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________________ ५४६ जैनहितैषी - हैं, गोम्मटसार आदिकी गंभीर चर्चा करनेवाले सैकड़ों ऐसे भाई हैं, जो संस्कृतका अक्षर भी नहीं जानते हैं। गाँव गाँवमें शास्त्रसभायें होती हैं और लोग भाषा ग्रन्थोंका स्वाध्याय करते हुए नजर आते हैं । २ हिन्दीके जैनग्रन्थोंका प्रचार केवल हिन्दीभाषाभाषी प्रान्तोंमें ही नहीं है; गुजरात और दक्षि में भी है । दक्षिण और गुजरातके जैनोंके द्वारा हिन्दी के कई बड़े बड़े ग्रन्थ छपकर भी प्रकाशित हु हैं। सुदूर कर्नाटक तकमें - जहाँ हिन्दी बहुत कम समझी जाती है - बहुतसे हिन्दी ग्रन्थ जाते हैं और पढ़े जाते हैं । एक तरहसे हिन्दी दिग म्बर सम्प्रदायकी सर्वसामान्य भाषा बन गई है । आपको यह सुनकर आश्चर्य होगा कि 'जैन मित्र' आदि हिन्दी पत्रोंके एक चौथाईसे भी अधिक ग्राहक गुजरात और दक्षिण में हैं। इस तरह दिगम्बर सम्प्रदाय के हिन्दी साहित्यके द्वारा हिन्दी भाषाका दूसरे प्रान्तोंमें भी प्रचार हो रहा है। ३ जैनधर्मका एक सम्प्रदाय और है जिसे 'स्थानकवासी' या 'ढूँढ़िया' कहते हैं । हम समझते थे कि इस सम्प्रदायका भी हिन्दी साहित्य होगा । क्योंकि इस सम्प्रदायके अनुयायी ४-५ लाख समझे जाते हैं और वे राजपूताना तथा पंजाब में अधिक हैं, परन्तु तलाश करनेसे मालूम हुआ कि इस सम्प्रदायमें हिन्दीके ग्रन्थ प्रायः नहीं बराबर हैं । स्थानकवासी सम्प्रदायके साधु श्रीयुत आत्मारामजी उपाध्यायसे इस विषमें पूछताछ की गई तो मालूम हुआ कि स्थानकवासियोंमें पं० हरजसरायजी आदि दो तीन ही कवि हुए हैं जिनके चार पाँच ग्रन्थ मिलते हैं और थोड़ी बहुत पुस्तकें अभी अभी लिखी गई हैं। इस सम्प्रदाय पर भी गुजराती भाषाका आधिपत्य हो रहा है। संभव है Jain Education International कि खोज करने से इस सम्प्रदाय के भी दश पाँच हिन्दी ग्रन्थ और मिल जावें । ४ श्वेताम्बरी और दिगम्बरी साहित्य में एक उल्लेख योग्य बात यह नजर आती है कि सारे श्वेताम्बर साहित्य में दो चार ही ग्रन्थ ऐसे होंगे जिनके कर्ता गृहस्थ या श्रावक हों, इसके विरुद्ध दिगम्बर साहित्यमें दश पाँच ही हिन्दी ग्रन्थ ऐसे मिलते हैं जिनके कर्त्ता भट्टारक या साधु हों । प्रायः सारा ही दिगम्बर साहित्य गृहस्थों या श्रावकोंका रचा हुआ है । दिगम्बर सम्प्रदाय में साधु- संघका अभाव कोई ४००-५०० वर्षोंसे हो रहा है । यदि इस सम्प्रदाय के अनुयायी श्वेताम्बरोंके समान केवल साधुओंका ही मुँह ताकते रहते, तो आज इस सम्प्रदायकी दुर्गति हो जाती । इस सम्प्रदाय के गृहस्थोंने ही गुरुओं का भार अपने कन्धोंपर ले लिया और अपने धर्मको बचा लिया । इन्होंने गत दो सौ तीन सौ वर्षोंमें हिन्दी साहित्यको अपनी रचनाओंसे भर दिया । ५ इन दोनों सम्प्रदायों के साहित्यमें एक भेद और भी है। श्वेताम्बर साहित्य में अनुवादित ग्रन्थ बहुत ही कम हैं, प्रायः स्वतंत्र ही अधिक हैं, और दिगम्बर साहित्यमें स्वतंत्र ग्रन्थ बहुत कम हैं, अनुवादित ही अधिक हैं । इसका कारण यह मालूम होता है कि परम्परागत संस्कार के अनुसार गृहस्थ या श्रावक अपनेको ग्रन्थरचनाका अनाधिकारी समझता है । उसे भय रहता है कि कहीं मुझसे कुछ अन्यथा न कहा जाय । इस लिए दिगम्बर साहित्य की रचना करनेवाले गृहस्थ लेखक और कवियोंको स्वतंत्र ग्रन्थ रचने का साहस बहुत ही कम हुआ है - सबने पूर्वरचित संस्कृत ग्रन्थोंके ही अनुवाद किये हैं । कई अनुवादक इतने अच्छे विद्वान हुए हैं कि यदि वे चाहते, तो उनके लिए दो दो चार चार स्वतंत्र ग्रन्थोंकी रचना करना कोई बड़ी बात नहीं थी । पर For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522829
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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