________________
विधवाविवाह-विचार।
६०५
की निन्दा करना भी उचित नहीं है। क्योंकि नहीं हुआ । तब इस समय पाश्चात्य देशोंकी मनुष्य अवस्थाके अधीन है, उसके दोष गुण स्त्रियाँ अपनी स्वाधीनता स्थापित करनेके लिए संसर्गसे उत्पन्न होते हैं । पितामाताके द्वारा जिस जिस प्रकार दृढव्रता और कटिबद्धा हुई हैं, उससे प्रकारके मन और शरीरकी प्राप्ति उसे होती है, जान पड़ता है कि धीरे धीरे, विधवा क्यों कुमारियाँ
और शिक्षा दृष्टान्त और आहार व्यवहारके द्वारा भी, विवाहबन्धनमें बँधनेके लिए अनिच्छुक होंगी उसका वह मन और शरीर जिस प्रकारसे गठित और यदि ऐसा हुआ तो शायद उनके उस दृढहोता है, उसीके ऊपर उसका कार्य अकार्य अवल- व्रतका यह भी एक फल हो कि पाश्चात्य देशोंमें म्बित रहता है । अतएव यदि कोई चिरवैधव्य भी पवित्र चिरवैधव्यका उच्चादर्श स्थापित हो पालन करनेके लिए असमर्थ होती है तो उसकी जाय। किन्तु ये सब बहुत दूरकी बातें हैं। उस असमर्थताका दायित्व (जिम्मेवारी ) केवल इस समय समीपकी बात यह है कि हिन्दूसमा- . उसी पर नहीं है; वह दायित्व उसके माता पिता जमें जो चिरवैधव्यकी प्रथा प्रचलित है उसे पर, शिक्षादाता पर और समाज पर भी जाता है। उठा देना उचित है या नहीं ? अतः यदि वह चाहे तो अवश्य ही विवाह कर इस प्रथाके विरुद्धमें जो सब बातें कही जाती सकती है। इसमें किसीको भी बाधा डालनेका हैं उनमेंसे पहली यह है कि इस प्रथाका फल स्त्री अधिकार नहीं है और वह विवाह, हिन्दूशास्त्र और पुरुषोंके लिए बहुत ही असमान है। इस चाहे जो कहें, सन् १८५६ के १५ वें आईनके बातका उल्लेख और कुछ आलोचना पहले हो चुका अनुसार जायज है । अतएव आवश्यकता है। पुरुष स्त्रीवियोगके बाद फिर विवाह कर लेते हैं; होने पर-प्रयोजन होनेपर-विधवाविवाह होना इसी लिए स्त्रियोंको भी पतिवियोगके बाद फिर उचित है या नहीं, यह प्रश्न, अन्य समाजोंकी तो दूसरा पति ग्रहण करलेना चाहिए, यह बड़ी ही बात ही क्या, हिन्दूसमाजमें भी अब उठ नहीं असंगत प्रतिहिंसा (बदला ) है। प्रकृति के नियमानुसकता । इस समय प्रश्न यह है कि विधवा- सार पुरुष और स्त्रीके आधिकारमें सदा ही विषमता विवाहका प्रचलित प्रथा हो जाना और चिर रहेगी । यह आनिवार्य है । प्रकृतिने स्वयं वैधव्यपालनको उच्चादर्श होनेपर भी उक्त ही सन्तानोत्पादन और सन्तानपालनका भार प्रथाका व्यतिक्रम ( अपवाद) बनाकर रखना पुरुषकी अपेक्षा स्त्री पर अधिक डाला है । भ्रूण उचित है, अथवा चिर वैधव्यपालनका ही प्रच- (बालक) का निवास माताके गर्भमें और लित प्रथा होना और विधवाविवाहका उसके शिशका आहार माताके वक्षमें रक्खा गया है। व्यतिक्रम स्वरूपमें रहना उचित है ? बस इसी यदि स्त्री गर्भवती है या उसका बच्चा शिशु है, प्रश्न पर यहाँ विचार होना है।
तो ऐसी अवस्थामें उसे पतिवियोग होने पर दूसरे "इस समय जिन सब देशोंमें विधवाविवाहकी पतिको ग्रहण करनेमें अवश्य ही विलम्ब करना प्रथा प्रचलित है यह संभव नहीं कि वहाँसे वह पड़ेगा। इसके बाद इन सब शारीरिक बातोंको कभी उठ जायगी । सुप्रसिद्ध पाश्चात्य पण्डित छोड़कर यदि हम मन और आत्माकी ओर कोमटी बहुत दिन पहले चिर वैधव्यका श्रेष्ठत्व ध्यान देंगे तो मालूम होगा कि स्त्री पुरुषों में प्रतिपादन कर गये हैं; परन्तु हम देखते हैं कि अधिकारकी विषमता अवश्य ही रहेगी और यह उनके कथनसे पाश्चात्य प्रथामें कोई परिवर्तन बात हम पुरुषोंका पक्ष लेकर नहीं किन्तु
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org