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है कि, 'यह कोई आश्वर्यकी बात नहीं कि मुस - लमानों के जुल्मसे जैनियों के मंदिर बच गये, परन्तु आश्चर्य तो इस बात का है कि जिस तूफानने बौद्धधर्मको भारतवर्षसे एकदम बाहर कर दिया उस तूफानसे जैनधर्म नष्ट होने से कैसे बच गया ।' महाशयो, यह हमारे धर्मकी दृढ़ताका प्रमाण तथा परिणाम है । जैनधर्म ईश्वरप्रणीत होनेका दावा नहीं करता, न वह आज्ञा-प्रधान धर्म है; वह बुद्धिकी प्रधानता स्वीकार करता है तथा उसके सिद्धान्तों की सत्यता ही उसके दावेका आधार है जैनधर्महीने पहले पहल संसारको समस्त जीवोंके प्रति दया करने तथा विश्वबंधुत्व व सार्वभौमप्रेमका उपदेश किया था । एक प्रसिद्ध अँगरेज़का + कथन है कि विश्व दया ( Universal Hu - manity )का विचार अर्वाचीन है, परन्तु वास्तव में इस धर्मका उपदेश जैनधर्मने सदियों पहले किया था । हमारे आचार्योंने उपदेश किया है कि :-- एक्कु करे मण विष्णु करि, मां करि वणविसे । इक्कई देवई जि वसई, 8 तिहु हु असेसु ॥ महाशयगण, प्रसिद्ध लेखक लेकीका कथन है कि प्लूटार्कहीने पहले पहल पशुओं के प्रति दया करनेका उपदेश–पाइथेगोरसके पुनर्जन्म के सिद्धांतके आधार पर नहीं, किन्तु विश्व-बन्धुत्व के विस्तृत आधारपर -- किया था; परन्तु लेकीको यह विदित नहीं कि हमारे तीर्थकरोंने प्लूटार्कसे सदियों पहले यही उपदेश मनुष्यजातिको दिया था। जैनधर्मका उद्देश ही समस्त जीवोंकी मुक्ति कराने का है। परन्तु, महाशयो, इतना होते हुए भी कुछ लोगोंका कथन है कि, “ जैनधर्म अहिंसा तत्त्वकी एक हा स्यरूप अतिशयोक्तिका उपदेशक है । "* कुछ
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8 परमात्मप्रकाश, गाथा २३४. * Mrs. Sinclair Stevenson.
जैनहितैषी -
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लोग हमें इस बातका दोष देते हैं कि हमने हिंसा परमो धर्मः " के तत्त्वका दुरुपयोग करके उसकी अति कर डाली है जिसका यह परिणाम है कि हम विषयोन्मत्त ( Monomaniacs ) तथा डरपोक हो गये हैं, व दांभिकता (hypocrisy ) अर्थात् म, अपौरुषता व निर्दयताका जीवन व्यतीत करते हैं । " कुछ लोग कहते हैं कि महावीर स्वामीके जीवनकी घटनायें हमने बुद्धके चरिचुरा ली हैं । इतना ही नहीं बरन् हमही में कुछ लोग ऐसे विद्यमान हैं जो कहते हैं कि जैन - धर्मका ध्येय भौतिक उन्नतिका बाधक है तथा जैनधर्म ही भारतकी वर्तमान अधोगतिका कारण है
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। महाशयो, मेरे पास समय नहीं है कि इस अवसर पर मैं इन सब आक्षेपोंका उत्तर दूं । मैं केवल इतना ही कहूंगा कि वे जैनधर्मके संबंध में ज्ञान रखते हैं जितना कि मेंडक कुएके बाहर की दुनियांका रखता है, अन्यथा ऐसे विचार कदापि प्रकट नहीं करते। जिस लेखिकाका यह कथन है कि जैनधर्मका हृदय शून्य है तथा जिसे वह ईसाई धर्म के रक्त से भरके उसमें जीवन लानेकी सम्मति देती है उससे मैं यही कहूंगा कि जिसे वह जैनधर्मका हृदय समझती है वह जैनधर्मका हृदय नहीं, किन्तु उसका मृतप्राय शरीर है । जैनधर्मका हृदय उसकी 'वर्तमान स्थिति तथा वर्तमान व्यवहारों में नहीं है किन्तु वह उसकी ऊँची फिलासफी तथा नीतिमें विद्यमान है । स्वर्गवासी गांधीने ठीक कहा है कि, “ The abuses existing in our society are not from our religion but in spite of our religion,"अर्थात् जैन जातिमें जो वर्तमान कालमें बुराइयां देखने में आती हैं उनका कारण जैनधर्म नहीं है, परन्तु वे जैनधर्म के विपरीत हैं । ईसाई धर्म के लिए वर्तमान युद्धकी ओर तथा उसके नित्य - नरकके सिद्धांत की ओर संकेत कर देना पर्याप्त होगा ।
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