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________________ ५५४ है । इसकी भाषा को भी दलाल महाशय प्राचीन गुजराती बतलाते हैं। प्रारंभ के कुछ दोहे देखिए । परमेसर तित्थेसरह पये पंकज पणमेव । भणिसु रासु रेवंतगिरिअंबिकैदिवि सुमरेवि ॥ १ ॥ गामागर-पुर-वण-गहण सरि-सरवरि-सुपरसु । देवभूमि दिसि पच्छिमह मणहरु सोरठ देसु ॥ २ ॥ जिणु तहिं मंडल - मंडणउ मरगय-मउड-महंतु | निम्मल-सामंल-सिहर भर, रेहें गिरि रेवंतु ॥ ३॥ तसु सिरि सामिंड सामेलउ सोहंग सुंदर सारु । . इव निम्मल-कुल- तिलैउ निवसई नेमिकुमारु ॥ ४ ॥ तसु मुहणु दस दिसवि देस दिसंतरु संघ | आवइ भाव रसालमण उहलि ( ? ) रंग तरंग ॥ ५ ॥ पोरवाडकुल मंडणउ जैनहितैषी । नंदणु आसाराय ! वस्तुपाल वर मंति" तहि तेजपालु दुइ भाइ ॥ ६ ॥ गुर्जर ( वर ) धर धुरि धवल वीर धवल देवराज । बिर्ड बँधेवि अवरियउ समऊ दूäम माझि ॥ ७ ॥ हमारी समझमें यह प्राचीन हिन्दी कही जा सकती है। १ तीर्थेश्वरके । २ पदपंकज । ३ प्रणम्य-प्रणाम करके । ४ गिरनारपर्वतकी अम्बिका देवी । ५ स्मृत्वा - स्मरण करके । ६ सुप्रदेश । ७ मनोहर । ८ मरकत मणिके मुकुटसे शोभित। ९ श्यामल । १० शिखर । ११ राजे । १२ स्वामी । १३ श्यामल । १४ शोभक - शोभायुक्त १५ तिलक । १६ मुखदर्शन । १७ मंत्री । १८ दोनों । १९ बन्धु । २० अवतरित किया । २१ सुसमय । २२ दुःषमकालमें । । Jain Education International ३ नेमिनाथ चउपई । पाटणके भण्डारों में एक 'नेमिनाथ चतुष्पादिका' नामका ४० पयोंका ग्रन्थ है। इसके कर्ता रत्नसिंह के शिष्य विनय - चन्द्र सूरि हैं । इनका समय विक्रमकी १३ वीं शताब्दीका अन्तिम भाग है । मल्लिनाथ महाकाव्य, पार्श्वनाथचरित, कल्पनिरुक्त आदि अनेक संस्कृत - प्राकृत ग्रन्थ इनके बनाये हुए उपलब्ध हैं । इस चपईकी मूल प्रति भी सं० १३५५५८ की लिखी हुई है । अतः यह तेरहवीं शतादकि अंतकी रचना है । इसके प्रारंभकी पाँच चौपाइयाँ इस प्रकार हैं:सोहंग सुंदरु घण लायन्नु सुमरवि सामि सॉमलवन्तु । सखि पति राजल चडि उत्तरिय, - बार माल सुणि जिम वज्जरिय ॥ १ ॥ नेमि कुमर सुमरवि गिरनारि, सिद्धी राजल कन्न कुमारि । श्रावणि सरवाण कडुए मेहु, गज्जइ विरहि रिझिज्जहु देहु || विज्जुं झक्क रक्खसे जेव, मिहि विणु सहि सहियइ केव ॥ २ ॥ सखी भणइ सामिणि मन झूरि, दुज्जण तणा मनवंछित पूरि । गयेउ नेमि तउ विनठउ काइ, अछइ अनेरा वरह सयाइ ॥ ३ ॥ बोलइ राजल तउ इंह वयणु, नत्थ नेमि वर सन वर-रेंयणु ॥ धरइ तेजु गहण सवि ताउ, गयाणि न उग्गइ दिर्णेयर जावें ॥ ४ ॥ भादवि भरिया सर पिक्खेवि, सकरुण रोवइ राजल देवि । हा एकलैंडी मइ निरधार, किम उवेषिसि करुणासार ॥ ५ ॥ ५ १ सुभग । २ लावण्य । ३श्यामल वर्ण । ४ मेघा विजली । ६ राक्षसीके समान । ७ सखि । ८ है स्वामिनि । ९ यदि नेमि चला गया तो क्या विनष्ट बिगड़ ) गया, . और बहुतसे वर हैं । यह इस चरणका अभिप्राय है । १० वररत्न । ११ ग्रहगण - नक्षत्र । १२ तब तक । १३ गगन या आकाशमें । १४ दिनकर-सूर्य । १५ यावत् जब तक । १६ भादोंमें। १७ अकेली । ( 1 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522829
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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