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जैनहितैषी ।
इस अभिनव उपायके निकालनेके कारण हम पं० उमराव सिंहजी के कौशलकी तारीफ किये बिना नहीं रह सकते । अन्यान्य संस्थाओंके एकहत्थी शासकों को भी इस युक्तिसे काम लेना चाहिए । ज्यों ही कोई स्वतंत्र खयालोंका आदमी दिखलाई दिया और उसने कोई बात अपनी सत्तामें हानि पहुँचानेवाली कही - और ऐसे लोग अक्सर कहते ही हैं तो उसके ललाटपर चटसे 'विधवाविवाह के पक्ष का तिलक लगा दिया ! बस काम बन गया । ' न रहेगा बाँस और न बजेगी बाँसुरी ।' बाबू लोगोंको भी अब इस नये यंत्रके आविष्कारकी खबर सुनकर चेत जाना चाहिए और अपने बोरिया बँधना सँभाल लेना चाहिए |
४ संस्कृतके विद्यार्थी ।
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संस्कृतके पढ़नेवाले जैनविद्यार्थी कितने उद्धत हो जाते हैं, और वे आगे समाजका क्या उपकार करेंगे, इस विषयमें सेठीजीने जो वाक्य लिखे हैं उनपर पाठकोंको खास तौर से ध्यान देना चाहिए। संस्कृतके विद्यार्थियोंसे - जो निकटके भविष्यमें पण्डित बननेवाले हैं - जैनसमाजको बहुत बड़ी आशा है । इस समय जैनसमाज विद्याकी उन्नति के लिए जितना धन खर्च करता है उसका अधिकांश संस्कृतके लिए ही लगता है । समाजने सबसे अधिक आवश्यकता इसीकी समझी है । यदि इसीके विद्वानोंसे हमें इतना अधिक निराश होना पड़ा तो बड़े ही दुःखकी बात होगी । हमें इन्हें विनयवान्, सहनशील, निराभिमानी और सदाचारी बनानेकी ओर सबसे अधिक ध्यान देना चाहिए। ये हमारे धर्मोपदेशक बननेवाले हैं | यदि इन्हींका चरित्र अच्छा नहीं हुआ तो फिर हम अपनी भलाई की और क्या आशा रख सकते हैं ?
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संस्कृत के विद्यार्थियों से अभी तक हमें जो कुछ परिचय रहा है, उससे हमें विश्वास हो गया है कि वे अच्छेसे अच्छे सदाचारी विनयशील और स्वार्थत्यागी बन सकते हैं; परन्तु प्रबन्धकर्त्ताओंका इस ओर जरा भी ध्यान नहीं रहता है । उनकी प्रबन्धप्रणाली ही ऐसी है कि वे अतिशय उच्छृंखल स्वार्थी और अभिमानी बन जाते हैं । प्रबन्धकर्ता उन्हें मनाकर खुशामद करके रखते हैं तब वे रहते हैं, नहीं तो अन्यत्र चले जाते हैं और वहाँ भी मजेसे छात्रवृत्ति प्राप्त कर लेते हैं। जितनी संस्थायें हैं, उनमें प्राय: परस्पर स्पर्धा रहती है, इस लिए एक संस्थाका अपराधी विद्यार्थी दूसरी संस्थामें मजेसे आदरपूर्वक ले लिया जाता है । अभिमानकी तो कुछ पूछिए ही नहीं, कोई छोटा मोटा व्याकरण या एकाध काव्य पढ़ पाया कि संस्कृतके छात्रोंका मस्तक आसमान पर पहुँच जाता है और उनकी इस अभिमानवृत्तिको उलटा उत्तेजन मिलता है, उसे दबाने की कोशिश नहीं की जाती । यदि संस्थाका प्रबन्ध किसी संस्कृत न जाननेवाले के हाथ में रहता है, तो छात्र उससे जरा भी नहीं दुबना चाहते। उन्हें पक्का विश्वास रहता है कि अँगरेजी आदिके विद्वान् विद्वान् ही नहीं हो सकते और उन्हें हम पर शासन करनेका कोई अधिकार ही नहीं है । हमने बहुत कम छात्र ऐसे देखे हैं जो छात्रवृत्ति देनेवाली संस्थाओंके या दाताओं के प्रति अपने हृदय में कृतज्ञताका भाव रखते हैं, या उस वृत्तिके बोझेसे अपने को कुछ दबा हुआ समझते हैं । उनकी समझमें दाताओंका कर्तव्य है कि वे उन्हें वृत्ति देवें, पर स्वयं उनका यह कर्तव्य नहीं कि अपनेको उस वृत्तिके बोझेसे हलके होनेकी भावना भी रक्खें । वे तो अपनी समझमें संस्थाओं पर एक प्रकारकी कृपा करते
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