च आदर्शकी रक्षा करना है, और विधवाविवाहको जारी नहीं करना है, तो फिर कोई
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CHHAMAALAMMADIO180mm
विविध प्रसङ्ग।
उपाय बतलाना चाहिए जिससे जैनसमाज चिर- १० बम्बईका दीक्षामहोत्सव । जीवी बना रहे-सौ सवासौ वर्षे में ही उसका कहा जाता है कि स्थानकवासी सम्प्रदायके निर्वाण न हो जाय । क्या जैनेतरोंकी लड़कि- स्थापकोंने यह देखकर मूर्तिपूजाका निषेध योंसे विवाह सम्बन्ध करनेकी और इस तरह किया था कि मूर्तिपूजा और मन्दिरप्रतिष्ठाओंमें स्त्रियोंकी कमी पूरी कर लेनेकी समाज आज्ञा जैनसमाजकी सीमासे अधिक शक्तियोंका खर्च दे सकता है ?
होता है, इनसे आपसी क्लेश और लड़ाई झगड़े
भी बहुत होते हैं, और इन गौणकार्योंकी ९ पं० लक्ष्मीचन्द्रजीकी उपाधियाँ। .
। ओटमें जैनधर्मके मुख्य कार्य छुप जाते हैं। सुप्रसिद्ध जैन व्याख्याता पं० लक्ष्मीचन्द्रजीको उन्होंने यह विरोध इतने जोरके साथ किया 'दिगम्बरजैनमन्दिर, कूचा सेठ देहलीकी कि उनका एक जुदा ही सम्प्रदाय बन गया जो ओरसे गत आसोज वदी १५ की रातको एक मूर्तिपूजाको सर्वथा अनावश्यक समझता है। अभिनन्दनपत्र दिया गया था । इस अभिनन्दन यदि इस सम्प्रदायके स्थापकोंने इसी अभिप्रायसे पत्रमें उक्त मंदिरने अथवा मन्दिरके जैन भाइ- मूर्तिपूजाका निषेध किया था तो कहना होगा योंने पण्डितजीको सिद्धान्तरत्नभूषण, व्याख्यान कि उनका मतलब सिद्ध नहीं हुआ। यह संभव वाचस्पति, सुभाषितसुधासिंधु, ज्ञानसागर, कारु- है कि शुरू शुरूमें इससे कुछ लाभ हुआ हो, पर ण्यरत्नाकर, व्याख्यानकेसरी, और मिथ्यात्वति- इस समय तो स्थानकवासी भाइयोंने उस अभिमिरमार्तण्ड, इन सात उपाधियोंसे सत्कृत किया प्रायको भुला दिया जान पड़ता है । जिस तरह है और फुटनोटमें प्रकट किया है कि ये उपा- मूर्तिपूजक भाई अपनी शक्तियोंको मूर्तिपूजाके धियाँ पण्डितजीको बुन्देलखण्ड (?), कोटा, रथप्रतिष्ठादि कार्यों में लगाते हैं उसी तरह स्थानकलकत्ता, चांदखेड़ी, मन्दसौर, रतलाम, और कवासी भाई साधुपूजामें लगाने लगे हैं । अन्तर देहली इत्यादि नगरोंसे मिली हैं। अवश्य ही यह केवल इतना ही है कि वे मूर्तिपूजक हैं तो ये फुटनोट पण्डितजीकी डायरीपरसे या उनकी मनुष्यपूजक बन गये हैं। अभी बम्बईमें जो स्मृतिसूचनासे लिखा गया होगा । हमारी सम- स्थानकवासी सम्प्रदायकी ओरसे दीक्षा महोझमें उपाधियोंकी संख्या बहुत कम है । पण्डित- त्सव हुआ था और जिसमें एक श्रावकको दीक्षा जीको और उनके भक्तोंको कोशिश करनी देकर साधु बनानेकी खुशीमें लगभग २० चाहिए जिससे ये कमसे कम एक सौ तो हो हजार रुपयोंका पानी बना दिया गया है, हमारे जायँ और कलिकाल केवली, सिद्धांतसर्वज्ञ, तर्क- इस कथनकी पुष्टि के लिए यथेष्ट है । कई दिनोंतीर्थंकर, चातुर्य चक्रवर्ती आदि सुन्दर सुन्दर तक बम्बईकी सड़कोंपर जुलूसोंकी वह धूम रही पदवियाँ तो व्यर्थ न पड़ी रहें । भारतकी राज- कि सारा शहर जैनधर्मकी प्रभावनासे चकधानी देहलीके धर्मात्माओंको तो इस विषयमें चौंधा गया ! यदि यह महोत्सव किसी महाखास तौरसे प्रयत्न करना चाहिए । उनकी पुरुषकी- जैनधर्मके वास्तविक उद्धारककीशोभा इसी में है!
भक्तिसे प्रेरित होकर किया गया होता, तो भी
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जैनहितैषी -
सन्तोष होता; पर सुनते हैं कि जिस महापुरुदीक्षा दी गई है वह निरा मूर्ख नहीं, तो समझदार भी नहीं है! उसमें ऐसा कोई गुण नहीं है जो आगे विकसित होकर जैनधर्मकी प्रभाना करने में समर्थ हो । यह जानकर पाठकोंको और भी आश्चर्य होगा इस उत्सव के प्रेरक और अनुमोदक मुनि रत्नचन्द्रजी बतलाये जाते हैं जो कि उक्त सम्प्रदाय के साधुओं में सबसे बड़े विद्वान् समझे जाते हैं ।
११ हिन्दी गौरव ग्रन्थमाला | इस समय हिन्दी में अच्छे अच्छे ग्रन्थ प्रकाशित करनेके लिए खासा उद्योग हो रहा है। पाठक यह जान कर प्रसन्न होंगे कि सत्यवादीके पूर्वसम्पादक पं० उदयलालजी कासलीवाल ने अभी थोड़े ही समयसे ‘हिन्दी– गौरव ग्रन्थमाला' नामकी माला निकालनेका प्रारंभ किया है जिस में अब तक तीन ग्रन्थ निकाल चुके हैं१ सफल गृहस्थ, अँगरेजी के प्रसिद्ध लेखक हेल्प्स के निबन्धों का अनुवाद | अनुवादक, बाबू खूबचन्दजी सोधिया बी. एएल. टी । २ आरोग्य दिग्दर्शन, महात्मा गाँधी की गुजराती पुस्तकका अनुवाद । अनुवादक, पं० गिरिधर शर्मा | ३ कांग्रेस के पिता मि० ह्यूमकी जीवनी | अनुवादक, बाबू दयाचन्दजी गोयलीय बी. ए. और बाबू चिरंजीलालजी माथुर बी. ए. । पहले दोका मूल्य ग्यारह ग्यारह आने और तीसरेका बारह आने है । तीनों ही ग्रन्थ अच्छे और प्रत्येक मनुष्यके पढ़ने योग्य हैं । ग्रन्थमालाके स्थायी ग्राहकों को ये और आगे निकलनेवाले तमाम ग्रन्थ 'दो तिहाई, मूल्यसे दिये जायँगे । हम अपने हिन्दीप्रेमी ग्राहकोंसे सिफारिश करते हैं कि वे ग्रन्थ
1
मालाके ग्राहक बनकर पण्डितजीके उत्साहको बढ़ावें और विविध विषयके ग्रन्थोंको पढ़कर अपने ज्ञानकी वृद्धि करें । पण्डितजीका ठिकाना 'चन्दावाड़ी पो० गिरगाँव, बम्बई ' है ।
१२ हिन्दीमें नये जैन पत्र | हिन्दी में नीचे लिखे तीन जैन पत्रोंने जन्म लिया है और हिन्दी भाषाभाषी जैनसमाज की सेवा करना प्रारंभ कर दिया है:
१ जैन मार्तण्ड - जैन बालहितैषिणी सभा हाथरसका मुखपत्र | सम्पादक, श्रीयुत मिश्री - लाल सौगानी, हाथरस ( अलीगढ़ ) । पृष्ठ३६, डिमाई अठपजी । वार्षिक मूल्य १ ॥ ) रु० ।
२ जैन संसार - श्वेताम्बर जैन बरार प्रान्तिक सभाका मुखपत्र | सम्पादक, श्रीयुत कृष्णलाल वर्मा, जुबिली बाग, तारदेव, बम्बई । पृष्ठ ३६ रायल बारह पेजी | मूल्य १ || =)
३ मुनि - महावीर मुनिमण्डल, बोदबड़ (खानदेश) का मुखपत्र | सम्पादक, श्रीयुत विश्वंभरदास गार्गीय, छावनी झांसी । पृष्ठ ३२ डिमाई अठपेज़ी, मू० २) रु० ।
इनमें पहला दिगम्बर, दूसरा श्वेताम्बर और तीसरा स्थानकवासी सम्प्रदायका पत्र है ।
हम
तीनोंका स्वागत करते हैं और चाहते हैं
कि तीनों ही चिरंजीवी होकर जैनधर्म और जैनसमाजका कल्याण करने में समर्थ हों। तीनोंके दो दो तीन तीन अंक निकल चुके हैं। पाठकोंको एक एक नमूनेका अंक मँगाकर देख लेना चाहिए और ग्राहक बनकर सहायता करना चाहिए ।
सहयोगी जैन मित्र पाक्षिकसे साप्ताहिक हो गया है और अब सूरतसे निकलने लगा है।
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विविध-प्रसंग। Imramiminimumar
•
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१३ लालाजीकी ललाई। हुए व्यभिचारियों जैसा कार्य करें। अगरं तीर्थक्षेत्रकमेटीके महामंत्री लाला प्रभुदयालजीको हमार लखक कुछ अशको लेकर ही लिखना या दूसरेहमारे पाठक अच्छी तरह जानते हैं। पिछले अंकमें
से लिखाना था तो हमारा पूरा लेख छाप कर फिर हमने उस लेखको अनुचित बतलाया था जो उन्होंने .
उसके ऊपर जी चाहे जैसा आक्षेप करते। और फिर बाबू दयाचन्दजी गोयलीयके हिसाब पूछने पर जैन
देखते कि कैसा मुंह तोड़ जवाब दिया जाता है । मित्रमें प्रकाशित कराया था। हमने यह भी लिखा
लेकिन आप ऐसा करते ही क्यों, आपको तो अपनी था कि जैनमित्रमें जो लेख छपा है. वह ब्रह्मचारीकी कूट नातिका परिचय देना था। मालूम होता है कि कृपासे ज्योंका त्यों नहीं छपा । उन्होंने उस लेखको
इसी लिये बिना छपे हुए लेखका आप नहीं तो दूसरों बहुत ही ठंडा करके छापा है; असली लेखमें गोय
द्वारा प्रतिवाद कराया, सो भी मन माना, और लीयजी पर बहुत बुरी तरहसे आक्रमण किया गया जनहितैषाम ! जिसको कि बम्बई प्रांतिक था। इस पर ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी पर. देखिए. सभाके तिरस्कार करनेसे हम लोग खरीलालाजी किस तरह लाल हुए हैं:
दते नहीं। मगर तो भी आप याद रखिये कि वह
जैसा लेख है वैसा ही मजेदार मखमली जवाब भी "मित्रसंपादककी कुटिलाई। दिया जायगा । परंतु कृपानिधान ब्रह्मचारी 'जैनमित्र ' बंबई प्रांतिक सभाका एक मुख्य पत्र जी ! पहलेसे ही तुम्हारे ब्रह्मचर्यमें कुछ है । ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी उसके संपादक हैं । इल्ली लग रही है । अब ज्यादा इन अन्यायआपका हृदय ऊपरसे तो स्वच्छ और सरल मालूम पोषक कार्याध्यक्षोंके सम्मिलित हो अपने चारित्रमें पड़ता है, परंतु उसके भीतरमें न मालूम किस कषाय- सिंवाल और जंग न चढ़ाइये । नहीं तो इसका जो पिशाचिनीके कारण कुट-नीतिने प्रवेश कर रक्खा है। कुछ परिणाम होगा वह आपके लिये और इस भेषके यह कहना भी अनुचित न होगा कि आप भी उन लिये अत्यन्त शोचनीय और लज्जाप्रद होगा। किम. भ्रष्टपंथियोंकी हांमें हां मिलानेवाले हैं जो कि विधवा- धिकम् । मु. लखनऊ, ता. १७-११-१६।। विवाह आदि ऐसे निषिद्ध कार्यों के पोषक हैं। इसीसे तो जो लेख विधवाविवाह ब्रदरहड आदि कार्यों के समाजसेवक, भागमल प्रभुदयाल, महामंत्री भा०व० विरुद्ध आपके पास जाता है उसे या तो आप कापते दि. जैन ती० क्षे० कमेटी।" ही नहीं या. उसमें काट छाँट कर डालते हैं । इस लेखमें जो यह कहा गया है कि ब्रह्म
आश्विन मासमें एक लेख जातिप्रबोधक पत्रके किये चारीजीने दूसरों द्वारा ( अर्थात् जनहितैषी द्वारा) 'हए तीर्थक्षेत्र कमेटीके आक्षेपोंके जवाबमें आपके पास प्रतिवाद कराया है, सो सर्वथा असत्य है। ब्रह्मचारीजी भेजा गया था। उसमें आपने कुछ काट छांट कर उन दिनों बड़ौदेमें थे जब लालाजीका लेख उनके पास छापनेकी सम्मति मांगी; और इसी लिये देखनेको गया था। उन्होंने लेखको काट छाँटकर बम्बई भेज वह लेख भी लौटा भेजा। परंतु हमको वह काट छांट दिया था और यहीं आकस्मिक रीतिसे उसका हमको मंजूर न थी इसलिये हमने फिर वह लेख उनके पास पता लग गया था। इसमें न उनका कोई दोष था और छापनेको न भेजा। परंतु अफसोसका विषय तो यह न दफ्तरके आदमियोंका । हमारे और ब्रह्मचारीजीके है कि जिस लेखको हमने काट छांट कर छपाया नहीं, विचारों में बहुत बड़ा अन्तर है । उनकी यह नीति
और उन्होंने अपने संपादकीय बलसे उसे छापा नहीं है कि किसीकी बुराई न की जाय, किसीपर आक्षेप फिर भी उस लेखकी कुछ बातको लेकर जैनहितैषीने न किया जाय और हमारी यह नीति है कि बात हमारे ऊपर आक्षेप किया है, जिसमें कि लेखकका साफ साफ और सत्य कही जाय, चाहे वह किसीको नाम छिपाया गया है। बड़े अफसोस और शरमकी बुरी लगे चाहे भली । ऐसी दशामें यह संभव नहीं बात है कि आप सत्यव्रती ब्रह्मचारी कहलाते कि वे हमारे द्वारा किसीकी बातका प्रतिवाद करावें ।
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जैनहितैषी -
!
२ लालाजी कहते हैं कि 'जैनहितैषीको हम लोग बम्बई प्रान्तिक सभा के तिरस्कार करने से खरीदते नहीं!' मानों प्रान्तिक सभाके प्रस्ताव करने के पहले आप हितैषीको खरीदते थे, अथवा जैनसमाजके सारे ही पत्रोंके आप खरीददार हैं लालाजी साहब, जैनहितैषी के खरीदने के लिए सिर्फ रुपये ही खर्च नहीं करने पड़ते, कुछ अक्लकी भी जरूरत होती । उसके लेखोंके समझने के लिए बुद्धि चाहिए और उसके भावोंको धारण करनेके लिए विस्तृत हृदय चाहिए । वह न आप जैसों के लिए निकलता है और न आपकी और आपकी प्रान्तिक सभाकी कुछ परवा ही करता है। जैनसमाजमें सब आपके ही भाईबन्द नहीं हैं । कुछ ऐसे भी सहृदय और विचारशील हैं जो हितैषीको प्यारकी दृष्टिसे देखते हैं और उसके लिए जो परिश्रम किया जाता है- जो स्वार्थत्याग किया जाता है उसकी कदर करते हैं | उन्हींके लिए यह निकलता है । आप जैसों के सत्कार और तिरस्कार उसकी दृष्टिमें निस्सार हैं | यदि हितैषीमें कुछ 'सार' है और वह समाजसेवाकी आन्तरिक प्रेरणा से सम्पादित होता है तो उसे हजारों पढ़नेवाले मिल जायँगे ।
कि
.
३ हाँ, वह मजेदार और मखमली जवाब तो आपने अबतक न दिया । हम देखना चाहते हैं वह, ब्रह्मचारीजीको जैसा जवाब दिया गया है, वैसा ही है अथवा कुछ और , मजा रखता है। उससे पता लग जायगा कि आप ' मजेदार किसे कहते हैं | जिस लेखमें गालियों के सिवाय कुछ हो, जान पड़ता है आप उसे ही ' मजेदार कहते हैं । परवा महीं, आप अपनी इच्छा पूरी कर लीजिए । तीर्थक्षेत्रकमेटीके इस महामान्य पदको पाकर कहीं ऐसा न हो कि आप किसी 'मजे चित रह जायँ ।
से
,
४ चौथी बात हम तीर्थक्षेत्र कमेटी के मेम्बरों से कहेंगे कि आप लोग अपने इन मानीते महामंत्रीजीके मुँहमें कुछ लगाम भी लगायेंगे, या इसी तरह बकते रहने देंगे । केवल एक हिसाब के पूछनेसे इन्होंने बाबू दयाचन्दजीको मनमानी गालियाँ देने का प्रारंभ किया
और उन्हें भ्रष्टपंथी अदि विशेषण दे डाले और ज्योंही उसमें रुकावट डाली गई कि ये ब्रह्मचारीजी जैसे समाजसेवकोंको सीधी गालियाँ सुनाने लगे । तुम व्यभिचारियों जैसा काम करते हो, तुम्हारे ब्रह्मचर्यमें इल्ली लग गई है, आप अपने चरित्रमें सिंवाल और जंग न चढ़ाइए, ये सब असभ्यों जैसी गालियाँ नहीं तो और क्या हैं? किसी सार्वजनिक संस्थाका - उस संस्थाका जिसमें कि गरीब और अमीर सभीने अपनी गाढ़ी कमाईका कुछ न कुछ हिस्सा दिया है - हिसाब पूछना क्या कोई अपराध है ? जो संस्थाओंका काम करते हैं उन्हें तो सब तरहसे शान्त और क्षमावान् होना चाहिए । वे इस तरह बात बातेंमें उखड़ पड़ेंगे तो काम कैसे चलेगा। अभी तो लोग कमेटी के हिसाब प्रकाशित न करनेके ही कारण आक्षेप कर रहे हैं, यदि आगे कोई यह कह बैठे कि कमेटी के हिसाबमें भी हमें सन्देह है, अथवा कमेटीका कुछ धन उसके कार्यकर्ता अपने उपयोगमें ले आते हैं, तो मालूम नहीं, कमेटी अपने इन लाड़ले लालाजीसे लोगोंको कितनी गालियाँ दिलवावेगी और इस कामके लिए पेम्पलेट: आदि छपाने में कितने रुपये बरबाद करावेगी । इस तरहकी एक बात हमको मालूम भी है, जिसके कारण लोग कमेटी पर सन्देह कर सकते और दुर्भाग्यवश वह लालजीके ही सम्बन्ध में है । गतवर्षके कार्तिक में जम्बू स्वामी के मेले पर तीर्थक्षेत्रकमेटीका जो अधिवेशन हुआ था, उसमें कमेटीका हिसाब सुनाया गया था और उसमें लाला प्रभुदयालजी महामंत्री के नाम तीन हजार रुपये निकाले गये थे । लालाखजाने से उठा ली थी। इस तरह लगभग डे जीने यह रकम कोई तीन चार महीने पहले कमेटी के
३०००५
यह रकम लालाजी के मामें पड़ रही है। तीर्थक्षेत्र कमेटीकी रिपोर्ट कोई दो वर्षसे प्रकाशित नहीं हुई है। इसलिए हम नहीं कह सकते कि यह रकम वसूल हुई है या नहीं । पर अहाँ तक सुनाया है, लालाजी इसे दे नहीं सके हैं और शायद इसके सिवाय भी उन्होंने कुछ रकम और लेली है । यह एक ऐसी बात है जिसपर लोग आक्षेप कर सकते हैं और कमेटी से इसका जबाब तलब कर सकते हैं । पर क्या कमेटीका यह कर्तव्य
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HamamammummOLLRON.
विविध-प्रसंग । SUAnnuuttintmumummy
नहीं है कि वह ऐसी बातोंका उत्तर अपने भाइयोंको जी, बम्बईसे पं. उदयलालजी, बाबू छगनमलजी, शान्तिके साथ देवे ! यदि वह इबका उत्तर देनेके और इन पंक्तियोंका लेखक, वर्धासे सेठचिरजीलालजी लिए लालाजीको ही छोड़ देगी, तब तो उनकी कृपासे बड़जात्या, रहलीसे बाबू दयाचन्दजी बजाज, दमोहसे ब्रह्मचारीजीके समान चाहे जिसकी इज्जत धूल फाँकती बाबू भैयालालजी चौधरी आदि अनेक सज्जन सम्मेफिरेगी। कमेटीके मेम्बर महाशयोंको चाहिए कि वे लनमें शामिल हुए थे । खण्डवेसे और भी कई जैनी लालाजीको यह समझा दें कि कमेटीके कोषमें गरीब भाई आये थे जिनके नाम हम नहीं जानते। जबलऔर अमीर सभीने चन्दा दिया है, और उन सबने पुरके वकील बाबू कन्छेदीलालजी और बाबू कसूरही कमेटीको बनाया है, अतः कमेटी उनकी स्वामिनी चन्दजीने सम्मेलनकी जीजानसे सेवा की थी। दिगनहीं हो सकती। प्रत्येक जैनी-भ्रष्ट और धर्मात्मा, तरह- म्बर जैन बोर्डिंग हाउसकी विशाल इमारत सम्मेलनके पंथी और बसिपथी, पण्डितपंथी और बाबूपंथी- आपसे प्रतिनिधियोंके ठहरनेके लिए दी गई थी। हिन्दी हिसाब पूछ सकता है और आप पर झूठा या सच्चा पुस्तकोंकी प्रदर्शिनी भी जैन बोर्डिंगमें ही खोली गई सन्देह भी कर सकता है। आपका काम उसका समाधान थी। जबलपुरके प्रसिद्ध धनी और अगुआ सिंगई कर देना है, गालियाँ देना या उलटी सीधी बातें गरीबदासजी आदिका भी सम्मेलनसे हार्दिक प्रेम सुनाना नहीं। यदि लालाजी यह न समझें और थोड़ासा था। स्वागतकारिणी कमेटोके चन्देमें भी जबलपुरके काम करनेके कारण अपनेको ‘महापरुष' या जैनी भाइयोंने चन्दा देनेमें आनाकानी नहीं की। 'पट्टधर' समझ बैठे हों, तो कमेटीको उनका यह खण्डवेके बाबू माणिकचन्दजी वकील स्वागतकारिणी सुखस्वप्न शीघ्र ही भंग कर देना चाहिए । इस्तीफा कमेटीके एक प्रधान कार्यकर्ता थे। उनके प्रयत्न और माँगकर उन्हें आदरपूर्वक अलग कर देना चाहिए और उत्साहसे खण्डवेके कुछ विद्यार्थियोंने ' कृष्णार्जुन किसी ऐसे सज्जनको यह काम सौंपना चाहिए जो युद्ध' नामका हिन्दी नाटक खेला जो बहुत ही आपको समाजका सेवक समझता हो । कमेटीकी पसन्द किया गया और जिसकी सारी आमदनी इज्जतमें इससे बहा लगता है कि उसके महामंत्री इस सम्मेलनको दे दी गई। तरह गालियाँ बकनेवाले तुच्छ हृदयके आदमी हैं। इस सम्मेलनके पहले झाँसी में एक प्रान्तीय हिन्दी
सम्मेलन भी हुआ था। सहयोगी 'मनि'से मालम हुआ १४ जैनी भाइयोंका हिन्दीप्रेम।
कि उसमें भी लखनऊके बाब अजितप्रसादजी - हिन्दी-साहित्यसम्मेलन हिन्दीकी उन्नतिके लिए वकील, बाबू दयाचन्दजी, बाबू गुलाबचन्दजी, इटा. स्थापित हुआ है । वह हिन्दीभाषाभाषी प्रत्येक वेके बाब मदनलालजी वकील, और सेठ चान्दमलजी, मनुष्यकी वस्तु है, उसमें धर्मभेद नहीं है । हर्षका प्र.विश्वंभरदास गार्गीय सेठ मिलापचन्दजी आदि विषय है कि हमारे जैनी भाई भी इस बातको समझ झाँसी निवासियोंने विशेष योग दिया था। गये हैं और उन्होंने अबके जबलपुरके सप्तम हिन्दी
___आशा है कि हमारे भाइयोंका यह हिन्दीप्रेम साहित्यसम्मेलनमें सन्तोषजनक योग दिया है।
दिन पर दिन बढ़ता ही जायगा और वे आगामी सार्वजनिक कार्योंमें अपने भाइयोंको इस तरह योग
सम्मेलनमें जो इन्दौरमें होनेवाला है इससे भी अधिक देते देखकर हमें बहुत ही सन्तोष होता है । लखन
योग देंगे। ऊसे बाबू दयाचन्दजी गोयलीय बी. ए., सागरसे बाबू खूबचन्दजी सोधिया बी. ए. एल.टी.. नरसिंहपुरसे
१५ हिन्दी-सहित्यसम्मेलनकी परीक्षामें बाबू माणिकचन्दजी कोचर बी. ए. एल एल, बी., खंड
जैन विद्यार्थी। वेसे पाबू माणिकचन्दजी बी.ए.एल एल.बी. और सेठ हिन्दी-साहित्यसम्मेलनकी ओरसे एक परीक्षालय तेजकरनजी, कटनीसे बाबू भैयालालजी, गोटेगाँवसे स्थापित हुआ है जिसकी ओरसे प्रथमा, मध्यमा बाबू मुलायमचन्दजी, भोपालसे बाबू मोतीलाल और उत्तमा, ये तीन परक्षिायें ली जाती है।
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SAATIBHAIBATMAITHILIBARTIMERCIALIAL
जैनहितैषी
बड़े शहरों में इसके परीक्षाकेन्द्र नियत हो गये हैं। हमारे हिन्दीप्रेमी पाठकोंमेंसे भी कोई सजन जैन अभी दो ही तीन वर्षों में परीक्षालयने कितनी विद्यार्थियों के लिए इस प्रकारके पारितोषिक देनेकी लोकप्रियता प्राप्त की है. इसका अनमान पाठक कृपा करें, तो बहुत लाभ हो । हमें आशा है कि इसीसे कर लेंगे कि इस वर्ष इसकी केवल प्रथमा आगामी वर्ष इससे भी अधिक जैन छात्र इस परीक्षामें परीक्षामें ही १४० विद्यार्थी उत्तीर्ण हुए हैं जिनमें १२ बैठेंगे और उत्तीर्ण होंगे। स्त्रियाँ और लड़कियाँ भी हैं । मध्यमाके परीक्षो- १६ एक पाँच सौ रुपयेका पारितोषिक। तीर्ण विद्यार्थियों की संख्या हमें मालूम नहीं है । इन सप्तम हिन्दीसाहित्यसम्मेलन जवलपुरके सभापपरीक्षाओंका पठनक्रम देखकर हमारी धारणा हुई तिको जनहितेच्छुके सम्पादक श्रीयुत वाडीलाल मोतीकि यदि जैनविद्यार्थी, विशेष करके संस्कृतके वि. लाल शाहने तारद्वारा इस प्रकारकी सूचना दी थी कि द्यार्थी, इन परीक्षाओंके पाठ्यग्रन्थ पढ़ लें तो बहुत "जगत् , जीवन और वर्ताव ( कांडेक्ट ) इन विषउपकार हो । संस्कृतके छात्र हिन्दी साहित्य, व्याक- योंपर जैनफिलासफी, वेदान्त फिलासफी और जर्मन रण, इतिहास, गणित, भूगोल, विज्ञान, आदिसे कोरे फिलासफर फ्रेडिरिक निटशेकी फिलासफीके जो रहते है और इस कारण न उनका ज्ञान ही विस्तृत सिद्धान्त हैं उनकासमन्वय ( कम्प्रोमाइज ) करके एक
और समयोपयोगी होता है और न उन्हें हिन्दी हिन्दी निवन्ध लिखनेवाले सर्वश्रेष्ठ लेखकको नकद ५०० लिखना ही आता है। इससे समाजका उनके द्वारा रुपयेका पारितोषिक सम्मेलनकी मार्फत दिया कोई भी काम अच्छी तरह नहीं होसकता है। यदि जायगा। लेखपरीक्षकोंमें एक नाम मेरा भी रहेगा।" वे केवल प्रथमाके ही ग्रन्थ पढ़ लें और परीक्षा दे लें, आशा है कि हमारे जैन ग्रेज्युएटोंका ध्यान इस ओर तो बहुत लाभ हो। यह सोचकर हमने गत वर्षे एक जायगा और वे इस पारितोषिकको प्राप्त करनेका विज्ञापन निकाला था कि जो जैनविद्यार्थी हिन्दीकी यत्न करेंगे। इस विषयमें विशेष पूछताछ करनेके प्रथमा परीक्षामें उत्तीर्ण होंगे, उन्हें प्रत्येकको २०) बीस लिए शाह महाशयसे 'नागदेवी स्ट्रीट बम्बई' के रुपया पारितोषिक दिया जायगा । हर्षकी बात है कि ठिकानेसे पत्रव्यवहार करना चाहिए। इससे उत्साहित होकर कई जैनविद्यार्थी प्रथमापरीक्षामें बैठे और उनमेंसे मदनलाल, निर्मलप्रसाद गार्गीय. गो. १७ बागड़में कन्याविक्रय और अपव्यय । विन्ददास, नन्दकिशोर, मुख्त्यारसिंह, दौलतराम और थान्दलानिवासी श्रीयुक्त टीकमचन्दजी तलेरा नानूराम ये सात विद्यार्थी उत्तीर्ण होकर उक्त पारितोषिक लिखते हैं कि “मैं...में कार्यवश आया हुआ हूँ । प्राप्त करनेके अधिकारी हुए हैं । परन्तु इनमें संस्कृतव। यहाँ हालमें तीन चार सगाइयाँ हुई हैं । तलाश विद्यार्थी शायद कोई भी नहीं है, यह जान कर हमें करनेसे मालूम हुआ कि लड़कियोंके मा-बाप बहुत आश्चर्य हुआ। हमारी कई संस्कृत पाठशालाओंके अच्छे व्यापारी है, तो भी उनमेंसे एकने २२०० विद्यार्थी कलकत्ता, बनारस और पंजाबयूनीवर्सिटीकी रु०, दूसरेने २००० रु. और तीसरेने १८०० रु. संस्कृतपरीक्षायें दिया करते हैं। हमारी तुच्छबुद्धिमें वरपक्षवालोंसे लिये हैं। यहाँ एक और सेठ है जो उनकी अपेक्षा यह परीक्षा बहुत ही उपयोगी और कई सभाओंके सभापतिका आसन सुशोभित कर चुके लाभकारी होगी । यदि पाठशालाओंके संचालक हैं। आपके पास पूँजी तो पाँच सात हजारहीकी है; चाहें, तो वे इस विषयमें अपने छात्रोंको उत्साहित भी परन्तु अपने दश वर्षके लडकेकी शादीमें-जो कि कर सकते हैं । पठनक्रम और नियमावली आदिकी शीघ्र ही होनेवाली है-आप कर्ज लेकर कोई दस हजार पुस्तिका सम्मेलन कार्यालय प्रयागसे तीन आनेके रुपये खर्च करनेवाले हैं। ख़ब तैयारियाँ हो रही है।" टिकट भेजनेसे मिल सकती है । आगामी वर्षके जब तक कन्याओंकी संख्या समाजमें थोड़ी है, लिए हम फिर भी कुछ पारितोषिक नियत करेंगे, विवाहका क्षेत्र अगणित जातियों के कारण संकीर्ण है जिसकी सूचना कुछ समय बाद दी जायगी। यदि और एक एक पुरुषको बुढ़ापे तक कई कई शादियाँ
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HOMEHRARIBABAIRATRIBAIMERI
विविध-प्रसंग । Timitrinfrimoti
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करनेकी स्वतंत्रता है तब तक कन्याविक्रय बन्द नहाए जिससे कि दिखलानेके लिए तो दोनों ही पक्षवाले हो सकता । यह अर्थशास्त्रका नियम है कि जो वस्तु जगत्की रंगभूमि पर अपनी अपनी जीवकी प्रसन्नताका कम पैदा होती है और जिसके ग्राहक बहुत होते हैं राग अलापते हुए उछल रहे हैं; पर वास्तवमें दोनोंवह अवश्य बहुमूल्य हो जायगी । इसमें पापका डर का ही हृदयं 'हार' की अश्रुधाराओंसे भीग गया बतलाना, अधर्म दिखलाना और उपदेश देना प्रायः है। यद्यपि दोनोंका ही हृदय कहता है कि हमारी माँगें निरर्थक है। बहुत थोड़े लोग ऐसे हैं जो कन्याविक्र- रद कर दी गई हैं-हम जो चाहते थे वह नहीं हुभा है, यको अधर्म समझकर छोड़ सकते हैं। शेष लोग तो तो भी बाहरसे जीतकी दुन्दुभी बजानेमें दोनोंको ही तब छोड़ेंगे जब कन्यायें सुदुर्लभकी जगह सुलभतर कुछ संकोच नहीं हो रहा है। हो जायगी । अपव्यय या फिजूलखर्चीका कारण
वेताम्बरियोंकी इच्छा यहाँ तक थी कि पर्वतकी अज्ञानता है। ऐसे लोग अपनी करनीका फल भोग
- सारी मालिकी केवल हमारे हाथमें रहे और हमारे कर स्वयं ही सुधर जाते हैं और दूसरोंको सचेत कर
कर सिवाय वहाँ कोई भी पूजन न कर सके। परन्तु कोर्टने देते हैं। यदि इन्हें देशकी दरिद्रताका, किसानों मज
आज्ञा दी कि २१ टोंकोंपर पूजन करनेका दिगम्बरिदरों और शिल्पव्यवसायियोंकी दुर्दशाका ज्ञान कराया
योंको भी स्वत्व है, और इस तरह श्वेताम्बरोंकी इच्छा जाय और इनके आगे देशके प्रतिदिन आधा
पूर्ण न हुई। इधर जलमंदिरपरसे और चार टोंकोंपरसे पेट रहकर सो जानेवाले १५ करोड़ भारतवासियोंका
दिगम्बरियोंका हक उड़ गया है। 'जैनप्रभात ' के चित्र खड़ा किया जाय, तो संभव है कि इनकी आँखें
सम्पादकने स्पष्ट शब्दोंमें लिखा है कि “हमने स्वयं खुल जायँ और ये अपने लड़कोंकी शादीमें नहीं
जलमान्दिरमें दिगम्बर मूर्तिकी पूजा की है और इन्दौर किन्तु देशके दुःखियोंकी दशा सुधारनेमें अपने धनको लगाने लगे।
हाईकोर्ट के जज श्रीयुत जुगमंदरलालजी एम. ए.
बार-एट-ला ने भी तीन वार जलमन्दिरकी दिगम्बर. १८ मुकद्दमे में जीत किसकी हुई ? मूर्तियों की पूजा की है। इतना ही नहीं बल्कि जिन 'जो कुछ होता है सब अच्छेके लिए होता है,' परसे हमारा हक उठा दिया गया है उन चारों टोंकोंइस कहावतमें बहुत कुछ सत्य समाया हुआ है। मेरी की पूजा भी जज साहबने श्वेताम्बरियोंकी किसी प्रार्थना यदि सर्वथा स्वीकार कर ली जाती और देशके रोक टोकके बिना तीन बार की है । " इस तरह नेताओंके द्वारा शिखरजीके मुकद्दमेंका फैसला कराया दिगम्बरसमाजने एक तो अपना पूजनका हक खो जाता तो संभव है कि अपने उचित अधिकारसे दिया और अब इस मुकद्दमेका आधा खर्च भी उसे अधिक प्राप्त करनेकी आशा रखनेवाले दोनों ही पक्ष देना पड़ेगा । इससे यह बात सहज ही समझमें आ यह कहने लगते कि, “यदि हम सरकारी जायगी कि वास्तवमें दोनों ही पक्षोंकी हार कोर्टके द्वारा और उसके ऊपरकी कोर्ट द्वारा फैसला हुई है. और दोनों ही मन-ही-मन पछता रहे कराते, तो अवश्य जीतते । हमने बड़ी गलती की जो हैं। तथापि इधर उधरसे दबी हुई आवाज सुन आन्दोलन करनेवालोंकी बात मान ली । इसमें हम पड़ती है कि दोनोंही पक्षवाले आगेकी कोर्टमें ठगाये गये ।" प्रकृतिका यह नियम है कि दिनका अपील करेंगे। मुझे विश्वास नहीं है कि कोर्टके महत्त्व रातके बिना, सुखका महत्त्व दुःखके बिना और फैसलेका यह कडुआ फल चखकर, दोनों पक्षोंके असलीका महत्त्व नकलीके बिना नहीं मालम होता। अगुए-समझदार होकर भी-फिरसे इस प्रकारकी सौभाग्यसे इसी समय हजारीबागकी कोर्टसे गलती करनेके लिए तैयार हो जायेंगे। इसमें लाखों शिखरजीके मुकद्दमेका फैसला हो गया । इस रुपया खर्च होनेके सिवाय अगुओंका बहुत ही बहुफैसलेने दोनोंही पक्षपर अपनी माया फैलाई है। मूल्य समय व्यर्थ बरबाद होता है । भाई भाई लड़ते
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________________ CIAL HAMARATHI जैनहितैषी 622 हैं और उनके दिल दिनपर दिन एक दूसरेसे हटते नेकी जरूरत नहीं कि उपहारका अन्य सदाकी / जाते हैं जिनके कि नोड़नेके लिए न जाने कितने अच्छा और शिक्षाप्रद होगा तथा कमसे कम बा समय और श्रमकी जरूरत होगी / और यह सब आने मूल्यका होगा। यह निश्चय नहीं है कि प होने पर भी कोटोंसे तो इस प्रकारकी आशा ही नहा कके तैयार होनेतक उपहार भी तैयार हो जायर की जा सकती कि दोनों पक्षोंको सन्तुष्ट करनेवाला न्याय कभी मिल जायगा / इसलिए मैं दोनों पक्षोंके याद तैयार हो सका, तो साथ ही गाना कर दि धर्मात्मा और धनी नेताओंसे एक बार फिर प्रार्थना जायगा, नहीं तो अकेला अंक वी. पी. करता हूँ कि आप लोग शिखरजी तथा अन्य भेजा जायगा / तीर्थोके झगड़ोंका फैसला या तो आपसमें ही कर लें वी.पी. इस वर्षके तमाम ग्राइ कि नाम वि या देशके अगुओंमेंसे एक दो सजनोंको चुनकर उनके द्वारा करानेकी तजवीज करें / दोनों पक्षोंके सधी जायगा, किसीकी आज्ञाकी राह न देखी जायगी। श्रावकों, धनियों और साधुओंको चाहिए कि वे मेरे महाशय आगामी वर्षमें ग्राहक न रहना चाहें ब इस शान्तिके आन्दोलनको नया बल प्रदान करें कृपाकरके इस अंकके पहुँचते ही हमें एक कार्ड और जब तक यह पूर्ण रीतिसे सफल न हो जाय, सूचना कर देनी चाहिए। तब तक चुप न बैठे। मुझे विश्वास है कि वे अपनी परोपकारिणी बुद्धि और शक्तिका इस कार्यमें अवश्य पिछले वर्ष जो एक और उपहार देनेकी सर उपयोग करेंगे। अन्तमें कुछ विचारणीय बातोंकी फिरसे दी गई थी वह अभीतक लिखा नहीं गया है। लेर याद दिलाकर मैं विश्राम लेता हूँ, महाशयको अभीतक अवकाश नहीं मिला है / य जिन्हें स्वराज्य जैसे महान राजकीय प्रयत्न करनेसे तैयार हो गया तो वह भी इस बा अधिकारोंके प्राप्त करनेकी इच्छा हो उन्हें उपहारके साथ भेज दिया जायगा। कमसे कम अपनी इतनी योग्यता और हमारे सिरपर कामोंका बोझा इतना अधिक है। पात्रता तो अवश्य दिखलाना चाहिए कि अपने घरू झगड़े बखेड़े आपसमें ही उसके मारे हम सदा ही दवे रहते हैं और बड़ी क नाईसे अवकाश निकाल पाते हैं। ऐसी दशामें ले तय कर लिये जायँ, दोकी लड़ाईमें सदा तीसरेका ही हितैषीका समय पर निकालना हमारे लिए एक तर भला होता है, असंभव है / अतएव जो महाशय हमारे इस दोष धर्मके लिए धर्मके नामसे कलह करना क्षमा कर सकते हों, हितैषी महीने, दो महीने, अ " तीन महीनेमें जब निकले तभी प्रसन्नतापूर्वक प अधर्म है और वह सर्वथा त्याज्य है। नेका धैर्य रख सकते हों, वे ही ग्राहक रहनेकी कृ निवेदक, वाडीलाल शाह / करें। हम केवल इस बातका बादा कर सकते है। 19 नये वर्षकी सूचना / वर्षभरमें जितने पृष्ठ निकलने चाहिए उससे दो च इस अंकके साथ हितैषीका 12 वाँ भाग समाप्त फार्म आधिक ही निकाल देंगे, कम नहीं, जसे इस व होता है / इसके बादका अंक तेरहवें भागका निकलेगा प्रतिज्ञासे 48 पृष्ठ अधिक निकाले गये हैं। समयप और वह ग्राहकोंकी सेवामें तीन रुपया एक आनेके निकालने की प्रतिज्ञा हमसे नहीं हो सकती। आशा / वी. पी. से पहुँचेगा / उपहारमें 'मणिभद्र / कि इस स्पष्टवक्तृत्वके लिए पाठक हमें क्षमा करेंगे / नामका एक सुन्दर उपन्यास दिया जायगा जो तैयार कराया जा रहा है / यह कह For Personal & Private Use Only