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________________ ILIBHIBHIBIHABAROBAILER भद्रबाहु-संहिता। infinimimuTITHAIRATIme ५३७ दूसरे पद्यमें ग्रहों (खेचरों) को 'जैनेन्द्र' उसकी विपदायें नाश हो जाती हैं और उसे सुख बतलाया है और उनके पूजनकी प्रेरणा की है। मिलता है। इसके बाद एक पद्यमें ग्रहोंकी धूपके, इसके बाद चार पद्योंमें तीर्थकरों और ग्रहोंके दूसरेमें ग्रहोंकी समिधिके और तीसरेमें सप्त नामोंका मिश्रण है । ये चारों पद्य संस्कृत साहि- धान्योंके नाम दिये हैं और अन्तिम पद्यमें यह त्यकी दृष्टिसे बड़े ही विलक्षण मालूम होते हैं। बतलाया है कि कैसे यज्ञके समान कोई शत्रु इनसे किसी यथेष्ट आशयका निकालना बड़े नहीं है। अध्यायके इस संपूर्ण परिचयसे पाटक बुद्धिमानका काम है * । सातवें पद्यमें खेचरों भले प्रकार समझ सकते हैं कि इन सब कथसहित जिनेंद्रोंके पूजनकी प्रेरणा है । आठवें नोंका प्रकृत विषय ( ग्रहस्तुति ) से कहाँ तक पद्यमें ग्रहोंके नाम दिये हैं और उन्हें 'जिन' सम्बन्ध है और आपसमें भी ये सब कथन कितने भगवानकी पूजा करनेवाले बतलाया है । इसके एक दूसरेसे सम्बंधित और सुगठित मालूम होते बादके दो पद्योंमें लिखा है कि “ जो कोई हैं ! आश्चर्य है कि ऐसे असम्बद्ध कथनोंको भी जिनेंद्रके सन्मुख ग्रहोंको प्रसन्न करनेके लिए भद्रबाहु श्रुतकेवलीका वचन बतलाया जाता है । 'नमस्कारशत' को भक्तिपूर्वक १०५ बार जपता (ग ) तीसरे खंडों 'शास्ति' नामके पाँचवें है ( उससे क्या होता है? यह कुछ नहीं बत- अध्यायका प्रारंभ करतेहुए सबसे पहले निम्र लिलाया ) । पाँचवें श्रुतकेवली भद्रबाहुने यह सब खित श्लोक दिया है:कथन किया है । विद्यानुवादपूर्वकी ग्रहशांतिविधि की गई। ” यथाः ग्रहस्तुतिः प्रतिष्ठा च मूलमंत्रर्षिपुत्रिके। शास्तिचके क्रियादीपे फलशान्ती दशोत्तरे ॥१॥ जिनानामग्रतो योहि ग्रहाणां तुष्टिहेतवे । नमस्कारशतं भक्त्या जपेदष्टोत्तरं शतं ॥६॥ यह श्लोक वही है जो, उत्तर खंडके दस भद्रबाहुरुवाचेति पंचमः श्रुतकेवली । अध्यायोंकी सूची प्रगट करता हुआ, आन्तिम विद्यानुवादपूर्वस्य ग्रहशांतिविधिः कृतः ॥ १०॥ वक्तव्यमें नं० ५ पर पाया जाता है और जिस ११ वें पद्यमें यह बतलाया है कि जो कोई का पिछले लेखमें उल्लेख होचुका है। यहाँ पर नित्य प्रातःकाल उठकर विघ्नोंकी शांतिके लिए यह श्लोक बिलकुल असम्बद्ध मालूम होता है पढ़े (क्या पढ़े ! यह कुछ सूचित नहीं किया) और ग्रंथकर्ताकी उन्मत्तदशाको सूचित करता __ है। साथ ही इससे यह भी पाया जाता है कि * उक्त चारों पद्य इस प्रकार हैं, जिनका अर्थ 'अन्तिम वक्तव्य ' अन्तिमखंडके अन्तमें नहीं पाठकोंको किसी संस्कृत जाननेवालेसे मालूम करना बना बल्कि वह कुल या उसका कुछ भाग पहचाहिए:"पद्मप्रभस्य मार्तडश्चंद्रश्चंद्रप्रभस्य च। वासुपूज्यस्य लेसे गढ़ा जाचुका था । तबही उसके उक्त भपुत्रो बधेप्यष्टजिनेश्वराः ॥३॥ विमलानन्तधर्माणः वाक्यका यहाँ इतने पहलेसे अवतार होसका है। शांतिकुंथुर्नमिस्तथा । वर्धमानजिनेंद्रस्य पादपद्मे बुधं इस श्लोकके आगे प्राकृतके ११ पद्योंमें संस्कृतन्यसेत् ॥ ४॥ वृषभाजितसुपार्श्वश्वाभिनंदनशीतलौ । छायासहित इस अध्यायका जो कुछ वर्णन किया सुमतिः संभवः स्वामीश्रेयांसश्च वृहस्पतेः ॥५॥ सुविधेः । कथितः शुक्रः सुव्रतस्य शनैश्चरः । नेमिनाथो भवेद्राहो: है वह पहले पद्यको छोड़कर जिसमें मंगलाचरण केतुः श्रीमल्लिपार्श्वयोः ॥६॥" और प्रतिज्ञा है, किसी यक्षकी पूजासे उठाकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522829
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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