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________________ CHHAMAALAMMADIO180mm विविध प्रसङ्ग। उपाय बतलाना चाहिए जिससे जैनसमाज चिर- १० बम्बईका दीक्षामहोत्सव । जीवी बना रहे-सौ सवासौ वर्षे में ही उसका कहा जाता है कि स्थानकवासी सम्प्रदायके निर्वाण न हो जाय । क्या जैनेतरोंकी लड़कि- स्थापकोंने यह देखकर मूर्तिपूजाका निषेध योंसे विवाह सम्बन्ध करनेकी और इस तरह किया था कि मूर्तिपूजा और मन्दिरप्रतिष्ठाओंमें स्त्रियोंकी कमी पूरी कर लेनेकी समाज आज्ञा जैनसमाजकी सीमासे अधिक शक्तियोंका खर्च दे सकता है ? होता है, इनसे आपसी क्लेश और लड़ाई झगड़े भी बहुत होते हैं, और इन गौणकार्योंकी ९ पं० लक्ष्मीचन्द्रजीकी उपाधियाँ। . । ओटमें जैनधर्मके मुख्य कार्य छुप जाते हैं। सुप्रसिद्ध जैन व्याख्याता पं० लक्ष्मीचन्द्रजीको उन्होंने यह विरोध इतने जोरके साथ किया 'दिगम्बरजैनमन्दिर, कूचा सेठ देहलीकी कि उनका एक जुदा ही सम्प्रदाय बन गया जो ओरसे गत आसोज वदी १५ की रातको एक मूर्तिपूजाको सर्वथा अनावश्यक समझता है। अभिनन्दनपत्र दिया गया था । इस अभिनन्दन यदि इस सम्प्रदायके स्थापकोंने इसी अभिप्रायसे पत्रमें उक्त मंदिरने अथवा मन्दिरके जैन भाइ- मूर्तिपूजाका निषेध किया था तो कहना होगा योंने पण्डितजीको सिद्धान्तरत्नभूषण, व्याख्यान कि उनका मतलब सिद्ध नहीं हुआ। यह संभव वाचस्पति, सुभाषितसुधासिंधु, ज्ञानसागर, कारु- है कि शुरू शुरूमें इससे कुछ लाभ हुआ हो, पर ण्यरत्नाकर, व्याख्यानकेसरी, और मिथ्यात्वति- इस समय तो स्थानकवासी भाइयोंने उस अभिमिरमार्तण्ड, इन सात उपाधियोंसे सत्कृत किया प्रायको भुला दिया जान पड़ता है । जिस तरह है और फुटनोटमें प्रकट किया है कि ये उपा- मूर्तिपूजक भाई अपनी शक्तियोंको मूर्तिपूजाके धियाँ पण्डितजीको बुन्देलखण्ड (?), कोटा, रथप्रतिष्ठादि कार्यों में लगाते हैं उसी तरह स्थानकलकत्ता, चांदखेड़ी, मन्दसौर, रतलाम, और कवासी भाई साधुपूजामें लगाने लगे हैं । अन्तर देहली इत्यादि नगरोंसे मिली हैं। अवश्य ही यह केवल इतना ही है कि वे मूर्तिपूजक हैं तो ये फुटनोट पण्डितजीकी डायरीपरसे या उनकी मनुष्यपूजक बन गये हैं। अभी बम्बईमें जो स्मृतिसूचनासे लिखा गया होगा । हमारी सम- स्थानकवासी सम्प्रदायकी ओरसे दीक्षा महोझमें उपाधियोंकी संख्या बहुत कम है । पण्डित- त्सव हुआ था और जिसमें एक श्रावकको दीक्षा जीको और उनके भक्तोंको कोशिश करनी देकर साधु बनानेकी खुशीमें लगभग २० चाहिए जिससे ये कमसे कम एक सौ तो हो हजार रुपयोंका पानी बना दिया गया है, हमारे जायँ और कलिकाल केवली, सिद्धांतसर्वज्ञ, तर्क- इस कथनकी पुष्टि के लिए यथेष्ट है । कई दिनोंतीर्थंकर, चातुर्य चक्रवर्ती आदि सुन्दर सुन्दर तक बम्बईकी सड़कोंपर जुलूसोंकी वह धूम रही पदवियाँ तो व्यर्थ न पड़ी रहें । भारतकी राज- कि सारा शहर जैनधर्मकी प्रभावनासे चकधानी देहलीके धर्मात्माओंको तो इस विषयमें चौंधा गया ! यदि यह महोत्सव किसी महाखास तौरसे प्रयत्न करना चाहिए । उनकी पुरुषकी- जैनधर्मके वास्तविक उद्धारककीशोभा इसी में है! भक्तिसे प्रेरित होकर किया गया होता, तो भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522829
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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