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________________ ५२८ WImmm जैनहितैषी रक्खी गई है, इस बातको जाननेके लिए सबसे अर्थात्-जो कोई भी उत्पात या दूसरा कोई पहले बृहत्संहिताके इस पद्यका आशय मालूम विघ्न हो उसमें ब्राह्मण देवताओंको दक्षिणा देना होना जरूरी है और वह इस प्रकार है:- चाहिए-सोना, गौ और भूमि देना चाहिए। ऐसा 'ग्रहों तथा उत्पातों आदिके फल पकनेका करनेसे उत्पातादिककी शांति होती है। जो समय ऊपर वर्णन किया गया है उस समय इस गाथाको पढ़कर शायद कुछ पाठक यह पर यदि फल दिखाई न दे तो उससे दने कह उठे कि 'यह कथन जैनधर्मके विरुद्ध समयमें वह अधिकताके साथ प्राप्त होता है। है ।' परन्तु विरुद्ध हो या अविरुद्ध, यहाँ उसके परन्तु शर्त यह है कि, वह फल सुवर्ण, रत्न दिखलानेका आभिप्राय या उसपर विचार करने और गोदानादिक शांतिसे विधिपूर्वक ब्राह्मणोंके का अवसर नहीं है-विरुद्ध कथनोंका अच्छा द्वारा उपशमित न हुआ हो । अर्थात् यदि वह दिद्गदर्शन पाठकोंको अगले लेखमें कराया फल इस प्रकारसे उपशांत न हुआ हो तब ही जायगा-यहाँ सिर्फ यह दिखलानेकी गरज है दूने समयमें उसका अधिक पाक होगा, अन्यथा कि कि ग्रंथकाने एक जगह उक्त परिवर्तनके द्वार। नहीं । स्मरण रहे, भद्रबाहुसंहितामें इस पद्यका यह पूरा यह सूचित किया है कि सोना तथा गौ आदिकजो कुछ परिवर्तन किया गया है वह सिर्फ इस के दानसे ब्राह्मणोंके द्वारा शांति * नहीं होती पद्यकी उक्त शर्तका ही परिवर्तन है । इस शर्तके और दूसरी जगह खुले शब्दोंमें उसका विधान स्थानमें जो शर्त रखी गई है वह इस प्रकार है:- किया है । ऐसी हालतमें समझमें नहीं आता कि - ग्रंथकर्ताके इस कृत्यको उन्मत्तचेष्टाके सिवाय परन्त शर्त यह है कि वह फल लोक- और क्या कहा जाय ! यहाँ पर यह भी प्रगट शांति के लिए महत्पुरुषों द्वारा की हुई जिनवचन कर देना जरूरी है कि ग्रंथकर्ताने, अपने इस और गुरुकी सेवासे शांत न हुआ हो।' कृत्यसे छंदमें भी कुछ गड़बड़ी पैदा की है। ____ इस शर्तके द्वारा इस पद्यको जैनका लिबास बृहत्संहिताका उक्त पय 'पुष्पिताग्रा' नामक पहनाकर उसे जैनी बनाया गया है। साथ ही, छन्दमें+ है । उसके लक्षणानुसार चतुर्थ ग्रंथकाने अपने इस कत्यसे यह सचित किया पाटमें भी गणोंका विन्यास उसी प्रकार होना है कि शांति सुवर्ण, रत्न, और गौआदिके दानसे चाहिए था जिस प्रकार कि वह द्वितीय चरणमें नहीं होती बल्कि जिनवचन और गरुकी सेवासे पाया जाता है । परन्तु भद्रबाहसंहितामें ऐसा होती है। परन्तु तीसरे खंडके 'ऋषिपुत्रिका' नहीं है । उसके चौथे चरणका गणविन्यास नामक चौथे, अध्यायमें प्रतिमादिकके उत्पातकी दूसरे चरणसे बिलकुल भिन्न हो गया है। जिसके पाकका इस पाकाध्यायमें भी वर्णन है, (0) भद्रबाहुसंहितामें 'वास्तु ' नामका शांतिका विधान करते हुए लिखा है कि:- - जं किचिवि उप्पादं अण्णं विग्धं च तत्थ णासेड। * ब्राह्मणोंके उत्कर्षकी बातको दो एक जगह और दक्खिणदेजसुवणं गावी भूमी उ विप्पदेवाणं ११२ * भी बदला है जिसका ऊपर उद्धृत किये हुए (ख) और (ग) भागके पद्योंमें उल्लेख आचुका है। * इसकी संस्कृतछाया इस प्रकार है:- +इस छंदके विषम (१-३) चरणों में क्रमशः यत्किंचिदपि उत्पातं अन्यद्विघ्नं च तत्र नाशयति । नगण नगण रगण यगण और सम (२-४) चरदक्षिणा दद्यात् सुवर्ण गौः भूमिश्च विप्रदेवेभ्यः ॥ णोंमें नगण जगण जगण रगण और एक गुरु होते हैं। Jain Education International www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.522829
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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