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________________ ImmmmIMAMMP सभापतिका व्याख्यान । ५७१ एक विचार-शील लेखकने उचित कहा है कि समान वृणित कार्योंके साथ हो सकता है ? उनका " यदि ईसाई धर्म पूर्ण नैतिक शुद्धताका मत है. जीवन धार्मिक था, तथा शिक्षा व धर्मप्रचार उनके तो फिर इसका क्या कारण है कि उसका अधि. कार्यक्षेत्र थे । ऐसे व्यक्तिको केवल संदेहके कारण कता तथा गुरुताके साथ इस प्रकार मिथ्या अर्थ विना जाँच किये दंड देना सर्वथा अनुचित है। समझा गया है कि उसके अनुयायियोंमें उसके लिए अनुमान ढाई तीन वर्षसे वे कारावासका दण्ड भोग जो उत्साह है उसीने उन नैतिक सिद्धान्तोंका रहे हैं । इस प्रकारका जो वर्ताव उनके साथमें जिनका वह उपदेश करता है. नाश किया है । किया गया है उसके प्रति जैन कौममें भारी क्रोध इतिहासके पढ़ते समय धार्मिक हठ तथा जुल्मका तथा तिरस्कारका भाव पैदा हो गया है और यह भाव जिसका आधार प्रायः शुद्धांतःकरणसे ईश्वरीय स्वाभाविक ही है। प्रिय प्रतिनिधिगण, इसमें कोई आज्ञा बताया जाता है उसे देख प्रायः उलझनमें आश्चर्य नहीं कि अर्जुनलालजीके तथा उनकी पड़ना पड़ता है ।” अतएव महाशयगण, हमारे निरपराध स्त्री तथा पुत्रके दुःखको देख हमको धर्मके ऊपर जो आक्षेप किये जाते हैं वे प्रायः हार्दिक दुःख हो । माना कि प्रत्येक महापुरुषको मिथ्या हैं, और हमें उनके प्रति आधिक ध्यान दुःख भोगना पड़ता है, और दुःख सहना ही देनेकी आवश्यकता नहीं । याद अब भी हमारे महापुरुषका लक्षण है; माना कि सार्वजनिक जीवनके धर्मकी पच्चीस सौ वर्ष पहलेकी विद्यमानता स्वीकृत माने ही स्वार्थत्यागके हैं, अतएव हमको अधिक नहीं की जाती तो न सही । प्राचीन होनेसे ही कोई उदासीन न होना चाहिए; माना कि सेठीजी अपने धर्म श्रेष्ठ नहीं होजाता । स्वामी रामतीर्थने उचित दुःखको सहर्ष सहन कर रहे होंगे; तो भी मैं पूछता कहा है कि, "किसी धर्मको प्राचीन होनेहीके हूं कि क्या इसलिए उनके दुखको दूर करानेका कारण ग्रहण मत करो। प्राचीनता उसकी सत्य. हमारा जो कर्तव्य है उसका हमें पालन न करना ताको कोई प्रमाण नहीं । कभी कभी पुरानेसे पुराने चाहिए ? आप मुझे क्षमा कीजिए-कर्तव्यके मकान भी गिराने पड़ते हैं तथा पुराने कपड़े बद- अनुरोधसे मुझे कहना पड़ता है कि सेठीजीकी लने ही चाहिए । नयेसे नया परिवर्तन भी यदि आपत्तिका मुझे इतना खेद नहीं है जितना इस वह बुद्धिकी परीक्षामें सफल हो सकता है तो वह बातका है कि जैनजातिने, जिसकी सेवाके लिए उतना ही अच्छा है जितना कि चमकते हुए ओससे उन्होंने अपना जीवन अर्पण किया था, उनके सुशोभित गुलाबका फूल," अतएव, महाशयो, दुःखको दूर करनेके लिए उचित प्रयल न हमें इस प्रकारके आक्षेपोंकी ओर अधिक ध्यान किया। मेरे कहनेका अर्थ, महाशयो, आप यह न देकर हमें अपनी शक्तिको अपनी कौमके न समझें कि जैन कौमने कुछ न किया । उद्योग उत्थान तथा अपने धर्मके प्रचार की ओर लगाना तो अवश्य किया, परन्तु वह उद्योग व्यवस्थित चाहिए । + + महाशयो, जयपूर निवासी (organised ) न होनेके कारण तथा जातिके पंडित अर्जुनलालजी सेठीने हमारी जातिकी सेवाके अधिकांश नेताओंके उसमें उचित भाग न लेनेके लिए अपना जीवन तक अर्पण कर दिया था, कारण सफल न हुआ । मुझे यह जानकर बहुत और उन्होंने कौमकी जो सेवा की है वह सब दुःख हुआ कि एक दिगंबर सामायिक पत्रके पर प्रकट है । उसको जानते हुए कौन कह सकेगा सेठी के विचारोंके प्रति विना अवसरके लेखले कि उनका संबन्ध चोरी, लूट तथा खून खराबीके दिगंबर समाजका भाव उनके बहुत कुछ विपरीत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522829
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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