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व्यवहृत हुआ है । अस्तु ग्रंथकर्ताका इस परिवनसे कुछ ही अभिप्राय हो, परन्तु छंदकी दृष्टिसे उसका यह परिवर्तन ठीक नहीं हुआ । ऐसा करनेसे इस आर्या छंदके चौथे चरण में दो मात्रायें कम हो गई हैं- १५ के स्थानमें १३ ही मात्रायें रह गई हैं । यहाँ पाठकोंको यह जानकर आश्चर्य होगा कि वराहमिहिर आचार्यने तो अपना यह संपूर्ण शकुनसम्बंधी वर्णन अनेक वैदिक ऋषियों तथा विद्वानोंके आधारपर - अनेक ग्रंथोंका आशय लेकर - लिखा है और उसकी सूचना उक्त वर्ण के शुरू में लगा दी है । परन्तु भद्रबाहु - संहिता के कर्ता इतने कृतज्ञ थे कि उन्होंने जिस विद्वानके शब्दोंकी इतनी अधिक नकल कर डाली है उसका आभार तक नहीं माना । प्रत्युत अध्यायके शुरूमें मंगलाचरणके बाद यह लिखकर कि ' श्रेणिक के प्रश्नानुसार गौतमने शुभ अशुभ शकुनका जो कुछ कथन किया है वह ( यहाँ मेरे द्वारा ) विशेषरूपसे निरूपण किया गया है * ' इस संपूर्ण कथनको जैनका ही नहीं बल्कि जैनियोंके केवलीका बना डाला है ! पाठक सोचें और विचार करें, इसमें . कितना अधिक धोखा दिया गया है।
(घ) भद्रबाहु संहिता में, शकुनाध्यायके बाद, 'पाक' नामका ३२ वाँ अध्याय है, जिसमें १७ पद्य हैं । यह पूरा अध्याय भी बृहत्संहिता से नकल किया गया है । बृहत्संहिता में इसका नं० ९७ है और पयोंकी संख्या वही १७ दी है। इन पयोंमेंसे ८ पयोंकी नकल भद्रबाहुसंहितामें ज्योंकी त्यों पाई जाती है । बाकी पद्य कुछ परिवर्तन के साथ उठाकर रक्खे गये हैं । परिवर्तन आम तौर
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भद्रबाहु -संहिता ।
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'श्रेणिकेन यथा पृष्ठं तथा गौतमभाषितम् । शुभाशुभं च शकुनं विशेषेण निरूपितम् ॥ २ ॥
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पर शब्दोंको प्रायः आगे पीछे कर देने या किसी किसी शब्द के स्थान में उसका पर्यायवाचक शब्द रखदेने मात्र से उत्पन्न किया गया है । उदाहरण के तौर पर आदि अन्तके दो पय उन पद्योंके साथ नीचे प्रकाशित किये जाते हैं जिनसे वे कुछ परिवर्तन करके बनाये गये हैं:
पक्षाद्भानोः सोमस्य मासिकोऽङ्गारकस्य वक्रोक्तः । आदर्शनाच्च पाको बुधस्य जीवस्य वर्षेण ॥ १ ॥ ( - बृहत्संहिता । )
पाकः पक्षाद्भानोः सोमस्य च मासिकः कुजस्य वक्रोक्तः आदर्शनाच्च पाको बुधस्य सुगुरोश्च वर्षेण ॥ १ ॥ (- भद्रबाहुसंहिता । )
ऊपरके इस पद्यका भद्रबाहुसंहिता में जो परिवर्तन किया गया है उससे अर्थ में कोई भेद नहीं हुआ । हाँ इतना जरूर हुआ है कि आर्या छंदके दूसरे चरण में १८ मात्राओंके स्थान में २१ मात्रायें होगई हैं और एककी जगह दो 'पाक' शब्दोंका प्रयोग व्यर्थ हुआ है । यदि शुरूके ' पाकः ' पदको किसी तरह निकाल भी दिया जाय तो भी छंद ठीक नहीं बैठता । उस वक्त दूसरे चरण में १७ मात्रायें रह जाती हैं इसलिए ग्रंथकर्ता ने यह परिवर्तन करके कोई बुद्धिमानीका काम नहीं किया ।
२- निगदितसमये न दृश्यते चेदधिकतरं द्विगुणे प्रपच्यते तत् । यदि न कनकरत्नगोप्रदानैरुपशमितं विधिद्विजैश्च शान्त्या ॥ १७ ॥ बृहत्संहिता ॥
निगदितसमये न दृश्यते चेत् अधिक (तरं) द्विगुणे विपच्यते तत् । यदि न जिनवचो गुरूपचर्या शमितं तन्महकैश्च लोकशान्त्यै ॥ १७ ॥ भद्र० सं० ।
इस पद्यको देखनेसे मालूम होता है कि भद्रबाहुसंहितामें इसके उत्तरार्धका खास तौर से परिवर्तन किया गया है । परिवर्तन किस दृष्टिसे किया गया और उसमें किस बातकी विशेषत
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