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________________ CIAL HAMARATHI जैनहितैषी 622 हैं और उनके दिल दिनपर दिन एक दूसरेसे हटते नेकी जरूरत नहीं कि उपहारका अन्य सदाकी / जाते हैं जिनके कि नोड़नेके लिए न जाने कितने अच्छा और शिक्षाप्रद होगा तथा कमसे कम बा समय और श्रमकी जरूरत होगी / और यह सब आने मूल्यका होगा। यह निश्चय नहीं है कि प होने पर भी कोटोंसे तो इस प्रकारकी आशा ही नहा कके तैयार होनेतक उपहार भी तैयार हो जायर की जा सकती कि दोनों पक्षोंको सन्तुष्ट करनेवाला न्याय कभी मिल जायगा / इसलिए मैं दोनों पक्षोंके याद तैयार हो सका, तो साथ ही गाना कर दि धर्मात्मा और धनी नेताओंसे एक बार फिर प्रार्थना जायगा, नहीं तो अकेला अंक वी. पी. करता हूँ कि आप लोग शिखरजी तथा अन्य भेजा जायगा / तीर्थोके झगड़ोंका फैसला या तो आपसमें ही कर लें वी.पी. इस वर्षके तमाम ग्राइ कि नाम वि या देशके अगुओंमेंसे एक दो सजनोंको चुनकर उनके द्वारा करानेकी तजवीज करें / दोनों पक्षोंके सधी जायगा, किसीकी आज्ञाकी राह न देखी जायगी। श्रावकों, धनियों और साधुओंको चाहिए कि वे मेरे महाशय आगामी वर्षमें ग्राहक न रहना चाहें ब इस शान्तिके आन्दोलनको नया बल प्रदान करें कृपाकरके इस अंकके पहुँचते ही हमें एक कार्ड और जब तक यह पूर्ण रीतिसे सफल न हो जाय, सूचना कर देनी चाहिए। तब तक चुप न बैठे। मुझे विश्वास है कि वे अपनी परोपकारिणी बुद्धि और शक्तिका इस कार्यमें अवश्य पिछले वर्ष जो एक और उपहार देनेकी सर उपयोग करेंगे। अन्तमें कुछ विचारणीय बातोंकी फिरसे दी गई थी वह अभीतक लिखा नहीं गया है। लेर याद दिलाकर मैं विश्राम लेता हूँ, महाशयको अभीतक अवकाश नहीं मिला है / य जिन्हें स्वराज्य जैसे महान राजकीय प्रयत्न करनेसे तैयार हो गया तो वह भी इस बा अधिकारोंके प्राप्त करनेकी इच्छा हो उन्हें उपहारके साथ भेज दिया जायगा। कमसे कम अपनी इतनी योग्यता और हमारे सिरपर कामोंका बोझा इतना अधिक है। पात्रता तो अवश्य दिखलाना चाहिए कि अपने घरू झगड़े बखेड़े आपसमें ही उसके मारे हम सदा ही दवे रहते हैं और बड़ी क नाईसे अवकाश निकाल पाते हैं। ऐसी दशामें ले तय कर लिये जायँ, दोकी लड़ाईमें सदा तीसरेका ही हितैषीका समय पर निकालना हमारे लिए एक तर भला होता है, असंभव है / अतएव जो महाशय हमारे इस दोष धर्मके लिए धर्मके नामसे कलह करना क्षमा कर सकते हों, हितैषी महीने, दो महीने, अ " तीन महीनेमें जब निकले तभी प्रसन्नतापूर्वक प अधर्म है और वह सर्वथा त्याज्य है। नेका धैर्य रख सकते हों, वे ही ग्राहक रहनेकी कृ निवेदक, वाडीलाल शाह / करें। हम केवल इस बातका बादा कर सकते है। 19 नये वर्षकी सूचना / वर्षभरमें जितने पृष्ठ निकलने चाहिए उससे दो च इस अंकके साथ हितैषीका 12 वाँ भाग समाप्त फार्म आधिक ही निकाल देंगे, कम नहीं, जसे इस व होता है / इसके बादका अंक तेरहवें भागका निकलेगा प्रतिज्ञासे 48 पृष्ठ अधिक निकाले गये हैं। समयप और वह ग्राहकोंकी सेवामें तीन रुपया एक आनेके निकालने की प्रतिज्ञा हमसे नहीं हो सकती। आशा / वी. पी. से पहुँचेगा / उपहारमें 'मणिभद्र / कि इस स्पष्टवक्तृत्वके लिए पाठक हमें क्षमा करेंगे / नामका एक सुन्दर उपन्यास दिया जायगा जो तैयार कराया जा रहा है / यह कह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522829
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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