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________________ ५६८ छपाई है, उसमें आपके बनाये हुए छह पद संग्रहीत हैं । जान पड़ता है, ये उसी 'गीतपरमाथीं' के गीत या पद होंगे। इनमें भी परमार्थ तत्त्वका कथन है । एक गीतका पहला पद सुनिए: - चेतन, अचरज भारी, यह मेरे जिय आवै । अमृतवचन हितकारी, सदगुरु तुमाह पढ़ावै ॥ सदगुरु तुमहिं पढ़ावै चित है, अरु तुमहू हौ ज्ञानी । तब तुमहिन क्योहू आवै, चेतनतत्व कहानी ॥ विषयनिकी चतुराई कहिए, को सरि करे तुम्हारी । विन गुरु फुरत कुविद्या कैसे, चेतन अचरज भारी ॥ जैनहितैषी - आपका एक छोटासा काव्य ' मंगलगीत - प्रबन्ध' जैनसमाज में बहुत ही प्रचलित है । ' पंचमंगल' के नामसे यह पाँच छह बार छप चुका है। इसमें तीर्थंकर भगवान के जन्म, ज्ञान, निर्वाण आदिके समय जो उत्सवादि होते हैं उनका साम्प्रदायिक मानताओं के अनुसार वर्णन है | रचना साधारण है । < 6 ६ रायमल्ल | ये भट्टारक अनन्तकीर्तिके शिष्य थे। इनका बनाया हुआ एक 'हनुमच्चरित्र नामका पयग्रन्थ है । यह विक्रम संवत् १६१६ में बनाया गया है । यह ग्रन्थ हमें मिल नहीं सका, इस लिए इसकी रचना किस दर्जे की है, यह हम नहीं कह सकते । हमारे एक मित्रने इसकी कविताको साधारण बतलाया है । कविवर बनारसीदासजी ने जिन रायमल्लजीका उल्लेख किया है, मालूम नहीं वे ये ही थे अथवा इनसे भिन्न । बनारसीदासजी ने लिखा है कि पाण्डे " रायमल्लजी समयसार नाटक के मर्मज्ञ थे, उन्होंने समयसारकी बालावबोधिनी भाषा टीका बनाई जिसके कारण समयसारका बोध घर घर फैल गया।" यह Jain Education International बालावबोध टीका अभी तक उपलब्ध नहीं हुई है। मालूम होता है यह बनारसीदासजी के बहुत पहले बन चुकी थी । उनके समय इसका खासा प्रचार था । अवश्य ही यह पंद्रहवीं शताब्दीकी रचना होगी और भाषा की दृष्टिसे एक महत्त्वक वस्तु होगी । एक और रायमल्ल ब्रह्मचारी हुए हैं जिन्होंने संवत् १६६७ में ' भक्तामरकथा ' नामका संस्कृत ग्रन्थ बनाया है । ये सकलचन्द्र भट्टारकके शिष्य थे और हूमड़जाति के थे । मालूम होता है भविष्यदत्तचरित्र ( छन्दोबद्ध ) और सीता चरित्र ( छन्दोबद्ध ) नामक ग्रन्थ भी इन्हीं बनाये हुए हैं। इनमें से पहला ग्रन्थ सं० १६६३ में बना है, ऐसा ज्ञानचन्दजीकी सूची - से मालूम होता है । ७ कुँवरपाल | ये बनारसीदासजी के एक मित्र थे । युक्तिप्रबोधमें लिखा है कि बनारसीदासजी अपनी सैलीका उत्तराधिकारत्व इन्हींको सोंप गये थे । प्रवचनसारकी टीकामें पाँड़े हेमराजजीने इनको अच्छा ज्ञाता बतलाया है । ये कवि भी अच्छे जान पड़ते हैं। इनका कोई स्वतंत्र ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है; परन्तु बनारसीदासकृत सूक्तमुक्तावीमें इनके बनाये हुए कुछ पद्य मिलते हैं ! लोभकी निन्दाका एक उदाहरण: परम धरम वन द है, दुरित अंबर गति धारहि । कुयश धूम उदगरै, भूरि भय भस्म विधारहि ॥ दुख फुलिंग फुंकरै, तरल तृष्णा कल काढ़हि ॥ धन ईंधन आगम सँजोग दिन दिन अति बाढ़ हि ॥ लहलहै लोभ-पावक प्रबल, पवन मोह उद्धत है ॥ दज्झहि उदारता आदि बहु, गुण पतंग 'कँवरा' कहै ॥ ५९ ॥ For Personal & Private Use Only ( अपूर्ण । ) www.jainelibrary.org
SR No.522829
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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