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________________ ५९४ जैनहितैषी आग्रहपूर्वक करनेका कारण यह है कि मैंने जो दिगम्बर श्वेताम्बरोंके तीर्थक्षेत्रसम्बन्धी झगड़े आपसमें तय करनेका मिशन खड़ा किया हैं, उसे मैं समग्र जैनसमाज के सम्मुख रखना चाहता हूँ । इसका सबसे अच्छा मार्ग तो यह है कि किसीको भी बीच में डाले बिना वादी प्रति वादी और उनके सधमभाई स्वयं ही आपस में मिलकर प्रयत्न करें; परन्तु ऐसा होना कटिन जान पड़ता है इस लिए मेरी सूचना यह है कि देशके माननीय और कायदे कानूनों के ज्ञाता अगुओंमेंसे एक या इससे अधिक अगुए दोनों ओरसे पसन्द कर लिये जायँ और उनसे न्याय करा लिया जाय । मेरे इस आन्दोलन के प्रति श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों ही पक्षके बड़े बड़े धनवानों और उच्चणीकी शिक्षा पाये हुए विद्वानोंने सम्मतियाँ देकर, प्रसन्नता प्रकट करके और सहियाँ देकर सहानुभूति प्रकट की है जिसके लिए मैं उक्त सब सज्जनोंका आभार मानता हूँ और अन्य धनियों तथा शिक्षितों से प्रार्थना करता हूँ कि वे भी अपनी सम्मतियाँ भेजने की कृपा करें। इस प्रकार के विचारोंको फैलाने के लिए हजारों व्यक्तियोंकी सम्मतियाँ चाहिए । केवल सहियाँ लेकर बैठ रहना मुझे पसन्द नहीं है, दोनों पक्षके अगुओं तथा मुकदमों में आर्थिक सहायता देनेवाले सज्जनोंसे प्राइवेट मिलने और उनको यह बात समझानेका प्रयत्न भी जारी है । इस काम में मुझे जो सफलतायें प्राप्त हुई हैं उनकी मुझे कल्पना भी न थी; परन्तु अभी उनके प्रकाशित करने - का समय नहीं आया है । इसका परिणाम चाहे जो हो, मुझे चिन्ता नहीं है । आन्दोलन सफल हुआ तो ठीक ही है, नहीं तो निष्फल भी इतना लाभ तो हुए बिना रहेगा ही नहीं कि किसी न किसी अंशमें लोकमत तैयार होगा, Jain Education International एकताके विचार फैलेंगे और उनका अच्छा परि णाम कभी न कभी अवश्य होगा । यदि निष्फलता होगी तो इसका अर्थ यही होगा कि हमारे शिक्षित समुदायने इस आवश्यक देशहित और समाजहित के काम में अपना पूरापूरा बल नहीं लगाया, इसीसे सफलता नहीं हुई । इसमें आन्दोलन' का दोष नहीं है और ' अन्दोलन उठानेवाले' ' का भी अपराध नहीं है; परन्तु आन्दोलन' के लिए आवश्यक बल लगानेवाले दोष लोगोंकी दृष्टिके आगे आयगा और तब लोग अपने कर्तव्यपालन से विमुख रहे, यही आगे के प्रत्येक आन्दोलनमें अधिक दूरदर्शिता और अधिक एकतासे काम करनेकी रीतिको लोग सीखेंगे । 6 अन्तिम प्रार्थना | अन्य आवश्यक उपाय तो जो कुछ बन सकते हैं, किये ही जा रहे हैं, परन्तु इसके साथ लोकमत तैयार करने की भी अवश्यकता है, इस लिए प्रत्येक स्थानके अगुओं तथा शिक्षित सज्जनों मेरा प्रार्थना है कि १ आप अपनी निजकी सम्मति पत्रद्वारा मुझे लिख भेजने की कृपा करें, २ आप अपने अपने ग्राम और नगरोंमें अपने सम्प्रदायक सभायें करके उनमें यह प्रस्ताव पास करें कि ये तीर्थों के झगड़े आपस में तय किये जायँ और उस प्रस्तावकी नकल मेरे पास भेज दें, ३ जैनपत्रों तथा अन्य पत्रोंमें इस आन्दोलनको पुष्ट करनेवाले लेखादि लिखने की भी करें । कृपा समस्त जैनसंघ में सहिष्णुता, भ्रातृभाव, ऐक्यबल, ज्ञानबल और शौर्य उत्पन्न हो और इन गुणोंसे सुशोभित जैनशासन सारी दुनिय पर जयवन्त हो, यही मेरी अन्तिम इच्छा है । * यह लेख ' श्वेताम्बर जैनकान्फरेंस हेरल्ड ' से अनुवाद करके प्रकाशित किया जाता है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522829
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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