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________________ ६०८ जैनहितैषी - जान पड़ता है इसी लिए, विधवाविवाह कानूनसे जायज हो गया है तो भी, और इसे रोकनेका किसी को कोई अधिकार नहीं है तो भी, विधवाविवाहके पक्षपाती चिरवैधव्य प्रथाको उठाके अर्थ इतने यत्नशील हो रहे हैं । यद्यपि वे अथवा उनमें से बहुत से लोग यह स्वीकार करते हैं कि अपनी इच्छासे प्रेरित होकर चिरवैधव्य पालन उच्चादर्श है, तथापि वे चाहते हैं कि यह उच्चादर्शपालन, प्रथा न होकर प्रथाके व्यतिक्रम स्वरूपमें या अपवाद रूपमें रहे और विधवाविवाह ही प्रचलित प्रथा बन जाय । परन्तु यह बात हमारी समझमें नहीं आती कि जब इच्छा होते ही विधवाओंका विवाह बेरोकटोक हो सकता है, तब वे जिसे उच्च/दर्शानुयायी प्रथा मानते हैं उसे उठा देकर विधवाविवाहकी प्रथा क्यों प्रचलित करना चाहते हैं। यह कैसी विचित्र बात है कि इधर तो वे चिरकौमार व्रतकी प्रशंसा करते हैं और उधर चिरैवैधव्य प्रथाको उठा देनेके लिए कटिबद्ध हो रहे हैं । यदि यह प्रथा विषय में बाधक होती कि कोई विधवा प्रयोजन होने पर या इच्छा होनेपर भी विवाह नहीं कर सकती, तो इसे उठा देने की चेष्टा करना ठीक भी होता । पर इस समय समाजबन्धन इतने शिथिल हैं और समाजकी शक्ति इतनी थोड़ी है कि समाजकी कोई भी प्रथा किसीकी भी इच्छाको रोक नहीं सकती । तब यह अवश्य स्वीकार करना होगा कि यद्यपि उक्त प्रथा विधवाकी विवाहेच्छा होनेपर उसमें बाधा नहीं डाल सकती है, किन्तु उस इच्छाकी उत्पत्तिको अवश्य रोकती है और यही कारण है जो आज विधवाविवाहके कानूनको बने हुए आधी सदीसे अधिक समय बीत गया है, तो भी अब तक हिन्दू विधवाओंकी विवाहसम्बन्धी अनिच्छा साधारणतः पहले के ही समान बनी हुई है उसमें परिवर्तन नहीं हुआ है । इससे तो इस Jain Education International यह जान पड़ा कि हिन्दू विधवाओंकी विवाहविषयक अनिच्छाको दूर करके उसके स्थान में इच्छा या प्रवृत्तिको जन्म देना ही समाजसुधारकोंका उद्देश्य है । परन्तु इस उद्देश्य के साधनका फल भी तो बतलाना चाहिए कि क्या होगा । इससे विधवाओंको थोड़ासा क्षणभंगुर ऐहिक सुख अवश्य प्राप्त हो सकेगा; परन्तु उसके द्वारा न तो उन्हें कोई स्थायी सुख मिलेगा और न समाजका कोई विशेष कल्याण होगा । इसके विरुद्ध, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, चिरवैधव्यसे उनको स्थायी निर्मल सुख मिलता है और समाजका बहुत कुछ कल्याण होता है। यह समझना कठिन है कि जब हम आत्मसंयम, स्वार्थत्याग, परार्थपरायणता आदि उच्च गुणांके विकाशको और और विषयोंमें मनुष्यकी *मोन्नतिका लक्षण मानते हैं, तब विधवा विवाह के विषयमें उससे उलटी प्रणालीका अवलम्बन क्यों करना चाहते हैं । अर्थात् विवाह नहीं करके यदि विधवायें आत्मसंयम करती हैं तो इसे हम मनुष्यकी क्रमोन्नतिका लक्षण क्यों नहीं मानते, बुरा क्यों समझते हैं। लोगों का शायद यह खयाल होगा कि पाश्चात्य देशों में विधवाविवाहकी प्रथा प्रचालित है और उन्हीं सब देशोंकी साम्पत्तिक उन्नति बहुत अधिक हो गई है, अतएव इस देशमें भी इस प्रथा प्रचलित होनेसे उसी प्रकारकी उन्नति हो जायगी । किन्तु इस बात में कोई तथ्य नहीं है, कोई युक्ति नहीं है । बाल्यविवाह के साथ देशकी अवनतिका कार्य-कारण-सम्बन्ध तो हो भी सकता है, किन्तु चिरवैधव्यपालनके साथ इसका क्या सम्बन्ध है, यह समझ में नहीं आता । यदि यह बात ठीक होती कि हमारे समाज में स्त्रियोंकी अपेक्षा पुरुषोंकी संख्य और विधवाविवाह प्रचलित न होगा तो बहुत से पुरुषों को अविवाहित रहना पड़ेगा और इससे For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522829
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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