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________________ ILALATHALALIBAIL जैनहितैषी ITTERTYNTHATANT देवो णचंति जहिं पसिज्जति तहय रोवती। विदिग्गतश्चोर्ध्वगतोऽधोगतो दीप एव च । जइ धूमंति चलंति य हसंति वा विविहरूवेहिं। कदाचिद्भवति प्रायो ज्ञेयो राजन् शुभोऽशुभः३-८-१८ लोयस्सदिति मारिं दुब्भिक्खं तहय रोय पीडं वा ४-७८ ये चारों पद्य क्रमशः १ दिव्येन्द्रसंपदा, २ आरण्या ग्राममायान्ति वनं गच्छंति नागराः । २ व्यंजन, ३ चिह्न और ४ दीप नामके चार उदति चाथ जल्पंति तदारण्याय कल्पते ॥१४-६॥ अलग अलग अध्यायोंके पद्य हैं । इनमें 'नृप' आरणयामिग पक्खी, गामे णयरम्म दीसदे जत्थ । और 'राजन् । शब्दोंद्वारा किसी राजाको होहदि णायरविणासो परचक्कादो न संदेहो ॥४-५६॥ सम्बोधन करके कथन किया गया है; परन्तु ___ इससे स्पष्ट मालूम होता है कि इन अध्यायों पहले यह बतलाया जा चुका है कि इस संपूर्ण का यह उत्पात विषयक कथन भी भिन्न भिन्न मिन्न ग्रंथमें कहीं भी किसी राजाका कोई प्रकरण या स्थानोंसे उठाकर रक्खा गया है और चूंकि इन प्रसंग नहीं है और न किसी राजाके प्रश्न पर इस दोनों अध्यायोंमें बहुतसा कथन एक दूसरेके ग्रंथकी रचना कीगई है, जिसको सम्बोधन करके विरुद्ध भी पाया जाता है, जिसका दिग्दर्शन ये सब वाक्य कहे जाते । इसलिए ये चारों पय अगले लेखमें कराया जायगा, इसलिए ये दोनों इस ग्रंथमें बिलकुल असम्बद्ध तथा अनमेल मालूम अध्याय किसी एक व्यक्तिके बनाये हुए भी नहीं हा होते हैं और साथ ही इस बातको सूचित करते ग्रंथकर्ताने उन्हें जहाँ तहाँसे उठाकर बिना हैं कि ग्रंथकर्ताने इन चारों पाहीको नहीं सोचे समझे यहाँ जोड़ दिया है। बल्कि संभवतः उक्त चारों अध्यायोंको किसी (८) यद्यपि इससे पहले लेखमें और इस ऐसे दूसरे ग्रंथ या ग्रंथोंसे उठाकर यहाँ रक्खा है लेखमें भी ऊपर, प्रसंगानुसार, असम्बद्ध कथ. जहाँ उक्त ग्रंथ या ग्रंथोंके कर्ताओंने उन्हें नोंका बहुत कुछ उल्लेख किया जा चुका है तो अपने अपने प्रकरणानुसार दिया होगा । मालूम भी यहाँ पर कुछ थोड़ेसे असम्बद्ध कथनोंको और होता है कि संहिताके कर्ताके ध्यानमें ही ये दिखलाया जाता है, जिससे पाठकों पर ग्रंथका बेढं- सम्बोधन पद नहीं आये । अथवा यों कहना गापन और भी अधिकताके साथ स्पष्ट हो जायः- चाहिए कि उसमें इनके सम्बंधविशेषको समझ(क) गणेशादिमुनीन् सर्वान् नमंति शिरसा सदा। नेकी योग्यता ही नहीं थी । इस लिए उसने निर्वाणक्षेत्रपूजादीन् भुंजतीन्द्राश्च भो नृप ॥३६-५१॥ उन्हें ज्योंका त्यों नकल कर दिया है। त्रसरेण्वादिकं चान्यत्तिलकालकसंभवं । इत्येवं व्यंजनानां च लक्षणं तत्त्वतो नृप ॥३८-१९॥ (ख ) इस ग्रंथके तीसरे खंडमें 'नवग्रहमनुष्येषु भवेचिहं छत्रतोरणचामरं । स्तुति ' नामका सबसे पहला अध्याय है । सिंहासनादिमत्स्यान्तं राज्यचिह्नं भवेनृप ॥ ३९-६ ॥ अन्तिमवक्तव्यमें भी इस अध्यायका नाम 'ग्रहस्तुति ' ही लिखा है; परन्तु इस सारे . १ संस्कृतछायाः-"देवा नृत्यंति यदि प्रस्वेद्यंति तथा च रुदन्ति ( वदन्ति )। यदि धूमंति चलंति च " अध्यायका पाठ कर जाने पर, जिसमें कुल १५ हसंति वा विविधरूपैः ॥ लोकस्य ददति मारी दुर्भिक्षं पद्य हैं, ग्रहोंकी स्तुतिका इसमें कहीं भी कुछ तथा रोगपीडां वा ॥७८ ॥ पता नहीं है। इसका पहला पद्य मंगलाचरण __२ संस्कृतछायाः और प्रतिज्ञाका है, जिसमें ग्रहशान्ति प्रवआरण्यकमृगपक्षी ग्रामे नगरे च दृश्यते यत्र । क्ष्यामि ' इस वाक्यके द्वारा ग्रहोंकी स्तुति नहीं भविष्यति नगरविनाशः परचक्रात् न संदेहः ॥५६॥ बल्कि शान्तिके कथनकी प्रतिज्ञा की गई है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522829
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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