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________________ HARTIALAALHAR जैनहितेषी रक्खा गया है और उसकी 'जयमाल ' मालूम कुछ गद्य देकर 'इदं प्रायश्चित्तप्रकरणमार होता है।* ___ भ्यते ' इस वाक्यके बाद, ये तीन पद्य दिये हैं; (घ) तीसरे खंडके ९ वें अध्यायमें ग्रहचा- और इनके आगे बरतनोंकी शुद्धि आदिका रका वर्णन करते हुए 'शनैश्चरचार ' के सम्बंधमें कथन है:जो पद्य दिया है वह इस प्रकार है:-- यथाशुद्धि व्रत्तं धृत्वोपासकाचारसूचितम् । शनैश्चरं चारमिदं च भूमिपो यो वेत्ति विद्वानिभृतो भोगोपभोगनियमं दिग्देशनियतिं तथा ॥१॥ यथावत् । सपूजनीयो भुवि लब्धकीर्तिः सदा सहायेव हि अनर्थदंडविरतिं तथा नित्यं व्रतं कमात् । अहंदादीनमस्कृत्य चरणं गहमेधिनाम् ॥२॥ दिव्यचक्षुः ॥४३॥ कथितं मुनिनाथेन श्रुत्वा तच्छावयेदमून् । इस पद्यमें शनैश्चरचारका कुछ भी वर्णन न। पायाद्यतिकुलं नत्वा पुनर्दर्शनमस्त्विति ॥३॥ देकर सिर्फ उस विद्वान् राजाकी प्रशंसा की गई। जो शनैश्चरचारके 'इस कथन ' को जानता है। इन तीनों पद्योंका अध्यायके पहले पिछले परन्तु इससे यह मालूम न हुआ कि शनैश्चर- कथनसे प्रायः कुछ भी सम्बंध नहीं हैं। तीसरे चारका वह कथन कौनसा है जिसका यहाँ 'इदं' पद्यका उत्तरार्ध भी शेष पद्योंके साथ असंगत (इस ) शब्दसे ग्रहण किया गया है। क्योंकि जान पड़ता है । इसलिए ये पद्य यहाँपर असंबद्ध अध्याय भरमें इस पद्यसे पहले या पीछे इस मालूम होते हैं । इनमें लिखा है कि-' उपासविषयका कोई भी दूसरा पद्य नहीं है जिससे इस काचारमें कहे हुए भोगोपभोगपरिमाण व्रतको 'इदं । शब्दका सम्बंध हो सके। इसलिए यह दिग्विरति, देशविरति तथा अनर्थदंडविरति नामके पद्य यहाँपर बिलकुल असम्बद्ध और अनर्थक व्रतोंको और तैसे ही अन्य नित्यव्रतोंको क्रमशः मालूम होता है। ग्रंथकर्ताने इसे दूसरे खंडके यथाशक्ति धारण करके और अहंतादिकको'शनैश्चर-चार ' नामके १६ वें अध्यायसे उठा- नमस्कार करके मुनिनाथने गृहस्थोंके चारित्रका कर रक्खा है जहाँपर यह उक्त अध्यायके अन्तमें वर्णन किया है । उसको सुनकर उन्हें सुनावे, दर्ज है । इसी तरह पर ग्रहाचारसम्बन्धी अध्या- रक्षा करे, यतिकुलको नमस्कार करके फिरदर्शन योंके प्रायः अन्तिम पद्य हैं और वहींसे उठाकर होवे, इस प्रकार । ' इस कथनकी अन्य बातोंको यहाँ रक्खे गये हैं। नहीं मालूम ग्रंथकर्ताने ऐसा छोड़कर, मुनिनाथने उपासकाचारमें कहे हुए करके अपनी मूर्खता प्रगट करनेके सिवाय और श्रावकोंके व्रतोंको धारण किया, और वह भी कौनसा लाभ निकाला है। पूरा नहीं, यथाशक्ति ! तब कहीं गृहस्थोंके च(ङ) पहले खंडमें 'प्रायश्चित्त ' नामका स्त्रिका वर्णन किया, यह बात बहत खटकती है दसवाँ अध्याय है । इस अध्यायके शुरूमें, पहले और कुछ बनती हुई मालूम न होकर असमंजस * मंगलाचरणके बादका पद्य निम्न प्रकार है और र प्रतीत होती है। जैनसिद्धान्तकी दृष्टिसे मुनीभन्तमें 'घत्ता' के बाद 'मइ णिम्मल होउ...' ", स्वरोंको श्रावकोंके व्रतोंके धारण करनेकी कोई इत्यादि एक पद्य दिया है:-"चारणावास कैलास जरूरत नहीं है । वे अपने महाव्रतोंको पालन सैलासिओ, किंणरीवेणुवीणाझुणीतोसिओ। सामवण्णो करते हुए गृहस्थोंको उनके धर्मका सब कुछ सउण्णो पसण्णो मुहो, आइ देवाण देवाहि पम्मो उपदेश देसकते हैं । नहीं मालूम ग्रंथकर्ताने कहाँ मुहो ॥३॥" कहाँके पदोंको आपसमें जोड़कर यहाँपर यह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522829
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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