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________________ ५९० CHOOLammmmmORILD जैनहितैषी धर्मोंके अनुयायीजनोंके विषयमें भी लगभग है वे भी एक पुत्रके उत्पन्न हो जानेपर एक दूस यही बात कही जा सकती है । अपने धर्मकी रेके गरजू या चाहक बन जाते हैं और इस तरह सत्यता दूसरोंसे मनवानेके लिए उन दूसरोंके वह पुत्र इन दो व्यक्तियोंको परस्पर जोड़नेवाला धर्मोंकी निन्दा करनेके प्रयत्न क्या संसारमें थोड़े सूत्र बन जाता है । इसी तरह हिन्दू-मुसलमाहुए हैं ?-इसका कारण यही है कि अपने धर्मका नोंके रितिरिवाज, वेषभूषा, धर्म आदि बातें अस्तित्व इसके बिना रह नहीं सकेगा, ऐसा इन भिन्न होने पर भी जबसे भारतमें ' भारतीय प्रत्येक धर्मके लोगोंका हृदय मानता है ( मुँह राष्ट्र की भावना मूर्तिमान होने लगी है तबसे नहीं; मुँह तो शान्तिकी, क्षमाकी दयाकी और मुसलमान भी हिन्दुओंके साथ प्रेमकी संकलसे नम्रताकी ही बातें किया करता है!)। इसी प्रकार बँधने लगे है-एक दूसरेसे गले मिलने लगे हैं जिस देवको शान्ति, क्षमा, दया आदि सात्विक और एक साथ एकप्राण होकर काम करने गुणोंका भण्डार माना जाता है उस देवकी लगे हैं । मुस्लीमलीगका कांग्रेसके साथ एक मत स्थापना जिन मूर्तियों में की जाती है उन मूर्ति हो जाना इस बातका प्रत्यक्ष प्रमाण है । इन योंके लिए भी क्या इस दुनियामें थोड़े लोग दो भिन्न प्रकृतियों को भी इतनी निकटवर्तिनी आपसमें लड़ते झगड़ते दिखलाई देते हैं ? कर देनेवाली, मित्र बना देनेवाली बात और अब कहिए महाशय, कहाँ तो भगवानको कोई नहीं, केवल ' भारतीय राष्ट्र' की भावनाक्षमासागर और क्षमाके उपदेष्टा मानना और हम दोनों एक माताके पुत्र हैं यह भावना-ही कहाँ उन भगवानके नामसे आपसमें लड़ना- है; केवल इसीने यह आश्चर्यजनक शक्ति झगड़ना-मुकद्दमेवाजी करना । बतलाइए तो उत्पन्न की है। सही कि ये दिगम्बर और श्वेताम्बरोंके बीचमें, परन्तु यह बात मेरी समझमें नहीं आती है सम्मेदशिखर आदि तीर्थस्थानोंसम्बन्धी, लाखों कि जब परस्पर अनबन रखनेवाले दम्पतीको रुपयोंका स्वाहा करनेवाले युद्ध, कैसे और क्यों प्रेमसूत्रसे जोड़ देनेवाले पुत्र और भिन्नप्रकृति होने लगे ? क्या धर्म अपनी रक्षाके लिए अपने हिन्दू-मुसलमानोंको मित्र.बनानेवाली ' भारतीभक्तोंकी इस प्रकारकी सहायताकी अपेक्षा यता' की भावना, इन दोनोंसे ही अधिक शक्तिरखता है ? क्या हमारी-आपकी सहायताके शाली एकताका तत्त्व हमारे समग्र जनसमाजमें बिना अपने पैरों आप खड़े होनेकी शक्ति हमारे मौजूद है, तब हमारे बीचमें इस एकता-इस प्रेमधर्ममें नहीं है ? क्या जब हम सब उसके इस मेल मिलाप के बदले पारस्परिक द्वेष और वैर लिए आपसमें कट मरेंगे और अपना बलिदान भाव कहाँसे आता है। सबके एक ही देव, सबकी कर डालेंगे तभी धर्म टिक सकेगा, और किसी एक ही कर्म फिलासफी, सबका एक ही स्याद्वाद. तरह नहीं ? सबकी एक ही दयामय नीति, सबका एक ही देश, ___ इम झगड़ोंको देखकर इच्छा होती है कि मैं सबकी एक ही भाषा, सबके एकहीसे रीतिरिवाज जैनसमाजकी धर्मविषयक व्याख्याओं, मानताओं और सबके एकही प्रकारके स्वार्थ-इस तरह प्राय और कार्योंकी जाँच करूँ और जाँचके अन्तमें सभी बातोंमें समानता होने पर भी हममें पारखूब हसू-और खूब रोऊँ । मैंने देखा है कि जिस स्परिक एकता नहीं है, इसका क्या कारण है ? पतिपत्नकि जोड़ेमें आपसमें अनबन रहती नहीं मैं आपसे और अन्य विद्वान् सज्जनोंसे पूछता हूँ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522829
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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