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________________ AE ARDPSNAHATEa AME IPATRANEPA HIEVA १ सभापतिका व्याख्यान । [ लखनऊमें गत २७ दिसम्बरको भारत-जैन-महामण्डलके सभापति श्रीयुत बाबू माणिक्यचन्द्र जैन बी. ए. एल एल. बी. वकील, खण्डवाका जो महत्त्वपूर्ण व्याख्यान हुआ उसका सार भाग । अवश्य पठनीय ।। प्रिय प्रतिनिधिगण महिलाओ तथा महाशयो, हासिक प्राचीनता ही नहीं वरन् उसके सिद्धान्तोंकी आपने मुझे इस बड़ीभारी कान्फरन्सका-ऐसी सत्यता संसारके विचारवान् पुरुष स्वीकृत करते जा कान्फरन्सका-जो किसी जाति अथवा संप्रदायविशे- रहे हैं । जैनधर्मके लिए यह गौरवकी बात है कि षकी न होते हुए एक उस समग्र कौमकी कान्फरंस यह एक ऐसा धर्म है कि जिसके सिद्धांत विज्ञानकी है, जो कौम संसारके इतिहासमें एक विशाल तथा नईसे नई शोधोंसे मिलते जुलते हैं । वनस्पतियों में प्रशस्त भाग लेनेवाले धर्मकी तथा जो मनुष्यजा- मनोवृत्तियां, चेतना तथा भावोंका होना जो आज तिको भविष्यमें सदा सुखका देनेवाला रहेगा ऐसे. अ , अध्यापक बोस सिद्ध कर रहे हैं उसकी शोध हमारे आचार्योंने सदियों पहले कर ली थी, जब धर्मकी-धारण करनेवाली है, ऐसी संपूर्ण कामका अर्वाचीन विज्ञानका जन्म भी नहीं हुआ था। यह इस कान्फरन्सका सभापति चुनकर आपने मुझको उचित कहा गया है कि जैनधर्म ही एक ऐसा धर्म बड़ा सम्मान प्रदान किया है, इसके लिए मैं आपको है जिसमें व्यावहारिक नीतिका दार्शनिक वितर्कोंके अंतःकरणसे धन्यवाद देता हूं। साथ गूढ़ सम्बन्ध किया गया है। अर्थात् जिसमें ___ ++प्रिय प्रतिनिधिगण, संसारके धार्मिक इतिहा- ज्ञान और चारित्रका ऐक्य किया गया है ।* समें हमारे धर्महीने नहीं, हमारी कौमने भी जातियोंके स्टोइजिजम ( Stoicism )के विषयमें कहा जाता इतिहासमें बहुत बड़ा भाग लिया है । इतिहास हमारे है कि उसकी श्रेष्ठता उसके चारित्रके नियमोंमें नहीं पूर्व. गौरवकी साक्षी दे रहा है । प्राचीनकालमें हमारी परन्तु विकारोंको दमन करनेके उसके सिद्धांतमें कौममें बडे बडे नृपति, मंत्री तथा सेनापति,विशाल विद्यमान थी, किन्तु जैनधर्मके विषयमें हम कह संपत्ति के स्वामी, बड़े बड़े कवि, लेखक तथा धुरं- सकते हैं कि उसकी श्रेष्ठता दोनोंमें विद्यमान है। घर विद्वान् होगये हैं, जिन्होंने संसारभरमें जैनधर्म इसीलिए तो देखने में आता है कि चारित्रमें जैनी अन्य धर्मों की धारक कौमोंसे प्रायः श्रेष्ठ होते हैं। तथा जनजातिके महत्त्वको स्थापित किया था। जैनधर्मके लिए यह गौरवकी बात है कि यद्यपि हमको पश्चिमके विद्वानोंका कृतज्ञ होना चाहिए कि और धर्मों के समान उसके अनुयायियों को भी जुल्म जिनके निःस्वार्थ उद्योगसे हमारा प्राचीन गौरव सिद्ध सहन करना पड़ा है, परन्तु और धर्मोंके समान होता जाता है। कुछ समय पहले यह माना जाता उसके अनुयायियोंने बदला लेनेकी इच्छासे किसी था कि जैनधर्म बौद्धधर्मकी एक शाखा है तथा अन्य धर्मकी धारक कौमके साथ जुल्म नहीं किया। ईसाके बाद अनुमान छठवीं सदीमें इसकी उत्पत्ति यह उसके ऊँचे सिद्धान्तोंका परिणाम है और हुई है, किन्तु जैकोबी तथा बूलरके समान पुरा- इसका उसे उचित गर्व है । एक लेखककाई कथन तत्त्वके पाश्चात्य शोधकोंके परिश्रमसे यह मत * Mrs. Sinclair Stevenson. असत्य सिद्ध हो गया है। जैनधर्मकी केवल ऐति- $ Mr. Bernard Bosanquet. ७-८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522829
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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