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भद्रबाहु-संहिता।
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१८, १९, २० पर दर्ज हैं । यहाँ पर उन्हें वाँ अध्याय है, जिसमें स्वमका भी वर्णन दिया व्यर्थ ही दुबारा रक्खा गया है।
है। इन दोनों अध्यायोंमें स्वप्नविषयक जो (ग) दूसरे खंडमें विरोध ' नामका एक कुछ कथन किया गया है उसमेंसे बहुतसा ४३ वाँ, अध्याय भी है जिसमें कुल ६३ श्लोक कथन एक दूसरेसे मिलता जुलता है और एकके हैं । इन श्लोकों में शुरूके साढे तेईस श्लोक-नं० होते दूसरा बिलकुल व्यर्थ और फिजूल मालूम २ से नं० २५ के पूर्वार्ध तक-बिलकल ज्योंके होता है । नमूनेके तौरपर यहाँ दोनों अध्यात्यों वे ही हैं जो पहले इसी खंडके ग्रहयद्ध' योंसे सिर्फ दो दो श्लोक उद्धृत किये जाते हैं:नामके २४वें अध्यायके+शुरूमें आचुके हैं और १-मधुरेर्चिविंशेत्स्वप्ने दिवा वा यस्य वेश्मनि । उन्हीं नम्बरोंपर दर्ज हैं। समझमें नहीं आता तस्यार्थनाशं नियतं मृतोवाप्यभिनिर्दिशेत् ॥ ४५॥ कि जब दोनों अध्यायोंका विषय भिन्न भिन्न था
-अध्याय २६ ।। तो फिर क्यों एक अध्यायके इतने अधिक श्लोकों- मधुछत्रं विशेत्स्वप्ने दिवा वा यस्य वेश्मनि । को दूसरे अध्यायमें फिजल नकल किया गया। अर्थनाशो भवेत्तस्य मरणं वा विनिर्दिशेत् ॥१३३॥ संभव है कि इन दोनों विषयोंमें ग्रंथकर्ता
-अध्याय ३० । को परस्पर कोई भेद ही मालूम न हुआ हो । उसे २-मूत्रं वा कुरुते स्वप्ने पुरीषं वा सलोहितम् । इस ‘विरोध ' नामके अध्यायकोरखनेकी जरू- प्रतिबुध्येत्तथा यश्च लभते सोऽर्थनाशनम् ॥५२॥ रत इस वजहसे पड़ी हो कि उसके नामकी
-अ० २६ । . सूचना उस विषयसूचीमें की गई है जो इस पुरीष लोहितं स्वप्ने मत्रं वा कुरुते तथा । खंडके पहले अध्यायमें लगी हुई है और जो तदा जागर्ति यो मर्यो द्रव्यं तस्य विनश्यति ॥१२१॥ पहला अध्याय अगले २३-२४ अध्यायोंके साथ
-अ० ३० । किसी दूसरे व्यक्तिका बनाया हुआ है, जैसा कि इनसे साफ जाहिर है कि ग्रंथकर्ताने इन पहले लेखमें सूचित किया जा चुका है और दोनों अध्यायोंका स्वप्नविषयक कथन भिन्न इसलिए ग्रंथकर्ताने इस अध्यायमें कुछ श्लोकोंको भिन्न स्थानोंसे उठाकर रक्खा है और उसमें 'ग्रहयुद्ध' प्रकरणसे और बाकीको एक या इतनी योग्यता नहीं थी कि वह उस कथनको अनेक ताजिक ग्रंथोंसे उठाकर रख दिया हो छाँटकर अलग कर देता जो एक बार पहले और इस तरहपर इस अध्यायकी पूर्ति की हो। आचुका है । इसी तरह पर इस ग्रंथमें 'उत्पात' परन्तु कुछ भी हो, इसमें सन्देह नहीं कि ग्रंथ- नामका एक अध्याय नं० १४ है, जिसमें केवल कर्ताने अपने इस कृत्यद्वारा सर्व साधारण पर उत्पातका ही वर्णन है और दूसरा 'ऋषिपुत्रिका'
अपनी खासी मूर्खता और हिमाकतका इजहार नामका चौथा अध्याय, तीसरे खंडमें, है जिसमें किया है।
उत्पातका प्रधान प्रकरण है । इन दोनों अध्या(घ) इस ग्रंथमें 'स्वप्न' नामका एक
योंका बहुतसा उत्पातविषयक कथन भी एक अध्याय नं०. २६ है, जिसमें केवल स्वप्नका ही
दूसरेसे मिलता जुलता है । इनके भी दो दो नमूने वर्णन है और दूसरा 'निमित्त ' नामका ३०
. इस प्रकार हैं:
१-नर्तनं जलनं हास्यं उल्कालापौ निमीलनं । + इस २४ वें अध्यायमें कुल ४३ श्लोक हैं। देवा यत्र प्रकुर्वन्ति तत्र विद्यान्महद्भयम् ॥१४-१०२॥
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