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________________ ५४२ mmmmmm जैनहितैषी उसे लोगोंने अभीतक गुजराती ही समझ रक्खा ग्रन्थ 'राजस्थान' लिखनेमें जिनसे बड़ी भारी था;पर अब सुपण्डित मुनि जिनविजयजीने उसको सहायता मिली थी, वे ज्ञानचन्द्रजी यति एक अच्छी तरह पढ़ करके मुझको लिखा है कि वह जैन साधु ही थे । कविवर बनारसीदासजीका निस्सन्देह हिन्दी ग्रन्थ है। गरज यह कि हिन्दी आत्मचरित अपने समयकी अनेक ऐतिहासिक और गुजराती एक ही प्राकृतसे अपभ्रंश होकर बातोंसे भरा हुआ है । मुसलमानी राज्यकी अंधाबनी हैं; इस कारण उनके प्रारंभके-एक दो धुंधीका उसमें जीता जागता चित्र है । इस तरह शताब्दियोंके-रूप मिलते-जुलते हुए हैं । हिन्दी इतिहासकी दृष्टिसे भी हिन्दीका जैनसाहित्य महभाषाका इतिहास विना इन मिलते-जुलते त्वकी वस्तु है। रूपोंका अध्ययन किये नहीं लिखा जा सकता, अभी तक हिन्दी साहित्यकी जो खोज इस कारण इसके लिए हिन्दीका जैनसाहित्य हुई है उसमें पद्यग्रन्थोंकी ही प्रधानता है । गद्य खास तौरसे पढ़ा जाना चाहिए । इस कार्यमें ग्रन्थ बहुत ही थोड़े हैं। परन्तु जैनसाहित्यमें यह बहुत उपयोगी सिद्ध होगा। गद्य ग्रन्थ भी बहुतसे उपलब्ध हैं । आगे ग्रन्थ३ जिस तरह संस्कृत और प्राकृतके जैन- कर्ताओंकी सूचीसे मालूम होगा कि उन्नीसवीं साहित्यने भारतके इतिहासकी रचनामें बहुत शताब्दीके बने हुए पचासों गद्यग्रन्थ जैनसाहिबड़ी सहायता दी है, उसी तरह हिन्दीका त्यमें हैं । अठारहवीं शताब्दीके भी पाँच सात जैनसाहित्य भी अपने समयके इतिहास पर गद्यग्रन्थ हैं । सत्रहवीं शताब्दीमें पं० बहुत कुछ प्रकाश डालेगा । जैन विद्वानोंका हेमराजजीने पंचास्तिकाय और प्रवचनसारकी इतिहासकी ओर सदासे ही आधिक ध्यान रहा वचनिकायें लिखी हैं । समयसारकी पांडे है। प्रत्येक जैन लेखक अपनी रचनाके अन्तमें रायमल्लजीकृत बालावबोधटीका इनसे भी अपने समयके राजाओंका तथा गुरुपरम्पराका पहलेकी बनी हुई है। आश्चर्य नहीं जो वह कछ न कुछ उल्लेख अवश्य करता है। यहाँ तक सोलहवीं शताब्दी या उससे भी पहलेकी गद्यकि जिन लोगोंने ग्रन्थोंकी नकलें कराई हैं, और रचना हो। पर्वत धर्मार्थीकी बनाई हुई 'समाधिदान किया है उनका भी कुछ न कुछ इतिहास तंत्र' नामक ग्रन्थकी एक वचनिका है जो उन ग्रन्थोंके अन्तमें लिखा रहता है। जैन लेख- सोलहवीं शताब्दीके बादकी नहीं मालूम होती। कोंमें विशेष करके श्वेताम्बरोंमें पौराणिक चरि- गरज यह कि जैनसाहित्यमें गद्यग्रन्थ बहुत त्रोंके सिवाय ऐतिहासिक पुरुषोंके चरित्र लिख- हैं, इसलिए गद्यकी भाषाका विकासक्रम समझनेकी भी पद्धति रही है । खोज करनेसे भोज- नेके लिए भी यह साहित्य बहुत उपयोगी है। प्रबन्ध, कुमारपाल-चरित्र, आदिके समान और भी २ जैनसाहित्यके अप्रकट अनेक ग्रन्थोंके मिलनेकी संभावना है। मूता नेणसीकी ख्यात' जैसे ऐतिहासिक ग्रन्थ भी जैनोंके रहनेके कारण । द्वारा लिखे गये हैं जो बहुतसी बातोंमें अपनी १ ज्यों ही देशमें छापका प्रचार हुआ, त्यों सानी नहीं रखते । श्वेताम्बर यतियोंके पुस्तका. ही जैनसमाजको भय हुआ कि कहीं हमारे लयोंमें इतिहासकी बहुत सामग्री है और वह ग्रन्थ भी न छपने लगें । लोग सावधान हो गये हिन्दी या मारवाड़ीमें ही है। कर्नल टाडको अपना और जीजानसे इस बातकी कोशिश करने लगे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522829
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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