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________________ हिन्दी - जैन साहित्यका इतिहास । 1 ४ उवएसमाला कहाणय छप्पय । यह भी उपर्युक्त विनयचन्द्रसूरिहीकी रचना धर्मदासगणकी बनाई हुई प्राकृत उपदेशमाला के अनुवाद रूपमें ये छप्पय बनाये गये हैं । इसमें - सब मिलाकर ८१ छप्पय हैं । छप्पय छन्दोंकी तरफ विचार किया जाय तो वे प्रायः हिन्दी के ग्रंथोंहीमें अधिक देखे जाते हैं - गुजराती में बहुत कम | चंद्रका 'पृथ्वीराजरासो' प्रायः इन्हीं छप्पय छन्दोंमें बना हुआ है | अतः इस ग्रंथको हिन्दीग्रंथ कहने में कोई प्रत्यवाय नहीं है । भाषा भी चंदके रासोसे बिल्कुल मिलती जुलती है। इसके आदि - अंत छप्पय इस प्रकार हैं:विजयन रिंद जिणिंदेवीरहथि हिं-वय-लेविणु । धम्मदास गणि नामि गामि नयरिहिं विहरइ पुणु । नियपुत्तेह रणसी हरायपडिबोहण सारिहिं । करइ एस उवएसमाल जिणवयणवियारिहिं । सय पंच च्याल गाहा रमणमणिकरंड महियलि मुणउ । सुभावि सुद्ध सिद्धंत सम, सवि साहू सावयं सुणउ ॥ १ ॥ अंत: इणि परि सिरि उवएर्स माल (सु रसाल ) कहाणय । तव - संजम संतास विषयविज्जाइ पहाण्य | सार्वय संभरणत्थ अत्यंपय छप्पय छंादाह । ) १ जिनेन्द्रवीरके हाथसे जिन्होंने व्रत (दीक्षाव्रत लिया था, वे धर्मदास गणि । २ निजपुत्र रणसिंहरा के प्रतिबोधनार्थ । ३ उपदेशमाला । ४ गाथारूप रत्नोंका मणिकरण्s या पिटारा । ५ श्रावक । ६ उपदेशमा ला-कथानक । ७ तप संयम संतोष विनय- वि. या प्रधान 1 ८ श्रावकवणार्थ । ९ अर्थपद । Jain Education International रयणसिंह सूरीस सीस पण आणदिहिं । अरिहंत आण अणुदिण उदय, धम्ममूल मत्थइ हउं । भो भविय भत्तिसत्तिर्हि सहल सयल-लच्छिलीला लहउ ॥ १ ॥ चौदहवीं शताब्दी | ५५५ १ सप्तक्षेत्रिरास | कर्ताका नाम अभी तक स्पष्ट ज्ञात नहीं हुआ; पर रचना - काल संवत् १३२७ है । इसमें जिनमंदिर, जिनप्रतिमा, ज्ञान, साधु, साध्वी, श्रावक और श्रविकारूप (श्वेताम्बर संप्रदाय में माने हुए) सात पुण्यक्षेत्रोंकी उपासनाका वर्णन है । यद्यपि इसमें कितने ही शब्दप्रयोग गुजरातीकी ओर झुकते हुए दिखाई देते हैं पर हिन्दी के साथ सादृश्य रखनेवाले शब्दों की प्रधानता अवश्य है । नमूने के लिए कुछ अंतके पद्य देखिए: सातै क्षेत्र इम बोलिया पुण एक कहीसिह ! कर जोडी श्रीसंघपासि अविणउ मागीसइ । कांई उ ऊणं आगउं बोलिउ उत्सूत्रु | ते बोल्या मिच्छादुक्कय श्रीसंघवदीतुं ॥ १९६ ॥ मूर (ख) तोइए कुण मात्र पुर्ण सुगुरुपसाओ । १ प्रभणति - कहते हैं । २ आज्ञा । ३ भक्तिश-क्तिसे । ४ सकललक्ष्मीलीला अर्थात् केवलज्ञान । ५ सात क्षेत्र इस प्रकार कह कर मैं फिर एक बात कहूँगा - हाथ जोड़कर श्रीसंघ के पास अविनय माँगूगा अर्थात् क्षमा माँगूगा कि यदि कुछ 'ऊ' न्यून 'आगउं' अधिक या 'उत्सूत्र' शास्त्रविरुद्ध कहा गया है तो श्रीसंघ में प्रसिद्ध 'मिथ्या दुष्कृत हो । ६ मैं मूर्ख हूँ इस लिए मैं कौन मात्र हूँ - क्या... चीज हूँ; परन्तु सुगुके प्रसे और त्रिभुवनस्वामी जगन्नाथ हृदय में बसते हैं इससे यह 'रास' बना सका हूँ । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522829
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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