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________________ ५६६ भलउ हुअउ जइ नीसरी, अंगुलि सप्पिं-मुहाहु | ओछे सेती प्रीतड़ी, जदि तु तदि लाहु ॥ ९१ ॥ सिन्धुल लौटकर जब राजा-मुंजके समीप आया, तब मुंज कपटकी हँसी हँसकर उसके गलेसे लिपट गया । इसको लक्ष्य करके कवि कहता है: - धूरत राजा मुंज पणि मिल्लउ उठि गलि लागि । को जाणइ घन दामिनी, जल महिं आई आणि ॥ १२० ॥ घणु वरसइ सीयल सलिल, सोई मिलि हइ विज्जु । रुहँ तूसइँ जीवयइ, रूठइँ विणसर कज्ज ॥ १२१ ॥ तैलिपदेवकी लड़ाई में हार कर राजा मुंज भागा और एक गाँव में आया, उस समयका कविने बड़ा ही सजीव वर्णन किया है: -- वनतें वन छिपत फिरउ, गव्हर वनहँ निकुंज । भूखउ भोजन माँगिवा, गोवलि आयउ मुंज ॥ २४७ ॥ गोकुल काई ग्वारिनी, ऊँची बइठी खाटि । जैनहितैषी सात पुत्र सातइ बहू, दही बिलोवहिं माँटि ॥ ४८ ॥ काहिं दूध कहुं केइ मिलि, माखणु काहिं केइ । as पधारहि घीउ तह, जिसु भावइतिसु देइ ॥ ४९ ॥ गाइ वाछरू कट्टरू, महिषी अंगण देखि । खाज पीजइ विलसियइ, गरव करइ सुविसेखि ॥ ५० ॥ १ सर्पके मुँह से । २ है । ३ मिट्टी के वर्तनमें । Jain Education International जिस समय मृणालवती के विश्वासघात करने से फिर मुंज पकड़ा गया और बड़ी दुर्दशा के साथ नगर में घुमाया गया, उस समय मुंजके मुँह से कविने कई बड़े मार्मिक दोहे कहलवाये हैं:खंडित घृतबिंदू मिसेंइँ, रे मडका मत रोइ । नारी कउण न खंडिया, मुंज इलापति जोइ ॥ ७ ॥ मिसिन अन्न तूं वाफ के, अर्गानि आंचि मत रोइ । अगिनि विना हेउँ दासियइँ, भसम कियउ किन जोइ ॥ ११ ॥ सालि मुसलि तूं ताडियउ, तुस कपडा लिय छीनि । दासि कटाच्छहिं मारियउ, कीय हउँ सवहीन ॥ १२ ॥ इस ग्रन्थकी यह बात नोट करने लायक हैं। कि इसमें हिन्दीके दोहोंको ' प्राकृतभाषा दोहा ' लिखा है । मालूम होता है उस समय हिन्दी उसी तरह प्राकृत कहलाती होगी जिस तरह बम्बईकी ओर इस समय मराठी प्राकृत कहलाती है । 7 इस ग्रन्थ में बहुतसे इलोक ' उक्तं च ' कहकर लिखे गये हैं, जिनमें बहुतों की भाषा अपभ्रंशसे बहुत कुछ मिलती हुई है । यथा: दुज्जण जण बंबूलवण, जर सिंचइ अमिरण । तो सु कांटा बींधणा, जातडि तणइ गुणेण ॥ इसमें बहुतसे पदों की ढालें लिखी हुई हैं, जैसे ' मृगांकलेखा चउप ढाल' । दोनों बातोंसे यह अनुमान होता है कि इस ग्रन्थसे पहले पुरानी हिन्दी के अनेक ग्रन्थ रहे होंगे जिनसे उक्त ' उक्तं च ' लिये गये हैं और १ मिषसे । २ मटका - मिट्टीका वर्तन । ३ मुझे । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522829
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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