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________________ विधवा-विवाह विचार | । वृत्तियोंको जगानेवाले वस्त्र आभूषण विलास - विभ्रमादि व्यवहार त्याग न किये जायँगे, तो चिरवैधव्य पालन नहीं हो सकेगा । इसी लिए विधवाओंके हेतु ब्रह्मचर्यकी व्यवस्था की गई है ब्रह्मचर्य का पालन करने में यह ठीक है कि थोडेसे इन्द्रियतृप्तिकारक आहारविहारादि दैहिक सुखभोगोंका त्याग करना पड़ता है; परन्तु इसके बदले नीरोग, सुस्थ, सबल शरीर और तज्जनित मानसिक स्फूर्ति और सहिष्णुता, और इनके फलस्वरूप विशुद्ध स्थायी सुखकी प्राप्ति होती है | इसलिए ब्रह्मचर्य ऊपरसे कठोर जान पड़ नेपर भी सच्चे स्थायी सुखका आकर है । जो अदूरदर्शी हैं, अज्ञानी हैं वे ब्रह्मचर्यकी निन्दा करते हैं । इस अदूरदर्शिता और अज्ञानताके कारण ही भारत व्यवस्थापक सभाके एक सभ्यने विधवाविवाह के कानून बननेके समय हिन्दू विधवा के ब्रह्मचर्यको भयावह बतलाया था | पाठक इसे कोई काल्पनिक चित्र नहीं समझें । इस शान्तिमय ज्योतिर्मय पवित्र चित्रने इस समय भी भारत के अनेक गृहों में उजेला कर रक्खा है । हमारी अयोग्य लेखनी उसका प्रकृत सौन्दर्य अंकित करनेमें असमर्थ है ! अव जिस प्रथाका फल विधवाओंके लिए और उनके परिवार के लिए, परिणाममें इतना शुभकर है उस की ऊपरी कठोरता देखकर उसे निर्दय कहना कदापि उचित नहीं है । चिरवैधव्य प्रथा विरुद्ध तीसरी बात यह कही जाती है कि इस प्रथा से गुप्त व्यभिचार, भ्रूणहत्या आदि अनेक कुफल फलते हैं; परन्तु यह अवश्य मानना होगा कि उनकी संख्या बहुत थोड़ी होती है । अतः कहीं कहीं ऐसा हो जाता है, केवल इसीसे यह प्रथा निन्दनीय नहीं होसकती । विधवाओं में ही क्यों सधवाओं में भी क्या व्यभिचार नहीं होता है ? परन्तु अब इस विषय में अधिक कहने की कोई जरूरत नहीं है । क्योंकि विधवाका विवाह अब कानूनसे जायज ठहर गया है, इस लिए जो चिरवैधव्य पालन में असमर्थ हैं वे इच्छा होते ही विवाह कर सकती हैं । उनके लिए इस प्रथाके परिवर्तन करने की तो कोई अवश्यकता नहीं दीखती । चिरवैधव्यव्रतसम्बन्धी एक कठिनाई और है | विधवा कन्या या पुत्रवधूको ब्रह्मचर्य पालन करानके लिए उसके माता-पिता या सास ससुर को भी आहार-व्यवहारमें उसीके समान ब्रह्मचर्य पालन करना पड़ता है । उनके लिए यद्यपि यह असुखकर है, तो भी परिणाममें शुभकर है और इसे हम उस कन्या या पुत्रवधूके चिरवैधव्यपालनजनित पुण्यका फल कह सकते हैं । ब्रह्मचर्य पालनमें दीक्षित होकर विधवायें अपने सुस्थ सबल शरीरसे अनेक सत्कर्म कर सकती हैंजसे, परिजनोंकी शुश्रूषा, परिवारके बालबच्चों का लालनपालन और रोगियोंकी सेवा, धर्मचर्चा, स्वयं शिक्षा प्राप्त करना और परिवारकी स्त्रियों को शिक्षा देना, इत्यादि । इस तरहसे तवि . किन्तु दुःखमिश्रित ऐहिक सुखमें न सही, पर प्रशान्त निर्मल आध्यात्मिक सुखमें विधवाओंका चिरवैधव्य प्रथा विरुद्ध चौथी और सबसे पिछली बात यह कही जाती है कि यह प्रथा जबतक प्रचलित रहेगी, तबतक विधवायें इच्छानुसार विवाह करनेका और उनके मातापिता इच्छानुसार उनको ब्याह देनेका साहस नहीं कर सकेंगे । कारण, प्रचलित प्रथा के विरुद्ध काम करने के लिए सभी संकोच करते हैं और ऐसा काम जनसाधारणकी दृष्टिमें अतिशय निन्दित और तिरस्कृत समझा जाता है । अतएव समाजसुधारकोंका यह कर्तव्य होना चाहिए इस विषयमें आन्दोलन करें जिससे कि लोगों के परोपकार में लगा हुआ जीवन कट जाता है । विचार बदल जायँ और यह प्रथा उठ जाय । Jain Education International ६०७ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522829
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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