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________________ ५३४ alumammmmHDAMAMTARA जैनहितैषी। Shrimammintinu m my __ अर्थात्-जिसका विभाग न हो सके उसको (क) पहले खंडके 'प्रायाश्चत्त ' नामक ‘परमाणु कहते हैं । आठ परमाणुओंकी एक लीख, १० वें अध्यायमें, एक स्थान पर, ये तीन तीन लीखोंका एक सर्षप ( सरसोंका दाना ) और पद्य दिये हैं:छह सर्षपोंका एक जो होता है । संहिता- पण दस बारस णियमा पग्णारस होइ तहय दिवसेहिं । का यह सब कथन जैनदृष्टिसे बिलकुल गिरा खत्तिय बंभाविस्सा सुद्दाय कमेण सुझंति ॥ ३७॥ हुआ ही नहीं बल्कि नितान्त, असत्य मालूम क्षत्रियासूतकं पंच विप्राणां दश उच्यते। होता है। इस कथनके अनुसार एक जौ, असं- वैश्यानां द्वादशाहेन मासार्धेष्वितरे जने ॥ ३८॥ ख्यात अथवा अनंत परमाणुओंकी जगह, सिर्फ यतिः क्षणेन शुद्धः स्यात्पंच रात्रेण पार्थिवः । १४४ परमाणुओंका पुंज ठहरता है, जब कि ब्राह्मणो दशरात्रेण मासार्धेनेतरो जनः ॥ ३९ ॥ मनुस्मृतिका कर्ता उसे ४३२ त्रसरेणुओंके इन तीनों पद्योंमेंसे कोई भी पद्य 'उक्तं च' बराबर बतलाता है। एक त्रसरेणुमें बहुतसे आदि रूपसे किसी दूसरे व्यक्तिका प्रगट नहीं परमाणुओंका समूह होता है । परमाणुको जैन- किया गया और न दूसरा पद्य पहले प्राकृत शास्त्रोंमें इंदियगोचर नहीं माना; ऐसी हालत पद्यकी छाया है । तो भी पहले पद्यमें जिस बातहोते हुए लौकिक व्यवहारमें परमाणुके पैमानेका का वर्णन दिया है वही वर्णन दूसरे पद्यमें भी प्रयोग भी समुचित प्रतीत नहीं होता । इन सब किया गया है । दोनों पद्योंमें क्षत्रिय, ब्राह्मण, बातोंसे मालूम होता है कि ग्रंथकर्ताने संज्ञाओंकी वैश्य और शूद्रोंकी सूतकशुद्धिकी मर्यादा यह कथन मनस्मृति या उसके सदृश किसी क्रमशः पाँच, दस, बारह और पंद्रह दिनकी दूसरे ग्रंथसे लिया तो जरूर है; परन्तु वह उसके बतलाई है । रहा तीसरा पद्य, उसमें क्षत्रियों आशयको ठीक तौरसे समझ नहीं सका और और ब्राह्मणोंकी शुद्धिका तो कथन वही है जो उसने परमाणुका लक्षण साथमें लगाकर जो इस ऊपरके दोनों पद्योंमें दिया है और इसलिए यह कथनको जैनकी रंगत देनी चाही है उससे यह कथन तीसरी बार आगया है, बाकी रही वैश्यों कथन उलटा जैनके विरुद्ध होगया है और और शूद्रोंकी शुद्धिकी मर्यादा, वह इसमें इससे ग्रंथकर्ताकी साफ मूर्खता टपकती है । सत्य १५ दिनकी बतलाई है, जिससे वैश्योंकी है 'मल्का प्रसाद भी भयंकर होता है।' शद्धिका कथन पहले दोनों पद्योंके कथनसे (७) इस संहितामें अनेक कथन ऐसे पाये विरुद्ध पड़ता है। क्योंकि उनमें १२ दिनकी जाते हैं जिन्हें ग्रंथकर्ताने विना किसी नूतन मर्यादा लिखी है । इसके सिवाय ग्रंथमें इन तीनों आवश्यकताके एकसे अधिक वार वर्णन किया पद्योंका ग्रंथके पहले पिछले पद्योंके साथ कुछ है और जिनके इस वर्णनसे न सिर्फ ग्रंथकर्ताकी सम्बंध ठीक नहीं बैठता और ये तीनों ही मूढता अथवा हिमाकत ही जाहिर होती है बल्कि पद्य यहाँ 'उठाऊ चूल्हा' जैसे मालूम पड़ते हैं । साथ ही यह बात और स्पष्ट हो जाती है कि यह (ख ) दूसरे खंडमें 'तिथि ' नामका २८ पूरा ग्रंथ किसी एक व्यक्तिकी स्वतंत्र रचना वाँ अध्याय है, जिसमें कुल तेरह पद्य हैं। इनमेंन होकर प्रायः भिन्न भिन्न व्यक्तियोंके प्रकर- से छह पद्य नं० ४, ५, ७, ८, ९, १० बिलणोंका एक बेढंगा संग्रह मात्र है। ऐसे कथनोंके कुल वे ही हैं जो इससे पहले 'मुहूर्त' नामके कुछ नमूने इस प्रकार हैं: : २७ वें अध्यायमें क्रमशः नं० ९, १०, १५, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522829
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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