________________
उपाय थे उन्हें तूने किये नहीं, इसलिए मैं तेरे साथ नहीं जा सकती । कृपण मर गया और नरक में तरह तरहके दुःख भोगने लगा । इधर उसके मरनेसे लोग बहुत खुश हुए और कुटुम्बी आदि आनन्दसे धनका उपभोग करने लगे । यही इस चरित्रका सार है । कविने कथा अच्छी चुनी है । रचना उसकी एक आँखों देखी घटना पर की गई है, इस कारण उसमें प्राण हैं | मालूम नहीं, इस कविकी और भी कोई रचना है या नहीं |
हिन्दी - जैन साहित्यका इतिहास ।
५ रामसीताचरित्र । इस ग्रन्थका उल्लेख मिश्रबन्धुओंने अपने हिन्दी के इतिहासमें किया है । इसे बालचन्द जैनने विक्रम संवत् १५७८ में बनाया है ।
सत्रहवीं शताब्दी |
इस शताब्दी के बने हुए जैनग्रंथ बहुत मिलते हैं । इसमें हिन्दीकी खासी उन्नति हुई है। हिन्दी के अमर कवि तुलसीदासजी इसी शता में हुए है।
१ बनारसीदास । इस शताब्दीके जैनकवि और लेखकों में हम कविवर बनारसीदासजीको सर्व श्रेष्ठ समझते हैं । यही क्यों, हमारा तो खयाल है कि जैनोंमें इनसे अच्छा कवि कोई हुआ ही नहीं । ये आगरके रहनेवाले श्रीमाल वैश्य थे । इनका जन्म माघ सुदी ११ सं० १६४३ को जौनपुर नगरमें हुआ था । इनके पिताका नाम खरगसेन था । ये बड़े ही प्रतिभाशाली कवि थे । अपने समयके ये सुधारक थे। पहले श्वेताम्बर सम्प्रदायके अनुयायी थे, पीछे दिगम्बरसम्प्रदायमुक्त हो गये थे; परन्तु जान पड़ता है, इनके विचारोंसे साधारण लोगोंके विचारोंका मेल नहीं खाता था । ये अध्यात्मी या वेदान्ती थे । क्रियाकाण्डको बहुत महत्त्व नहीं देते थे । इसी कारण बहुत से लोग इनके विरुद्ध हो गये
Jain Education International
५६१
1
"
थे । यहाँ तक कि उस समय के मेघविजय उपाध्याय नामके एक श्वेताम्बर साधुने उनके विरुद्ध एक युक्तिबोध ' नामका प्राकृत नाटक ( स्वोपज्ञ संस्कृतटीकासहित ) ही लिख डाला था, जो उपलब्ध है । उससे मालूम होता है कि इनको और इनके अनुयायियों को उस समय के बहुत से लोग एक जुदा ही पन्थके समझने लगे थे ।
बनारसीदासजी के बनाये हुए चार ग्रन्थ - १ बनारसीविलास, २ नाटक समयसार, ३ अर्द्ध कथानक और ४ नाममाला ( कोष ) प्रसिद्ध हैं । इनमें से पहले तीन उपलब्ध हैं। दो छप चुके हैं और तीसरेका आशय पहले के साथ प्रकाशित हो चुका है । बनारसीविलास कोई स्वतंत्र ग्रन्थ नहीं है, किन्तु उनकी कोई ६० छोटी बड़ी कविता - ओंका संग्रह है । यह संग्रह जगजीवन नामके एक आगरे के कविने संवत् १७०१ में किया था । सूक्तमुक्तावली, समयसार कलशा, और कल्याणमन्दिर स्तोत्र नामकी तीन कविताओंको छोड़कर इस संग्रहकी सब रचनायें स्वतंत्र हैं, और एकसे एक बढ़कर हैं । अध्यात्मके प्रेमी उनमें तन्मय हो जाते हैं । समयाभाव के कारण हम दो चार दोहे सुनाकर ही संतोष करेंगे:
एक रूप हिन्दू तुरुक, दूजी दशा न कोइ । मनकी दुविधा मानकर, भये एकसों दोइ ॥ ७ ॥ दोऊ भूले भरम में,
करें वचनकी टेक |
6
'राम राम' हिन्दू कहें, तुरुक 'सलामालेक' ॥ ८ ॥ इन पुस्तक वांचिए, वेहू पढ़ें किते । एक वस्तु के नाम द्वय, जैसे 'शोभा' ' जेब ' ॥ ९ ॥
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org