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भद्रबाहु-संहिता।
भद्रबाहु-संहिता। असमंजसता उत्पन्न की है। परन्तु इसे छोड़िए पर, अपने अन्तिम वक्तव्यमें, यह आज्ञा चढ़ा
और एक नया दृश्य देखिए । वह यह है कि, दी है कि, ' यह संहिता (भट्टारकी गद्दीपर बैठइस अध्यायमें अनेक स्थानोंपर कीडी, बीडा, नेवाले ) आचार्यके सिवाय और किसीको भी न ताम्बूल बीडा, खटीक, चमार, मोची, डोहर, दी जाय । मिथ्यादृष्टि और मूढात्माको देनेसे कोली कंटी. जिमन खाती सोनारा लोप हो जायगा । आगेके लोग पक्षपाती होंगे। छीपी, तेली, नाई, डोंव, वरुड और मनियार यह संहिता सम्यक्दृष्टि महासूरि (भट्टारक ) इत्यादि बहुतसे ऐसे शब्दोंका प्रयोग पाया जाता के ही योग्य है, दूसरेके योग्य नहीं है ।' यथाःहै जिनका हिन्दी आदि दूसरी भाषाओंके साथ संहितेयं तु कस्यापि न देया सूरिभिर्विना ॥ १५ ॥ सम्बंध है । संस्कृत ग्रंथमें संस्कृत वाक्योंके साथ मिथ्याविने च मूढाय दत्ता धर्मे विलुपति । इस प्रकारके शब्दोंका प्रयोग बहुत ही खटकता पक्षपातयुताश्चाग्रे भविष्यति जनाः खलु ॥ १६ ॥ है और इनकी वजहसे यह सारा. अध्याय बड़ा एषा महामंत्रयुता सुप्रभावा च संहिता । ही विलक्षण और बेढंगा मालूम होता है । नमू- सम्यग्दृशो महासूरेोग्येयं नापरस्य च ॥ १७ ॥ नेके तौरपर ऐसे कुछ वाक्य नीचे उद्धृत किये- पाठकगण ! देखा, कैसी विलक्षणआज्ञा है ! जाते हैं:
धर्मके लोप हो जानेका कैसा अद्भुत सिद्धान्त है ! १-" चाडालकलाकचमारमोचीडोहरयोगिकोलांक- कैसी अनोखी भविष्यवाणी की गई है ! और दीनां गृहे जिमन इतर समाचारं करोति तस्य प्राय- किस प्रकारसे ग्रंथकर्ताने अपने मिथ्यात्व, मढता श्चित्त...मोकलाभिषेकाः विंशति...बीडा १००।"
१. , और पक्षपात पर परदा डालनेके लिए दूसरोंको
. मिथ्यादृष्टि, मूढ और पक्षपाती ठहरायाहैं !! २-" अष्टादशप्रकारजातिमध्ये सालिमालीतलीत
साम्प्रदायिक मोह और बेशरमीकी भी हद हो वीसूत्रधार-खातीसोनार-ठठेराकुंभकारपरोथटछीपीनाई
गई !!! परन्तु कुछ भी हो, इस आज्ञाका इतना डोववुरुडगणीमनी-यारचित्रकार इत्यादयःप्रकारा एतेषां
परिणाम जरूर निकला है कि समाजमें इस संहिगृहे भुंक्ते समाचारं करोति तस्य प्रायश्चित्तं उपवासा
ताका अधिक प्रचार नहीं हो सका। और यह एकभक्तानि ३ .........ताम्बूल बीडा ४००।।
अच्छा ही हुआ । अब जो लोग इस संहिताका मालूम होता है कि ग्रंथकर्ताने यह सब कथन प्रचार करना चाहते हैं, समझना चाहिए कि, वे किसी ऐसे ही खिचड़ी ग्रंथसे उठाकर रक्खा है ग्रंथकर्ताके उक्त समस्त कूट, जाल और अयुक्ता
और उसे इसको शुद्ध संस्कृतका रूप देना नहीं चरणके पोषक तथा अनुमोदक ही नहीं बाल्क आया। इससे पाठक ग्रंथकर्ताकी संस्कृतसम्बंधिनी भद्रबाहुश्रुतकेवलीकी योग्यता और उनके पवित्र योग्यताका भी बहुत कुछ अनुभव कर सकते हैं। नामको बट्टा लगानेवाले हैं । अगले लेखमें, विरुद्ध इस तरह पर यह ग्रंथ इधर उधरके प्रकरणोंका कथनोंका उल्लेख करते हुए, यह भी दिखलाया एक बेढंगा संग्रह है। ग्रंथकर्ता यह सब संग्रह जायगा कि ग्रंथकर्ताने इस संहिताके द्वारा अपने कर तो गया, परन्तु मालूम होता है कि बादको किसी कुत्सित आशयको पूरा करनेके लिए किसी घटनासे उसे इस बातका भय ज़रूर लोगोंको मार्गभ्रष्ट (गुमराह ) और श्रद्धानभ्रष्ट हुआ है कि कहीं मेरी यह सब पोल सर्वसाधारण करनेका कैसा नीच प्रयत्न किया है। पर खुल न जाय। और इसलिए उसने इस ग्रंथ १५-११-१६ ।
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