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________________ ५५० । बम्बई नवजात ' हिन्दीगौरवग्रन्थमाला' के स्वामी भी जैनी हैं । झालरापाटनकी हिन्दी साहित्य समितिका जो ११-१२ हजार रुपयोंका स्थायी फण्ड है, वह केवल जैनों का दिया हुआ है । इसके द्वारा हिन्दी के उत्तमोत्तम ग्रन्थ लागत के मूल्य से बेचे जायँगे । इन्दौरकी मध्यभारत हिन्दी साहित्य समितिको भी जैनोंकी ओरसे कई हजार रुपयोंकी सहायता मिली है । खण्डवेकी हिन्दी ग्रन्थप्रसारक मंडली के संचालक बाबू माणिकचन्दजी वकील भी जैनी हैं । हमको आशा है कि भविष्य में हिन्दी साहित्यकी उन्नतिमें जैन समाजका और भी अधिक हाथ रहेगा। ८ जैनग्रन्थप्रकाशक संस्थायें । जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, जैनसाहित्य-प्रचा रक कार्यालय, और रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला, बम्बईकी ये तीन संस्थायें हिन्दीके जैनग्रन्थ प्रकाशित करनेवाली हैं । इनमेंसे से तीसरीके स्वामी श्वेताम्बर हैं, शेष दोके दिगम्बर । लाहौरके बाबू ज्ञानचन्द्रजीने हिन्दीके बहुत ग्रन्थ छपाये हैं, पर इस समय उनका काम बन्द है देवबन्दके बाबू सूरजभानजी वकीलने भी ग्रन्थ प्रकाशनका कार्य बन्द कर दिया है । कलकतेकी सनातन जैन ग्रन्थमाला अब हिन्दीके ग्रन्थ भी प्रकाशित करने लगी है | सूरत के दिगम्बरजैनकार्यालयसे, कोल्हापुर के जैनेन्द्रप्रेससे और बम्बई के जैनमित्र कार्यालय से भी अनेक ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं । इसके सिवाय और भी कई सज्जन थोड़े बहुत हिन्दी ग्रन्थ छपाया करते हैं । श्वेताम्बरसम्प्रदायकी ओरसे हिन्दी ग्रन्थप्रकाशक संस्थाओंके स्थापित होनेकी बहुत आवश्यकता है। । 1 ९ हिन्दीका इतिहास । जैन साहित्यका इतिहास बतलाने के हमें हिन्दी साहित्यका इतिहास देख जैनहितैषी - Jain Education International पहले जाना चाहिए । शिवसिंह सरोज के कर्त्ता और मिश्रबन्धुओंके विचारानुसार हिन्दीकी उत्पत्ति संवत् ७०० से मानी जाती है । सं० ७७० में किसी पुष्य नामक कविने भाषा के दोहोंमें एक अलंकारका ग्रन्थ लिखा था । सं० ८९० के लगभग किसी भाट कविने 'खुमान रासा' नामक भाषा ग्रन्थ लिखा । ये दोनों ही ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं । इनके बाद चन्द कविने वि०सं० १२२५ से १२४९ तक 'पृथ्वीराज रासा' बनाया। उसके बाद के जगनिक केदार और बारदर बेणा नामक कवि हुए, पर इनकी रचनाका पता नहीं । चन्दका बेटा जल्हण हुआ उसने पृथ्वीराज रासाका शेष भाग लिखा । उसके बाद ' कुमारपालचरित' नामका ग्रन्थ सं० १३०० के लगभग बना । कुमारपाल अणहिलवाड़ेके राजा थे । इनके बाद १३५४ में भूपतिने 'भागवत का दशम स्कन्ध' बनाया । १३५४ में नरपति नाल्हने 'वीसलदेवरासा, ' १३५५ नल्लुसिंहने 'विजयपालरासा, ' और १३५७ में शारंगधरने ' हम्मीर रासा' बनाया । १३८२ में अमीर खुसरोका देहान्त हुआ, जो उर्दू फारसी के सिवा हिम्दीके भी कवि थे । इनके बाद १४०७ से गोरखनाथका कविताकाल शुरू होता है । हमारी समझमें इस इतिहास में बहुतसी बातें असल में सबसे पहला ग्रन्थ ' पृथ्वीराज रासो ' विना किसी प्रमाणके, भ्रमवश लिखी गई हैं। 1 गिना जाना चाहिए । इसके पहले के ग्रन्थ केवल अनुमानसे या भ्रमसे समझ लिये गये हैं कि हिन्दी के हैं । पर वास्तवमें यदि वे होंगे तो प्राकृत या अपभ्रंश भाषाके होंगे । आज कल जिस प्रकार भाषा कहने से हिन्दीका बोध होता है उसी प्रकार एक समय ' भाषा' कहने से 'प्राकृत' का भी बोध होता था । पुष्य कविका 'दोहाबद्ध अलंकार' और 'खुमानरासा ' ये दोनों ही ग्रन्थ प्राकृत के होने चाहिए । चन्दके बादका 'कुमारपालचरित' For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522829
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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